लम्बी कहानी-"थोड़ी देर और ठहर"
-नहीं-नहीं, जेब में चूहा मुझसे नहीं रखा जायेगा. मर गया तो? बदन में सुरसुरी सी होती रहेगी. काट लेगा, इतनी देर चुपचाप थोड़े ही रहेगा? सारे में बदबू फैलेगी. कहीं निकल भागा तो?
-कुछ नहीं होगा, ये साधारण चूहा थोड़े ही है, सफ़ेद चूहा है. गुलाबी आँखों वाला. रख कर तो देखो. उसने कहा.
-पर इसे संभालेगा कौन? घोड़े के पैरों के नीचे आ गया तो ?
-नहीं आएगा,घोड़ा है ही नहीं.विक्रमादित्य सिंहासन पर बैठा है, घोड़े पर नहीं. घोड़ा तो बाहर महल के अस्तबल में है.
आखिर उसने मेरी एक नहीं सुनी. सुबह के धुंधलके में वह प्यारा सा सफ़ेद चूहा उसने मेरी जेब में रख दिया.दूसरी जेब पहले ही भरी थी. उसमें रत्नों से जड़ा वह छोटा सा सिंहासन था, जिस पर विक्रमादित्य की आत्मा थी.
धीरे-धीरे हाथ हिलाता हुआ वह तांत्रिक नज़रों से ओझल हो गया. मुझे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि सूटकेस तो लगेज में रख लिया गया था. पासपोर्ट, पैसे और दूसरी ज़रूरी चीज़ें हाथ में पकड़े बैग में थीं.हवाई जहाज अब रन-वे पर आ गया था. शहर की ओस भरी सुबह चारों ओर भीगी लाइटों का जाल फैला कर उजलाने को थी.
जहाज उड़ कर जैसे ही आकाश में आया, धूप कुछ और चमकदार हो गई. नीचे सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था. जेब से किसी की-चेन की तरह सिंहासन के हिलने- डुलने की आवाज़ आ रही थी.दूसरी जेब में चूहा गुमसुम और उनींदा था. कुछ सहमा हुआ भी.
इस फ्लाइट में हज-यात्रा पर जाने वाले लोग ज्यादा थे. सबके चेहरे पर संतुष्टि की चमक थी. सब अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित और खुश थे. एयर-होस्टेस की मुस्कान हाथ में पकड़ी ट्रे की चॉकलेट से भी ज्यादा मीठी थी. आसमान को इतना नज़दीक देख कर शायद सबको अपना गंतव्य दिखने लगा था.
नीचे ज़मीन पर साबरमती नदी की लकीर बढ़ती-बढ़ती जैसे ही अरब सागर बनी, बराबर की सीट पर बैठे युवक ने अपना टीवी ऑन कर लिया.
मैं अब समंदर देखते रहना चाहता था.इतनी ऊंचाई से समंदर भी भला नीली चादर के अलावा और क्या दिखता? जल्दी ही मैंने खिड़की से मुंह हटा लिया.
तभी अचानक मुझे सीने में हलकी सी चुभन हुई. ऐसा लगा, जैसे कोई पिन कपड़े में लगी रह गई हो.लम्बे सफ़र पर जाने से पहले लोग नए कपड़े खरीदते ही हैं, और फिर ब्रांडेड कपड़ों की पैकिंग ...कोई पिन कमीज़ में छूट जाना कोई अनोखी बात नहीं थी. मेरा हाथ झटके से सीने पर गया. एकाएक जैसे दिमाग की बत्ती जली. पिनों की डिबिया तो मैं खुद जेब में लेकर चल रहा था.
ये ज़रूर उसी सफ़ेद चूहे की करामात थी जो मेरी जेब में था. मैंने जेब की ओर झाँका तो उस चूहे को अपना गुलाबी मुंह जेब से उसी तरह ऊपर उठा कर बाहर निकालते पाया जैसे समंदर की लहरों के बीच अठखेलियाँ करती व्हेल हवाई दुनिया को देखने पानी से बाहर आती है. उछल कर, ढेरों टन पानी के छींटे चारों ओर उड़ाती हुई.और पानी के इस छींटों-भरे फव्वारे पर दर्ज़नों बगुले चारों ओर से फडफडा कर उछलते हैं,पानी में उछली छोटी मछलियों को निगलने.
चूहे के इस जम्प पर उछले यादों के छींटों के बीच विक्रमादित्य की आत्मा ने भी ठीक ऐसे ही प्रहार किया. उसकी आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी.
विक्रमादित्य की आत्मा संजीदगी से मुझसे पूछ रही थी- क्या आप किसी मिस्टर कबीर को जानते हैं?
मैं हैरान रह गया. मेरी जेब का सफ़ेद चूहा अब ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था.यदि मैंने अपनी सीट-बेल्ट अभी तक बाँध कर न रखी होती तो मैं सचमुच डर से उछल पड़ता.
चूहा भला क्यों हँस रहा है? ये है कौन?
चूहा बोलने लगा.उसने बाकायदा अपना परिचय दिया, लेकिन मुझे नहीं, उस विक्रमादित्य की आत्मा को, जो मेरी जेब में रखे सिंहासन से निकल कर चूहे के पास आई थी. चूहा ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा था- "काँकर-पाथर जोड़ के, मस्जिद लई चिनाय,ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ..."
मुझे लगा कि चूहे की आवाज़ सुन कर अभी कोई एयर-होस्टेस आ जाएगी, और फ्लाइट में तहलका मच जायेगा. मुझे यह भी डर था कि आसपास काफी सारे हज-यात्री बैठे थे जो चूहे की बात पर भड़क सकते थे. चूहा झूम-झूम कर मस्ती में बोले जा रहा था, जैसे किसी कार्निवाल में दर्शकों को जुटाना चाहता हो. इतना ही नहीं, बल्कि उसने विक्रमादित्य की आत्मा को मेरा परिचय भी दे डाला. वह लगातार मेरा मज़ाक उड़ा रहा था.
कहने लगा-" ये ज़नाब कबीर के हिमायती ही नहीं, बल्कि उसके बड़े फैन रहे हैं, जिस कबीर ने मंदिर-मस्जिद का जम कर मज़ाक उड़ाया. हकीकत ये है कि आज सुबह-सुबह भी ये मस्जिद में अज़ान की आवाज़ सुन कर ही जागे हैं.इनका मोबाइल अलार्म नहीं बजा सका था, क्योंकि उसमें चार्ज कम था. यदि मस्जिद की वह आवाज़ नहीं होती, तो आज इनकी ये फ्लाइट मिस हो सकती थी.इसी आवाज़ को सुन कर शहर के अखबार और दूध बेचने वाले लड़के अपना बिस्तर छोड़ कर जागे थे..."
