Vahi Duriyaa in Hindi Love Stories by Govind Sen books and stories PDF | वही दूरियाँ

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वही दूरियाँ

गोविन्द सेन

अचानक संजय से मिलना हुआ। लगभग दस साल बाद। आँखें मिली। पहचान की चमक कौंधी। यंत्रवत् हाथ आगे बढ़ गये। एक अप्रत्याशित मुलाकात थी वह।

नौकरी लगी। शादी हुई। मैं घर के कामों में उलझता गया। मेरा ननिहाल जाना कम होता चला गया। फिर भी साल भर में एकाध चक्कर तो लगा ही लेता हूँ। एक-दो दिन के लिए ही सही।

प्रकृति की गोद में बसा मामाजी का यह गाँव मुझे बचपन से ही प्रिय है। विद्यार्थीकाल में मेरी गर्मियों की छुट्टियाँ अमूमन यहीं कटती थी। इस बीच यहाँ मेरे कुछ मित्र भी बने। इनमें संजय भी एक था जिससे विशेष आत्मीयता हो गयी थी। संयोग से शिक्षक प्रशिक्षण के दौरान वह मेरा रूम पार्टनर रहा था।

जब संजय ने मुझसे घर चलने का आग्रह किया तो मेरी तंद्रा टूटी। मुझे यह सब अकल्पनीय लग रहा था। वह अबोलापन और यह आग्रह, दोनों में कोई मेल नहीं था। फिर भी मैं बिना कुछ सोचे उसके साथ चलने लगा। दस साल के लम्बे अंतराल के बाद मैंने उसे देखा था। उस के सिर पर बाल विरल हो चुके थे। गंजापन प्रकट हो रहा था। उसने बचे हुए बालों को बढ़ाकर उनकी भरपाई करने का प्रयत्न किया था। आँखें कोटरों में कुछ और धंस गयी थी। शर्ट पेंट में इन की हुई नहीं थी। पेंट-शर्ट पर सलवटें पड़ी हुई थी। इन बाहरी परिवर्तनों के साथ उसके भीतर भी कुछ बदलाव आया होगा। मैंने सोचा।

मुझे प्रशिक्षण काल के दिन याद आने लगे। उन दिनों संजय खूब बना-ठना रहा करता था। वह बिना इन शर्ट घर से बाहर नहीं निकलता था। मजाल है कि कपड़ों पर एक भी सल पड जाए। वह बालों को भी एक खास शैली में जमाए रखता। उसके पास किस्म-किस्म के कंघों, तेल, इत्र, क्रीम आदि का खासा संग्रह था। जबकि हमें यह गैर जरूरी लगता था।

जब मैं संजय से पहली बार मिला था, वह 10 वीं में पढ़ रहा था। मैंने उसे विपन्न अवस्था में देखा था। जब वह 6 साल का था उसके पिताजी गुजर गये थे। माँ को पेंशन मिलती थी , उसी से गुजारा होता था। उन दिनों वह माँ के साथ एक किराये की टापरी में रहता था। टापरी की दीवारें गारे की थी। फर्श कच्चा था। फर्श और दीवारें गोबर से लीपी जाती थी। दरवाजों पर पुराने परदे टँगे थे। उसके पास संभवतः दो जोड़ी से अधिक कपड़े नहीं थे। वे भी पुराने और गले हुए। तब वह फटेहाल था। इन अभावों के बावजूद पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा। खुद मेरी आर्थिक स्थिति संजय से बेहतर नहीं थी। संभवतः इसी कारण हम दोनों में पटने लगी थी।

मैं कई बार उसके घर गया। उसकी माँ हमारे लिए चाय बनाती। दरवाजे पर टँगे परदे के पीछे से उसकी माँ के ट्रे उठाए हाथ प्रकट होते। मुझे अजीब लगता। मैं संजय का हमउम्र था। उनके बेटे के समान। फिर मुझसे परदा कैसा ? मैं समझ नहीं पाता। बाद में पता चला कि यह उनकी खानदानी परम्परा है। उनके खानदान की स्त्रियाँ परदे में ही रहती हैं। अजीब यह भी लगता कि उसे इस पर गर्व था।

