Jivan ki ek nai sharuaat in Hindi Short Stories by Saroj Prajapati books and stories PDF | जीवन की एक नई शुरुआत

Featured Books
Categories
Share

जीवन की एक नई शुरुआत

राजेंद्र जी कमरे में अकेले बैठे एकटक दीवार पर लगी ताजमहल की तस्वीर को निहार रहे थे। उन्हें याद है जब सुदेश ने एक बार बड़े प्यार से कहा था कि "चलो ना ताजमहल चलते हैं। मेरी उसे देखने की बड़ी इच्छा है। आज तक मैं आपके साथ कहीं बाहर नहीं गई।" उसकी बात सुन वह हंसते हुए बोले "बस इतनी सी बात !यह इच्छा तो मैं तुम्हारी एक-दो दिन में ही पूरी कर दूंगा।" सुनकर कितनी खुश हो गई थी वह। उसकी खुशी देखते ही बनती थी। अगले दिन शाम को वह बड़ी सी पेंटिंग लेकर आए। उसे देख सुधा ने बड़े आश्चर्य से पूछा "यह क्या है?"
" अरे इसके ऊपर से कागज तो हटाओ फिर देखना।" उत्सुकता से उसने कागज हटाया " यह तो ताजमहल की तस्वीर है।"
" तुमने कहा था ना कि मैंने ताजमहल नहीं देखा। आप इस तस्वीर को दीवार पर टांग लो और जब तुम्हारा मन करे जी भर कर देख लेना। फिर मत कहना मैंने तुम्हें ताजमहल दिखाया ही नहीं।"यह कह वह हंस पड़े। इस बात पर वह कितना गुस्सा हो गई थी ।
"मैंने कौन सा आपसे ताजमहल खरीदने के लिए बोला था। कभी-कभी तो कुछ कहती हूं। उसको भी हंसी में उड़ा देते हो।"
" नाराज क्यों होती हो। तुम तो देख ही रही हो आजकल ऑफिस में कितना काम है । समय कहां मिलता है। आगे आगे बच्चों की पढ़ाई का खर्च बढ़ ही रहा है तो थोड़ा हाथ तंग करना पड़ेगा।"
" यह सुनते सुनते तो इतने सालों गुजार दिए।"
" कुछ दिनों की बात है। देखना अपने राजन की नौकरी लग जाएगी। फिर तुम्हारी सारी इच्छाएं कैसे पूरी करवाता हैं तुम्हारा बेटा।"
" हां हां बाप ने तो सारी करवा दी अब बेटे की कसर रह गई है। "
"अरे अकेले में क्यों मुस्कुरा रहे हो।" सुदेश जी रसोई से आते हुए बोली।
"बस ऐसे ही कुछ याद आ गया था।"
"आपने स्वेटर क्यों नहीं पहनी। पता है ना कितनी जल्दी सर्दी पकड़ती है आपको।" यह कह वह अलमारी से उनके लिए स्वेटर निकालने लगी। हर एक स्वेटर कई कई साल पुराना । हर बार यह कह कर टाल देते 'अभी है ना तो क्या जरूरत खर्चे की। बच्चों के लिए चाहिए।' और वही बच्चे ठंडी सांस ली उन्होंने।
रसोई में चाय बनाते हुए सुरेश जी को रह-रहकर पुरानी यादें सता रही थी कितना खुश हुए थे सभी राजन के डॉक्टर बनने पर। गर्व से इनका सीना चौड़ा हो गया था और खुद वह एक डॉक्टर की मां कहलाने पर कितना फक्र महसूस कर रही थी। बेटी भी कॉलेज में लेक्चरर लग गई। उन दोनों को अपने पैरों पर खड़ा देख राजेंद्र जी व सुदेश जी को अपनी तपस्या सफल होती नजर आई। बेटी ने अपने साथ कॉलेज में कार्यरत प्रोफेसर से शादी करने की इच्छा जताई तो उन दोनों ने उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए दोनों की धूमधाम से शादी करवा दी। राजन ने भी अपने कॉलेज की एक लड़की से ही शादी की। बहू भी एक कंपनी में मैनेजर थी। सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था। एक दिन राजन ने कहा "पापा सुमेधा को अमेरिका की कंपनी से बहुत अच्छा ऑफर मिला है।"
