Mukhbir - 6 in Hindi Fiction Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 6

Featured Books
Categories
Share

मुख़बिर - 6

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(6)

पकड़

उस दिन वोट गिरने में एक दिन बाकी था। पटवारी होने के नाते मेरे माथे पर अनगिनत जिम्मेदारियां लदी थीं । अपने हल्का ( कार्य क्षेत्र के गांवों ) में आये चुनाव कर्मचारियों की पूरी व्यवस्था मुझे संभालनी थी, उन्हे खाना पहुंचाना, बिस्तरे मंगवाना और वोटिंग के लिये फर्नीचर लाना, पोलिंग वूथ वगैरह बनबाना हम पटवारियों के ही तो जिम्मे रहता है न ! और इसके लिए हमे पटेल और सरपंचों से निहोरे करना पड़ते हैं । क्यों कि कहीं तो हमे टेक्टर मंगाना है कहीं बैल गाड़ी, यानी कि चुनाव क्या आते हैं हमारी तो आफत आ जाती है । सो उस दिन मैंने बड़े भोर अपने गांव से पैदल चल के बस पकड़ी थी, और तहसील के लिए रवाना हो गया था ।‘‘

उस दिन मेरे साथ मेरा बाल सखा लल्ला पंडित भी उसी बस में सवार था । हम दोनों मित्र बैठे-बैठे देश में इस तरह हर साल छह महीने में होने वाले चुनावों से उत्पन्न गांव के तनाव, आपसी वैमनस्यता और राजनीति में गुण्डों के प्रवेश पर अपनी चिन्ता जता रहे थे ।

ठसाठस भरी बस ने मुड़कट्टा की खतरनाक ढलान से उतरना शुरू किया था कि यकायक झटके के साथ रूकी । ऐसा लगा मानो ड्रायवर ने तेजी से ब्रेक लगा दिये हों । बस की सवारियां चौंकी । अगली कतार में बैठे लोग सामने के शीशे के पार झांकने लगे । कंडेक्टर चेहरे पर परेशानी प्रकट करता उंकड़ू सा बोनट पर जा बैठा और माजरा समझने का प्रयास करने लगा था ।

बीच रोड पर ऐन-सामने किसी ने बड़े-बड़े पत्थर इस तरह जमा कर रख दिये थे कि उन्हे बचा कर बस का निकलना मुश्किल था । झुंझलाता कंडेक्टर फुर्ती से नीचे उतरा । पत्थर हटाने के लिए अपनी मदद के वास्ते उसने चार-पांच सवारियां भी नीचे बुला लीं ।

पत्थर जमाने वाले को गालियां बकते वे लोग चट्टानों के पास पहुंचे ही थे कि यकायक सड़क किनारे की झाड़ीयों को फलांगते, दाड़ी-मूंछ धारी दो बंदूक धारी जाने कहां से प्रकट हो गये। उन्हे देखकर कंडेक्टर समेत नीचे खड़े सब लोगों को मानों सर्प ही सूंघ गया ।

मैंने खिड़की से बाहर देखा कि गंदी-चीकट खाकी रंग की वरदी पहने हुए वे लोग इस तरह धूल-धूसरित दिख रहे थे, मानों किसी ने उन्हे धूल से नहला दिया हो । बड़े बाल लहराते उन दाड़ी मूंछधारियों के मुंह से अजस्त्र गालियां बह रही थीं, उन्ही में से कोई चीखा -‘‘ रूक जा मादऱ… पथरा मत हटइये ।‘‘

डरता हुआ लल्ला फुसफुसाया-‘‘ शाइद बागी आ गये !‘‘

भयभीत होते मैंने हामी में सिर हिलाया था । यकायक हम दोनों की धड़कनें बढ़ गयीं । भीतर-ही-भीतर डर का एक बारीक सर्प हम सबकी रीड़ में चहलकदमी करने लगा था । लग रहा था कि बस कुछ घड़ी की जिन्दगी शेष है । क्योंकि बागीयों की मर्जी का क्या विश्वास-एक तो गैर पढ़े-लिखे, ऊपर से हर समय नाक पर बैठा गुस्सा, और फिर हाथ में बंदूक।

सहसा नीचे खड़े डाकू ने कंडेक्टर की गिरेबान पकड़ी और दांये हाथ का एक जन्नाटेदार रहपट उसके गाल में मार दिया, फिर उसकी कमर में एक लात जमा कर बोला था-‘‘ भैन्चो हरामी, चुप रहिये ! नहीं तो गां… में से धुंआ निकाद्दंगो ।‘‘

