Tora mann darpan kahlaye in Hindi Moral Stories by Rita Gupta books and stories PDF | तोरा मन दर्पण कहलाये

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तोरा मन दर्पण कहलाये

तोरा मन दर्पण कहलाये

दो बहनें, न कोई बड़ी न कोई छोटी। दरअसल जुड़वां, मालविका और मधुलिका। एक सी शक्लें, कद काठी और रंगत। बचपन में माँ ने खूब गलतियां की होंगी इन्हे पालने में। एक सी दिखने वाली इन बच्चियों को ले कर जरूर दिग्भ्रमित होती होंगी। जरूर कोई भूखी रह जाती होगी और कोई जबरदस्ती दो बार दूध पी लेती होगी। उनकी माँ के पास तो किस्सों का भंडार रहा होगा इनकी परवरिश का। ये जहाँ जाती होंगी लोग गेम खेलना शुरू कर देते होंगे कि कौन मधुलिका है और कौन मालविका।

हाय ! भगवान् ने साँचा तक दो नहीं बनाया इन्हे बनाने में, काम चला लिया एक ही सांचे में, ढाल दिया एक ही ढांचें में। बचपन कुछ यूं ही गुजरा गलतफहमियों की गलियों से। यदि बारीकियों पर भी ध्यान दिया जाता तो मुस्कुराती भी दोनों एक जैसी मानों स्केल से माप। पलकों को उठाने और गिराने के स्टाइल से ले कर टाइमिंग तक एक था। माँ दोनों के बाल छोटे ही रखती ताकि चोटियां गूथने की जहमत न उठानी पड़े, पर दोनों के बाल एक सी लटें और घूंघर बना माथे पर लटकी रहतीं अब देखने वाला सुलझाता रहे पहेलियाँ।

सच कहा जाये तो मिरर इमेज थी दोनों एक दूसरे की। पर विधाता ने दोनों की किस्मत बिलकुल अलग अलग लिखी थी वो भी एकदम दो रंग की स्याही से।

कुछ बड़ी होने पर भी माँ दिन भर मधु और मिलु की गुत्थी सुलझाने में लगी रहती और मिलु उसे और उलझाने में। थोड़ी समझदार होते ही मिलु अपनी शैतानियों का ताज मधु के सर पहनाने में पारंगत होने लगी थी। अब मधु और मिलु तो एक दूसरे को समझती ही थी, पर मधु ज्यादातर मिलु की शैतानियों को अपनी मौन सहमति दे मंद मंद मुस्काती रहती। समय के साथ मिलु की चंचलता बढ़ती गयी वहीं मधु की सहनशीलता।

धीरे धीरे मधुलिका की सहनशीलता और मिलु की चंचलता इन दोनों का फर्क परिलक्षित करने लगा। कम से कम घर के लोग तो व्यवहार से समझ ही लेते थे। दस बारह वर्ष के होने पर मिलु खुद समझने लगी कि मधुलिका उससे कहीं अधिक व्यवहार कुशल, सामाजिक और स्थिर मानस की स्वामिनी है। घर परिवार से बाहर नजदीकी दोस्त, अध्यापक , पडोसी इत्यादि भी व्यवहार के फर्क से ही दोनों को पहचानने लगे थें। कहने की जरुरत नहीं कि मधु अधिक लोकप्रिय थी अपनी मीठी बोली और व्यवहार के चलते ही।

प्यारी तो दोनों ही थीं पर मालविका को लगता कि सब मधु को अधिक प्यार करते हैं। वय:संधि के दोराहे पर खड़ी मालविका फिजूल ही अपनी हमशक्ल से नफरत पालने लगी। एक सी बुद्धि और समझ होते हुए भी किशोरी होती मालविका की चंचलता और ईर्ष्या उसको भटकाने में आग में घी का काम करने लगी। एकाग्रता की कमी से जूझती मालविका मधुलिका से पढ़ाई और व्ययवहार में पिछड़ने लगी।

अब वह एक नया गेम खेलने लगी, जब न तब अपनी इच्छा अनुसार वह मधु बन जाती। लोग बाग़ अब इतना समझ नहीं पाते और वह मधु को मिलने वाली इज्जत और अतिरिक्त स्नेह के मज़े उठाती। तो कभी मधु बन लोगो से मिल वह मधु की छवि भी बिगड़ाने की कोशिश करती , जैसे एक बार बारहवीं कक्षा में अध्यापिका ने उसे मधु समझ कहा कि कल एक साइंस क्विज के लिए उसे दूसरे स्कूल जाना होगा। मालविका ने इस बात को छुपा लिया और मधुलिका को कुछ नहीं बताया। जब अगले दिन शिक्षिका ने उसे टोका और डांटा कि गयी क्यों नहीं तो मधुलिका सारे मामले को समझते हुए दौड़ती हुई क्विज के लिए पहुंची। कहना न होगा कि देर होने के बावजूद उसने प्रतियोगिता जीत ली थी।