यह संयोग ही था कि शिक्षकीय परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद हमें एक ही प्रशिक्षण केन्द्र पर भेजा गया था। नौकरी मिल जाने की खुशी तो थी ही, पूर्व परिचित साथी पाकर खुशी और बढ़ गयी।

यहाँ हमें लगभग हमारे जैसा ही एक साथी और मिल गया- चम्पालाल। हम तीनों दयनीय आर्थिक स्थिति के चलते आगे पढ़ने में असमर्थ थे। मूलतः गाँव के होने के बावजूद किसी की भी खेती नहीं थी। शायद इन्हीं सूत्रों ने हमें एक साथ जोड़ दिया था।

चम्पालाल एक बेबाक देहाती युवक था। उसी क्षेत्र का होने से वहाँ उसकी खासी जान-पहचान थी। उसने ही अपनी जान-पहचान के जरिए रहने के लिए एक कोठरी का इन्तजाम किया। हम तीनों अब रूम पार्टनर थे।

हमें स्टायपंड मिलने लगा था। संजय ने कुछ ट्यूशनें कर ली थीं। वह एक भी पैसा फालतू नहीं जाने देता। एक-एक करके उसने काफी पैसा जोड़ लिया। सबसे पहले उसने बढ़िया आधुनिक ढंग के कपड़े सिलवाए। जबकि हम ऐसा कुछ कर नहीं पाए। शायद हममें फिजूलखर्ची ज्यादा थी। वैसे हमें कुछ पैसा घर भी भेजना पड़ता था। फिर भी हमें संजय नाकारा समझता। अब संजय शर्ट को इन करके रखने लगा। उसने बालों को एक खास शैली दी। कंघे, क्रीम, पावडर वगैरह ले आया था। अपने हिसाब से वह एक शानदार जिन्दगी जी रहा था। जबकि हम अस्त-व्यस्त थे।

उसमें तेजी से बदलाव आता जा रहा था। हुलिया और पहनावा तो बदला ही, लगता था उसका मन भी बदल रहा है। मौका पाकर उसके भीतर दबी इच्छाएँ प्रकट हो रही थीं। जैसे हवा-नमी पा मिट्टी से बीज फूटता है।

चम्पालाल वही देहाती रहा। अभी भी लट्ठे की चड्डी बेधड़क पहनता था। बनियान में बाँयी ओर बड़ी सी जेब होती। जिसमें उसका दायाँ पंजा पूरा समा जाता। उसे नाड़ीदार पजामे पर ओपन शर्ट पहनने में कोई झिझक महसूस नहीं होती। उसने कपड़ों पर कभी प्रेस करवाने की जरूरत नहीं समझी। कपड़े धुले हों, साफ हों, उसके लिए काफी था।

संजय उसकी लट्ठे की चड्डी और बनियान को लेकर उसका मजाक उड़ाया करता था। मजाक कभी चम्पालाल को चुभ जाता। संजय का मजाक भी महज मजाक नहीं होता बल्कि उसे घटिया साबित करने की मंशा भी उसमें होती।

हम तीनों का खाना साथ ही बनता। गेहूँ , तेल, सब्जी आदि पर जो भी व्यय होता, उसे हम बाँट लेते।  वैसे हमने काम भी बाँट लिया था। फिर भी अधिकांश काम चम्पालाल ही करता। रोटी बनाना एवं बर्तन साफ करना उसके जिम्मे था। संजय सिर्फ सब्जी बनाता । वह सब्जी बनाने में स्वयं को माहिर बताता था। बड़ी चतुराई से हल्के-फुल्के काम उसने ले रखे थे।

“चम्पालाल अकेला आठ-दस रोटी ठाँस जाता है। जबकि हम चार-पाँच रोटी ही खाते हैं। क्यों न चम्पालाल को खाने से अलग कर दिया जाय या उससे ज्यादा पैसा लिया जाय।’’ एक बार संजय ने चम्पालाल की अनुपस्थिति में मुझसे कहा था। मुझे संजय की इस ओछी सोच पर आश्चर्य हुआ। मुझे आज तक पता नहीं था कि चम्पालाल कितनी रोटियाँ खाता है, लेकिन संजय ने उसके द्वारा खायी जाने वाली रोटियाँ तक गिन ली थी। नफे-नुकसान का हिसाब भी लगा लिया था।