मैंने घबरा कर अपनी जेब पर हाथ मारा और चूहे को जेब के भीतर कर दिया. आत्मा भी सिंहासन की ओर दौड़ी. चूहा चुप तो हो गया था पर उसके दो दांत मेरी हथेली पर लग गए थे, जिन से खरोंच आ जाने से थोड़ा खून रिस रहा था.
थोड़ी देर पहले कानों में लगाने के लिए एयर-होस्टेस ने जो रुई दी थी वह अभी भी मेरे पास थी. मैंने उसी से खून पौंछा और रुई को डस्टबिन में डाल दिया.
मेरे करीब बैठा लड़का यह सब नहीं देख पाया क्योंकि वह अपना टीवी चलता छोड़ कर ही टॉयलेट जाने के लिए केबिन में चला गया था.
मैंने एकांत का फायदा उठा कर सामने पड़ी जूठे नाश्ते की ट्रे से एक बिस्कुट का टुकड़ा लेकर जेब में चूहे के लिए डाल दिया. आत्मा को भोजन देने के लिए तांत्रिक ने मुझे मना किया था,क्योंकि उसका सिंहासन रत्न-जड़ित था.
मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अमेरिका से लौटने के बाद मैं कबीर पर एक बड़ा आलेख लिखूंगा.
जहाज अब भी समुद्र पर से उड़ रहा था. धूप और शोख हो चली थी.
आगे के केबिन से निकल कर एयर-होस्टेस हाथ में गर्म भाप उड़ाती ट्रे लेकर सामने से गुजरी तो चिकन-सूप की एक बाउल मैंने भी उठाली.
लड़का अब सिगरेट पीने लगा था. गर्म सूप की चम्मच मैंने होठों से लगाई ही थी कि मेरी जेब से एक कंकर जैसी चीज़ बंदूख की गोली की तरह निकल कर लड़के के हाथ पर लगी. उसके हाथ से सिगरेट छूटते-छूटते बची, और वह अकबका कर दूसरी ओर देखने लगा.
चूहा फिर से मेरी जेब से मुंह निकाल कर झाँक रहा था और चिल्ला-चिल्ला कर विक्रमादित्य की आत्मा से बात कर रहा था- "देखा, देखा आलीजा आपने, ये जनाब पिछले साल अपने कस्बे के स्कूल में 'शाकाहार ही आहार है' प्रतियोगिता के जज थे. इन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में वहां शाकाहार की महत्ता पर एक ज़ोरदार भाषण भी झाड़ा था."
चूहा उत्तेजित होकर उछला और उसने दोनों पंजों से मेरी कमीज़ का बाहरी किनारा पकड़ लिया.उसकी पूछ उत्तेजना में जेब से बाहर लटक गई.
चूहे ने अधखाये बिस्कुट का जो टुकड़ा खींच कर मारा था उसने लड़के के हाथ पर झन्नाटेदार वार तो किया, लेकिन लड़का अपने हाथ की सिगरेट बचाने के चक्कर में चूहे को नहीं देख पाया. उसने सारे घटनाक्रम को सहजता से लिया और इसे यात्रा में मेरी घबराहट के तौर पर ही मान कर अनदेखा कर दिया. शायद उसके टीवी पर कोई दिलचस्प कार्यक्रम आ रहा हो, उसका पूरा ध्यान उधर ही था. खिड़की से अब क़तर की राजधानी दोहा किसी सुन्दर भित्ति-चित्र की भांति दिखाई दे रही थी.
बड़े-बड़े महल-नुमा मकानों की कोई बाउंड्री वाल नहीं थी, लेकिन वे फिर भी पैमाने से लाइन खींच कर सिमिट्री से बनाए दिख रहे थे. उनका रंग शोख और युवा हसीनाओं की तरह चमकता पीला और गुलाबी था.
कुछ वर्ष पहले दुनिया-भर के खेलों का आयोजन कर चुका यह शहर हुस्न की बस्ती नज़र आता था.
अनुशासन यहाँ फूलों की तरह महकता था.
पर इस मंज़र में ख़लल डालने का काम मेरी जेब में बैठा चूहा बार-बार कर देता था जिस से मैं ज़रा बेचैन था. मुझे दोहा के हवाई-अड्डे पर कुछ घंटे बिता कर, अमेरिका का विमान पकड़ना था. एयरपोर्ट की सिक्योरिटी पर मैंने चूहे को छोड़ जाने का मन बना लिया था, मगर मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि इसका क्या असर होगा.
अजनबी देश में किसी ख़ुफ़िया-गिरी की तोहमत लग जाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता था.
सिंहासन किसी की-रिंग की शक्ल में अब भी मेरी जेब में था. बैठे-बैठे थोड़े पैर सीधे करने की गरज से मैं केबिन के समीप बने गलियारे में चला आया और टहलने लगा. यहीं सामने की सीट से खड़ी हुई एक प्रौढ़ महिला से मेरा परिचय हो गया. वह मुझसे पूछने लगी कि क्या मैं हज-यात्रा के लिए जा रहा हूँ ? मदीना ?
इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देने में मुझे भारी संकोच हुआ. एक तो महिला ने इतने अपनेपन से सवाल पूछा था कि मैं किसी अपरिचय की बेल को अपने बीच फिर से नहीं उगाना चाहता था, दूसरे शायद महिला मुझे मुस्लिम समझ रही थी, इस विश्वास को भी तिरोहित करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था. इस से मैंने बड़ा तपा-तुला उत्तर दिया- अभी तो मुझे अमेरिका जाना है, पर वक्त आने पर मेरा इरादा मदीना जाने का भी है.
-कब ?
-"सौ..." मेरी जेब से चूहे ने महिला की बात का उत्तर देने की कोशिश की, पर मैंने हाथ लगा कर उसे रोक दिया.
