Mukhbir - 12 in Hindi Fiction Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 12

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मुख़बिर - 12

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(12)

कचोंदा

सुबह बड़े भोर बागी जाग गये और लतिया कर हमे जगाने लगे । दिशा मैदान से फरागत होने के लिए उनने हम दो-दो आदमियों के पांव आपस में बांध कर साथ-साथ छोड़ा । पहले तो टट्टी के लिए बैठने में एक दूसरे से हम लोगों को खूब शरम लगी, फिर पेट का दबाब और शारीरिक जरूरत से मजबूर हो कर एक दूसरे से पीठ सटाकर हम लोग किसी तरह निवृत्त हुये ।

मेरे साथ एक ठाकुर का पांव बंध कर भेजा था बागियो ने, लौटते में मैंने उसका परिचय पूछा तो उसने बताया कि वह एक खाता-पीता किसान है। उधर के एक गांव में उसकी बहन ब्याही है । वो तो बिचारा अपनी रिश्तेदारी में आया था कि लौटते में उस अभागी बस में सवार हो गया और बागियों के हत्थे चढ़ गया । अब बागी जो भी फिरौती मांगेगे वह देने तैयार है ।

हम सब निवृत्त हुए तो बागियों ने मारवाड़ियों से गले लगके विदा ली और तुरंत ही चलती धर दी । कल जैसी ही चाल थी हमारी, न समय का ख्याल था न दूरी का ।

दोपहर हो गई । अपहृतों के चेहरे पर भूख और थकान के चिन्ह दिखने लगे थे, लेकिन बागियों के चेहरे पर कोई शिकन न थी।

लल्ला ने हिचकते-डरते श्यामबाबू से पूछा-‘‘दाऊ, नहायवे की नईं हो रई ?‘‘

‘‘ बेटी चो, तैं बड़ो पंडित है । जा इलाके में पीयवे के लाने तो पानी तलक नाय मिल रहो, नहायवे कहां ते मिलेगो ? चुप्पचाप चलो चल, नईं तो धुंआ निकाद्दंगों पीछे ते !‘‘

लल्ला पंडित इस जवाब से अपनी बेइज़्ज़ती महसूस करके रो पड़ा था । कृपाराम ने भी चलते-चलते बंदूक का बट जरा धीमे हाथ से लल्ला की पीठ में कोंच दिया और डांटा-‘‘सारे लुगाइयन जैसो कहा रोय रहो है ? ज्यादा नखरे मत दिखा, अब सीधो चलो चलि !‘‘

लेकिन खाने का समय तो बीत ही चला था न, सो घण्टे भर बाद बागी अजय ने भी भूख का इज़हार किया और चौथे बागी ने भी उसका समर्थन किया था

‘‘ मुखिया, अब कहूं छाव देखिके कछू खायवे की हो जाय !‘‘

मेरी निगाह मुखिया पर थी, मैं देखना चाहता था कि खाने के नाम पर वह अपने साथियों को किस अंदाज से डांटता है । लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि बागियों की बात सुन कर कृपाराम मुसकराते हुये रूक गया था। पास में एक खंडहर दिख रहा था, उसने उधर इशारा किया, तो सब उसी तरफ बढ़ लिये ।

मैंने श्याम बाबू का संकेत पाया तो हमारे साथ चलती पोटलियों में से एक पोटली खोली । किसम-किसम के रंग, डिजाइन और भिन्न साइज की ढेर सारी पूरीयां उस पोटली में भींच के रखी हुयी थीं । कृपाराम ने दस-बारह पूरी उठाई और श्यामबाबू को दे दीं । फिर एक-एक कर उसने सबको इसी तरह पूरीयां बांटी । अन्त में खुद भी ले लीं । बांये हाथ पर एक पूड़ी रखके दांये हाथ से आधी पूड़ी तोड़ के उसने अपने मुंह में कौर डाला, तो हम सब खाने लगे ।

