Darka Aaina in Hindi Short Stories by Renu Gupta books and stories PDF | दरका आइना

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दरका आइना

जेठ माह की तपती आग उगलती लंबी रात थी। हवा में बेहद तपिश थी। दुर्गा की टीन-टप्पर की बनी खोली में एक भी खिडक़ी नहीं थी। रात को टीन का दरवाजा जो बंद होता तो पूरी खोली जैसे दमघोंटू भट्टी बन जाती। अभी-अभी उमस भरी शिद्दत की गर्मी में पसीना-पसीना होकर दुर्गा की आंख अचानक खुल गई और आदतन उसका हाथ बगल की खटिया पर गया था। लेकिन आशा के विपरीत जब उसका हाथ निहाल से छू गया तो वह चिंहुक उठी। निहाल.... आज निहाल यहां है, नींद की खुमारी से उबरते हुए उसने सोचा। निहाल को अपने पास देखकर बहुत राहत का अनुभव हुआ उसे, मानो उसके सीने से मनों वजनी बोझ उतर गया हो। पिछले एक बरस से जो लड़ाई वह लड़ रही थी निहाल को वापस अपने पास लौटा लाने की, उसमें उसे जीत हासिल हुई थी। बीते दिनों की कसैली और मधुर यादों का सैलाब उसके अंतर्मन में एकाएक बहने लगा और वह उसमें आकंठ डूबने-उतराने लगी।

निहाल के साथ उसका रिश्ता सिनेमाई कहानी की मानिंद जुड़ा था। निहाल एक बहुत पारंगत रसोइया था। तरह-तरह की स्वादिष्ट रोटियां, पूरी-परांठे, कचौडिय़ां बनाने में उसे महारथ हासिल था। उसके बनाए परांठे-पूरी, कचौड़ी मुंह में जाते ही जैसे मक्खन की डली की तरह घुल जाते। एक बार जो उसके हाथ का यह सब खा लेता तो उनका स्वाद बरसों तक नहीं भूल पाता। शादी-ब्याह के दिनों में लोग उसे महीनों पहले अपने यहां बुलाने के लिए तय कर लेते। निहाल से वह करीब सात बरस पहले एक ब्याह में मिली। निहाल वहां रोटी, पूरी-परांठे और कचौडिय़ां बनाने आया था। और दुर्गा सुस्वादु सब्जियां बनाने में माहिर थी और वह वहां सब्जियां बनाने आई थी। दुर्गा और निहाल पहली बार साथ-साथ काम कर रहे थे। लेकिन जब ब्याह का काम खत्म हुआ और अपने-अपने रास्ते जाने की बारी आई तो दुर्गा और निहाल, दोनों को ऐसा महसूस हुआ जैसे जनम जनम का रिश्ता टूट रहा हो, जैसे अपना कुछ कीमती छूट रहा रहा हो। इतने दिन साथ काम करके दोनों ऐसे अबूझ रिश्ते में जकड़ गए थे मानो दोनों न जाने कितने वर्षों से एक दूसरे को जानते हों।

दोनों की ही चढ़ती उम्र थी। निहाल 25 बरस का गबरु सुदर्शन जवान था और दुर्गा 22-23 बरस की सांवली-सलोनी युवती थी। काम से फारिग होकर डूबते दिल से दोनों ने एक-दूसरे का फोन नंबर ले लिया। घर आकर भी दोनों ही एक-दूसरे के ख्यालों में गुम रहे। निहाल से रहा ना गया और उसने घर पहुंचते ही दुर्गा को फोन किया और अब वे दोनों घंटों एक-दूसरे से बातें करते। और अगले हफ्ते जब निहाल को अगले ब्याह का काम मिला तो उसने दुर्गा को भी सब्जी बनवाने के लिए वहाँ बुला लिया। और इस तरह दुर्गा और निहाल साथ-साथ शादी-ब्याह, पार्टियों में काम करने लगे। वक्त के साथ-साथ दोनों की प्रीत का रंग गहराता चला गया और दोनों ने साल भीतर ही शादी कर ली ।