शायद चूहा जेब से बाहर झाँक कर ' सौ चूहे खाने के बाद ' कहने आया था, पर झांकते ही उसे अंदाज़ हो गया कि मैं इस समय बैठा नहीं, बल्कि खड़ा हूँ और जेब से बाहर निकलते ही उसके नीचे गिर जाने का ख़तरा है. इसी से वह सहम कर वापस भीतर बिला गया. न जाने चूहे की आवाज़ से महिला ने क्या समझा हो, ज़रूरी नहीं कि एक देश के मुहावरे दूसरे देश में भी पहचाने जाते हों. दो-चार इधर-उधर की बातों के बाद मैं वापस अपनी सीट पर लौट आया. दो अलग-अलग देशों के लोगों के बीच की इधर-उधर की बातें भी या तो मौसम की हो सकती हैं या फिर यात्रा की.
केबिन से शायद किसी बड़े शहर के नीचे होने की सूचना आ रही थी. इसी से मैंने अपनी सीट पर पहुँच कर फिर से खिड़की की ओर मुंह घुमा लिया.
यह नदी किनारे लम्बाई में बसा कोई खूबसूरत शहर था. लगभग हर इमारत के सामने ढेर सारी कारों की कतारें आकर्षक थीं.
देख कर लगता था कि चलते हुए लोग और दौड़ती हुई जिंदगी इस युग की पहचान हो. भविष्य की ओर दौड़ता समय इतिहास के पाँव छोड़ रहा था.
अब विमानतल पर लैंड करने के लिए लोग कसमसाने लगे थे.
हज यात्रियों का उत्साह थकान से परे और भी बढ़ गया था. बाकी लोग भी अपनी इधर-उधर की उड़ानों के लिए तत्पर हो रहे थे.तभी विमान की लैंडिंग की घोषणा भी हो गई. एक बार फिर से सीट-बेल्ट्स बंधने लगीं, और मोबाइल बंद किये जाने लगे. मुस्कानें कुछ और कटीली होने लगीं. चूहा शायद थक कर आराम कर रहा था. जहाज एयरपोर्ट पर उतरा तो गहमा-गहमी कुछ ज्यादा ही थी. सुबह का समय था और लन्दन, न्यूयॉर्क या अन्य दिशाओं में जाने वाले लोगों को अपनी-अपनी दिशा पहचान कर यहाँ से अलग-अलग दलों में बँटना था.
बाहर आकर मैंने कुछ डॉलर रियाल में बदलवा लिए, ताकि छोटी से छोटी जगह पर जाकर भी बैठ सकूं. एक बेहद नफ़ासत-भरे सुन्दर से रेस्तरां में बैठ कर जब मैंने शीशों के पार बाहर की दुनिया में निगाह डाली तो अजीबो-ग़रीब ख्याल मन में आने लगे. लेकिन मुझे ख्यालों से ज्यादा जेब में रखे चूहे को सम्हालना था जो अब टुकुर-टुकुर आवाज़ों के साथ जेब में ऊब चुका होने का संकेत दे रहा था.मगर यहाँ उसे बाहर निकालना सुरक्षित नहीं था.
दूसरी जेब में रखे सिंहासन को निकाल कर मैंने मेज़ पर रख लिया था. कॉफ़ी के प्याले के साथ वह रत्न-जड़ित सिंहासन काफी आकर्षक दिख रहा था. शायद विक्रमादित्य की आत्मा उसके इर्द-गिर्द मंडरा रही थी.
मेरी कॉफ़ी गिरते-गिरते बची, क्योंकि चूहे ने तेज़ी से जेब से लेकर मेज़ तक छलांग लगाई थी और वह सिंहासन के लगभग ऊपर ही कूद गया. कुछ बूँदें छलकीं जिन्हें मैंने कागज़-नेपकिन से साफ़ किया.
मैं सोच रहा था कि चूहा अब भूखा होगा और चुपचाप मेज़ पर बैठ कर मेरे साथ कोई स्नैक्स शेयर करेगा. पर मेरे अनुमान के उलट उसकी व्यंग्य-भंगिमा बदस्तूर बनी हुई थी और वह प्लेटों की ओर पीठ करके सिंहासन पर नज़र गढ़ाए विक्रमादित्य से मुखातिब था. बारीक़ महीन आवाज़ में उसका बडबडाना जारी था- " ये जनाब अब तक रूपये को 'लक्ष्मी' मान कर पूजते रहे हैं, पर आज इन्होंने मुट्ठी भर लक्ष्मी देकर लिए डॉलर भी उस सरज़मीं पर लुटा डाले जहाँ चंगेज़ खान, तुगलक और नादिरशाह की रूहें अब तक आराम फरमा रही हैं."
चूहे की बात से मैं तिलमिला गया और मेरी कॉफ़ी कुछ कसैली हो गई. मैंने एक शुगर-क्यूब उठा कर प्याले में डाला और धीरे-धीरे हिलाने लगा.
सामने एक स्टोर था, जिसमें बहुत ही आकर्षक और मौलिक मुग़ल कारीगरी के एक से एक नायाब शोपीस रखे हुए थे. मैं उन्हें नजदीक से देखने की गरज से स्टोर में घुस गया.
चूहे की तेज़ आवाज़ को दबाने के विचार से मैंने उठते-उठते सिंहासन और चूहे को एक ही जेब में डाल लिया. मेरी तरकीब काम कर गई. चूहा अब संयत और धीमे स्वर में बोल रहा था. मैं स्टोर के एक काउंटर पर रखे अरब के खुशबूदार खजूर खरीदना चाहता था. मेरा ख्याल था कि चूहा भी इन्हें खा लेगा. पर मैंने उनका दाम देखने के बाद उन्हें वापस काउंटर पर रख दिया, क्योंकि चूहे को इतनी महँगी फीस्ट देने का मेरा मन बिलकुल नहीं था.
पास ही बज रहे संगीत की आवाज़ जब थोड़ी कम हुई तो जेब से चूहे और विक्रमादित्य की आत्मा का ख्याल निकल कर फिर मेरे मन में आ गया.
चूहा कह रहा था - "ये जनाब अपनी भाषा का राग आलापते हुए दूसरों की भाषा और संस्कृति को नेस्तनाबूद करते घूमते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि आज यदि ये एयरपोर्ट पर लगे निर्देश-पटों को पढ़ नहीं पाते तो अफ़्रीकी, यूरोपियन और एशियाई भीड़ के धक्के खाते हुए ये अज़रबैजान, होनोलूलू या ट्यूनीशिया के जहाज में चढ़ सकते थे... ऐसे में यही हवाई-अड्डा इनके लिए कुम्भ का मेला बन जाता और ये किसी भी द्वीप पर हिप्पियों की तरह घूमते पाए जा सकते थे.
