Biraj Bahu - 15 - Last Part in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | बिराज बहू - 15 - अंतिम भाग

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बिराज बहू - 15 - अंतिम भाग

बिराज बहू

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(15)

पूंटी अपने भाई नीलाम्बर को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देती थी। पूजा के दिनों से लेकर पूस के अन्त तक वे शहर-दर-शहर और एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ घूमते रहे। वह अभी नवयौवना थी। उसके शरीर में शक्ति थी। उसमें हर वस्तु को जानने की असीम जिज्ञासा भी थी।

नीलाम्बर उसके बराबर नहीं चल सकता था। वह जल्ही ही थक जाता था। वह चाहता था कि थोड़ा-सा विश्राम करता, पर पूंटी नहीं मानती थी।

उसका मन अपने घर की ओर लगा रहता था। उसका थका मन न जाने क्यों अपने गाँव जाना चाहता था। देश में या गाँव में क्या है? यहाँ स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। कभी-कभी छोटी बहू पूंटी को पत्र लिखती है। उसकी इच्छा यह है कि दादा पहले की तरह हो जाएं. चिन्ता के कारण उनकी देह कंकालवत् रह गई थी। पूंटी की इच्छा है कि उसके दादा हर घड़ी ठहाके लगाते रहे, गुनगुनाते रहे, पर उसके दादा उसके सारे प्रयासों को बेकार करते जा रहे थे। वह हताश नहीं हुई। सोचती थी कि कुछ दिनों के बाद सब ठीक हो जाएगा। इस तरह चार-पाँच महिने बीत गए, पर कोई लाभ नहीं हुआ। घर छोड़कर आने के दिन मोहिनी की बातों ने बिराज के प्रति करुणा के भाव जाग्रत कर दिए थे। उसे विश्वास-सा हो गया था कि वह निर्दोष है, पर पूंटी का विचार इसके विपरीत था। दादा क्या ठीक नहीं हो सकते? संसार में ऐसी पीड़ा की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी जिससे बिराज इस आदमी को इतने दुःखों में डालकर अलग हो सकती है। भाभी अच्छी थी या बुरी, यह बात अब पूंटी नहीं सोच सकती, किंतु उसके भाई को छोड़कर जाने वाली स्त्री की वह कट्टर शत्रु बन गई थी।

पूंटी एक सुबह मुंह फुलाए आई और उसने कहा- “दादा, चलो घर चलें।”

नीलाम्बर ने जरा अचरज से बहन को देखा, क्योंकि माघ के महिने में प्रयाग में रहने की बात तय हुई थी। दादा के मनोभावों को समझकर पूंटी ने कहा- “अब एक दिन भी रहना नहीं चाहती। कल ही चलेंगे।”

अपने चहेरे पर नीलाम्बर ने सूखी मुस्कान लाते हुए कहा- “पूंटी! क्या बात है?”

पूंटी अपने को संभाल नहीं पाई। फफक पड़ी। भर्राई आवाज में बोली- “जब तुम्हें यहाँ रहना ही अच्छा नहीं लगता, तब यहाँ रहने से लाभ क्या है? दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हो। ना... ना... मैं एक दिन भी अब नहीं रह पाऊंगी।”

नीलाम्बर ने स्नेह से उसका हाथ पकड़कर अपने पास बिठाया, कहा- “वहाँ लौट जाने से मैं अच्छा नहीं हो पाऊंगा पूंटी! अब इस देह के ठीक हो जाने की आशा मुझे नहीं है। चलो, घर को लौट चलें, कम-से-कम जो कुछ भी होना हो, घर पर ही हो।”

पूंटी अपने दादा की बात सुनकर रो पड़ी, बोली- “तुम सदा उसकी चिन्ता क्यों करते हो? बहुत कमजोर हो गए हो।”

“यह किसने कहा कि मैं सदा उसे स्मरण करता हूँ।”

पूंटी ने कहा- “कहेगा कौन? मैं स्वयं ही जानती हूँ।”

“तू उसे याद नहीं करती?”

“नहीं करती, उसे याद करने मात्र से पाप लगता है।”

“क्या लगता है?”

