गूँगा होता घर
मैं साइकिल समेत घर में घुसा। साइकिल की खड़खड़ाहट ने पूरे घर को मेरे आगमन की सूचना दे दी। वैसे सभी जानते थे कि हर शनिवार मैं घर आ जाता हूँ। रविवार की छुट्टी घर पर ही गुजारता हूँ।
घर में सब अपने-अपने तरीके से व्यस्त थे। माँ पिछवाड़े बर्जन माँज रही थी। बाऊजी पलंग पर बैठे बेमतलब दीवारों को घर रहे थे। जग्गू हमेशा की तरह किताबों में डूबा था। शायद मेरी तरह फर्स्ट डिवीजन बनाना चाहता था।
मैंने शर्ट और पेंट उतार कर खूँटी पर टाँग दी। लुँगी बाँध ली। तब तक बाऊजी ने पलंग खाली कर दिया। सभी को मालूम था कि घर आने के बाद पलंग पर मेरा ही एकाधिकार रहता है। मौसम सर्द था। मैंने चादर को बदन पर लपेटा और लापरवाही से पलंग पर पसर गया। दृष्टि खिड़की के सरियों के पार हवा में फड़फड़ाते पीपल के पत्तों पर टिका दी। चेहरे को अति गंभीर बना लिया। बाऊजी पूना काका के घर से स्टील के गिलास में दूध ले आए। मैं समझ गया, चाय बनेगी। जग्गू ने रेडियो ऑन कर दिया।
नौकरी मिलते ही घर में मुझे अपने-आप विशिष्टता प्राप्त हो गई। मेरी सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाने लगा। जब से बाऊजी की हथेली पर हरे-हरे नोट रखने लगा हूँ, तब से तो वे नौकरीशुदा कमाऊ पूत के बाप होने के दर्प से भरे रहते हैं। बेरोजगारी के दिनों में बाऊजी मेरे निठल्लेपन पर खूब व्यंग्य कसते थे। आज की पूछ-परख देख वो कल की उपेक्षा बरबस याद आ जाती है और मन कड़वाहट से भर जाता है।
चाय बाऊजी ही लाये। मैंने चाय सुड़क कर कप-प्लेट पलंग के नीचे सरका दिए, जिन्हें जग्गू उठाकर ले गया। ऐसा पहले नहीं होता था। झाड़ू, पानी और बर्तन सब मेरे ही सुपुर्द रहते थे। अब मेरा स्थान जग्गू ने ले लिया था। बाऊजी का चाय लाना और जग्गू का कप-प्लेट ले जाना, मैं सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा था। कहीं तो भी यह स्थिति मुझे अस्वाभाविक लगी।
भोजन और चौके से निपट सब मेरे चारों ओर सिमट आये, जैसे किसी महत्वपूर्ण बात पर सलाह-मशवरा करना हो। माँ ने लुगड़े का पल्ला समेटा और देहरी के पास बैठ गई। बाऊजी पलंग पर बैठने का उपक्रम करने लगे, तो मैंने पैर समेट लिये और उनके बैठने की जगह बना दी।
जग्गू यथावत किताब में डूबा था, लेकिन मुझे लगातार महसूस हो रहा था कि उसका ध्यान किताब में नहीं है। मेरी दृष्टि अब भी हवा में फड़फड़ाते पीपल के पत्तों पर टिकी थी, जैसे देखने योग्य सिर्फ पीपल के पत्ते ही हों । यद्यपि ऐसा करते-करते मैं ऊब चुका था।
बाऊजी ने तीन-चार बार नाक से खूँ-खूँ की ध्वनि निकाली, जैसे नासापुटों में कोई कचरा फँसा हो जिसे वे निकाल देना चाहते हों। खंखारकर उन्होंने मुँह से कफ का एक लौंदा कमरे के कोने में तीव्र वेग से उछाला जो दीवार पर जा चिपका। वैसे खंखारना और थूकना उनकी पुरानी आदत है, लेकिन मुझे लगा कि यह उपक्रम मेरा ध्यान खींचने के लिहाज से किया गया है। मैं भीतर ही भीतर खीज और घृणा से भर गया।
