“बहुत अच्छा गाती हैं आप!”
मैंने कहा तो वान्या मुस्करा दी, “धन्यवाद, मुझे संगीत बहुत प्रिय है।” अबकी बार मैं हंस पड़ी। विदेशी मूल का व्यक्ति जब हिंदी बोलता है तो वह कितना सजग और औपचारिक होता है। अनुवाद वाली भाषा, शब्दकोष से चुने हुए शब्द! फिर भी, फिरंगियों के मुंह से अपनी भाषा सुनकर अच्छा लगता है, बस इसी लालच में मैं वान्या के नज़दीक चली आई थी और उससे कुछ न कुछ बुलवाना चाह रही थी।
“हिंदुस्तान पहले भी आई हो क्या?”
“जी नहीं, पहली बार आई हूं। मुझे भारत बहुत अच्छा लगा, मैं यहीं रहना चाहती हूं।”
वह कुछ अटक- अटककर भले बोल रही थी, मगर उसका उच्चारण एकदम स्पष्ट था, इतना स्पष्ट जितना हिंदुस्तानियों का भी नहीं होता। मगर इसमें हैरानी की कोई बात इसलिए भी नहीं थी कि ये उन विद्यार्थियों की टीम थी जो विदेशों में हिंदी सीख रहे थे और जिन्हे विश्व स्तर की हिंदी ज्ञान-प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार स्वरूप भारत-भ्रमण के लिए आमंत्रित किया गया था। आज की शाम दिल्ली में उनके सम्मान में सांस्कृतिक संध्या और रात्रि भोज का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में वे भारत में हुए अपने अनुभव बांट रहे थे। कोई बता रहा था कि वह यहां से पीपल के पत्तो पर गणेश जी की मूर्ति लेकर जा रहा है, तो कोई प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह खरीद लाया है। वान्या ने बनारसी साड़ियां खरीदी थीं। आसमानी रंग की पटियाला सलवार और ऊंची कुरती में वह बहुत ही आकर्षक लग रही थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसने गीत सुनाया था- ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम…।’ वैसे तो यह गीत कई बार पहले भी सुना है, और गाया भी है, पर उसके मुंह से इसका अलग ही प्रभाव पड़ रहा था। रात्रि-भोज प्रारंभ हो चुका था और मैं अपने भोजन की प्लेट लेकर उसके निकट जा पहुंची थी।
“क्या कुछ देखा आपने यहां?”
“बहुत कुछ! मगर बहुत कुछ देखना अभी बाकी है।”
”आप नॉन-वेज नहीं लेतीं?” मैंने उसकी प्लेट की ओर देखकर पूछा।
“जी नहीं, मैं शाकाहारी हूं।” फिर, एक पल रुककर वह आग्रह के साथ बोल पड़ी, “मैं चांदनी चौक देखना चाहती हूं।”
“चांदनी चौक? क्यों?” फिर लगा जितनी देर में वह इन दो सवालों का जवाब देगी, उतना सब्र मुझमें कहां, इसलिए इन सवालों को वहीं छोड़ यह जानना चाहा कि वह कब तक है हिंदुस्तान में।
“कल दोपहर की उड़ान से चंडीगढ़ जा रही हूं। मगर उससे पहले चांदनी चौक देखना चाहती हूं।” उसकी आवाज में बच्चों-सी ठुनक थी।
“कल जा रही हो तो देखोगी कब?” मैंने समझाने की कोशिश की।
“अभी, खाना खाने के बाद।”
“अभी क्या देखोगी?”
“कुछ नहीं, बस प्रदक्षिणा कर के आ जाऊंगी।”
“मगर अभी तो कुछ भी नहीं होगा वहां।” मैंने खाने की प्लेट रख दी और क्वार्टर प्लेट में रसगुल्ले डालने लगी, “तुम्हारे लिए निकालूं?” मैंने स्नेह से पूछा तो वह मचल पड़ी, “मुझे चांदनी चौक जाना है, अभी इसी वक्त। दिन में समय नहीं है मेरे पास। फिर पता नहीं कब आना हो यहां।” उसके चेहरे पर मायूसी थी। मैं पशोपेश में पड़ गई। समझ न आया, क्या कहूं। हॉल में निगाह दौड़ाई, कोई उसी तरफ का रहने वाला हो तो इसे उसके साथ कर दूं।
“राजेश जी, किस तरफ रहते हैं आप?”