“पाप... उसका नाम लेने से मुंह अपवित्र हो जाता है। स्नान करना पड़ता है।”

नीलाम्बर के तेवर बदल गए। वह कठोर स्वर में बोला- “पूंटी!”

पूंटी सहमकर रह गई। वैसे पूंटी नीलाम्बर की लाड़ली बहन थी। उसने बचपन से लेकर आज तक हजारों गलतियां की, पर दादा की कभी भी उसने इतनी लाल आँखें नहीं देखीं। इतनी आयु में झिड़की खाकर उसे ग्लानि-सी हो गई। सिर झुक गया।

नीलाम्बर उठ गया। पूंटी फफक-फफककर रो पड़ी।

दोपहर को भोजन की थाल लेकर दादा के सामने नहीं आई। दासी के हाथ थाली भेज दी और आड़ में खड़ी हो गई।

नीलाम्बर ने बुलाया तो उसने बात नहीं की।

सांझ हो गई।

नीलाम्बर आसन पर बैठा था। वह पूजा-पाठ से निवृत्त हो गया था। पूंटी के दादा की पीठ पर अपना मुंह रख दिया। दादा से शिकायत करने का एक यही तरीका था। बचपन में भी यही करती थी। नीलाम्बर को सहसा कुछ याद हो आया। उसकी पलकें भीग गई।

पूंटी के सिर पर हाथ रखकर उसने कहा- “क्या है री, बेटी?”

पूंटी दादा की गोद में मुंह छुपाकर रोने लगी। नीलाम्बर उसके सिर पर हाथ रखकर बैठा रहा। थोड़ी देर के बाद पूंटी ने कहा- “दादा! अब मैं कभी नहीं कहूँगी।”

नीलाम्बर ने उसके बालों को सहलाकर का- “हाँ री, ऐसे कभी मत करना।”

कुछ रुककर नीलाम्बर ने आगे कहा- “हाँ पूंटी! उसने तुम्हें माँ की तरह पाला-पोसा है। बड़ी है, वह तुम्हारी माँ के समान है। कम-से-कम तेरे मुंह से इस तरह की बात शोभा नहीं देती।”

पूंटी ने आँखें पोंछते-पोंछते कहा- “यह मैं या भगवान ही जानता है। उस समय वह पागल हो गई थी। यदि उसे जरा भी होश होता तो वह आत्महत्या ही करती।”

पूंटी ने फिर पूछा- “दादा! वह अब आती क्यों नहीं?”

“वह जिस दशा में मुझे छोड़कर गई है, जरुर आ जाती। पूंटी तू स्वयं सारी बातें अच्छी तरह समझती ही है।”

“हाँ दादा!”

नीलाम्बर ने भावावेश में कहा- “यही सोच लो बहन! वह आना चाहती है, पर आ नहीं पाती। पूंटी! तू नहीं समझती, पर मैं जैसे ही आँखें बन्द करता हूँ, वैसे ही वह मुझे दिखने लगती है। बस, यही बात मुझे सुखाती जा रही है।”

“हूँ!” पूंटी फिर रो पड़ी।

नीलाम्बर ने भी अपनी आँखें पोंछते हुए कहा- “उस अभागिन की बस केवल दो ही कामनाएं थीं। पहली कि अन्त समय उसके प्राण मेरी गोद में निकलें और दूसरी यह कि मरने के बाद वह सीता-सावित्री के पास जाए। पर अभागिन की ये दोनों साधे पूरी नहीं हुई।”

पूंटी चुपचाप सुनती रही।

नीलाम्बर रुंधे स्वर को साफ करके बोला- “सब लोग उसे ही दोष देते हैं, पर भगवान जानता है कि वह किसके अत्याचार से डूबी। तू ही कह कि मैं किस मुंह से उसे दोष दूं! दुनिया की नजरों में चाहे वह कितनी ही कलंकिनी हो, पर मैं उसे कभी कोई दोष नहीं दूंगा। उसे आशीर्वाद दिए बिना मैं कैसे रहूँ? अपनी ही गलती से मैंने उसे इस जन्म में पाकर खो दिया। ईश्वर करे, अगले जन्म में वह मिल जाए” उसका गला रुंध गया।