फिर इनकी मदद कोई मनमोहन देसाई नहीं कर पाता और ये मिल्टन के लॉस्ट पेरेडाइज में जिंदगी बिता देते."
चूहे की बात सुन कर मुझे गुस्सा तो आया पर वह टॉफी, जो मैंने अभी खरीदी थी, इतनी स्वादिष्ट थी कि मैंने किसी भी विचार को उसके जायके के आड़े नहीं आने दिया.
उस स्टोर पर एक बहुत ही शानदार पठान-सूट टंगा हुआ था, हलके क्रीम कलर का. लेकिन उसे पसंद करने के बाद भी दो कारणों से उसे खरीदने का इरादा मुझे छोड़ना पड़ा. एक तो मैंने जितने रियाल डॉलर के बदले लिए थे, वे सूट खरीदने के लिहाज़ से थोड़े कम थे, दूसरे मेरे हैण्ड-बैग में उसके पैकेट को रखने के बाद जगह की थोड़ी तंगी हो जाने की आशंका थी.
मैं बैग को अमेरिका के रास्ते तक थोड़ा खाली रखना चाहता था.क्योंकि मुझे उसमें थोड़ा 'समय' रखना था.
इन दो स्पष्ट कारणों के अलावा एक तीसरा छिपा कारण उस सूट को न खरीदने का और भी था.
दरअसल उस पठान सूट के पायजामे का कमर-बंद इतना बड़ा और कलात्मक था कि अपने पेट पर हर समय इतनी भव्यता टांगे रखने का ख्याल ही मुझे अटपटा सा लगा.
मुझे उसका मनोविज्ञानं ही समझ में नहीं आया.
जो चीज़ हरसमय भीतरी कपड़ों में छिपाए रखनी हो,उसे इतना आकर्षक बनाने का क्या मकसद? लेकिन मैं किसी तर्क-वितर्क में नहीं पड़ना चाहता था.शिवमंदिरों में बंदनवार मैंने भारत में बहुत देखे थे.
चूहा हंस रहा था. अब मैं उसकी हंसी का भी अभ्यस्त हो चला था, इसलिए मुझे वह ज्यादा वीभत्स नहीं लगा. पर वह अब विक्रमादित्य की आत्मा को बैग में समय रखने का फलसफा समझा रहा था.
भारत से जब भी कोई जहाज अमेरिका जाता था, तो वहां तक जाते-जाते उसे लगभग आधा ग्लोब पार करना पड़ता था. इस बीच बाईस- चौबीस घंटे का समय भी लग जाता था. और पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण इस दौरान लगभग एक दिन के समय का अंतर भी पड़ जाता था.
नतीजा यह होता था कि आप भारत से जिस तारीख़ को यात्रा पर निकलें, एक दिन और एक पूरी रात बिताने के बाद भी वहां पहुँचने पर वही तारीख़ रहती थी.
तो उसी तारीख़ को पहुँच जाने के बावजूद आपको सुबह के सब काम, यथा- शौच, दांतों की सफाई, मुंह धोना आदि निपटाने ही पड़ते थे.
इन्हीं कामों के लिए ज़रूरी चीज़ें बैग में रखने की वजह से, बैग में थोड़ी जगह रखने की अपेक्षा होती थी.
कुछ लोग तो इस बीच अपने अंतर-वस्त्र भी बदल डालने की मानसिकता में हो जाते हैं, पर इतनी दूर जाकर बदल तो चोला जाता था.
मैंने बैग की जेब से मूंगफली वाली चिक्की का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर जेब में डाला. टुकड़े ने रत्न-जड़ित सिंहासन से टकरा कर 'खट' की आवाज़ की.
चूहा अब चुप था.
वहां से निकल कर मैं एक किताबों की दुकान में आ गया था. 'बेस्ट सेलर' के शेल्फ पर जयपुर की महारानी गायत्री देवी की आत्मकथा को देख कर मैं वहां रुक गया. ऑटोबायोग्राफी के आकर्षक चित्रों में भारत का गुलाबी शहर जयपुर काफी जीवंत दिखता था.
विक्रम सेठ, अरुंधती रॉय, सलमान रुश्दी से होता हुआ मैं तसलीमा नसरीन तक पहुंचा ही था कि जेब में घुड़-घुड़ होने लगी.
चूहा शायद चिक्की खा चुका था.वह फिर विक्रमादित्य की आत्मा से बतियाने लगा था. कह रहा था- " ये जनाब बाणभट्ट की आत्मकथा, सूरज का सातवां घोड़ा,मधुशाला और आधागाँव को ही साहित्य समझते रहे हैं.
इन्होंने राजा निरबंसिया और मित्रो मरजानी से आगे दुनिया ही नहीं देखी.ये तो गोदान और गबन पढ़ कर ही गंगा नहाये."
बुक स्टोर से निकलते समय मेरा ध्यान इस बात पर गया कि ' क्रॉसवर्ल्ड ' ने विमानतल पर भी अच्छा खासा स्टॉक रखा था. लेकिन ट्रांजिट की हड़बड़ी में ग्रीक साहित्य के शेल्फ में झांकना मुझे जोखिम भरा लगा.
फिर मुझे निसर्ग से भी आमंत्रण मिल रहा था. इसलिए मैं न्यूयॉर्क वाले चैक-इन काउंटर की ओर ही बढ़ गया.
प्रसाधन से सामान्य होकर मैं बाहर आया तो सिक्योरिटी-चैक शुरू होने में लगभग बीस मिनट शेष थे.
मैंने अभी-अभी खरीदा नाटक 'ट्रॉय की औरतें' उलटने-पलटने की गरज से बाहर निकाला और लाउंज में एक कुर्सी पर बैठ गया.
मैंने एक हाथ से अपने सीने पर जेब को लगभग दबा कर मुश्किल से चूहे को चुप किया. वह न जाने कहाँ से ऐसा बेहूदा गाना सीख कर आया था और अब चिल्ला-चिल्ला कर गा रहा था- रक्कासा सी नाचे दिल्ली...रक्कासा सी नाचे दिल्ली...