“धार से कारड आयो हे...छोरी आठमी तक भणेली हे...।’’ माँ ने मुझे कुरेदना चाहा।
“माथे मत चाट।’’ मैंने चिढ़े हुए स्वर में कहा। पत्तों को देखना अब भी जारी रखा। यद्यपि मेरा ध्यान वहाँ कतई नहीं था। पिछले कुछ दिनों से जगह-जगह से रिश्ते आ रहे थे। कभी रतलाम से तो कभी धार से, कभी कहीं और से। माँ और बाऊजी मेरी शादी की उमंग से भरे थे। उनकी बूढ़ी होती आँखों में मेरी शादी के सपने उग आये थे। कहीं भीतर मुझे भी लगने लगा था कि अब मेरी शादी हो जानी चाहिए। उम्र सत्ताईस तक खींच लाया था। कई बार सपनों में अपने-आपको किसी कल्पित युवती के साथ पाया है। हमउम्र साथियों की शादी हो चुकी थीं। कइयों के घर बच्चे भी खेल रहे थे। माँ से अब घर का काम बनता नहीं था। कुल मिलाकर शादी के लिए मन ने कई तर्क गढ़ लिए थे। साथ ही मैं संभावित कटु स्थितियों से भी आतंकित था। छोटी सी नौकरी के सहारे घर की गाड़ी, जिसमें जग्गू की पढ़ाई और माँ-बाऊजी की बढ़ी हुई उम्मीदें भी होंगी, खींच पाना संभव नहीं लग रहा था।
मेरी प्रदर्शित अरुचि के बावजूद माँ ने लड़की के खानदान के संबंध में अपनी जानकारी खोल दी-’’छोरी खानदानी हे...थारो ब्याव हुई जाय कि हूँ चूला-चक्की से छूटूँ...।’’ बाऊजी पोतों को खिलाने और जीते जी मेरी शादी देखने जैसी बेतुकी इच्छाएँ प्रकट कर रहे थे। वे अपनी रौ में इतने बहे जा रहे थे कि रुकना मुश्किल लग रहा था। आखिर मैं खीज उठा।
“पण काण्टा खोली ने सुण लो...सादी का बाद तमकऽ एक बी टिकड़ी मिलणऽ वाळी नी हंय...समज्या...कर दो सादी...।’’ कहते-कहते मेरा चेहरा सख्त हो गया।
सुनकर बाऊजी और माँ के जुबान पर ताले ठुक गये। मैंने पहली बार पैसे की ताकत को इतने नज़दीक से देखा था। जग्गू पूर्ववत् किताब में डूबा हुआ था, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।
चेचक के अमिट दागों से भरा बाऊजी का चेहरा फूल गया। वे फटी-हताश आँखों से सामने की दीवार को बेमतलब देखने लगे। वे मुझ से कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। उनकी मुख-मुद्रा देख तरस आ रहा था, किन्तु मैंने चेहरे को सख्त ही बनाए रखा। आखिर बाऊजी और माँ चुपचाप उठकर चले गये।
अब तक गली के खम्भे पर लटके बल्ब की पीली रोशनी में पत्ते चमचमाने लगे थे। मैंने खिड़की बंद कर ली। पीपल के पत्ते अपने-आप ओझल हो गये। अब मैं केवल पत्तों की खड़खड़ाहट ही सुन पा रहा था। जग्गू ने किताबें समेट ली थीं। उसने बड़ा बल्ब बंद कर जीरो बल्ब ऑन कर लिया था। लग रहा था जैसे पूरे घर को यकायक साँप सूँघ गया हो। घर अपनी आवाज़ खो चुका था।
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गोविन्द सेन