देस बिराना
किस्त तीन
आंगन में चारपाई पर लेटे लेटे गुड्डी से बातें करते-करते पता नहीं कब आंख लग गयी होगी। अचानक शोर-शराबे से आंख खुली तो देखा, दारजी मेरे सिरहाने बैठे हैं। पहले की तुलना में बेहद कमज़ोर और टूटे हुए आदमी लगे वे मुझे। मैं तुरंत उठ कर उनके पैरों पर गिर गया हूं। मैं एक बार फिर रो रहा हूं। मैं देख रहा हूं, दारजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपनी आंखें पोंछ रहे हैं। उन्हें शायद बेबे ने मेरी राम कहानी सुना दी होगी इसलिए उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा। सिर्फ एक ही वाक्य कहा है - तेरे हिस्से विच घरों बार जा के ई आदमी बनण लिखेया सी। शायद रब्ब नूं ऐही मंज़ूर सी।
मैंने सिर झुका लिया है। क्या कहूं। बेबे मुझे अभी बता ही चुकी है घर से मेरे जाने के बाद का दारजी का व्यवहार। मुझे बेबे की बात पर विश्वास करना ही पड़ेगा। दारजी मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। ये बूढ़ा जिद्दी आदमी, जिसने अपने गुस्से के आगे किसी को भी कुछ नहीं समझा। बेबे बता रही थी - जद तैनूं अद्धे अधूरे कपडेयां विच घरों कडेया सी तां दारजी कई दिनां तक इस गल्ल नूं मनण लई त्यार ई नईं सन कि इस विच उन्नादी कोई गलती सी। ओ ते सारेयां नूं सुणा-सुणा के ए ही कैंदे रये - मेरी तरफों दीपू कल मरदा ए, तां अज मर जावे। सारेयां ने एन्ना नूं समझाया सी - छोटा बच्चा ए। विचारा कित्थे मारेया मारेया फिरदा होवेगा। लेकन तेरे दारजी नईं मन्ने सी। ओ तां पुलस विच रपोट कराण वी नईं गए सन। मैं ई हत्थ जोड़ जोड़ के तेरे मामे नूं अगे भेजया सी लेकन ओ वी उत्थों खाली हत्थ वापस आ गया सी। पुलस ने जदों तेरी फोटो मंग्गी तां तेरा मामा उत्थे ई रो पेया सी - थानेदारजी, उसदी इक अध फोटो तां है, लम्मे केशां वाली जूड़े दे नाल, लेकन उस नाल किदां पता चलेगा दीपू दा ..। ओ ते केस कटवा के आया सी इसे लई तां गरमागरमी विच घर छड्ड के नठ गया ए..।
मुझे जब बेबे ये बात बता रही थी तो जैसे मेरी पीठ पर बचपन में दारजी की मार के सारे के सारे जख्म टीस मारने लगे थे। अब भी दारजी के सामने बैठे हुए मैं सोच रहा हूं - अगर मैं तब भी घर से न भागा होता तो मेरी ज़िंदगी ने क्या रुख लिया होता। ये तो तय है, न मेरे हिस्से में इतनी पढ़ाई लिखी होती और न इतना सुकून। तब मैं भी गोलू बिल्लू की तरह किसी दुकान पर सेल्समैनी कर रहा होता।
मैं दारजी के साथ ही खाना खाता हूं।
खाना जिद करके गुड्डी ने ही बनाया है।
बेबे ने उसे छेड़ा है - मैं लख कवां, कदी ते दो फुलके सेक दित्ता कर। पराये घर जावेंगी तां की करेंगी लेकन कदी रसोई दे नेड़े नईं आवेगी। अज वीर दे भाग जग गये हन कि साडी गुड्डी रोटी पका रई ए।
बेबे भी अजीब है। जब तक गुड्डी नहीं आयी थी उसकी खूब तारीफें कर रही थी कि पूरा घर अकेले संभाल लेती है और अब ...।
खाना खा कर दारजी गोलू और बिल्लू को खबर करने चले गये हैं।
मैं घर के भीतर आता हूं। सारा घर देखता हूं।