पूंटी जल्दी से उठकर अपने भाई के आँसू पोंछने लगी। वह स्वयं रो पड़ी- “दादा! जहाँ जी चाहे चलो, मगर मैं तुम्हें नहीं छोडंगी... एक पल के लिए भी नहीं।”

नीलाम्बर ने सिर उठाकर जरा हंसने का असफल प्रयास किया।

***

बिराज रास्ता तय करती जा रही थी। वह जगन्नाथ पुरी के रास्ते से लौट रही थी, अनिर्दिष्ट मृत्यु-शैय्या की खोज में। वह सदा यह सोचती थी कि यदि शरीर निष्पाप है, तभी पति के चरणों में पत्नी प्राण त्याग सकती है। दामोदर नदी के पार पहुंचते-पहुंचते वह थक गई थी। वह काफी अशक्त हो चली थी। पेड़ के नीचे पड़ी-पड़ी वह हर घड़ी पति के चरणों की वन्दना करती थ। बस यात्रा करती जा रही थी।

***

तारकेश्वर में बाजार लगा हुआ था। बैलगाड़ियों का आना-जाना हुआ था। एक बूढ़े को रो-धोकर उसने ले जाने के लिए राजी कर लिया।

उस दिन आकाश में बादल छाए हुए थे। तीसरा पहर होते-होते अंधकार-सा छा गया। सुबह मुंह से बहुत खून निकल जाने से बिराज और भी कमजोर हो गई थी। वह मन्दिर के पीछे मुंह छुपाए पड़ी रही। उसके मन में अनेक तरह के भावों का आना-जाना लगा रहा। उसने तय किया कि अब वह भीख नहीं मांगेगी। दरअसल भीख का भाव अब उसके चेहरे पर नहीं था। एक अजीब-सा विद्रोह था जो अभिमान की दीप्ति से झिलमिला रहा था।

वह परिक्रमा की राह के पास लेटी हुई थी। अचानक किसी का पांव उसके हाथ पर पड़ा। उसे दारुण वेदना हुई। वह कराह उठी- “आह!”

अपरिचित आदमी चौंककर कह उठा- “हाय, यहाँ कौन पड़ा है? मुझसे पाप हो गया। ज्यादा चोट तो नहीं आई?”

बिराज ने अपने मुंह से कपड़ा हटाकर देखा तो वह नीलाम्बर ही था। लेकिन वहाँ रुका नहीं था।

नीलाम्बर ने पूंटी से कहा- “पूंटी! वह स्त्री मुझसे कुचल गई है। उस भिखारिन की कुछ सहायता कर दो।”

पूंटी ने आकर भिखारिन से पूछा- “अजी! तुम्हारा घर कहाँ है?”

“सप्तग्राम!” वह हंस पड़ी।

बिराज की न भूलने वाली जो चीज थी, वह थी उसकी हंसी। उसे एक बार जिसने देख लिया, वह भूल नहीं सकता।

“अरे! यह तो भाभी है।” पूंटी उस जीर्ण-शीण देह पर पड़ गई और लिपटकर रो पड़ी।

नीलाम्बर ने सब-कुछ समझ लिया। लपककर आया, बोला- “पूंटी! यहाँ मत रो... उठ!”

नीलाम्बर उस कमजोर सूखी देह को बच्चे की तरह उठाकर अपने डेरे की ओर चल पड़ा।

***

नीलाम्बर ने चाहा कि बिराज को किसी अच्छी जगह ले जाया जाए जहाँ वह स्वस्थ हो सके, पर बिराज ने बार-बार यही कहा कि उसे अपने घर ले चलो, अपनी चारपाई पर लिटा दो।

उसे घर ले आया गया।

नीलाम्बर उसकी चारपाई नहीं छोड़ता था। बिराज रात-दिन ज्वर में अचेत रहती थी। थोड़ा-सा भी चेत आता तो घर की हर वस्तु को गौर से देखती थी। घर के प्रति उसके तीव्र सम्मोह को देखकर नीलाम्बर बेचैन हो जाता था।

दो हफ्ते गुजर गए।

कल से बिराज की तबियत और अधिक खराब लगने लगी थी। दिन भर प्रलाप करके वह थोड़ी देर के लिए सो गई थी। शाम होने के बाद उसकी आँखें फिर खुलीं। पूंटी रोती-रोती उसके पांवो के पास सो गई थी। छोटी बहू सिरहाने बैठी थी।

बिराज ने कहा- “छोटी बहू!”