इतनी पिटाई से कंडेक्टर टूट चुका था, वह रूआंसा हो कर बोला

-‘‘ ठीक है ठाकुस्साब ! जैसी आप कहो ।‘‘

‘‘ भोषई के ठाकुर होयगो तेयो बाप !‘‘ क्रूर और बदतमीजी के लहजे में उस अधेड़ उम्र के डाकू ने कंडेक्टर को लताड़ा-‘‘ सुन मादरचो.......हम ठाकुर नाने ! हमाओ नाम सुनके अच्छे-अच्छेन्न को मूत छूट जातु हैं -हम हैं किरपाराम घोसी ! समझे कछू ! अब जल्दी कर । डिलाइवर से कह, कै मोटर गोला से उतार के हार में ले चले ।‘‘

मैंने अनुभव किया कि कृपाराम का नाम सुनकर सब लोग सचमुच कांप उठे थे । हमसे अगली सीट पर बैठे बस के एक यात्री सज्जन अपने पड़ौसी यात्री को धीमे से बता रहे थे-‘‘ बिना वजह मारपीट करने वाला और कभी सनक उठ आये तो बेहिचक गोली मार देने वाला यह बागी कृपाराम पिछले कुछ दिनों से चम्बल में आतंक और बर्बरता की निषानी सा बन गया है । तुमने भी तो पढ़ा होगा, अरे भैया अभी कुछ दिन पहले अखबार में छपा था ना, कि आज यह चम्बल का बिना मुकुट का राजा है । इसके पास अपने छुपने के ऐसे ऐसे गोपनीय ठांव है कि, हजारों पुलिस वाले महीनों तक ढूढ़ं तो भी इसे कभी न पा सकें । पुलिस को छकाने में तो यह बड़ा माहिर है और पकड़ के धंधे का तो यह सचमुच उस्ताद आदमी है । ‘‘

’’ लेकिन इसके खिलाफ पुलिस और उसके मुखबिर...........‘‘ दूसरा सह यात्री विष्वास नहीं कर पा रहा था षायद, इसलिये उसने प्रष्न किया, लेकिन बताने वाला इतनी जल्दी में था कि उसकी बात काट के बोला-’’ काहे की पुलिस, और काहे के मुखबिर ? इसके अपने निजी ऐसे-ऐसे मुखबिर है कि यह बीहड़ में बैठे ही पुलिस के सारे कैम्पेन के बारे में छोटी-छोटी सी माहती जान लेता है ।‘‘

मुझे लगा कि बस अब हुआ खेल खतम ! अपनी जिन्दगानी शायद यहीं तक लिखी थी ऊपर वाले ने ।

उधर कंडेक्टर और सवारियों ने पत्थर हटाये फिर डाकू के संकेत पर सब लोग फुर्ती से बस में चढ़ आये । ड्राइवर ने बस स्टार्ट की और बागी के इशारे पर एकदम मोड़के सड़क से नीचे उतारी, फिर उस रोड बराबर चौड़ी कच्ची सी पगडंडी पर आगे वढ़ा दी, जो सड़क से नीचे बीड़हों में जाती दिख रही थी । इधर बस में बैठी सवारियों के बीच अब तक चुपचाप बैठा एक आदमी अचानक ही उठ खड़ा हुआ था, उसके हाथ में भी एक दुनाली-बंदूक दिख रही थी । अपनी लाल बल्बों सी जलती बड़ी बड़ी आंखों से एक-एक सवारी को घूरता हुआ वह बस की पिछली ओर खिसकने लगा । उसे देखकर सवारियों की तो जैसे घिग्घी बंध गयी । पसीना टपकाता लल्ला बुदबुदाया-‘‘ बड़ा गहरा जाल फैलाया है बदमाशों ने ।‘‘

ओंधी-नीची होती बस दो किलोमीटर के करीब बीहड़ में धंस गयी, तो बागी ने रूकने का इशारा किया । इधर बस रूकी उधर तेज स्वर में किरपाराम चिल्लाया-‘‘ अब सबि लोग नीचे उतरो ।‘‘

बस में बैठी सवारियां इतनी ज्यादा डर चुकीं थीं कि हरेक को नीचे उतरने में भी हिचक हो रही थी, मुझे तो फूलनदेवी का बेहमई-हत्याकांड याद आ गया था, डर लग रहा था कि यहां भी बस से नीचे उतार के आज ये डाकू हम सबको एक लाइन में खड़ा करके गोली मार देंगे ।