मैंने सिंहासन को तुरंत उस जेब से निकाल कर दूसरी जेब में डाल लिया. मैंने देखा कि उस खूबसूरत रत्न-जड़ित सिंहासन पर दो-एक जगह चूहे के पंजों से खरोंच के निशान बन गए थे. चूहा जेब का किनारा पकड़ कर बाहर झाँकने लगा और यह देख कर वापस नीचे छिप गया कि सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लिया गया है. लेकिन रत्न-जड़ित सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लेने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा, क्योंकि विक्रमादित्य की आत्मा अब तक उसी जेब में मंडरा रही थी. चूहा फिर उस से बात करने लगा- " इन जनाब ने कभी अपनी किताब 'रक्कासा सी नाचे दिल्ली' में मशीनों का जम कर मज़ाक उड़ाया था.कंप्यूटर तक को कोसा था. जबकि हकीकत यह है कि यदि अभी-अभी सिक्योरिटी चैक में मशीनें नहीं होतीं तो ये जनाब अपना सूटकेस खोल कर एक-एक चीज़ चैक करा रहे होते- चटनी, अचार और मुरब्बे तक. जबकि मशीनों ने इनके असबाब को बिना सूटकेस खोले चैक कर दिया. इनके कपड़े उतरवाए बिना इनकी जेब का इतिहास-भूगोल इन्हें बता दिया. यहाँ तक कि विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन तक इन्हें बाहर नहीं निकालना पड़ा, उसकी धातुओं का लेखा-जोखा मशीनों ने चैक कर दिया."
मुझे चूहे की हरकतों से कुछ गुदगुदी हो रही थी, मैंने किताब बंद की और न्यूयॉर्क जाने के लिए खड़े विमान की ओर बढ़ गया. विक्रमादित्य की आत्मा भी शायद वापस दूसरी जेब में रखे सिंहासन पर चली गई थी.
न्यूयॉर्क जाने वाला हवाई जहाज और भी बड़ा, भव्य था. उसके पंखों पर ये अद्रश्य दर्प-दीप्ति तारी थी कि वह दुनिया के सबसे बेहतरीन मुल्क में जा रहा है.
उसका हर कर्मचारी और मुसाफिर 'अल्टीमेट' का मतलब समझने वाला ही नहीं, बल्कि उसे भोगने और पचा लेने वाला था.
जेब में चूहा भी शायद इस अहसास से खुश था और जेब के भीतरी हिस्से को प्यार से चाट रहा था. मुझे राहत मिली.
अभी दोपहर भी पूरी तरह बीती नहीं थी कि रात हो गई. खिड़कियों पर शटर चढ़ा दिए गए. उफनते बादलों और चमकती धूप का साम्राज्य सितारों ने ले लिया. चूहे की आँखें जो अब तक चारों ओर देख कर विस्फारित थीं, अब उनींदी सी हो गईं.
कई मुल्कों और कई नस्लों के वाशिंदे वहां देखते-देखते लाल कम्बलों में सिमट गए. सीटों के सामने लगे टीवी स्क्रीन एक-एक करके ऑफ़ होने लगे. कम्बल की गर्माइश मिलते ही विक्रमादित्य की आत्मा धीरे से निकल कर वापस दूसरी जेब में चूहे के पास आ गई. उनींदे चूहे की धीमी खुसर-पुसर फिर शुरू हो गई. वह आत्मा से कह रहा था- " सितारे नीचे आ गए हैं, बादल बगल में मंडरा रहे हैं, लेकिन इन जनाब के सर पर शीशे का ढक्कन अभी भी लगा है, इनकी खोपड़ी उसके पार जा ही नहीं सकती. ये विवेकानंद के ज्ञान को अंतिम समझते हैं. ये अब तक इस बात पर बिसूरते रहे हैं कि शरतचन्द,हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुंशी प्रेमचन्द को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? इन्होने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि बेकन, कीट्स, वाइल्ड,मॉम या चेखव ने क्या कहा..."
चूहे की बात बीच में ही अधूरी रह गई, क्योंकि एक यात्री ने इशारे से मदिरा मांगी थी और एयर-होस्टेस ने उसकी फरमाइश पूरी करने के चलते उसकी सीट की लाइट जला दी थी।
ये रात कुछ ही घंटों की थी. जल्दी ही सवेरा हो गया. खिड़कियों के शटर्स फिर से खुल गए.
कुछ एक दुस्साहसी पक्षी आसमान छूती ऊंचाइयों में दिखने लगे. नीले सागर के बाद हरे-पीले ज़मीनी मंज़र भी कुछ चमकदार और साफ हो गए.
केबिन के पास के टॉयलेट में लोगों की आवाजाही शुरू हो गई. अब लोगों में आपस में थोड़ी परिचय-भावना दिखने लगी थी. अब तक नितांत अपरिचित लोग एक दूसरे के देश और नस्ल से अनभिज्ञ होते हुए भी छुट-पुट वार्तालाप करने लगे थे. ब्रश करने के लिए खड़े युवक-युवतियों के देश की पहचान उनके हाथ में पकड़े ब्रांडेड सामान की कम्पनियों से ही होती थी. लोगों के स्टेटस और उम्र का अनुमान लगाना खासा कठिन उपक्रम था.
मुझे यह सोच कर थोड़ी घिन आई कि चूहे ने मेरी जेब में ही विष्ठा कर दी होगी.
इस कल्पना में उसके सफ़ेद झक्क रंग और गुलाबी मुंह ने भी कोई रियायत नहीं बख्शी. मेरा मन चाहा कि अपनी इस कल्पना के बाबत जोर से चिल्ला कर बोल दूं, ताकि वहां बैठे सभी नस्लों और रंगों के लोग सुनें. लेकिन मुझे जेब टटोलने के बाद यह देख कर खासा इत्मीनान हुआ कि चूहे ने दिन बदल जाने का कोई फायदा नहीं उठाया था. मेरी जेब उसी तरह साफ थी.
गलियारे में नाश्ते की ट्रॉली लेकर एयर-होस्टेस की आवाजाही शुरू हो गई थी. कई देशों के लुभावने व्यंजन, कई देशों की आभिजात्य मुस्कानों के साथ परोसे जा रहे थे.
एक थाई युवती ने जब मुझे 'परांता' ऑफर किया तो मेरे ज़ेहन में चूहा फिर कौंध गया.
मैंने सुन्दर बॉक्स में रखे छोटे परांठे पर जब मक्खन लगाना शुरू किया तो मेरे मन में चिकनाई की अपनी ज़रूरत से ज्यादा इस विचार ने काम किया कि मक्खन फेंकने या जूठा छोड़ने की नौबत न आये.