दुर्गा और निहाल, दोनों ही शादी कर बहुत खुश थे और अपने हाथ के हुनर से अच्छा कमा रहे थे। जिंदगी अच्छी तरह से गुजर रही थी। वक्त के साथ दुर्गा की गोद भरी। वह एक बेटे और बेटी की मां बनी। दोनों ही अपनी छोटी सी गृहस्थी में बहुत मगन थे। लेकिन जल्दी ही उनकी खुशियों को नजर लग गई। निहाल की बहन सुरसतिया निहाल के साथ ही रहती थी। उसे दुर्गा फूटी आंखें नहीं भाती। उसके अपने हाथ में कोई फ़न न था। मेहनत-मजदूरी कर किसी तरह मुश्किल से पेट पालती। उधर निहाल और दुर्गा के घर उनके हुनर के दम पर पैसा छमाछम बरस रहा था। सो वह भाई-भाभी की संपन्न गृहस्थी देखकर जलकर राख हुई जाती। दोनों को सुख-चैन से रहते देखती तो कुढ़ती और उन्हें लड़ाने का बहाना तलाशती। कि एक दिन दुर्गा से दुश्मनी निकालने का एक मौका उसके हाथ लग ही गया।

कुटुंब की एक शादी में निहाल और सुरसतिया साथ-साथ दूर गांव गए थे। दुर्गा बच्चों की बीमारी के चलते उनके साथ नहीं जा पाई। शादी में उनकी जान-पहचान के एक बुजुर्ग अपनी अति रूपवती 14-15 साल की बेटी के साथ आए थे। वह बेटी के हाथ पीले करने के लिए लालायित थे। किसी तरह बेटी का ब्याह हो जाए तो घर में खाने वाला एक मुंह कम हो जाए, यह सोच कर उसकी शादी की जुगत भिड़ा रहे थे। एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने सुरसतिया के सामने अपनी बेटी के विवाह का प्रसंग छेड़ा तो सुरसतिया ने बिना समय गंवाए जवाब में निहाल के साथ उसके रिश्ते की बात छेड़ दी। अंधा क्या चाहे दो आंखें। लंबी चौड़ी कद-काठी के कमाऊ जवान को देख उस लडक़ी के पिता की बाछें खिल गई। और उन्होंने बिना कोई पूछताछ किए एक नारियल और कुछ बताशे निहाल के हाथों में दे उससे अपनी हीरे जैसी बेटी का रिश्ता पक्का कर दिया।

उधर दुर्गा के बारे में सोचकर निहाल ने शुरू में रिश्ते के लिए थोड़ी ना-नुकुर की लेकिन रूप सम्पदा से मालामाल मदमाते फूलों जैसे गदराए बदन की कमसिन लडक़ी को देख निहाल का मन उसके बस में ना रहा। उसके सलोने चेहरे के नमक ने जैसे उसकी सोचने समझने की शक्ति हर ली। सो बिना आगा-पीछा सोचे गरीब मां-बाप को बेटी के बोझ से मुक्त कराने के लिए उसने भी हां कर दी। और निहाल और पुष्पी ने मंदिर में सात फेरे ले लिए। पुष्पी से ब्याह कर सुरसतिया और निहाल नई बहू के साथ अपने गांव आ गए। और निहाल गांव के दूसरे छोर पर एक खोली किराए पर लेकर उसके साथ रहने लगा।

इधर निहाल के दूसरे ब्याह की खबर गांव भर में फैल गई। दुर्गा की एक सहेली ने उसे पहले-पहल यह मनहूस खबर सुनाई, ‘दुर्गा...तेरे तो करम फूट गए। निहाल दूसरा ब्याह कर एक अप्सरा जैसी खूबसूरत लौंडिया ले आया है और रामपुर में एक खोली में रहने लगा है उसके साथ आजकल।’

यह सुनकर दुर्गा मानो जीते जी मर गई। खबर सुनते ही सदमे से उसका चेहरा ज़र्द हो गया। भाग्य में लिखा तो भुगतना ही पड़ता है हर किसी को इस दुनिया में, यह सोच कर जैसे-तैसे अपने आप को संभालते हुए अपनी एक सहेली को लेकर निहाल की नई खोली ढूंढते-ढूंढते किसी तरह वह वहाँ पहुंची। लेकिन निहाल को उसके आने की खबर लग गई थी और वह पुष्पी को लेकर पास के एक गांव में चला गया था और वहां एक झुग्गी किराए पर ले कर रहने लगा था। दुर्गा उसका पीछा करती और वह झुग्गी बदल-बदल कर दुर्गा से भागा-भागा फिरता। यूं उसे पुष्पी के साथ रहते-रहते छह माह होने आए थे।