छोटी बहू उसके नजदीक अपना मुंह लाकर बोली- “दीदी! मैं हूँ मोहिनी।”

“पूंटी कहाँ है?”

छोटी बहू ने संकेत करके कहा- “तुम्हारे पास सो रही है।”

“वे कहाँ हैं?”

छोटी बहू ने बतलाया- “उस ओर संध्या-पूजा कर रहै हैं।”

“मैं भी करुंगी।” उसने आँखें बन्द की और मन-ही-मन भगवान को याद करने लगी। थोड़ी देर बाद दाहिना हाथ माथे से छुआकर प्रणाम किया।

फिर क्षणभर मोहिनी की ओर देखकर उसने धीरे-धीरे कहा- “बहन! लगता है आज मुझे जाना है। मगर मेरी कामना है कि दूसरे जन्म में मैं तुम्हें फिर पाऊं।”

कल ही सब जान गए थए कि बिराज का अन्तिम समय आ गया है। छोटी बहू रोने लगी।

बिराज होश में थी। उसने मन्द स्वर में कहा- “छोटी बहू! सुन्दरी को एक बार बुलवा सकती हो?”

छोटी बहू ने भरे गले से कहा- “अब उसे क्यों बुला रही हो? वह किसी भी कीमत पर नहीं आएगी।”

बिराज ने दृढ स्वर में कहा- “आएगी... जरुर आएगी... उसे बुलवा तो भेजो! मैं उसे क्षमा करके आशीर्वाद देती जाऊं। अब मुझे किसी पर क्रोध और लोभ नहीं। भगवान ने मुझे क्षमा करके मुझे अपने पति के पास लौटा दिया, इसलिए मैं भी उसको क्षमा करना चाहती हूँ।”

छोटी बहू ने रोते-रोते कहा- “दीदी! भगवान तुम्हें इतनी सजा क्यों दे रहा है? कोई अपराध भी तो नहीं हुआ। एक हाथ लेकर भी तुम्हें हमारे लिए छोड़े देते!”

बिराज हंस पड़ी, बोली- “बहन! गाँव-नगर में मेरी बदनामी हो गई है। मेरे जीवित रहने से कोई फायदा नहीं।”

“फायदा है।” छोटी बहू ने कहा- “तुम्हारी बदनामी झूठी है। झूठी बदनामी से हम क्यों डरे?”

“पर मैं डरती हूँ।” बिराज ने कहा- “मेरा अपराध जने कितना ही छोटा या बड़ा हो, पर एक हिन्दु स्त्री को इसके बाद जिन्दा रहने का कोई हक नहीं है। यही मुझ पर भगवान की दया है, परंतु...!”

पूंटी रोती हुई आर्तनाद कर उठी- “ओह! भगवान की बड़ी दया है? असल पापी को कुछ नहीं हुआ और सज़ा हमें दे रहा है?”

बिराज ने बनावटी गुस्से में कहा- “चुप रह कलमुंही, चिल्ला मत!”

पूंटी उसके गले से लिपट गई और रो पड़ी, बोली- “तुम रोओ मत भाभी... तुम कुछ दिन और जीओ।”

नीलाम्बर भी पूजा छोड़कर आ गया। उसने पूंटी का रोना सुन लिया था।

बिराज उखड़े हुए गले से बार-बार कहने लगी- “पूंटी बेटी, रो मत... सुन!”

