पढ़ाई में अच्छी थी गौरी. क्लास में अव्वल तो नहीं, लेकिन तीसरे या चौथे नम्बर पर रहती थी हमेशा. सारे टीचर्स बहुत प्यार करते थे गौरी को. इतने धनाड्य परिवार की बेटी हो के भी घमंड नाममात्र को न था उसे. इतने लाड़-प्यार ने भी बिगाड़ा नहीं था गौरी को. ये शायद उसकी मां की मेहनत थी, जो उसके पांव, इतने बिगाड़ने वाले माहौल में भी ज़मीन पर रखे रहीं. आठवीं में पढ़ती थी, तभी से उसे लिखने का शौक हुआ. ये गुण जन्मजात रहा होगा, बस प्रस्फ़ुटित नहीं हो पाया था. यहां क्लास में उसकी पक्की सहेली थी रश्मि, जो खुद भी लिखती थी और गौरी को अपना लिखा हुआ पढ़वाती रहती थी. उसकी कविताएं, लेख देख के गौरी को लगता कि वो भी लिख सकती है. एक दिन चार लाइनें लिख के उसने रश्मि को दिखाईं, और रश्मि तो जैसे उछल ही पड़ी. बाद में उसी ने गौरी से ज़िद की लगातार लिखने की. गौरी ने बाबूजी से एक गांधी डायरी मांगी ( तब गांधी डायरी ही चला करती थीं), और उसी में ऊपर “श्री गणेशाय नम:” लिख के नीचे अपनी कविताएं लिखनी शुरु कीं. दसवीं तक आते-आते तो गौरी का लेखन इतना परिपक्व हो गया था कि उसे विद्यालय की स्मारिका में भी स्थान मिला. सबने तारीफ़ भी की. सरस्वती पूजा से पहले उसकी म्यूज़िक टीचर ने सरस्वती वंदना लिखने को कहा. गौरी ने न केवल सरस्वती वंदना लिखी, बल्कि उसे स्वरबद्ध भी किया. खूब सराही गयी उसकी ये रचना. बाबूजी और मां दोनों ही अब उसे लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती भी मानने लगे थे. बड़े भैया भी कविताएं लिखते हैं, ये तब पता चला जब गौरी का लेखन सामने आया. अब तक चोरी-छुपे लिखने वाले भैया, अब गौरी को अपनी रचनाएं सुनाने लगे. दोनों भाई-बहन अब जब भी लिखते, अपनी-अपनी डायरी लिये, एक दूसरे को खोजते. बारहवीं के बाद कॉलेज में पढ़ने, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ के भाग लेने की अपनी एकमात्र इच्छा गौरी पूरी कर पाती, उसके पहले ही बुंदेला परिवार का प्रस्ताव उसकी झोली में आ गिरा. कुछ समझे, कुछ सोचे उसके पहले ही गौरी ने अपनी अंगुली को सगाई की अंगूठी की गिरफ़्त में पाया. घर में इतना लाड़-दुलार करने वाले लोगों ने उससे उसकी इच्छा पूछने की जगह, केवल समझाने का काम किया. वे समझ रहे थे, कि गौरी अभी मानसिक रूप से ब्याह के लिये तैयार नहीं है, सो इच्छा-अनिच्छा क्या, केवल शादी के लिये तैयार हो जाये, बहुत है. गौरी के आगे भी उनकी बात समझ जाने के अलावा और क्या रास्ता था?
शादी के बाद ससुराल में सबकुछ था, सिवाय अपनी इच्छा के. जो चाहो खाओ, पहनो, जहां चाहो जाओ, मिलो-जुलो बस अपने विचार पेश मत करो. बड़ी बाईसाब यानि गौरी की सास जो कहें उसे अन्तिम सच मानो. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो आप अपनी स्थिति कमज़ोर कर सकते हैं. गौरी की भी तमाम मुद्दों पर उनसे असहमति होती थी, जिसे वो ज़ाहिर भी कर देती थी, और इसीलिये बड़ी बाईसाब ने उसे ’मुंहफट’ के विशेषण से नवाज़ा था. तब पहली बार उसने जाना था कि सच बोलना भी गुुनाह हो सकता है।
(क्रमशः