मिलु के तन बदन में मानों आग लग गयी थी पर उससे भी ज्यादा उसे बेचैनी इस बात से हुई कि मधु ने उसे कुछ भी नहीं कहा या पूछा। वह घर में बिना मतलब चीखती चिल्लाती हाथ पैर पटकती, मधु के सामानों को इधर उधर कर देती। और मधु.......मधु इन सब शोरशराबे से अलग अपनी पढाई और संगीत में मगन रहती।

मधुलिका ने मानों अपनी जुड़वां बहन को वैसे ही स्वीकार कर लिया था जैसी वो थी पर मालविका को मानों एक जिद्द या एक मिशन मिल गया था कि वह कैसे मधु को नीचा दिखाए। उम्र के साथ उसकी ये एकतरफा प्रतिस्पर्द्धा एक सनक का रूप लेती जा रही थी।

समय के साथ दोनों बहनो का विवाह हुआ, कोख से अब तक एक सा जीवन जीती साथ साथ पली बढ़ीं बहनें दो अलग अलग घरों में अलग परिवेश में जा बसी। संजोग से मालविका एक बहुत बड़े व्यवसायी की पत्नी बनी जहाँ अकूत धन दौलत था। मालविका ने खुद बढ़ कर इस रिश्ते के लिए हामी भरी थी। मधु ने तुरंत शादी नहीं की थी क्यूंकि पहले वह और पढ़ना चाहती थी। बाद में उसने कॉलेज में उसके साथ ही काम करने वाले एक प्रोफेसर से शादी किया जिसकी सोच और आदर्श बिलकुल उसी के जैसे थी। मालविका को अब जा कर तसल्ली मिली थी, मधु के पति की कुछ औकात ही नहीं थी उसके पति के समक्ष। ये बात वो खूब जतलाती दिखाती और प्रदर्शित करती।

आये दिन वह मधुलिका को अपने घर आने का न्योता देती या आये दिन होने वाली पार्टियों में बुलाती। उसके कलेजे को ठण्ड मिल जाती जब मधु बिलकुल साधारण से कपड़ों में बिना किसी गहने जेवर और तामझाम के आती। वह अपने नए जेवर दिखाती, घर में सजे बेशकीमती बहुमूल्य सामानों को दाम सहित बताती। मधु हमेशा की तरह मुस्कुराती हुई देखती और खुश होती कि चलो अब मिलु खुश तो है।

दिवाली का त्यौहार पास आ रहा था। मालविका की जबरदस्त खरीदारी चल रही थी जिसका ब्योरेवार विवरण वह मधु को फोन से देती रहती। धनतेरस पर उसने कोई हीरों का हार ख़रीदा था, उसे परम आनद की प्राप्ति हुई थी जब मधु ने कहा कि उसे तो वक़्त ही नहीं मिला कि वो बाजार जाये।

"हूँ जाती भी तो जाने क्या खरीद लेती, एक कटोरी या एक चम्मच",

और मिलु ठठा कर हंस पड़ी थी।

"देख मधु तू दिवाली के दिन जरूर आना मैंने स्पेशल पटाखे मंगवाएं हैं और खाना भी यही खाना, उस दिन छत्तीस प्रकार के व्यंजन बनेंगे ",

मालविका ने अहंकार की चाशनी में लपेट बहन को न्योता दिया।

कुछ सोचते हुए मधु ने कहा,

"मैं तो आती ही रहती हूँ इस बार तू और जीजाजी ही आ जाओ यहाँ हम पूजा साथ कर लेंगे। वैसे भी मुझे याद नहीं कि पिछली बार तू कब आयी थी",

" देखूंगी कि आ पाती हूँ या नहीं, तू मेरा इंतजार मत करना। उसदिन बहुत बड़े बड़े लोग आएंगे सुधीर से मिलने ",

मिलु ने इठलाते हुए कहा।

दिवाली के दिन मालविका और उसकी कोठी दोनों दुल्हन की तरह सजे थें। हर कोने से ऐश्वर्य मानों झलक रहा हो। पर शाम से सुधीर का कहीं अता पता ही नहीं था। सच कहा जाये तो वो पिछले एक हफ्ते से घर आधी रात के बाद ही आता था। पूछने पर बोलता ,

"अब दिवाली के अवसर पर जुआ खेलना तो बनता ही है। फिर तुम्हें हीरों हार जो दिलवाना है"

लक्ष्मी पूजन का मुहूर्त निकला जा रहा था, मिलु ने एक नजर अपनी कोठी पर डाली और अकेले ही पूजा करने बैठ गयी। सुधीर अपने प्रतिष्ठान में लक्ष्मी पूजन कर वहीँ से अपने दोस्तों के संग कौड़ी खेलने निकल गया था। सुधीर का हमेशा घर पर ख़ास मौकों पर न रहना आज उसे खल रहा था। यूँ तो हमेशा से सुधीर अपने बिज़नेस में अतिव्यस्त ही रहता था और मालविका भी समझती थी कि उसके पल्लू से बंध कर रहेगा तो धन वर्षा कैसे होगी। अभी पिछले दिनों उसकी बचपन की सहेली बाजार में मिली थी, वर्षों बाद भी उसे देखते ही वह पहचान गयी कि वही मालविका है। तो मालविका ने पूछा भी,

"पहले तो तू हमेशा हम बहनों में धोखा खाती थी आज कैसे पहचान लिया?"

