Bhraman ki Beti - 5 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | ब्राह्मण की बेटी - 5

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ब्राह्मण की बेटी - 5

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 5

लोगों के मुक्त इलाज के प्रति समर्पित प्रयिनाथ प्रभात होते ही एक हाथ में डॉक्टरी की किताबें और दूसरे हाथ में दवाइयों का बक्सा थामे निकल पड़ते थे। आज उनके पीछे चलती हुई दूले की विधवा स्त्री खुशामद करती हुई चल रही थी। वह बोली, “महाराज! आपर ठुकरा दोगे, तो हम बेंसहारा और असहाय लोग किधर जायेंगे? आपके सिवाय हमारा और कौन है?”

बात करने के लिए फुरसत न होने से प्रियनाथ चलते-चलते बोल, “नहीं, अब तुम लोग यहाँ नहीं रह सकते। मैं जाने गया हूँ कि तुम लोग अपनी सीमा में नहीं रह सकते। अच्छा, यह बता कि क्या तुमने गली में बकरी को माड़ पिलायी?”

आश्चर्य प्रकट करती हुई देले की माँ बोली, “महाराज, सभी को बकरियां घास चरती है या माड़ पीती है?”

प्रियनाथ उतेजित होकर बोले, “हरामजादी, मुझे मूर्ख बनाती है। बकरियां घास चरती है या माड़ पीती है?”

“महाराज, घास-पत्ते भी खाते है और माड़ भी पीती है।”

हाथ हिलाते हुए प्रियनाथ ने कहा, “नहीं अब तुम लोग यहाँ नहीं रह सकोग। आज हीं यहाँ से चलते बनो, स्वयं गोलोक चटर्जी ने देखा हे कि तुम लोगो ने ब्राह्मणों के मुहल्ले में बकरकी को मांड़ पिलाया। अब में तुम लोगों पर दया नहीं कर सकता। तुम दया के पात्र नहीं हो।”

आखिरी दांव चलाती हुई दूले की विधवा बोली, “महाराज, तो क्या मांड को नाली में बहा देना चाहिए?”

“हाँ, यही ठीक होगा। गाय को पिलाने की अनुमति तो दी जा सकती है, किन्तु बकरी को मांड पिलाना और वह भी ब्राह्मणों के मुहल्ले की गली में... राम-राम छिः छः। मुझे देर हो रही है, मुझे रोककर मेरा और अपना समय नष्ट मत को, आज ही इस महल्ले को छोड़कर चलते बनो।”

प्रियनाथ के पीछे चलती दूले की विधवा बिलखकर बोली, “महाराज, लड़की ने कल से अन्न का एक दाना भी नहीं खाया?”

प्रियनाथ रुक गये और मुड़कर बोले, “दवा तो चल रही है न? क्या लड़की की जी मचल रहा है या उस दस्त रहे है?”

“हाँ, महाराज, हाँ।” दूले की बहू बिलखकर बोली।

“क्या कारण है? क्या पेट फूल गया है और भूख मर गयी है?”

“महाराज, भूख से तो बिलख रही है?”

“हूँ यह भी एक भयंकर रोग है। तब बताया क्यों नहीं?” जाच-परखकर एक खुराक वही दे देता।”

थोड़ी देर तक इधर-उधर करती गरीब विधवा बोली, “महाराज! दवाई की आवश्यकता नहीं। थोड़े-से चावल मिल जाते तो पकाकर भूखी लड़की को खिला देती।”

सुनकर रुष्ट हुए प्रियनाथ भड़कते हुए बोले, “ससुरी को दवा नहीं, चावल चाहिए। तुम लोगों के लिए मैंने जैसे भण्डार खोल रखा है। चल, हट, मेरी नजरों से दूर हो जा, पाजी कही की।”

निराश लौट रही उस बेचारी को बुलाकर प्रियनाथ ने कहा, “खाने को नहीं है, तो संध्या को क्यों नहीं बताया? उससे मांग लिया होता।”

गरीब महिला ने सिर उठाकर प्रियनाथ की ओर देखा और फिर वह चुपचाप चल दी।

प्रियनाथ बोले, “संध्या की माँ से कुछ मत कहना। घाट के पास खड़ी होकर संध्या की प्रतीक्षा करना औचर उसके आने पर उससे कहना। हाँ, किसी के बीमार पड़ने पर सबसे पहले मुझे खबर करना, विपिन के पाक मत जाना।” फिर किसी और को देखकर वह बोले, “अरे कौन, त्रिलोकी हो क्या? घर में सब स्वस्थ हैं ने?”

त्रिलोकी ने पूछा, “क्या आपके पास...?”

“बोलो, मुझसे क्या चाहते हो?”

“जमाई बाबू, बड़ा नाला पार कनेक में लोगो को काफी कष्ट होता है, उस पर मचान का एक पुल बनाना है, उसके लिए बांसो की आवश्यकता पड़ेगी। क्या आपसे बांस के झुरमुट से...?”

क्रुद्ध स्वर में बीच में ही प्रियनाथ बोल उठे, “मैं बांस नहीं दूंगा। क्या गाँव में और लोग नहीं है? उनसे ले लो न।”

अब तक चुप खड़ा बूढ़ा षष्ठीचरण बोला, “जमाई राजा, आप नाराज न हों, तो एक बात कहूं। इस गाँव में आप-जैसा उदार दानी दूसरा कोई है ही कहां, जिससे फरियाद की जाये? आप दया करेंगे, तो सारे गाँव को आराम हो जायेगा और मुंह से भले न कहें, किन्तु मन-ही-मन तो आपको असीसेंग।”

कुछ देर सोचने के बाद प्रियनाथ ने पूछ, “क्या सचमुच लोगों को आने-जाने में कष्ट होता है?”

त्रिलोकी बोला, “महाराज, रोज एक-गो के हाथ-पैर टूटते हैं। डर से मारे प्राण हथेली पर रखकर ही लोगों को चलना पड़ता है।”

प्रियनाथ बोले, “जगदधात्री को पता चलेगा, तो बहुत बिगड़ेगी।”

पष्ठीचरण बोला, “आप कहें, तो हम सब जाकर माँ जी के पैर पकड़ लेते है।”

कुछ देर तक सोच-विचार में डूबे प्रिय बाबू बोले, “लोगों को सचमुच कष्ट होता है, तो ले लीजिये, किन्तु संध्या की माँ को इसकी भनक नहीं पड़नी चाहिए।”

फिर बोले, “अच्छा, मुझे रसिक बाग्दी की बहू को देखने जाना है। कहीं रात में उसकी तबीयत बिगड़ न गयी हो। अच्छा मैं चलता हूँ।”

बूढ़े षष्ठीचरण को हंसता देखकर त्रिलोकी बोला, “चाचा, लोग इन्हे भले ही सनकी कहें, किन्तु गरीब-दुःखियों के प्रति इनके मन में जैसी दया-ममता है, वैसी तो बड़े-बड़े सेठों में देखने को नहीं मिलती। कितने सीधे और सरल प्रकृति के महाशय है यह? छल-कपट से तो जैसे इनका परिचय ही नहीं।” कहते हुए त्रिलोकी ने प्रियनाथ को लक्ष्य करक् उनके सम्मान में माथा टेक दिया।

षष्ठीचरण बोला, “त्रिलोकी, अब हुकुम हो गया है, तो देर मत करो, जल्दी से काम शूरू कर दो।”

त्रिलोकी बोला, “ठीक कहते हो चाचा।”

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