उधर दुर्गा ने गांव की पंचायत में निहाल की दूसरी शादी पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए उसे खारिज कराने की मांग की। उसने पंचायत से सुरसतिया के खिलाफ कार्रवाई करने की गुहार भी की, जिसने निहाल के शादीशुदा होते हुए भी उसकी शादी पुष्पी से करा दी। गांव की पंचायत ने निहाल, पुष्पी और सुरसतिया को अपनी बैठक में तलब किया। पंचों ने पहली पत्नी के होते निहाल के दूसरे ब्याह को अवैध ठहराया और उसे दुर्गा के पास वापस लौट जाने का फरमान सुनाया।

पंचायत ने सुरसतिया को बीवी होते हुए भाई की दूसरी शादी कराने के जुर्म में गांव से निकालने का हुक्म सुनाया।

पंचायत की बैठक में दुर्गा ने साक्षात चंडी का रूप धारण करते हुए निहाल को खूब खरी-खोटी सुनाई, ‘तूने सोच कैसे लिया कि तू मेरे जीते-जी दूसरी औरत से गठजोड़ कर लेगा और मैं चुपचाप सब कुछ देख-सह लूंगी। अरे इन बच्चों की याद ना आई तुझे दूसरी लुगाई लाते वक्त? ये बच्चे क्या मैंने अकेले ने जने हैं। अरे शुकर मना मैंने अपने भाइयों को खबर ना दी है। अगर मैं उन्हें यहां बुला लेती तो तुझे चीर कर रख देते वो। चुपचाप घर चला चल और इस पुष्पी का निपटारा भी मैं कर दूंगी। टांगें तोड़ दूंगी अगर खोली से पैर भी बाहर निकाला तूने उस पुष्पी के पास जाने के लिए,’ कहते हुए दुर्गा चीखते -चिल्लाते भरी पंचायत के सामने निहाल को अपनी खोली में खींच ले गई।

और खोली के एकांत में भीतर का सारा संताप आंसुओं के रूप में बह निकला। निहाल के कंधों पर सिर रखकर वह फफक-फफक रो पड़ी, ‘क्यों किया रे जालिम तूने ऐसा? मेरा भरम तोड़ दिया रे निर्मोही तूने। मैं सोचती थी कि तू मुझे बहुत चाहता है लेकिन वह तो मेरी निरी खुशफहमी थी। मुझे तुझ पर, तेरे प्यार पर कितना गुमान था। मेरा भरोसा तोड़ दिया रे तूने......................’

पत्नी का यह विलाप देख निहाल की आंखें भी नम हो गईं। अब वह भी अपने किए पर बहुत पछता रहा था। अगले ही दिन बहुत सोच-विचार कर दुर्गा ने पुष्पी का रिश्ता दूर गांव के एक अपने गरीब रिश्तेदार से करवा दिया था। निहाल को छोडऩे की बात पर वह बहुत बौखलाई और अपना आक्रोश दिखाते हुए चीखी चिल्लाई, रोई। लेकिन फिर घर के बड़े-बुजुर्गों ने उसे दुर्गा के बच्चों का वास्ता दिया। उसे बहुत समझाया बुझाया, जिससे वह बड़े ही बेमन से निहाल को छोडऩे के लिए राजी हुई। महीना बीतते-बीतते पुष्पी की शादी हो गई थी और इस तरह पुष्पी निहाल और दुर्गा की जिंदगी से दूर चली गई।

निहाल दुर्गा फिर से साथ साथ रहने लगे लेकिन अब दोनों के बीच पहले वाली बात नहीं रही थी। कुछ था, जो दरक गया था, टूट कर बिखर गया था। दुर्गा के कलेजे में पति के इस विश्वासघात ने खंजर चला दिए थे। निहाल के दिए घाव दिन-रात रिसते। साथ-साथ रहते भी दोनों को ही लगता उनके बीच फासले उग आए थे। दुर्गा सोचती, क्या कभी ये फासले पट पाएंगे। वह मन को लाख समझाती, ‘हाड़ मांस का मानुष है तो आखिर गलतियों का पुतला ही ना’। अपने आप से निरंतर लड़ती, जूझती, समझाती स्वयं को,‘माफ कर दे निहाल को और फिर से पहले जैसी जिंदगी जी।’

लेकिन दोनों के बीच भरोसे का आईना जो एक बार चटका तो फिर दोबारा नहीं जुड़ सका।

निहाल और दुर्गा साथ-साथ जरूर थे लेकिन मन से मीलों दूर थे एक दूसरे से। निहाल और दुर्गा अब जिंदगी जी नहीं रहे थे, उसे झेल रहे थे। दिन बीतने के साथ दोनों दो समानांतर रेखाओं की मानिंद ज़िदगी की डगर पर बढ़ते जा रहे थे। कौन जाने उन के मन की राहें कब मिलेंगीं?