तो सहेली ने कहा,

"तू बहुत बदल गयी है, वक़्त ने अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं चेहरे पर। अभी हाल ही में मधुलिका मिली थी पर यार वो तो जस की तस है, बचपन की मासूमियत सहेजे वही संतोषी चेहरा"

ये सुन मधुलिका के तनबदन में आग लग गयी थी। सो आज ब्यूटीशिसन को बुला जम कर मेकअप करवाया था उसने ताकि मधुलिका उसके सामने कहीं टिक न सके। मधुलिका के घर के लिए निकलने के पहले उसने खुद को शीशे में निहारा, फिर अपनी लम्बी कार से छम छम लकदक लक्ष्मी बन कर वह निकली । वह ये सोच कर रोमांचित हो रही थी कि जब मधुलिका उसको देखेगी तो उसे कितना अफ़सोस होगा अपनी किस्मत पर। बिचारी सारे दिन कॉलेज में खुद को घिसती है और घर आ कर भी खुद ही अपनी उन दो कोठरियों को चमकाती रहती है।

मिलु जब उसके घर पहुंची तब तक अगल बगल के घरों के दिए थक कर बुझ चुके थे पर मधु के चौखठ पर बृहद रंगोली के बीच दिए प्रज्जवलित थे। कुछ देर तक वह दरवाजे के बाहर ही खड़ी रही,

मधु और उसके पति दोनों की हंसने की आवाजे बाहर तक आ रही थी। उनकी खिलखिलाहटों की फूलझड़ियों और ठहाकों के बम से घर गुलजार था। धीमे से उसने अंदर झाँका, मधुलिका के पति उसके गले में हाथ डाल कह रहे थें,

"अब तो सितार पर अपना एक गीत सुना दो, तुम्हारी बहन हमारे घर अब नहीं आने वाली। उन्हें भला आज फुर्सत कहाँ होगी"

मधुलिका ने सितार संभाल स्वर लहरी छेड़ दिया, मानों लाखों दिए एक साथ जलतरंग के साथ जल उठे हो। मालविका ने देखा कि मधुलिका के गालों पर सुख और संतोष की एक अनोखी चमक थी, आँखों के दमकते जुगनू त्यौहार को मानों जगमगाहट प्रदान कर रहें हों। शायद मधुलिका जानती थी कि मालविका उसे सुखी संतुष्ट नहीं देख सकती है सो हमेशा अतिसाधारण रूप से उससे मिलती ताकि उसका अहम् और श्रेष्ठता का भाव पोषित होता रहे और वो चैन से संतुष्ट रहे कि उसकी बहन उससे कमतर है। पर आज मालविका ने उसके सुखी जीवन को देख लिया और उसका मिथ्या अहंकार छन से गिर टुकड़ों में बिखर गया।

अचानक मालविका को अपना हीरो का हार चुभने लगा। कटे वृक्ष की तरह वह अपने कार में जा बैठी, कि शीशे में अपना चेहरा देख चौंक गयी,

महंगे मेकअप तले उसका चेहरा अब विकृत हो डरा रहा था । ईर्ष्या और अहंकार ने उसके व्यक्तित्व को ही बदल दिया था अब वह बचपन की तरह मधु कभी नहीं बन सकती क्यों कि ये चेहरा तो अब उस जैसा रहा ही नहीं। वो सारे विकृत भाव जो वह अपनी सहोदरी के प्रति रखती आयी थी , बिना बात जो जलन और ईर्ष्या करती आयी थी आज स्पष्ट रूपेण उसके चेहरे पर व्याप्त था, चेहरा जो वास्तव में मन का दर्पण भी होता है।

सब सुख होते हुए भी मन के कलुषित भाव और असंतोष की विष बेल ने उसकी जिंदगी में कांटे बो दिए थे।

......अपनी कार में बैठ वह देर तक आंसू बहाती रही, काजल और मस्कारा के साथ मन में बसी बहुत सारी कलुषित भावनायें भी बहती गयीं। क्यों जलती रही वह बचपन से अब तक मधुलिका से?

अकारण अकेली दौड़ती इस ईर्ष्या रेस में उसने सिर्फ खोया ही है,

"कोशिश तो किया जा सकता ही है अपनी भूल सुधारने की "

उसने सोचा और टिश्यू पेपर से चेहरा रगड़ रगड़ साफ करने लगी। ........

RITA GUPTA