" लेकिन बेटा यहां भी तो सुमेधा नौकरी कर ही रही है ना!"
" वह तो ठीक है पापा !लेकिन आपको तो पता है अमेरिका में नौकरी के लिए लोग कितने सपने देखते हैं और इसको तो बैठे-बिठाए ऑफर मिल रहा है।"
" क्या बहू अकेले जाएगी वहां पर ?"
"अरे नहीं पापा मैं भी तो साथ जाऊंगा। इसे अकेला कैसे छोड़ दूंगा।"
"और हम!"
"हां पापा आप सबको भी लेकर चलेंगे। लेकिन एक बार वहां सैट तो हो जाए और आप अकेले कहां दीदी तो आती जाती रहेगी ना आपके पास लेकिन सुमेधा तो वहां किसी को नहीं जानती समझ रहे हैं ना।"
"हां बेटा समझ गए लेकिन थोड़ी देर से ।"
उनके जाने के बाद बेटी ने कितनी जिद की थी उन्हें अपने साथ ले जाने की ।लेकिन दोनों ने ही यह कहते हुए मना कर दिया था कि बेटा तुम आती जाती रहना यही हमारे लिए काफी है और हम अकेले कहां हम तो एक दूसरे के साथ हैं ना ! तुम फिकर मत करो। लेकिन सच में राजन के जाने के बाद घर क्या, मन में भी एक अकेलापन सा बैठ गया था। दोनों ही तो एक दूसरे को खूब तसल्ली देते लेकिन मन था कि मानता ही ना था कि उनका बेटा उन्हें यूं अकेला छोड़ जा सकता है। कहां कमी रह गई हमारी परवरिश में। दोनों एक दूसरे के सामने तो खुश रहने की कोशिश करते हैं लेकिन अकेले में आंसू को आने से रोक नहीं पाते।
"अरे भई। चाय बना रही हो या बीरबल की खिचड़ी।" यह सुन सुदेश जी की तंद्रा टूटी।
"चलो आज मार्केट चलते हैं।"
"हां हां चलो।"
"अच्छा मैं बैग लेकर आती हूं।"
"अरे ऐसे ही चलोगी क्या। कपड़े तो बदल लो।"
"कौन बैठा है हम बुड्ढा बुढ़िया को यहां देखने वाला।"
"अरे भई कोई देखे या ना देखे हम तो तुम्हें देखते हैं ना प्रिय!" कह वह खिलखिला कर हंस पड़े। मानो इस हंसी के द्वारा वह अपने अकेलेपन को जीतने की कोशिश कर रहे हो। बहुत दिनों बाद उन्हें खुलकर हंसता देख सुदेश जी भी उनके साथ हंस पड़ी।
मार्केट में गर्म कपड़ों की दुकान पर जाकर उन्होंने उनके लिए नेहरू जैकेट पसंद की और साथ ही कुछ स्वेटर भी। राजेंद्र जी ने इस बार कोई आनाकानी नहीं की और सभी स्वेटर सुदेश जी की पसंद से खरीदें।
इसके बाद उन्होंने दुकानदार से कुछ अच्छी वूलन कुर्ती निकालने के लिए कहां।
"कुर्ती किसके लिए !"
"तुम्हारे लिए और किसके लिए।"
"अरे मेरे पास तो बहुत है।"
"कोई बात नहीं 1 -2 और ले लो।"
उसके बाद दोनों ने दोपहर में एक रेस्टोरेंट में लंच किया। इतने वर्षों में पहली बार सुदेश जी इनके साथ बाहर निकली थी। दोनों को एक दूसरे का साथ सुखद लग रहा था।
घर आकर दोनों बैठे ही थे कि तभी एक आदमी आकर एक लिफाफा दे गया।
"यह क्या है जी?"
"खोल कर देखो।"
"यह तो टिकट है। आगरा की।"
" इतने साल हमने बच्चों के लिए निकाल दिए। बच्चे अपने अपने घर परिवार के हो गए। पक्षी भी तो अपने बच्चों को तब तक ही घोसले में रख पाते हैं, जब तक वह उड़ना सीख नहीं जाते। उनके जाने के बाद पक्षी भी तो फिर एक नए सफर पर निकल पड़ते हैं।हम भी इस अकेलेपन से निकल अपने जीवन की एक नई शुरुआत क्यों ना करें। जो हसरतें हमारी मन में रही अब हमें उन्हें पूरी करना है ।"
कह दोनों सामान पैक करने लगे।
सरोज ✍️