“गुड़गांव।” उन्होंने बताया तो मैं समझ गई कि बात नहीं बन सकती। सामने की दीवार घड़ी दस बजा रही थी। वान्या मेरी स्थिति समझ भी रही थी और नहीं भी, “अधिक समय नहीं लगेगा। बस, एक चक्कर काटकर लौट आएंगे।”
“आखिर ऐसा क्या देखना चाहती हो तुम वहां?” उसकी ये जिज्ञासा मेरी समझ से परे थी।
“कुछ नहीं, बस कहानियों में पढ़ा है वहां के बारे में, इसीलिए एक बार देखना चाहती हूं।” उसकी इच्छा काफी तीव्र हो चुकी थी और वह लगभग निर्णायक स्वर में आग्रह कर रही थी।
इतनी रात और चांदनी चौक जैसे इलाके में इस उम्र की लड़की के साथ? ठीक नहीं रहेगा। मैं कहना चाहती थी, मगर शब्द गले में अटक गए। लगा, जैसे ऐसा कह देने से एक विदेशी मेहमान के सामने मेरे देश का अपमान हो जाएगा।
“अच्छा, तुम खाना तो खत्म करो, मैं कुछ सोचती हूं।” इतना कहकर मैं दूसरी ओर बढ़ गई, अन्य बच्चों में मिक्स होने। संभव है, कुछ देर में यह बात इसके ख्याल से निकल जाए। मैं दूसरी भीड़भाड़ में खो गई। लेकिन मैं कहीं भी बैठी, वान्या मुझे हर जगह से ठीक अपनी सीध में दिखाई देती रही, इतमीनान से आइसक्रीम खाते हुए, गोया वह आश्वस्त थी मेरी व्यवस्था को लेकर।
घड़ी की सूई आगे भागती जा रही थी। बहुत समय तो मेरे पास भी न था। सभी मेहमान एक-एक कर विदा लेने लगे थे। मुझे लगा, मेरे लिए भी यही ठीक रहेगा। मैंने भी दबे स्वर में अन्य आयोजक मित्रों का अभिवादन किया और चुपचाप पिछले दरवाजे से बाहर निकल आई। मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई। मगर अगले ही पल लगा, जैसे वान्या की आंखें मेरी पीठ पर जा चिपकी हैं, “तुमने तो कहा था मुझे चांदनी चौक ले जाओगी?” नहीं-नहीं, ऐसे चोरी से जाना ठीक नहीं, आखिर मेहमान है वह हमारी। पहली बार हमारे देश आई है। क्या सोचेगी, हमारे बारे में? मैं चलकर उसे समझा देती हूं।
मैं वापस पलट गई। हॉल में घुसी तो ढूंढ़ने में देर न लगी। मुझसे नज़र मिलते ही वह मेरी ओर लपक आई, “चलें ?”
मेरी बोलती बंद हो गई। एक साधारण-सी बात कि रात बहुत हो रही है, अभी जाना ठीक नहीं होगा। कल दिन में चलेंगे या फिर अगली बार… मगर मैं कह नहीं पा रही थी। वह चुपचाप मेरे पीछे हो ली। एकबारगी जी में आया, इसे अपने घर की तरफ ले चलूं, द्वारका की बंद मार्किट भी चांदनी चौक की तरह ही तो लगती है, कह दूंगी यही है चांदनी चौक !
दुविधा की स्थिति में ही मैंने गाड़ी स्टार्ट कर दी। वह बच्चों की तरह चहक उठी- ‘ये…s…s..s !’ और उसने मेरे गले में बांहे डाल दीं, “बहुत अच्छी हैं आप!”