हिम्मत बांध के सबसे आगे कंडेक्टर बस के नीचे उतरा, पीछे साहस करके दूसरे लोेग भी डरते-हिचकते उतरने लगे। बाहर एक भयावह सन्नाटा था । चारों ओर मौत नजर आ रही थी । उधर किरपाराम अपने एक साथी को निर्देश दे रहा था-‘‘ जल्दी करो तिम लोग ! तलाशी लेऊ सबकी ! जो आनाकानी करे ताको बेहिचक गोली मार देउ ।‘‘

किरपाराम के एक साथी ने अपने गले में लपेटा हुआ चादर फटकार के बस के दरवाजे के पास जमीन पर बिछा दिया और खुद भी तलाशी लेने के वास्ते बस में चढ़ गया । बस में मौजूद तीसरे बागी के साथ उसने सवारियों की बेहिचक तलाशी लेना शुरू कर दी । एक महिला तलाशी नहीं दे रही थी, बागी ने उसके गले में पड़ी जंजीर अपनी उंगली में उलझा कर खींची, तो महिला ने उसका हाथ झटकार दिया । कुपित बागी ने दांत मिसमिसाये और उस औरत को एक थप्पड़ मार दिया । फिर क्या था, वो महिला बुक्का फाड़ के रो उठी ।

आवाज सुनी तो बाहर खड़ा किरपाराम अपने साथी पर चिल्लाया-‘‘काहे रे कालीचरण, तैं समझेगो नाहीं । हमने तिमसे कहा कही हती, कै बहू-बिटिया ते हाथ मति लगइये । दूर ते ही मांग लेइये । ‘‘

उधर बस की पुरूष सवारियां एक-एक कर नीचे उतरने लगीं थीं । बस के दरवाजे की बगल में बिछी चादर पर वे लोग अपने पास का रूपया-पैसा, जेवर वगैरह रखते जा रहे थे। मैं मन ही मन उन डाकुओं की लानत-मलामत कर रहा था-‘सारे जे डाकू हैं, कि भिखमंगे ! मदारी और भिखारिन की नाईं चादर बिछा के मांग रहे हैं ।‘

यह वृत्तांत सुन रहे पुलिस इंसपेक्टर रघुवंशी के मुंह पर इस वक्त एक विद्रूप मुस्कराहट आ गयी थी । वह हिकारत से बोला -‘‘ अब ये घेासी-गड़रिया डाकू बनेंगे तो क्या कुछ नियम कायदे मानेंगे ! इनकी काहे की इज़्ज़त और क्या ठसक होगी ! अब पेशा कोई भी हो, जात-विरादरी का असर तो आ ही जाता है न गिरराज ! ‘‘

मैंने तुरंत ही ‘हां जू‘ कहा, अब जमाना ही इसका है न ! मैंने तब भी हां जू कहा था जब बागी किरपाराम घोसी बोला था-‘‘ अब वे जमाने नहीं रहे गिरराज, जब ठाकुर-वामनऊ वेहड़ में कूदि जात हते, तब की कहा कहें तब तो लुगाई तलक बागी बनि जात हतीं ! अबि तो वो आदमी ही बागी बन सकतु है, जो दिन दिन भर भूखो रहि जावे़, मीलन दौर सके । अब तो मजूर आदमीउ बागी बनके जिंदा बच सकतु है, अब बनिया-बामन ना बन सकतु बागी। है न गिरराज !‘‘

मेरी हां जू सुनकर कृपाराम फूल जाता था ।

बातूनी तो वह अब्बल दरजे का था, कहता-‘‘ तुम्हे का बतावें गिरराज, इन ऊंची जात वारों ने सदा से खूब सताओ हमे, गांव में सरपंच हिकमतसिंह और भगोना पंडत तो हमे देखिके दूर से ही चिल्लावत हते कि दूरि रहो किरपाराम, तुमि में से गाड़रन की बास आवतु है । हम सदा से दूर-दूर रहे उनते, जैसे आदमी न होवें जिनावर होवें । वो तो हमाये दिन फिरे और हमपे कारसदेव की किरपा भई सो हमने अपने खानदान को नांव उछार दयो, तो अब वे ही भगोना पंडित भेन के … हमसे कहतु हैं कि तुम हमारे सबसे प्यारे जिजमान हो किरपाराम । पुरखन को पुन्न परताप है कि हमने अपने कुल गोत को नाम ऊचो करो, नई तो हम पुरखन की नाई, गांव में ही दबि-कुचि के मर जाते कबहुंके । बूढ़ं पुराने कहि गये है जा घरि के लरिका जै बोलिके भरका में कूद जातु, ताकी सात पीढ़ी को जस पूरी घाटी में फैल जातु है।

-------