अब द्वापर युग नहीं था, और अपने देश में मक्खन की कीमत और उपलब्धता से मैं भली-भांति परिचित था. लेकिन उस विलायती मक्खन की तासीर से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ भी था. जैसे ही मैंने उसे खाया, वह मेरे गले और तालू से चिपक गया. मुझे ज़ोर-ज़ोर से हिचकियाँ आने लगीं.ऐसा लगा कि जैसे मेरे गले में वह कौर अटक गया हो. मैंने जल्दी में उसे निगलने की कोशिश की, और सहजता से उसे पेट में पहुँचाने के ख्याल से जूस के छोटे गिलास से जूस भी गटकना शुरू कर दिया.
लेकिन मेरी यह कोशिश और भी मुश्किल भरी साबित हुई क्योंकि जिसे मैंने जूस समझ कर गटका था,वह भी चिकनाई वाला कोई सूप-नुमा पेय ही था. उससे मक्खन का कौर आगे खिसकने में कोई मदद नहीं मिली.
मेरी हिचकियाँ और तेज़ हो गईं. तभी मुझसे एक सीट छोड़कर आगे बैठी महिला ने मेरी मदद की और नेपकिन से पकड़ कर मुझे एक दूसरे पेय का गिलास दिया, जिसे पीते ही मेरा गला साफ हो गया. मुझे ज़बरदस्त राहत मिली.
वह महिला केनडा जा रही थी, यह मुझे बाद में उसे धन्यवाद देने के दौरान उस से हुई बातचीत में पता लगा. उस महिला की मुस्कान सहित सेवा ने मुझे पल भर भी यह नहीं लगने दिया कि मैं कहीं परदेस में परायों के बीच हूँ. इतना ही नहीं, बचे नाश्ते की प्लेट समेटने में भी उस महिला ने मेरी मदद की. अब मैं साफ़ देख पा रहा था कि महिला उम्रदराज़ थी. मेरे व्यवस्थित हो जाने के बाद वह अपना नाश्ता खाने में तल्लीन हो गई.
चूहा शायद कुछ देर पहले की मेरी स्थिति देख चुका था, इसलिए उदासीन सा जेब के भीतर ही बैठा था. वह इस समय किसी भी तरह मेरा मज़ाक उड़ाने के मूड में भी नहीं दिख रहा था.
लेकिन मेरे एक मैक्सिकन पत्रिका उठा कर खोलते ही मेरी यह ग़लत-फ़हमी दूर हो गई.
चूहे की आवाज़ फिर आने लगी थी. वह वहां घूम रही विक्रमादित्य की आत्मा से कह रहा था - " देखा आपने, आज इन जनाब के मुंह में अटका निवाला भी तब निकला जब एक केनेडियन महिला ने इनकी मदद की.अब तक तो ये केवल भारतीय मेजबानी, ममता और सहयोग भावना के ही कायल रहे हैं. इन्होंने बहत्तर बार वसुधैवकुटुंबकम की ठुमरी गाई है लेकिन ग्लोबलाईजेशन को अब तक कभी भाव नहीं दिया. ये जानते ही नहीं, कि इन दोनों की फितरत एक ही है. उलटे ये तो भारतीय सत्तू को दुनिया का सबसे बेहतरीन फास्ट-फ़ूड और लस्सी को दुनिया का सबसे अनूठा कोला बताते रहे हैं. तमाम पेप्सी और कोक इन्हें भारतीय शर्बतों के आगे फीके लगते रहे हैं."
मुझे थोड़ी सी बातचीत के बाद पता चला कि मेरी मदद करने वाली केनेडियन महिला बारह वर्ष पहले एक मुकद्दमे में गवाह की हैसियत से एक बार भारत भी जा चुकी है. केनेडा में उसके पड़ौस में रह रहा एक सिख परिवार उसे अपने किसी संपत्ति विवाद के मुकद्दमे में सहायता के लिए भारत ले गया था, जहाँ वह जालंधर और पानीपत में कुछ दिन रही थी. वह वहां भारतीयों की मेहमान-नवाज़ी से काफी प्रभावित रही थी. शायद इसी वज़ह से वह अतिरिक्त तत्परता से मेरी मदद करने के लिए तुरंत अपनी सीट छोड़ कर चली आई थी.
मैं चाहता था कि चूहा अब जेब से बाहर आकर महिला की ये बात सुने. मगर वह तो शायद जेब में अधलेटा होकर ऊंघ रहा था. बगदाद शहर नीचे अभी-अभी गुज़र कर चुका था. शहर के कुछ बाहरी हिस्से अब तक पीछे की ओर दौड़ते दिखाई दे रहे थे. मैंने देखा, बगदाद की धरती गहरे सुनहरे रंग की थी, जिसका तात्पर्य यह था कि वहां हरियाली कम थी.
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि चूहा न जाने कहाँ से एक छोटा चश्मा उठा लाया और अब उसे आँखों पर लगा कर अखबार के कागज़ का टुकड़ा हाथ में लेकर ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था.उसकी आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी- 'वंस अपॉन अ टाइम देयर लिव्ड इन बगदाद अ वेरी रिच ओल्ड मर्चेंट विद हिज़ वाइफ एंड अ सन.द ओनली सन,अबू हसन बाई नेम, वाज़ गुड-लुकिंग, इंटेलिजेंट एंड हेड अ ग्रेट सेन्स ऑफ़ फ़न...'
शायद विक्रमादित्य की आत्मा कहीं इधर-उधर ओझल हो गई थी, इसीलिए चूहा अकेले में अख़बार से दिल बहला रहा था. आत्मा के आते ही कमबख्त चिड़िया की सी नींद से जाग कर फिर उस से बतियाने लगा- "ये जनाब अब तक बगदाद को चोरों का घर और भारत को साहूकारों का अड्डा समझते रहे हैं."
मैंने उसे चुप करने के लिए अख़बार को मक्खी उड़ाने के बहाने अपने सीने पर ज़ोर से मारा. मैं अच्छी तरह जनता था कि वहां कोई मक्खी नहीं थी.
कुछ घंटों बाद जब जहाज एम्स्तर्दम के समीप से गुज़र रहा था मौसम में व्यापक तब्दीली होने लगी.
लन्दन के जिस मौसम की कल्पना अक्सर होती है, वही पनीली ठण्ड वातावरण में घुलने लगी.
विमान में अब दोपहर का खाना परोसा जा रहा था. चारों ओर से चहकने के स्वर गूँज रहे थे.
भोजन के बाद के प्रमाद भरे आलस्य में नीचे शुरू हुए सागर ने और इज़ाफ़ा किया.