संजय ने यह नहीं सोचा कि वह दो-चार रोटी भले ही ज्यादा खाता हो लेकिन काम भी उतना ही करता है। जिन कामों करने में हमें शर्म आती, वह सहज ही कर लेता था। मसलन बाजार से गेहूँ लाना, मटका लाना, डिब्बे में गेहूँ पिसवाकर लाना, नल न आने पर कुएँ से पानी भर कर लाना आदि। घड़े को सिर पर उठाकर लाने में उसने कभी शर्म महसूस नहीं की। इन सबके बावजूद संजय उस खाने से अलग कर देना चाहता था। एक ही छत के नीचे हम अलग-अलग खाना बनाएँ या उससे ज्यादा पैसा लें, मुझे यह मंजूर नहीं था। मैंने साफ इंकार कर दिया।

धीरे-धीरे संजय ने अपनी अलग दुनिया बुननी शुरु कर दी। हमसे बेहतर दुनिया। वह पतरे की एक पेटी और आटे के लिए एक डिब्बा ले आया। उसने पेटी में अपने कपड़े और सौन्दर्य प्रसाधन करीने से जमा लिये। जबकि हमारे कपड़े एवं अन्य सामान यों ही पड़े रहते। अब वह अलग खाना बनाने लगा। उसकी महत्वपूर्ण चीजें पेटी में चली गयी थीं। उसने पेटी और आटे के डिब्बे पर ताले लगा दिये। हम उन तालों को देख आहत हुये। लगा जैसे हमारी मित्रता पर भी ताला लग चुका हो।

वह दिन-ब-दिन हमसे कटता चला गया । उसने अपने कुछ नए दोस्त बना लिये जो उसके समान ही उच्च जाति के और अच्छे कपड़े पहनकर रहने वाले थे। अपरोक्ष रूप से वह यह जताने लगा था कि वह एक जमींदार घराने का युवक है और उसके सामने हमारी हैसियत ही क्या है! हमने कभी इस कोण से सोचा ही नहीं था। हम अभी तक मित्रता की तरलता में डूबे थे। उसने हमसे बोलना तक बंद कर दिया।

एक दिन वही हुआ जिसकी संभावना थी। वह बिना कुछ कहे अपनी पेटी और बिस्तर वगैरह लेकर चला गया। प्रशिक्षण पूरा होने में अब केवल तीन माह ही बचे थे। लेकिन वह इस छोटे से समय को भी हमारे साथ नहीं गुजार पाया। अब वह कमल शर्मा का रूम पार्टनर बन गया था।

अब वह अपने नए मित्रों में मस्त था। उसे उसकी सही कम्पनी मिल गयी थी। उसने हमें नकार दिया था। हमें भी उससे न कोई सरोकार था न कोई शिकायत । वह हमें हेय दृष्टि से देखता था, बस यही तकलीफ थी।

प्रशिक्षण पूरा होने के बाद सभी शिक्षक बनकर अलग-अलग स्थानों पर चले गये। मैं भी एक गाँव में पदस्थ हो गया। वह गाँव एक कस्बे के पास पड़ता था। मैंने उस कस्बे में एक कमरा किराए पर ले लिया और साइकिल से गाँव में अप-डाउन करने लगा। शादी होने के बाद एक बेटा हुआ। दो से तीन हुए। गर्मियों में पतरे की छत वाला डिब्बेनुमा कमरा हमें कुकर की तरह लगता। जिसमें हम आलू की तरह तपते-उबलते हुए पड़े रहते।

 

सहसा संजय का रंगरोगन से दम-दमाता मकान सामने आ गया। मैं वर्तमान में लौट आया। सूर्य पश्चिम में ढल रहा था। आँगन में हीरो होण्डा खड़ी चमचमा रही थी। उसे देख मुझे अपनी खटारा साइकिल की याद हो आयी। संजय मुझे बैठक में ले गया। सोफे पर बैठने का कहकर वह भीतर चला गया। मैं सोफे में धंसा विस्फारित नेत्रों से बैठक में सजी चीजों को देख रहा था। टी.वी., टेप, आलमारी, शो-पीश आदि करीने से जमे थे। वे मकान मालिक के वैभव को प्रकट कर रहे थे। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि  यह उसी संजय का मकान है जो कभी कवेलू की छत वाली जर्जर टापरी में रहता था। खिड़की और दरवाजों पर कीमती और आकर्षक परदे टँगे थे। ये सब चीजें मिलकर शायद मुझे छोटा साबित कर रही थी। मैं अभी भी रेडियो युग में जी रहा था जबकि संजय कहाँ से कहाँ पहुँच चुका था। क्षणांश को भीतर कहीं ईष्र्या भी जाग्रत हुई।