मैंने गाड़ी रिंग रोड पर निकाल ली। वह लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी, इससे बेखबर कि मैं उसे सुन भी रही हूं या नहीं। उसकी हर बात पर मैं सिर्फ मुस्करा रही थी। मुझे कुछ ध्यान नहीं, वह क्या कह रही थी। मैंने धीमी आवाज में स्टीरियो चला दिया। सड़क पर खास ट्रैफिक न था, मगर फिर भी मेरी गाड़ी तीसरे गियर में चल रही थी। दरअसल मैं तय नहीं कर पा रही थी कि गाड़ी किस तरफ मोडूं। एक मन हिसाब लगा रहा था कि तेज स्पीड से भी निकालूं, तो भी, तकरीबन एक घंटा जाने का और एक घंटा आने का-यानी रात के साढ़े बारह-पौने एक। दूसरा मन होशियारी सिखा रहा था, “ये देखो, ये ही है चांदनी चौक की मार्किट…।” शटर गिरी दुकानें और ऊंघती हुई गली। मैंने गाड़ी भीतर गली में मोड़ ली।
“ये देखो, मीना बाजार।” मैंने बोर्ड की ओर इशारा किया।
वह ताली बजाकर हंस पड़ी, “लाजपत नगर का मीना बाजार…।” उसने नीचे लिखे पते की ओर इशारा किया तो मैं बुरी तरह झेंप गई। लगा जैसे इसने मुझे चोरी करते देख लिया हो। अपनी झेंप कैसे मिटाऊं, अभी मैं यह तय भी न कर पाई थी कि उसने अचानक स्टीरियो की आवाज तेज कर दी, “मुझे ये गाना बहुत पसंद है।” उसने कहा और साथ-साथ गाने लगी, “मुझे रंग दे, मुझे रंग दे, मुझे अपने रंग विच रंग दे…।”
मैंने मान लिया था कि इसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, मुझे ही इसके रंग में रंगना होगा। मैंने ईश्वर को याद किया, हमें सुरक्षित घर पहुंचा देना प्रभु! अब मैं गाड़ी उड़ाये जा रही थी।
“ये राजघाट है न… यहीं है न बापू की समाधि… और इंदिरा जी की भी… अब हम पहुंचने वाले हैं न!” वह इकतरफा संवाद बोले जा रही थी। मुझे काली सड़क के अलावा कुछ दिखाई न दे रहा था, मैं जल्दी से जल्दी चांदनी चौक पहुंचकर उसे एक चक्कर कटवा देना चाहती थी।
“रोको! रोको!!” वह अचानक जोर से बोल पड़ी।
मैंने हड़बड़ाकर ब्रेक पर पैर मारा तो गाड़ी ठक से बंद हो गई।
“विष्णु दिगम्बर मंदिर, भाई मतिदास चौक… यहीं तो रुकना है।”
मैं जैसे नींद से जगी, ”तुम्हें कैसे पता?” मैं आंखें फाड़कर उसकी ओर देख रही थी। उसने ऊपर लगे बोर्ड की ओर इशारा किया। गाड़ी की इस तेज रफ्तार में भी वह रास्ते के सभी बोर्ड पढ़ती आ रही थी।
“यहां पक्षियों का अस्पताल है न!” उसने पूछा तो मैं अचकचा गई, “हां, शायद यहीं…।”
“शायद नहीं, पक्का यहीं है,” वह पूरी तरह आश्वस्त थी, ”आप गाड़ी अंदर की सड़क पर मोड़ लीजिए… ये मंदिर के बराबर में… इधर…।”
सचमुच, वह ठीक बता रही थी। मैं हैरान थी, “तुम पहली बार आई हो न यहां, चांदनी चौक ?”
“हूं…।”
उसने हामी भरी तो मुझे रोमांच हो आया-कहीं पिछले जन्म में…। मैं कुछ तय नहीं कर पा रही थी, “तो इतना सब कैसे जानती हो यहां के बारे में?”
“वैभव ने बताया था।”
“वैभव कौन?”
“वैभव मेरे विश्वविद्यालय में ही पढ़ता था, फाइनल इयर में…। हमेशा चांदनी चौक की बातें करता रहता था… यहीं रहता था, फव्वारे के पास कहीं रेलवे कॉलोनी में…” मैंने देखा, वैभव के बारे में बताते हुए उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आ-जा रहे थे और वह उसी यूनिवर्सिटी में जा पहुंची थी जहां से वैभव नाम का सहपाठी उसे रोज इसी चांदनी चौक की सैर कराता था। उसी ने बताया था कि जब उसके मिट्ठू तोते पर बिल्ली ने हमला किया था तब वह उसे इसी अस्पताल में लाया था और जहां उसके मिट्ठू ने राम-राम रटते हुए प्राण दे दिए थे…। एक पल को खामोशी रही, फिर वह पल भर में अतीत से वर्तमान की यात्रा पूरी कर बैठी। “रात-दिन वह चांदनी चौक के बारे में ही बताता रहता था…कान पक जाते थे सुन-सुनकर…।” उसने अपने कानों को हाथ लगाते हुए कहा तो मैं उसकी अदा पर रीझ गई, “तो इसीलिए चांदनी चौक आना चाहती थी तुम!” मैंने उसके गाल पर हल्की-सी चिकोटी काट ली। मेरी बात पर वह हौले से मुस्करा दी, “दरअसल मेरे लिए तो चांदनी चौक का मतलब ही भारत है।”