अब जहाज समुद्र पर से गुज़र रहा था. अब जो पानी दिखाई दे रहा था वह विलक्षण था. उसके एक छोर पर यूरोप और दूसरे पर अमेरिका था. दो महा -द्वीपों के बीच की प्रशांत लहरें बड़ी दरियादिल थीं. प्रशांत महासागर की धीर-गंभीर व्यापकता यहाँ से भली प्रकार आंकी जा सकती थी.
कई घंटों की सागर के साथ अठखेलियों के बाद जब जहाज न्यूयॉर्क विमानतल पर पहुंचा, दोपहर के तीन बजे थे.
हाथ में पहनी घड़ियों का कोई मोल नहीं था, वे सब अलग-अलग समय बता रही थीं. कैनेडी हवाई-अड्डे की विशाल-विराटता भी कैनेडी के व्यक्तित्व की तरह ही भव्य नज़र आती थी.
विमानतल के अधिकारियों द्वारा पासपोर्ट पर ठप्पा लगाते ही यकीन हो गया कि यह वास्तव में अमेरिका की धरती ही है.थोड़ी ही देर में मैं अपने सामान के साथ न्यूयॉर्क-विमानतल के गेट नंबर चार के बाहर खड़ा था.
मैंने जेब पर हाथ लगाया तो यह सोच कर मुझे रोमांच हो आया कि चूहे ने भी मेरे साथ-साथ लम्बी यात्रा सकुशल पूरी करली थी. वह अब भी तरोताज़ा दिख रहा था.
मेरे मेज़बान लोग मुझे लेने आये तो उन्होंने बताया कि हमें न्यूयॉर्क में ठहरने से पहले एक रात नेशुआ में रुकना था. मुझे यह कार्यक्रम बेहद राहत-भरा लगा.
जब कोई डॉक्टर किसी की आँखों का ऑपरेशन करता है, तो उसके बाद आँखों की पट्टी एकदम से नहीं खोलता. पहले कम रौशनी में आँखें खुलवाई जाती हैं, ताकि आँखें चौंधिया न जाएँ. जब वे प्रकाश की अभ्यस्त हो जाती हैं, तब आसानी से खोल ली जाती हैं. न्यूयॉर्क से पहले नेशुआ में रात गुज़ारना ठीक ऐसा ही था.
नेशुआ एक शांत और सुन्दर क़स्बा था. रात को भोजन कर लेने के बाद नींद से पूरी तरह बोझिल आँखें लेकर जब मैं सोने के कमरे में आया तो मुझे अपनी जेब में बैठे चूहे से ईर्ष्या होने लगी, क्योंकि वह मुझे बिलकुल तरोताज़ा और खुश दिखाई दे रहा था.
खुश मैं भी बहुत था, मगर मुझ पर लम्बी विमान-यात्रा के बाद का जेट्लैग हावी था. मैं सोना चाहता था.
कपड़े बदल कर बिस्तर पर आने के बाद मुझे सोने में ज्यादा देर नहीं लगी. मैं फ़ौरन सो गया. लेकिन ये नींद विस्मित करने वाली थी. मुझे गज़ब का आराम मिल रहा था, किन्तु मैं अपने चारों ओर घट रही चीज़ों को साफ़ देख पा रहा था. शायद मेरी आँखें खुली थीं.
खिड़की में कांच के पार एक सुन्दर चन्द्रमा था. नींद में भी यह विचार मेरे साथ था कि यह वही चन्द्रमा है जिसे बचपन से मैं भारत में भी देखता आया हूँ.
लेकिन भारत में मैंने ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा था कि बंद कांच की खिड़की से कोई आर-पार जा सके. यह तो एक जादू ही था कि वह सफ़ेद चूहा कांच की उसी खिड़की से निकल कर चलता हुआ मेरे सामने ही नीचे बड़े-बड़े सफ़ेद फूलों की क्यारी में गुम हो गया.
मैं सिहर गया. तो क्या यह चूहा यहीं का रहने वाला था ?यह फूलों की क्यारी में इस तरह चला गया, जैसे यही इसका घर हो.
चूहे के जाते ही मैं कमरे में अकेला हो गया. मेरे मेज़बान, घर के दूसरे लोग बराबर वाले कमरे में सो रहे थे. चूहा जिस तरह खिड़की से निकल कर पाइप से उतरता हुआ नीचे गया, उस से मैं डर गया था.क्योंकि खिड़की का कांच बिलकुल अच्छी तरह बंद था.
रास्ते भर इतनी बातें बनाने वाला वह तिलिस्मी चूहा जाते समय मुझसे अपनी मौलिक आवाज़ में "चूँ" भी बोल कर नहीं गया, इस बात से मैं अपमानित महसूस कर रहा था.
न जाने वह चूहा कैसा था और अब कहाँ चला गया था ?
बड़े-बड़े सफ़ेद फूलों की क्यारी के बीच, चाँद की उम्दा रौशनी में चूहे के बिला जाने के बाद मेरा ध्यान राजा विक्रमादित्य के रत्न-जड़ित सिंहासन पर गया. मैंने अपने अकेलेपन को सहने लायक शक्ति जुटाने की नीयत से विक्रमादित्य की आत्मा को आवाज़ दी. पर कोई जवाब नहीं आया. मैं कुछ और जोर से दोबारा चिल्लाया, पर वहां कोई नहीं था. सन्नाटा उसी तरह कायम रहा.
मैं फिर से उस बंद कांच की खिड़की के पास चला आया, जिसके पार उम्दा उजास में पूरी प्रखरता से चन्द्रमा चमक रहा था. बड़े सफ़ेद फूलों वाली वह क्यारी किसी जादुई चित्र सी साफ़ दिख रही थी, जिसमें अभी कुछ देर पहले गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा बंद कांच से गुज़र कर उस पार गया था. मैंने एक बार पूरा जोर लगा कर उस दिशा में विक्रमादित्य की आत्मा को फिर से पुकारा, यह सोच कर कि शायद वह चूहे के साथ वहां क्यारी में चली गई हो, पर निराशा हाथ लगी. कहीं से कोई उत्तर नहीं आया, उल्टे मुझे संकोच होने लगा कि यदि मेरे मेज़बान जाग गए तो आधी रात में मुझे इस तरह खिड़की से चिल्लाते देख कर न जाने क्या सोचेंगे?
अब मुझे अचानक भारत में मिले उस तांत्रिक की याद आई जिसने यहाँ आते वक्त मुझे विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन और गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा दिया था.