घर का सामान देखते हुए धीरे-धीरे भूली बिसरी बातें याद आने लगी हैं। याद करता हूं कि तब घर में क्या क्या हुआ करता था। कुल मिला कर घर में पुरानापन है। जैसे अरसे से किसी ने उसे जस का तस छोड़ रखा हो। बेशक इस बीच रंग रोगन भी हुआ ही होगा लेकिन फिर भी एक स्थायी किस्म का पुरानापन होता है चीजों में, माहौल में और कपड़ों तक में, जिसे झाड़ पोंछ कर दूर नहीं किया जा सकता।
हां, एक बात जरूर लग रही है कि पूरे घर में गुड्डी का स्पर्श है। हलका-सा युवा स्त्री स्पर्श। उसने जिस चीज को भी झाड़ा पोंछा होगा, अपनी पसंद और चयन की नैसर्गिक महक उसमें छोड़ती चली गयी होगी। यह मेरे लिए नया ही अनुभव है। बड़े कमरे में एक पैनासोनिक के पुराने से स्टीरियो ने भी इस बीच अपनी जगह बना ली है। एक पुराना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी एक कोने में विराजमान है। जब गया था तो टीवी तब शहर में पूरी तरह आये ही नहीं थे। टीवी चला कर देखता हूं। खराब है।
बंद कर देता हूं। सोचता हूं, जाते समय एक कलर टीवी यहां के लिए खरीद दूंगा। अब तो घर-घर में कलर टीवी हैं।
छोटे कमरे में जाता हूं। हम लोगों के पढ़ने लिखने के फालतू सामान रखने का कमरा यही होता था। हम भाइयों और दोस्तों के सारे सीक्रेट अभियान यहीं पूरे किये जाते थे क्योंकि दारजी इस कमरे में बहुत कम आते थे। इसी कमरे में हम कंचे छुपाते थे, लूटी हुई पतंगों को दारजी के डर से अलमारी के पीछे छुपा कर रखते थे। गुल्ली डंडा तो खैर दारजी ने हमें कभी बना कर दिये हों, याद नहीं आता। मुझे पता है, अल्मारी के पीछे वहां अब कुछ नहीं होगा फिर भी अल्मारी के पीछे झांक कर देखता हूं। नहीं, वहां कोई पतंग नहीं है। जब गया था तब वहां मेरी तीन चार पतंगें रखी थीं। एक आध चरखी मांझे की भी थी।
रात को हम सब इकट्ठे बैठे हैं। जैसे बचपन में बैठा करते थे। बड़े वाले कमरे में। सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर जमे हुए। तब इस तरह बैठना सिर्फ सर्दियों में ही होता था। बेबे खाना बनाने के बाद कोयले वाली अंगीठी भी भीतर ले आती थी और हम चारों भाई बहन दारजी और बेबे उसके चारों तरफ बैठ कर हाथ भी सेंकते रहते और मूंगफली या रेवड़ी वगैरह खाते रहते। रात का यही वक्त होता था जब हम भाई बहनों में कोई झगड़ा नहीं होता था।
अब घर में गैस आ जाने के कारण कोयले वाली अंगीठी नहीं रही है। वैसे सर्दी अभी दूर है लेकिन सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर खेस ओढ़े आराम से बैठे हैं। मुझे बेबे ने अपने खेस में जगह दे दी है। पता नहीं मेरी अनुपस्थिति में भी ये जमावड़े चलते रहते थे या नहीं। सबकी उत्सुकता मेरी चौदह बरस की यात्रा के बारे में विस्तार से सुनने की है जबकि मैं यहां के हाल चाल जानना चाहता हूं।
फैसला यही हुआ है कि आज मैं यहां के हाल चाल सुनूंगा और कल अपने हाल बताऊंगा। वैसे भी दिन भर किस्तों में मैं सबको अपनी कहानी सुना ही चुका हूं। ये बात अलग है कि ये बात सिर्फ़ मैं ही जानता हूं कि इस कहानी में कितना सच है और कितना झूठ।