“और इसीलिए तुम भारत में रहना चाहती हो?” मेरी बात पर वह हौले से मुस्करा दी, “इसका अहसास तो मुझे बहुत बाद में हुआ, तब तक वह विश्वविद्यालय छोड़कर जा चुका था…।”
मैंने देखा- उसका उनींदा चेहरा बेहद खूबसूरत लग रहा था। अब से पहले विदेशियों का ये जर्द गोरा रंग मुझे कभी सुंदर नहीं लगा, न ही उनके नैन नक्श… मगर उस वक्त वह मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की लग रही थी…सच, कितना खूबसूरत अहसास होता है मोहब्बत का…।
“अब कहां है वह?” पता नहीं यह सवाल मैं उससे पूछ रही थी या खुद से। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे भीतर भी एक किताब सदियों से बंद पड़ी है और जो आज अचानक ही कसमसाने लगी है…, उसके धुंधला गए अक्षरों में कोई चेहरा आकार लेने लगा है।
“मालूम नहीं, अब वह कहां है, पर भारत में नहीं है।” वान्या की आंखें खिड़की से पार देख रही थीं, “सीताराम बाजार… यहीं लगती है न चाट-पापड़ी की दुकान…?” वान्या की आवाज चटपटी हो गई थी, मानो वह किसी खोमचे वाले को तलाश रही हो। तो फिर वैभव…? मैं वैभव के बारे में और जानना चाहती थी। मगर उसकी गाड़ी वैभव के स्टेशन से काफी आगे निकल चुकी थी… मुझे भ्रम हुआ था… वैभव के साथ अब शायद उसकी कोई वैसी आत्मीयता नहीं बची थी… वह तो उसके लिए भारत का एन्साइक्लोपीडिया भर था, बस। उसके मुंह से अक्सर ही उसने चांदनी चौक का जिक्र सुना था। मगर क्या किसी के जिक्र करते रहने भर से कोई इस कदर बेचैन होता है, वहां की गलियों का चक्कर काट आने को?… और कि वह इस तरह बता सकता है- पक्षियों का अस्पताल… चाट-पकौड़ी का स्वाद?… मैंने फिर छेड़ा था वैभव का जिक्र, पर अब उसकी उसमें कुछ खास दिलचस्पी दिखाई न पड़ी, वह तो शायद कल्पना वाले चांदनी चौक और इस चांदनी चौक को ज्योमेट्री के त्रिकोणों की तरह मिलान करने में जुटी थी।
मैंने उसके चेहरे की ओर धयान से देखा- जर्द सफेद रंग… बल्कि रंगहीन सफेदी… खड़ी सूत-सी नाक और निर्विकार-सी आंखें! नहीं, खूबसूरती तो हमारी भारतीय लड़कियों में होती है। तभी तो अक्सर हमारी लड़कियां विश्व- सुंदरी का खिताब जीतकर लौटती हैं… अपने देश के प्रति मेरा लगाव जागृत होने लगा था। बहुत धीमी रफ्तार में मेरी गाड़ी भीतर की गलियों का चक्कर काट रही थी, उन्हीं गलियों का, दिन के वक्त जिस सड़क पर गाड़ी चलाना तो दूर, पैदल निकलना भी सर्कस का खेल लगता है… हर तरह की किताबों की नई सड़क… ब्याह-शादी की कार्ड छपाई की दुकानें… शुद्ध घी की पराठे वाली गली… परदे-सूट, दाज-वरी की साड़ियों की गली… लग रहा था जैसे हम चांदनी चौक के सेट पर नींद में चल रहे हों। चांदनी चौक और बिना भीड़ के… एकदम नकली, अर्थहीन… बेजान…।
”अरे, ये क्या?” अचानक खामोशी को तोड़ते हुए वान्या ने मुझे चौंका दिया।
”चाट के पत्तल हैं… ये चाट वाली गली है न।” मैंने उसे बताया।
”इतने सारे! इतनी खाई जाती है चाट!”