उस तांत्रिक ने मुझे अपना मोबाइल नंबर और ई-मेल पता भी दिया था.
यद्यपि रात के पौने तीन बजे थे पर हड़बड़ी में मैंने उसका नंबर मिलाया. काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन नहीं मिला. मैंने हताश होकर अपना कंप्यूटर खोला और उसी समय उसे मेल लिखा.
मैंने उस से पूछा कि उसने मुझे सफ़ेद चूहा और विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन क्यों दिया था. क्या यह कोई जादुई भेंट थी या फिर कोई षड़यंत्र था , जिसमें मुझे भागीदार बनाया गया ? मैंने यह भी लिखा कि आते समय फ्लाइट का समय हो जाने के कारण हड़बड़ी में मैं कुछ पूछ नहीं सका था जिसका मुझे खेद है. मैंने तांत्रिक को यह भी लिख दिया कि रास्ते में चूहे ने किस तरह इंसानी आवाज़ में बातें कीं, और विक्रमादित्य की आत्मा सिंहासन के आसपास किस तरह मंडराती रही. मैं यह भी लिखना नहीं भूला कि अब वे दोनों ही न जाने कहाँ ओझल हो गए हैं, और मैं अचम्भे में हूँ कि यह सब क्या था ?
मेल लिख कर मैं कंप्यूटर बंद करके सोना चाहता था. मेरा अचरज अब कुछ काबू में था किन्तु गहरी नींद लेने की जेट्लैग के कारण पनपी इच्छा अब थोड़ी मंद पड़ गई थी. मैंने गौर किया कि मेरे सोने के स्थान के पास रखे थर्मस में कॉफ़ी अब भी गर्म थी.
मेरी चाय की तलब कॉफ़ी देखते ही जैसे जाग गई. एयरपोर्ट से आते समय रास्ते में मैं एक बार स्टार्बक्स की कॉफ़ी का स्वाद चख चुका था.कॉफ़ी पीते-पीते मेरी नींद पूरी तरह भाग चुकी थी. मेरा मन अब सोने को नहीं हो रहा था.
इस नायाब देश में नींद से ज्यादा आकर्षक मुझे जागना लग रहा था. खिड़की में चाँद था, मगर वह चाँद अमेरिका में था. बादल भी कुछ अलग आभा दे रहे थे.
मैंने कंप्यूटर फिर से खोल लिया और अपना मेल चैक करने लगा. मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा...
...जब मैंने देखा कि तांत्रिक ने मेरे मेल के जवाब में मुझे एक लंबा ख़त भेजा है.
तांत्रिक ने लिखा था कि मैं सकुशल पहुँचने पर उसकी बधाई स्वीकार करूँ.उसका कहना था कि "विक्रमादित्य" एक कोडवर्ड था जो मुझे दिया गया है. इंटरनेट पर मुझे कई महीनों तक पढ़ने के बाद पर्यटन क्षेत्र की एक मल्टी-नेशनल कम्पनी मुझसे कुछ लिखवाने के लिए लंबा करार करना चाहती थी. उसके द्वारा मेरे ब्लॉग और ट्विटर को लगातार ओब्ज़र्व किया गया था. जिस तरह किसी कैसेट या सीडी को खाली किया जाता है, ठीक उसी तरह यात्रा के दौरान मेरा मस्तिष्क-प्रक्षालन किया गया था. अर्थात बाहरी प्रभाव से मेरे विचार बदलने की कोशिश की गई थी.
यह एक प्रकार का मानस आक्रमण था.
कंपनी ने लम्बे समय तक मुझे प्रेक्षण पर, अर्थात अंडर-ओब्ज़र्वेशन रख कर मेरे मस्तिष्क की क्रियेटिविटी को स्कैन किया था और यह जांच की थी कि मैं कम्पनी द्वारा दिए गए विचारों को अपनी भाषा में किस तरह अपनी रचना में उतारूंगा.
चूहे को करेंट से संचालित करने की बात कही गई.
चूहा उनके द्वारा मुक्त किये जाते ही अपनी रिसीवर की भूमिका में की गयी शोध के परिणाम की चिप उन्हें सौंप कर एक सामान्य चूहे की भांति भाग गया.मेरी इस जिज्ञासा का समाधान भी किया गया था कि चूहा बंद कांच की खिड़की से कैसे भागा ? मुझे बताया गया कि वह एक मेडिकल ऑपरेशन था, जिसमें मेरे मस्तिष्क में सकारात्मकता को इंजेक्ट किया गया था, जिसके प्रभाव से मैं यह सोच सकूं, कि " कुछ भी संभव " है.
मुझे दिया गया सिंहासन एक गिफ्ट-शोपीस था, लेकिन उसमें जड़े रत्नों पर उन देशों के नाम थे, जिनमें कम्पनी कार्यरत थी. बताया गया कि उन नामों को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखा जा सकता है. तांत्रिक ने मेल में अंत में अपना नाम और परिचय भी दिया था. जिसे पढ़ कर मैं सन्न रह गया क्योंकि जिसे मैं कोई तांत्रिक समझ रहा था वह एक नामी पब्लिशिंग कम्पनी का अधिकारी था और विदेशी था.
मेरे रोंगटे खड़े हो गए. नींद मुझसे कोसों दूर थी. आसपास कोई ऐसा भी नहीं था जिसे यह वाकया सुना कर मैं यह जान पाता कि यह सारा घटना-क्रम मेरी कोई सफलता थी या दुर्भाग्य.
मैंने अब एक मित्र की भांति उसे फिर से मेल किया और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.
जवाब में केवल इतना लिखा हुआ आया ...वेट अ मोमेंट...
कुछ देर इंतजार करके मैं सो गया.
न जाने कितनी लम्बी और गहरी नींद रही मेरी. मैं अगले दिन दोपहर को लगभग तीन बजे उठा. मेरे मेज़बान ने मुझा जगा देख कर नमस्कार किया और बताया कि लम्बे सफ़र के बाद ऐसी ही नींद आती है.
उठते ही मैंने अपना कंप्यूटर खोल कर मेल चैक किया. रात का वही वाक्यांश कई भाषाओँ में आ रहा था.
मुझे अपने देश और अपनी भाषा की याद आयी. मैं अब अपनी भाषा को वहां तलाशने लगा. आखिर एक जगह वह बारीक अक्षरों में लिखी मुझे दिख ही गई. लिखा था - " थोड़ी देर और ठहर ". [ समाप्त ]