शुरूआत बेबे ने की है। बिरादरी से..। इस बीच कौन-कौन पूरा हो गया, किस-किस के कितने-कितने बच्चे हुए, शादियां, दो-चार तलाक, दहेज की वजह से एकाध बहू को जलाने की खबर, किसने नया घर बनाया और कौन-कौन मोहल्ला छोड़ कर चले गये और गली में कौन-कौन नये बसने आये। किस के घर में बहू की शक्ल में डायन आ गयी है जिसने आते ही अपने मरद को अपने बस में कर लिया है और मां-बाप से अलग कर दिया है, ये और ऐसी ढेरों खबरें बेबे की पिटारी में से निकल रही हैं और हम सब मज़े ले रहे हैं।
अभी बेबे ने कोई बात पूरी नहीं की होती कि किसी और को उसी से जुड़ी और कोई बात याद आ जाती है तो बातों का सिलसिला उसी तरफ मुड़ जाता है।
मैं गोलू से कहता हूं - तू बारी बारी से बचपन के सब साथियों के बारे में बताता चल।
वह बता रहा है - प्रवेश ने बीए करने के बाद एक होटल में नौकरी कर ली है। अंग्रेजी तो वह तभी से बोलने लगा था। आजकल राजपुर रोड पर होटल मीडो में बड़ी पोस्ट पर है। शादी करके अब अलग रहने लगा है। ऊपर जाखन की तरफ घर बनाया है उसने।
- बंसी इसी घर में है। हाल ही में शादी हुई है उसकी। मां-बाप दोनों मर गये हैं उनके।
- और गामा?
मुझे गामे की अगुवाई में की गयी कई शरारतें याद आ रही हैं। दूसरों के बगीचों में अमरूद, लीची और आम तोड़ने के लिए हमारे ग्रुप के सारे लड़के उसी के साथ जाते थे।
बिल्लू बता रहा है - गामा बेचारा ग्यारहवीं तक पढ़ने के बाद आजकल सब्जी मंडी के पास गरम मसाले बेचता है। वहीं पर पक्की दुकान बना ली है और खूब कमा रहा है।
- दारजी, ये नंदू वाले घर के आगे मैंने किसी मेहरचंद की नेम प्लेट देखी थी। वे लोग भी घर छोड़ गये हैं क्या? मैं पूछता हूं।
- मंगाराम बिचारा मर गया है। बहुत बुरी हालत में मरा था। इलाज के लिए पैसे ही नहीं थे। मजबूरन घर बेचना पड़ा। उसके मरने के बाद नंदू की पढ़ाई भी छूट गयी। लेकिन मानना पड़ेगा नंदू को भी। उसने पढ़ाई छोड़ कर बाप की जगह कई साल तक ठेला लगाया, बाप का काम आगे बढ़ाया और अब उसी ठेले की बदौलत नहरवाली गली के सिरे पर ही उसका शानदार होटल है। विजय नगर की तरफ अपना घर-बार है और चार आदमियों में इज्जत है।
- मैं आपको एक मजेदार बात बताती हूं वीर जी।
ये गुड्डी है। हमेशा समझदारी भरी बातें करती है।
- चल तू ही बोल दे पहले। जब तक मन की बात न कह दे, तेरे ही डकार ज्यादा अटके रहते हैं। बिल्लू ने उसे छेड़ा है।
- रहने दे बड़ा आया मेरे डकारों की चिंता करने वाला। और तू जो मेरी सहेलियों के बारे में खोद खोद के पूछता रहता है वो...। गुड्डी ने बदला ले लिया है।
बिल्लू ने लपक कर गुड्डी की चुटिया पकड़ ली है - मेरी झूठी चुगली खाती है। अब आना मेरे पास पंज रपइये मांगने।
गुड्डी चिल्लायी है - देखो ना वीरजी, एक तो पंज रपइये का लालच दे के ना मेरी सहेलियों ....। बिल्लू शरमा गया है और उसने गुड्डी के मुंह पर हाथ रख दिया है - देख गुड्डी, खबरदार जो एक भी शब्द आगे बोला तो।
