'पापा, डाइनिंग रूम में आजाओ, आपका नाश्ता लग गया है. सबके साथ नाश्ता करलो, नहीं तो बाद में कहोगे, मुझे किसी ने नाश्ते के लिए नहीं बुलाया,' वर्मा साहब की सबसे बड़ी बहू मन्नत ने अपने वृद्ध ससुर को तेज आवाज में कहा.
'क्या बेटा, क्या कहा, श्लोक को स्कूल से ले आऊँ? ठीक है, ले आता हूँ', चेहरे पर विकट बेचारगी के भाव लाते हुए वर्माजी सोफ़े से उठने की कष्टप्रद कवायद करने ही वाले थे, लेकिन यूं अपना कहा गलत सुनने पर मन्नत की सहनशीलता जवाब दे गई और लगभग चीखते हुए कर्कश स्वर में उसने फिर से कहा, 'पापा, जब राजे ने आपको 30,000 रुपये की इतनी महंगी मशीन लाकर दी है तो आप उसे हर वक़्त क्यों नहीं लगा कर रखते हैं? फालतू में लोगों को इरिटेट करते हैं। कहो खेत की और सुनते हैं खलिहान की.चलो नाश्ता कर लो, लगभग झिड़कते हुए मन्नत ने उन्हें उठाते हुए डाइनिंग रूम की ओर धकेल सा दिया.
बड़ी भाभी का वृद्ध पिता के प्रति यह रूखा व्यवहार वर्माजी की बड़ी बेटी सिया को भीतर तक कचोट गया. सिया बच्चों की परीक्षाओं के चलते महीनेभर के लिए मायके आई हुई थी. उसने बड़ी नम्रता से बड़ी भाभी से कहा, 'आप चलो, पापा को मैं टेबल तक पहुंचाती हूँ. और सिया ने अस्सी वर्षीय पिता को सहारा देते हुए टेबल तक पहुंचा दिया और बेहद ममता से उन्हे नाश्ता परोस दिया. बड़ी भाभी, छोटी भाभी दोनों इसरार कर कर अपने अपने पतियों को नाश्ता करवा रही थीं. कभी उन्हें आधा परांठा और लेने की मनुहार करतीं तो कभी उनका गिलास संतरे के जूस से लबालब भर देतीं, लेकिन बूढ़े पिता को एक बार भी किसी ने दोबारा दूसरे पराँठे के लिए नहीं पूछा था.भाभियों के इस रूखे व्यवहार से सिया भीतर तक हिल गई थी और उसने पिता से पूछा, पापा, आधा परांठा और दे दूँ? 'जवाब में हाँ करते हुए पिता ने बड़े हुलस कर सिया के हाथ में रखे हुए पराँठे की ओर देखा और कहा, 'लेकिन मन्नत तो मुझे रोज़ बस एक परांठा ही देती है. दूसरा मांगता हूँ तो कहती है, पेट खराब हो जाएगा.'
'नहीं, नहीं,आधे पराँठे से कोई पेट वेट नहीं खराब होने वाला.' यह कहते हुए सिया ने पिता की प्लेट में आधा परांठा रख दिया कि तभी झपटते हुए मन्नत ने वो आधा परांठा,उठा लिया और चिल्ला कर सिया से बोली, 'अरे सिया,यह गज़ब न करना. अभी आधा परांठा खाते ही इन्हें पाँच छै: दिनों तक दस्त लग जाएँगे और दस्तों की वजह से कभी कभी तो यह कपड़े तक खराब कर देते हैं. फिर उन्हें धुलवाने के लिए जमादारिन कि लाखों मिन्नतें करनी पड़ती हैं. फिर तीनों वक़्त इनके लिए खिचड़ी दलिया बनाने की आफत करनी पड़ती है.'
'नहीं, नहीं, महज़ आधे परांठे से कुछ नहीं होगा.मेरे पास हाज़मे की कुछ गोलियां रखी हैं. पापा को मैं वो गोलियां दे दूँगी.'
'ठीक है सिया, जैसी तुम्हारी मर्जी .तुम्हारे आगे आज तक किसी की चली है, जो आज चलेगी. तुम्हारे आगे कोई कुछ कह सकता है भला, 'तनिक मुंह बनाते हुए बड़ी भाभी ने कहा था.
पूरा घर दोनों भाइयों, भाभियों की इच्छाओं,आकांक्षाओं की धुरी पर चक्कर काटता. दोनों भाई भाभी किसी बात पर ज़ोरों से हंस रहे थे और घर के नौकर भाग भाग कर दोनों भाई भाभियों की सेवा में लगे हुए थे और वृद्ध पिता एक कोने में अपनी धुंधली दृष्टि वाली आँखों को मिचकाते हुए बिना दांतों वाले पोपले मुंह से खाने के कौर सप्रयास चबाते हुए बेहद निरीह और बेबस नज़र आ रहे थे.