खंडहर के पास एक छोटे मुंह का कुंआ था । खाना हो चुका तो श्यामबाबू ने एक थैले में से लोटा-डोर निकाली । मैंने आगे वढ़ कर डोर-लोटा अपने हाथ में ले लिया और लम्बे-लम्बे हाथ पन्हार (फैला) कर पानी खींचने लगा । इस तरह आगे वढ़ कर काम करने की मेरी आदत से कृपाराम बड़ा खुश हुआ, बोला -‘‘ तेयो नाम का बतायो रे लाला तैंने ?‘‘

‘‘ मुखिया मैं गिरराज हों !‘‘

‘‘ गिरराज तैं कल से ऊपरी काम करेगा और सेवा-टहल को काम सारे जे ठाकुर करेंगे । जो सारो बमना रोटी बनायेगो ।‘‘

‘‘ जैसी तिहाई इच्छा होय मुखिया ‘‘ बोलते हुये मैं पुलकित था ।

‘‘ तुम सब सुनो, हम हुकम मानवे वारे को ठीक रखतु हैं, और सयाने की मइया चो ़़ ़ देते हैं। हमारे मन बड़े कर्रे हैं । हम चारऊ बागीउ कैसे बने ! पतो हैें तुम सबको ?‘‘

‘‘ नहीं मुखिया हम नहीं जान्तु हैं, हमे सुनाओ ।‘‘

‘‘ सबते पहले हमाये नाम जानि लो-मेयो नाम किरपाराम है, जो मंझलो श्यामबाबू, संझलो अजेराम और जो चौथे को नाम कालीचरण है । हम चारऊ सगे भैया हैं । भयो ऐसा कै हमाये एक चाचा बिन ब्याहे बुढ़ाय गये हते सो काउ की सलाह मानिके दूसरिन्ह की नाईं, खुदउ धौलपुर से एक औरत खरीद लाये थे । औरत पहले ते बिगड़ी थी सो हमाये बूढ़े चाचा से मिलतई उनकी सकल देखके वा को मन हमाये चाचा से फिर गयो । हमाये एक दूसरे चाचा रडुआ और जवान हत हते औरत देखके उनको मन न मानों सो मौका देखके उनने वा औरत से पहले दिन ते ही गलत संबंध बना लिये और दूसरे दोस्त-यारों से भी संबंध कराय दये फिर मौका देख के गांव के एक पराये आदमी के संगे वा औरतउ भजा दयी । ‘‘

‘‘ जल्दी पतो लग गओ सो वा औरत पकड़ी गयी और सबिको सच्ची बात पता लगी, कै भगायवे में छोटे चाचा को हाथि है । बड़ेन ने तो कछू न कहीे पै हमने पूछी तो वे बतायवे की जगह हमसे फिरंट हो गये । हमने बहुत समझायो अकेले वे न माने और मोेकूं मइयो की गाली दे डारी । हमतो वैसे ही हिकमतसिंह की गुंडागरदी से परेशान हत हते ऊपर से चाचा ने दे डारी मताई की गाली । हमको गाली सहन न भयी और हम चारई भैया उन छोटे चाचा को मारिके फरार है गये । सुनावे को मतलब ये कै हम बड़े कसाई है, हम में दया ममता बिलकुल नाने । जब चाचा को मारि सकत तो दूसरो आदमी हमाये लाने भेढ़-बकरिया लगतु है ।‘‘

श्यामबाबू ने कृपाराम की बात को आगे बढ़ाया -‘‘ कसाई का, हम तो राक्षस हैं -राक्षस। जे बड़े-बड़े बाल, महिनन नो बिना नहाय-धोय के रहिबो, रात-दिन देवी भवानी की पूजा और जा बंदूक भवानी को सदा को संग ।‘‘