सब मजे ले रहे हैं। शायद ये उन दोनों के बीच का रोज का किस्सा है।
- तूं वी इन्नां पागलां दे चक्कर विच पै गेया एं। ऐ ते इन्ना दोवां दा रोज दा रोणा ऐ। बेबे इतनी देर बाद बोली है।
- असी ते सोइये हुण। गोलू ने अपने सिर के ऊपर चादर खींच ली है। गप्पबाजी का सिलसिला यहीं टूट गया है।
बाकी सब भी उबासियां लेने लगे हैं। तभी बिल्लू ने टोका है - लेकिन वीरा, आपके किस्से तो रह ही गये ।
- अब कल सुनना किस्से। अब मुझे भी नींद आ रही है। कहते हुए मैं भी बेबे की चारपाई पर ही मुड़ी-त़ुड़ी हो कर पसर गया हूं। बेबे मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही है। चौदह बरस बाद बेबे के ममताभरे आंचल में आंखें बंद करते ही मुझे तुंत नींद आ गयी है। कितने बरस बाद सुकून की नींद सो रहा हूं।
देख रहा हूं इस बीच बहुत कुछ बदल गया है। बहुत कुछ ऐसा भी लग रहा है जिस पर समय के क्रूर पंजों की खरोंच तक नहीं लगी है। सब कुछ जस का तस रह गया है। घर में भी और बाहर भी.. । दारजी बहुत दुबले हो गये हैं। अब उतना काम भी नहीं कर पाते, लेकिन उनके गुस्से में कोई कमी नहीं आयी है। कल बेबे बता रही थी - बच्चे जवान हो गये हैं, शादी के लायक होने को आये लेकिन अभी भी उन्हें जलील करने से बाज नहीं आते। उनके इसी गुस्से की वजह से अब तो कोई मोया ग्राहक ही नहीं आता।
गोलू और बिल्लू अपने अपने धंधे में बिजी है। बेबे ने बताया तो नहीं लेकिन बातों ही बातों में कल ही मुझे अंदाजा लग गया था कि गोलू के लिए कहीं बात चल रही है। अब मेरे आने से बात आगे बढ़ेगी या ठहर जायेगी, कहा नहीं जा सकता। अब बेबे और दारजी उसके बजाये कहीं मेरे लिए .. .. नहीं यह तो गलत होगा। बेबे को समझाना पड़ेगा।
ये गोलू और बिल्लू भी अजीब हैं। कल पहले तो तपाक से मिले, थोड़ी देर रोये-धोये। जब मैंने उन्हें उनके उपहार दे दिये तो बहुत खुश भी हुए लेकिन जब बाद में बातचीत चली तो मेरे हालचाल जानने के बजाये अपने दुखड़े सुनाने लगे। दारजी और बेबे की चुगलियां खाने लगे। मैं थोड़ी देर तक तो सुनता रहा लेकिन जब ये किस्से बढ़ने लगे तो मैंने बरज दिया - मैं ये सब सुनने के लिए यहां नहीं आया हूं। तुम्हारी जिससे भी जो भी शिकायतें हैं, सीधे ही निपटा लो तो बेहतर। इतना सुनने के बाद दोनों ही उठ कर चल दिये थे। रात को बेशक थोड़ा-बहुत हंसी मज़ाक कर रहे थे, लेकिन सवेरे-सवेरे ही तैयार हो कर - अच्छा वीर जी, निकलते हैं, कहते हुए दोनों एक साथ ही दरवाजे से बाहर हो गये हैं। गुड्डी के भी कॉलेज का टाइम हो रहा है, और फिर उसने सब सहेलियों को भी तो बताना है कि उसका सबसे प्यारा वीर वापिस आ गया है।
हँसती है वह – वीर जी, शाम को मेरी सारी सहेलियां आपसे मिलने आयेंगी। उनसे अच्छी तरह से बात करना।
मैं उसकी चुटिया पकड़ कर खींच देता हूं - पगलिये, मैंने तेरी सारी सहेलियों से क्या बियाह रचाना है जो अच्छी तरह से बात करूं। ले ये दो सौ रुपये। अपनी सारी सखियों को मेरी तरफ से आइसक्रीम खिला देना। वह खुशी-खुशी कॉलेज चली गयी है।
