दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें
(लघु कथा-संग्रह )
5- फ्रैंड -रिक्वेस्ट
बड़ी फूलीं मिसेज़ प्रधान ---उनकी बिटिया ने उनका फेस-बुक एकाउंट खोल दिया था | सबसे पहले तो उसकी बिटिया के दोस्तों से उनकी दोस्ती बनी फिर जैसे समय गुज़रता गया उनके दोस्तों की रफ़्तार इतनी तेज़ी से बढ़ी कि वे चौकने लगीं |बिटिया ने यह तो बताया नहीं था कि सब रिक्वेस्ट स्वीकार मत करना सो वे धड़ल्ले से स्वीकार करती चली गईं |
" देखो ! मुझे तो कितने लोग अपना दोस्त बनाना चाहते हैं --"
"अच्छी बात है न ! आपका टाइम पास हो जाता है ---"
"अरे ! यूँ तो कहाँ टाइम है है मुझे ---देखो न ---महीने भर में चार किट्टी पार्टी, कभी किसीके यहाँ लंच तो कभी डिनर ----"
उनके मुख की मुस्कान बता रही थी कि वे कितनी खुश हैं केवल यह सोचने भर से ही कि उनके पास इतनी 'फ्रैंड रिक्वेस्ट' आती हैं और अब वे दोस्तों से लबालब भरी हैं |
" चलिए, अच्छा है ---" अनु ने कहा |
"अच्छा क्या है --बस, निभ रहा है किसी तरह, अब खाके आते हैं तो खिलाना भी तो बनता है न ?जानती हो न, बच्चे तो हाथ तक नहीं हिलाते, हम ही लगे रहते हैं ख़ानसामे और नौकर के साथ "
"हाँ.वो तो है ही। समाज का तो नियम ही है --एक हाथ ले तो दूसरे हाथ दे ---" कुछ देर रुककर अनु अपने घर चली गई, यह सोचते हुए कि उसके तो इतने मित्र नहीं हैं जितने अधेड़ उम्र की आशा प्रधान के |कहीं न कहीं मन में खींचतान हो रही थी |
उनके पास रोज़ सुबह मैसेंजर पर गुड -मॉर्निंग और रात को गुड -नाइट आते और वे खुशी -ख़ुशी सबको उत्तर भी देतीं|
वे अनु से जब भी मिलतीं, अपनी इंपोर्टेंस दिखाना न भूलतीं अनु को ! न ही अपने सेवकों का ज़िक्र करना भूलतीं | अनु के पति का ट्रांसफ़र उत्तर-प्रदेश से बंबई हुआ था | उसी कॉलोनी में वह किराए पर रहने आई थी और बार-बार मिसेज़ प्रधान के बुलाने पर उसका उनके पास आना-जाना ज़रा ज़्यादा ही हो गया था |यूँ उम्र में काफ़ी फ़र्क था दोनों की ---बस, वह आशा के बुलाने पर मना ही नहीं कर पाती थी |
दो दिनों तक अनु उनके पास नहीं गई, तीसरे दिन आशा प्रधान भागती हुई उसके पास आईं ---"अनु ! इसको ब्लॉक करना आता है क्या ?"
"जी ---"
"देखो न ---बदमाश, मुझसे पूछ रहा है, "मैं बंबई आया हुआ हूँ, क्या आप एक रात मेरे साथ बिता सकती हैं ?"आशा ने मैसेंजर अनु के आगे खोल दिया, वह बुरी तरह घबराई हुई थीं |
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