उन्हें देख कर अनायास सिया के जेहन में पुराने दिन कौंध उठे थे, जब घर में पापा का एकक्षत्र साम्राज्य था और वह इस घर की एकमात्र सत्ता थे. उनकी मर्जी के बिना घर में पत्ता तक नहीं हिलता था. पापा बेहद ज़िंदादिल और खुशमिजाज़ इंसान थे. हर वक़्त अपनी मज़ेदार और लच्छेदार बातों से घर में चहल पहल भरा माहौल बनाए रखते. उसे आज तक याद है, अपने सौम्य शालीन व्यक्तित्व की वजह से वह माँ और बेटे बेटियों की चाहत का एकमात्र केंद्र बिन्दु थे. जब कभी पापा सरकारी काम से दौरों पर जाया करते थे तो उनकी अनुपस्थिति में जैसे घर की सारी जीवंतताऔर रौनक चली सी जाती थी.
लेकिन आज वही पापा वृद्धावस्था, कम सुनने और याददाश्त कमजोर हो जाने की वजह से अपने बहुमुखी, चुंबकीय व्यक्तित्व की सारी सुगंध और जिजीविषा खो बैठे थे, जिसकी किसी को कोई कद्र नहीं रही थी, परवाह नहीं रही थी.
उधर जब भी सिया पिता के पास बैठती, वह उससे बेटे बहुओं की आलोचना करते नहीं थकते।
'बेटा, अभी मैं सिर्फ अस्सी साल का हुआ हूँ, लेकिन इन लोगों ने मुझे घर भर पर एक अनचाहा बोझ बना कर एक कोने में पटक दिया है. पिछले साल तक मैं अपने एक आफिस में बैठा करता था. वहाँ का कामकाज मैं ठीक ठाक संभाल रहा था, लेकिन इस साल न जाने क्यों इन्होनें मुझसे कह दिया, पापा बहुत काम कर लिया आपने, अब आप घर बैठो, लेकिन बेटा घर पर बैठे बैठे मैं बुरी तरह उकता गया हूँ. ऐसे तो मेरे शरीर में जंग लग जाएगी. बेटा तू ही दोनों भाइयों से कह कर किसी आफिस में मेरे बैठने का इंतजाम कर'.
पापा की परेशानी सुनकर सिया समझ गई थी, परेशानी की जड़ थी उनका ऊंचा सुनना और याददाश्त कमजोर होना. इनकी वजह से उनको किसी आफिस में तो हर्गिज नहीं भेजा जा सकता. तो पापा को घर पर ही व्यस्त रखना होगा, वह जिंदगी में फिर से रुचि लेते हुए अपना समय गुजार सकें. वह अगले ही दिन से पापा की जिंदगी का ढर्रा एक निश्चित दिशा में ढालने के प्रयास में जीजान से जुट गई.
अगले ही दिन सुबह उठते ही भतीजे नील और भतीजी धरा और पापा के साथ वह टहलने चली जाया करती तथा हल्की फुल्की बातें छेड़ दिया करती, जिसमें पापा,नील, और धरा सहज स्वाभाविक रूप से हिस्सा लेने लगे.
सुबह की सैर के बाद वह पापा के साथ घर के सामने लगे विशाल बगीचे में पेड़ पोधों की साजसंभाल में व्यस्त हो जाया करती. छोटे पोधों को बोन्साई में बदलना उसका प्रिय शगल था. उसकी भतीजी धरा भी उससे पापा के साथ बोन्साई बनाना सीखने लगी थी. इस तरह सुबह के दो तीन घंटे बगीचे की साजसंभाल और बोन्साई बनाने में बीतने लगे. सिया ने पापा को घर के पास के पुस्तकालय का सदस्य बनवा दिया, जहां से पापा स्वयं अपनी पसंद की किताबें पढ़ने के लिए ले आया करते. सिया ने घर का एक कंप्यूटर पापा के कमरे में लगवा दिया और वह धीरे धीरे उन्हें कंप्यूटर चलाना सिखा रही थी. करीबन दस दिनों में ही पापा कंप्यूटर और इन्टरनेट चलाना सीख गए थे. सिया ने कई सोशल साइट्स पर उनकी दोस्ती उनके हमउम्र दोस्तों से करवा दी थी तथा दूसरे शहर में रह रहे बेटे और बेटी से इन्टरनेट पर आमने सामने बात करना सिखा दिया, जिससे उनका अकेलापन बहुत हद तक दूर हो गया और अब वह अधिकतर अपने रिश्तेदारों से बातों में व्यस्त रहा करते. सिया देख रही थी कि उसके प्रयास रंग लाने लगे थे और कुछ ही दिनों में वह बहुत खुश और संतुष्ट नज़र आने लगे थे. भाभियाँ भी अब उनसे ज्यादा चिड़ चिड़ नहीं करती थीं.
महीने भर का वक़्त मानो पंख लगा कर बीत गया और सिया की घर जाने की घड़ी आ पहुंची. पापा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेते वक़्त पापा ने उसके सिर पर हाथ रख कर भरे गले से कहा,
'तुझ जैसी बेटी ईश्वर हर किसी को दे. तूने मेरा बुढ़ापा संवार दिया बेटी. तुझे जीवन की हर खुशी मिले,'और सिया का मन अथाह सुकून और संतुष्टि के एहसास से मुदित हो उठा
रेणु गुप्ता
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