मैंने देखा, वहां जूठे दोनों का एक पहाड़-सा बना हुआ था, गली के आवारा कुत्तें जिनमें मुंह मार रहे थे।
“और वो क्या है?” उसने सड़क के बीच की पटरी की ओर इशारा किया। वहां कई गुदड़ियां लिपटी पड़ी थीं।
“ये मजदूर हैं, कुछ ये ही खोमचे वाले… दिनभर की मशक्कत के बाद, थककर सो रहे हैं।” मेरी आवाज गले में अटक रही थी। मैं उसका ध्यान किसी और बात पर ले जाना चाहती थी, मसलन-यहां की साड़ियां बहुत मशहूर हैं… या फिर कभी दिन में आओ तो तुम्हें यहां की दूध-जलेबी खिलाऊं…। मगर उसे मेरी जानकारी में कोई दिलचस्पी नहीं थी, “ये लोग इन पटरियों पर कैसे गहरी नींद सो रहे हैं…” वह अविश्वास से देख रही थी, “रुको न एक मिनट, मैं इनकी तस्वीर लेना चाहती हूं।” उसने अपने गले में टंगे कैमरे को सेट करना चाहा तो मैं चीख पड़ी, “नहीं, अब बिल्कुल नहीं रुकना यहां। बहुत देर हो रही है।”
आखिर, ये विदेशी समझते क्या हैं अपने आप को? कोई भी यहां आता है, भीख मांगते बच्चों की तस्वीरें खींचता है और अपने देश में उसे ‘भारत’ के नाम से कैलेंडर बनाकर बेचता है। दिल्ली के तमाम पॉश इलाके छोड़कर यह चांदनी चौक आई है कि इन दोने-पत्तलों की, लड़ते कुत्तों की और फुटपाथ पर सोते मजदूरों की तस्वीरें खींचकर ले जाए ताकि अपने देश में दिखा सके कि यही है भारत… भूखा- प्यासा… गरीब देश… और तौहीन कर सके मेरे देश की। मैं उसे इस हद तक छूट नहीं दे सकती थी।
“आखिर क्या करोगी तुम इन तस्वीरों का? क्या बताओगी इनके बारे में अपने साथियों को?” मैंने अब तक खुद को संयत कर लिया था और अब मैं जवाबी मुद्रा में खड़ी थी। हालांकि अपने देश की गरीबी और लाचारी का कोई जवाब नहीं था मेरे पास, मगर फिर भी मैं उसे इस तरह मनमानी करने की छूट नहीं दे सकती थी, “आखिर क्या खास देख लिया तुमने यहां?” मेरे बरताव में अब रूखापन आ गया था।
उसने कैमरा वापस गले में छोड़ दिया और मेरी ओर मुखातिब हुई, “यहां आकर मैंने देखा कि हम गलत सोचते हैं कि भोजन का मतलब स्वादिष्ट व्यंजन और मीठा पकवान होता है… देखो, ये ढेर… यानी भूख बड़ी होती है व्यंजन से।” वह जूठे दोने-पत्तलों के ढेर की तरफ इशारा कर रही थी।
“मैं गलत सोचती थी, जब अपनी मॉम से नए बेड की जिद कर रही थी,” वह गुदड़ियों की तरफ देखने लगी, “देखो, नींद बड़ी है बिस्तर और गद्दों से… ये मैंने आज जाना…. यहां आकर जाना… मैं आज समझी कि जिंदगी का सुख, सुविधाओं में नहीं, संघर्ष में है।” वह उत्तेजित-सी बोलती जा रही थी, मानो उसके भीतर किसी नई दृष्टि ने जन्म लिया हो। मैं खुद उस दृष्टि से अनजान थी। अभी तक सैकड़ों बार इस तरफ आना हुआ था, मगर मुझे तो यहां सिवाय भीड़, धक्के और गंदगी के कुछ भी दिखाई न दिया। जीवन का जो फलसफा वह एक बार की यात्रा में हासिल कर बैठी, मैं उससे आज तक अनजान रही। शायद, बहुत नजदीक की चीज को निगाह ठीक से देख नहीं पाती, इसीलिए हमें हमारे देश में कोई आकर्षण नहीं मालूम पड़ता, जबकि आए दिन विदेशियों का हुजूम यहां भ्रमण के लिए आया रहता है।
मैंने गाड़ी रोक दी थी। खचाक्… खचाक्… वह तस्वीरें खींचती जा रही थी।
कुछ देर बाद, वह गाड़ी में वापस लौट आई, “चलो, अब लौट चलें।” अभिमंत्रित-सी मैंने गाड़ी स्टार्ट कर दी। उसने अपनी सीट और पीछे को सरका ली और लगभग लेट-सी गई। उसके चेहरे पर गजब का सुकून था। सड़क लगभग सुनसान थी, मैं गाड़ी भगाए जा रही थी… स्टीरियो बंद था, वह भी बिल्कुल खामोश थी, मगर उसके शब्द फिजा में गूंज रहे थे
अलका सिन्हा