तभी संजय भीतर से आया। मैंने मकान को लेकर प्रश्ंासात्मक टिप्पणी की। वह खुश हुआ। मुझे प्रभावित पाकर कहीं भीतर से वह संतुष्ट भी हुआ था। उसने विस्तार से जमीन कबाड़ने से लेकर मकान बनाने तक का विवरण सुनाया। फिर उसके द्वारा सम्पन्न कुछ महत्वपूर्ण कार्यों का उसने उल्लेख किया। जैसे शादी में कितना खर्च हुआ। कितने बाराती ले गया। उसके द्वारा दिए गये प्रीतिभोज को आज भी लोग नहीं भूले हैं। उसने बताया। हाँ, मिलने वाले के दहेज के संबंध में वह जरूर मौन रहा। जबकि मुझे मालूम था कि उसके वैभव के पीछे दहेज और उसकी ट्यूशनखोरी का प्रमुख योगदान है। इस बीच उसकी सुदर्शना पत्नी चाय की ट्रे लिए हुए प्रकट हुईं। उसकी को तो कभी देख नहीं पाया लेकिन उसकी पत्नी के दर्शन जरूर हो गये। जैसे वह पत्नी को दिखाकर बताना चाहता हो कितनी सुन्दर पत्नी मिली है।

खैर, अपनी आत्म प्रशंसा से निवृत्त हो वह मेरी ओर मुखातिब हुआ।

“और सुनाओ तुम्हारे क्या हाल हैं ? कहाँ रह रहे हो आजकल ?’’

मैंने अपने कस्बे का नाम बताया।

“मकान तो बना लिया होगा ?’’ उसके लिए शायद जरूरी प्रश्न था

“मकान...नहीं ... किराए से रहता हूँ।’’ मैं ऐसे प्रश्नों से बचना चाहता था। जबकि वह ऐसे ही प्रश्नों को पूछने पर आमादा था।

“तीन-चार कमरे तो होंगे ही।’’ मुझे उसका यों खोद-खोदकर पूछना अच्छा नहीं लगा। शायद वह पहले ही मेरे बारे में किसी से सब कुछ पता कर चुका था। मैं भीतर से क्षुब्ध था।

“नहीं...एक कमरा।’’ मैंने बाहर से सहज होकर उत्तर दिया।

“एक कमरा...’’ उसने आश्चर्य व्यक्त किया। जैसे वह मेरी हालत पर हँस रहा हो। वह मुझे पटकनी दे चुका था। शायद वह अपनी सम्पन्नता को दिखाने और मुझे अपनी औकात का एहसास कराने के लिए ही यहाँ लाया था।

वह कुछ देर चुप रहा। फिर एक वक्तव्य सा दिया।

“ इस टीचरशीप में लोग रिटायरमेन्ट तक जो नहीं कर पाते वो मैंने 30 साल की उम्र में कर लिया है।’’

लोग याने मेरे जैसे लोग। स्पष्ट था। मैं कुछ नहीं बोला। वही फिर कुछ दार्शनिक अंदाज में बोला-“अब तो किसी बात में मन नहीं लगता। जैसा आया वैसा पहन लिया। घर में पच्चीस जोड़ी कपड़े हैं। लेकिन हाथ में जो आया वही टांग लिया। खूब कपड़े पहन लिये। जी भर गया।’’

वह मुझे सलवट भरे कपड़ों में मिला था। शायद उसी का स्पष्टीकरण दे रहा था। उसने जीवन में सब कुछ कर लिया । लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया। शायद वह यही अहसास कराना चाहता था।

रात गहराने लगी थी। मैं खिन्न हो कर लौट रहा था।

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