‘‘ एक बात को ख्याल करियो, कै अपनी चाची की हरकत के बाद से हम औरतनि से बहुत दूर रहतु है । तुम भी जाने कितने दिन तक अब हम से बंध गये हो । हमाओ कहबो को मतलब बस इतनो सो है, कै तुम सब भूलके भी कबहुं लुगाई-बाजी में मत पड़ियो, हम बहुत नफरत करतु है लुगाई-बाज आदमी से !‘‘

लंबू ठाकुर ने देखा कि बागी आज खुल के बात कर रहे हैं, तो हाथ जोड़ के बोला-‘‘मुखिया, हमाये घर खबरि भेजि दो न, कै कित्ते रूपये भिजवाने हैं ?‘‘

‘‘सबर करि प्यारे, हमे पतो है कै तू सबिसे ज्यादा पैसे वारो है । पहले तो हम पुलस से बचके कछू दिन काउ गांव में काड़ि लें फिर तुम्हाये घर से पैसा मंगायेंगे।‘‘ कृपाराम डरावनी हंसी हंसके बोला था ।

हम लोग खा पी कर वहीं लेट गये । लेकिन सांझ का भुकभुका फैलने लगा तो वे सब बड़ी फुर्ती से उठे और हम सबको लेकर वहां से चल पड़े । दो घंटा तेज-तेज चलने के बाद हम लोग एक पहाड़ी के शिखर पर थे ।

पोटली में रखा तह किया हुआ रखा कल वाला पुराना तिरपाल निकाल कर बिछाया गया। श्यामबाबू ने सब अपहृतों को एक सांकल से आपस में बांधा फिर एक-एक बागी दोनों तरफ लिटा के पकड़ के लोगों को बीच में सुलाया । एक बागी पहरे पर रहा ।

आधी रात तक अपहृतों को नींद नहीं आयी । जबकि बागी तो कल की तरह लेटते ही तुरंत खर्राटे भरने लगे थे ।

सुबह दातुन-कुल्ला करके अजयराम ने गेंहू के कच्चे आटे में शक्कर और घी मिला के ढेर सारे लड्डू बनाये । लल्ला ने पूछा तो श्यामबाबू ने बताया कि ये कचोंदा हैं ।

ये थे कचोंदा के लड्डू । हम लोगों ने पहली बार देखे थे यह लड्डू । बागियों ने पांच-पांच, सात-सात लड्डू फटकारे, फिर पकड़ के लोगों को खाने का हुकुम दिया । मुझे और लल्ला को भला कच्चा आटा कहां से सुहाता ? सो हमने हाथ जोड़कर कचोंदा खाने से मना किया, हमे देखकर ठाकुर भी नटने लगे ।

उनकी देखा-देखी बाकी दोनों ने इन्कार किया तो श्यामबाबू और अजयराम बिगड़ पड़े़ । गालीयां देकर उन दोनों ने हम छहों लोगों को चार-चार लड्डू खाने को विवश किया । लेकिन कचोंदा इसके बाद भी बचा था सो बाकी बचे कचोंदा को बागियों ने ही सटकाया औैैर हाथ झाड़ कर बैठ गये । अपहृृतों नेे पोटलियां बांधी, और खुद ही अपने सिर पर लाद कर खड़े हो गये ।

‘‘ निराट कच्चे आटे के लड्डू पचत कैसे हुइयें !‘‘ बूढ़े सिपाही इमरतलाल की आंखें बिस्मय से फैल रही ं थी ।

‘‘ अरे दाऊ, खूब पचत भी हते और दिन भर तरावट भी रहत हती । पक्की गिजा रहतु है कचोंदा में !‘‘ मैं कचोंदा की बात करते वक्त महसूस कर रहा था मानो कुछ देर बाद हमारी कचोंदा के लड्डू की ही पंगत होने वाली है । बाद के दिनों में तो यही कचोंदा मुझे सबसे प्रिय व्यंजन लगने लगा था जो मैं घर लौटकर भी कई दिनों तक रोज सुबह खाता रहा ।

कचोंदा का लालच छोड़ कर मैने कहानी आगे वढ़ाई ।

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