नीलाम्बर आड़ में खड़ा होकर सुनने लगा। वह जान गया था बिराज की सारी चेतना लौट आई है।

बिराज कहने लगी- “पूंटी! भगवान को बिना कारण दोष मत दो। इस बात को आज मैं ही जानती हूँ कि मेरा मरना ही मेरा जीना है। तू कहती है कि उन्होंने मेरा एक हाथ और आँख ले ली है... तो क्या हुआ। कुछ दिनों बाद इस शरीर का अन्त हो जाएगा। ईश्वर ने इतनी सजा देकर मुझे तुम लोगों की गोद में तो लौटा दिया।”

“खाक लौटा दिया!” पूंटी फिर रोड पड़ी।

बिराज को पूंटी का विचार अविचार ही लगा। कुछ देर बाद बिराज ने कहा- “पूंटी! जरा एक बार अपने दादा को बुलाओ तो!”

नीलाम्बर तो आड़ में खड़ा ही था, आकर उसके सिरहाने बैठ गया। नीलाम्बर उसकी नाड़ी देखने लगा। हाँ, बिराज! सचमुच सब कुछ भी नहीं रह गया। नीलाम्बर ने समझ लिया था कि ज्वर के वेग में वह इतनी बातें कर रही है। इसके बाद शायद वह समाप्त हो जाए। नाड़ी का तो यही कहना है।

बिराज ने कहा- “खूब हाथ देखो।”

अचानक वह मर्मभेदी परिहास कर उठी। दोनों को यह बात याद हो आई कि इसी बात को लेकर अनर्थ हुआ था। बिराज ने खेद के साथ कहा- “ना... ना... यह मैंने नहीं कहा। सच-सच कहो, अब कितनी देर है?”

उसने अपना माथा पति की गोद में रख दिया, कहा- “सुनो! सबके सामने यह कह दो कि मैंने तुम्हें क्षमा किया।”

“किया।” नीलाम्बर की आँखें भर आई औऱ गला भी।

बिराज आँखें मूंदे पड़ी रही। धीरे-धीरे कहने लगी- “इतने साल मैंने तुम्हारे घर-बाहर को संभालने में कितनी गलतियां की हैं। छोटी बहू, तुम भी सुनो! पूंटी तुम भी। तुम सभी लोग सब कुछ भूलकर मुझे क्षमा कर दो। जाती हूँ...। बिराज हाथ बढ़ाकर पति का चरण खोजने लगी। नीलाम्बर ने तकिया हटाकर अपना पांव आगे बढ़ा दिया। उसकी पद-घूलि माथे लगाकर बिराज ने कहा- “इतने दिनों के बाद मेरा सब कुछ सार्थक हुआ। अब कोई चिन्ता नहीं मेरी देह शुद्ध है, पापहीन है, अब चलती हूँ... वहाँ तुम्हारी राह देखूंगी।”

करवट बदलकर उसने अपना मुंह पति की गोद में छुपा लिया, कहा- “इसी तरह मुझे लिए रहो। छोड़कर कहीं मत जाना...।” वह खामोश हो गई। लगा कि काफी थक गई है।

सभी उदास-उदास से बैठे रहे। रात के बारह बजने के बाद वह फिर प्रलाप करने लगी। नदी में कूद जाने की बात... अस्पताल की बात... निरुद्देश्य यात्रा की बात... यही सब बकती रही। परंतु उन सभी बातों में केवल उसका असीम पति-प्रेम था। वह बार-बार बकती रही कि किस तरह पलभर के मनोविकार ने, भ्रम ने किस तरह उस सती-साध्वी को जलाया।

***

इधर कई दिनों से बिराज के सामने बैठकर नीलाम्बर को भोजन करना होता था।

उस दिन वह बार-बार कभी पूंटी को कभी छोटी बहू को पुकार-पुकारकर रातभर प्रलाप करती रही। सुबह उसने पुकारना और बुलाना बन्द कर लिया। सांस उल्टी चलने लगी। फिर उसने किसी की ओर नहीं देखा, किसी से कोई बात नहीं की। अपने पति परमेश्वर की गोद में सिर रखे हुए सूर्य भगवान के उदय के साथ-साथ उस दुखियारी का भी अन्त हो गया।

समाप्त