छत पर खड़े हो कर चारों तरफ देखता हूं। हमारे घर से सटे बछित्तर चाचे का घर। मेरे हर वक्त के जोड़दार जोगी, जोगिन्दर सिंह का घर। उनके के टूटे-फूटे मकान की जगह दुमंजिला आलीशान मकान खड़ा है। बाकी सारे मकान कमोबेश उन्हीं पुरानी दीवारों के कंधों पर खड़े हैं। कहीं-कहीं छत पर एकाध कमरा बना दिया गया है या टिन के शेड डाल दिये गये हैं।
नीचे उतर कर बेबे से कहता हूं - जरा बाजार का एक चक्कर लगा कर आ रहा हूं। वापसी पर नंदू की दूकान से होता हुआ आऊंगा।
मैं गलियां गलियों ही तिलक रोड की तरफ निकल जाता हूं और वहां से बिंदाल की तरफ से होता हुआ चकराता रोड मुड़ जाता हूं। कनाट प्लेस के बदले हुए रूप को देखता हुआ चकराता रोड और वहां से घूमता-घामता घंटाघर और फिर वहां से पलटन बाज़ार की तरफ निकल आया हूं। यूं ही दोनों तरफ़ की दुकानों के बोर्ड देखते हुए टहल रहा हूं।
मिशन स्कूल के ठीक आगे से गुज़रते हुए बचपन की एक घटना याद आ रही है। तब मैं एक पपीते वाले से यहीं पर पिटते-पिटते बचा था। हमारी कक्षा के प्रदीप अरोड़ा ने नई साइकिल खरीदी थी। मेरा अच्छा दोस्त था प्रदीप। राजपुर रोड पर रहता था वो। घर दूर होने के कारण वह खाने की आधी छुट्टी में खाना खाने घर नहीं जाता था बल्कि स्कूल के आस-पास ही दोस्तों के साथ चक्कर काटता रहता था। मैं खाना खाने घर आता था लेकिन आने-जाने के चक्कर में अकसर वापिस आने में देर हो ही जाती थी। इसलिए कई बार प्रदीप अपनी साइकिल मुझे दे देता। इस तरह मेरे दस- पद्रह मिनट बच जाते तो हम ये समय भी एक साथ गुज़ार पाते थे। साइकिल चलानी तब सीखी ही थी। एक दिन इसी तरह मैं खाना खा कर वापिस जा रहा था कि मिशन स्कूल के पास भीड़ के कारण बैलेंस बिगड़ गया। इससे पहले कि मैं साइकिल से नीचे उतर पाता, मेरा एक हाथ पपीतों से भरे एक हथठेले के हत्थे पर पड़ गया। मेरा पूरा वजन हत्थे पर पड़ा और मेरे गिरने के साथ ही ठेला खड़ा होता चला गया। सारे पपीते ठेले पर से सड़क पर लुढ़कते आ गिरे। पपीते वाला बूढ़ा मुसलमान वहीं किसी ग्राहक से बात कर रहा था। अपने पपीतों का ये हाल देखते ही वह गुस्से से कांपने लगा। मेरी तो जान ही निकल गयी। साइकिल के नीचे गिरे-गिरे ही मैं डर के मारे रोने लगा। पिटने का डर जो था सो था, उससे ज्यादा डर प्रदीप की साइकिल छिन जाने का था। वहां एक दम भीड़ जमा हो गयी थी। इससे पहले कि पपीते वाला मुसलमान मेरी साइकिल छीन कर मुझ पर हाथ उठा पाता, किसी को मेरी हालत पर तरस आ गया और उसने मुझे तेजी से खड़ा किया, साइकिल मुझे थमायी और तुंत भाग जाने का इशारा किया। मैं साइकिल हाथ में लिये लिये ही भागा था।
उस दिन के बाद कई दिन तक मैं मिशन स्कूल वाली सड़क से ही नहीं गुजरा था। मुझे पता है, पपीते के ठेले वाला वह बूढ़ा मुसलमान इतने बरस बाद इस समय यहां नहीं होगा लेकिन फिर भी फलों के सभी ठेले वालों की तरफ एक बार देख लेता हूं।
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