Taksim - 2 in Hindi Moral Stories by Pragya Rohini books and stories PDF | तक्सीम - 2

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तक्सीम - 2

तक्सीम

प्रज्ञा

(2)

‘‘अबे पहली शादी कब कर रहा है तू?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘पहली करेगा तभी तो तीन और कर पाएगा न यार। तुम्हारे में तो खुल्ली छूट है।’’

‘‘ साले इस कमाई में एक को पाल लूं तू चार की बात करता है। हमने तो नहीं देखी अपने यहां किसी की चार शादी । तूने देखी है क्या? ’’ मजा लेने के लिए यों सब हंस लेते ।

अचानक एक दिन मोहल्ले की शांत- सी जिंदगी में हलचल मच गई। रात ही रात में किसी ने कोठियों के आगे खड़ी दो बड़ी गाड़ियों के टायर और एक का स्टीरियो निकाल लिया। डाॅ. यादव की गाड़ी तो एकदम नई थी तो गुप्ता जी की गाड़ी भी चंद साल पुरानी थी पर टायर अभी बदले गए थे। सुबह से ही पुलिस की गाड़ियां खड़ी थीं और पूछताछ चल रही थी। ड्यूटी पर तैनात एक गार्ड भी आज गायब था।

‘‘ एक दिन में नहीं हो सकता ये कारनामा साहब। बड़े दिनों की प्लैनिंग है।’’

घटनास्थल पर मौजूद लोग आपस में बतिया रहे थे।

‘‘ गलती आप सबकी है। मैं कितनी बार कहा पर आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया। कभी रात ही रात में नालियों पर ढके, ढक्कन गायब हो रहे हैं। कभी एक-एक करके बच्चों की मंहगी वाली साइकिलें। पर किसी ने परवाह की? बैठे रहो जब तक आग आपके घर को नहीं लगती। पर फिर ये शिकायत न करना कि कोई नहीं आया मदद को। हम क्या पागल हैं कि आज जब कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो हम कल उसके साथ खड़े होंगे ?’’ गुस्से में गुप्ता जी क्या बोले जा रहे थे उन्हें होश नहीं था ।

सारे लोगों को कठघरे में खड़ा कर दिया था गुप्ता जी ने और लोगों पर भी अब नैतिक जिम्मेदारी आ गई थी । लोग कुछ कर तो सकते नहीं थे पर अपनी बातों से गुप्ता जी और डाॅ. साहब को ढाढस तो बंधा ही सकते थे। और सबसे बड़ी बात लोग इस समय अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़ा दिखाई देना चाहते थे। चोरी की इस वारदात ने सबको सचेत कर दिया था। सबको अगला नम्बर अपनी ही गाड़ी का आया लगने लगा।

‘‘काम तो उसीका है जिसने यहां घरों को बड़े ढंग से आॅब्ज़र्व किया है। और ये बात भी पक्की है कि गार्ड ने उसकी मदद की है।’’ लोगों ने दोनों की परेशानी को अपनी परेशानी मानकर बोलना शुरू किया।

‘‘आज गाड़ी पर हाथ साफ किया है, कल घरों पर करेंगे देख लेना। ’’

लोगों के तनाव और बेचैनी के साथ मुहल्ले में आमदरफ्त भी बढ़ गई थी। रोज के काम तो आखिर अपनी ही गति से चलने थे। पुलिस तफ्तीश अभी जारी थी। मोहल्ले में काम करने वाली महरियों से लेकर दूध, सब्जी वाले, घरों में चिनाई-पुताई करने वाले मजदूरों के संग ‘रद्दी पेपर’ की हांक लगाता जमील भी रोज की तरह समय पर आ गया। भीड़-भाड़ देखकर सब जानने के लिए वह भी भीड़ का हिस्सा बन गया। डाॅ. साहब के रसूख और पुलिस महकमे में खासी जान-पहचान से इनक्वायरी की गंभीरता के मद्देनज़र पूछताछ के लिए कुछ लोगों को निकट के थाने में ले जाया जरूरी था। पूछताछ के लिए कुछ लोगों के साथ जब जमील का नाम लिया गया तो वो सकते में आ गया।

‘‘मैं क्यों? मंैने क्या किया है? मेरा क्या लेना-देना इस सबमें?’’ उसके मन ने कई सवाल किए। पर जाना तो था ही। घबराहट के बावजूद उसकी मुद्रा बेधड़क थी ,कोई अपराध नहीं किया था उसने।

‘‘सवाल ही तो पूछेंगे न पूछ लें। मैं कोई मुजरिम थोड़े ही हूं। हां दिहाड़ी तो खोटी होगी आज।’’ आगे की घटना का अनुमान लगाकर उसने अपने मन से ही सवाल-जवाब का क्रम तैयार किया।

थाने में पूछताछ के दौरान जब जमील का नम्बर आया तो वह पूछे गए सवालों का सही-सही जवाब दे रहा था। इतने में डाॅक्टर साहब ने चैकी पर तैनात थानेदार से कहा-

‘‘यू नो दीज़ पीपुल... दे आर बाॅर्न क्रीमिनल।’’ अंग्रेजी उसके पल्ले नहीं पड़ी पर हाव-भाव से समझ गया बात कुछ उसके विरोध की ही है। डाॅक्टर साहब के कथन पर थानेदार ने बड़ी तेजी से अपना सर हिलाया और सवाल जारी रखे-

‘‘ तो ये बता कहां बेचता है तू अपना माल? पुराना कबाड़ ही बेचता है या गाड़ी के टायर-टूयर भी? और ये बता स्टीरियो कहां बेचता है ?’’ जमील की बलिष्ठ शारीरिक संरचना को ताड़ते हुए थानेदार बोला।

हैरत में पड़े जमील को जैसे सुनाई देना बंद हो रहा था। अपनी पूरी शक्ति से वह अपने कान और ध्यान सवालों पर लगाने की कोशिश करने लगा। शरीर में जैसे खून का दौरा किसी दबाव से रूक गया हो और उसकी सारी चेतना जड़ता में तब्दील होने लगी। बिना सबूत,गवाह, कोर्ट-कचहरी के जमील को सीधे-सीधे दोषी करार दिया जा रहा था। इस अपमान के बावजूद अपनी जड़ होती जा रही इंद्रियों को जबरन सचेत करते हुए, सामने बैठे लोगों से कोई सवाल न करते हुए भी उसे जवाब देना जारी रखना था। उसकी नजर में यही उसके बेगुनाह होने का अकेला रास्ता था।

‘‘जी मैं तो सिर्फ रद्दी-लोहा,प्लास्टिक ही उठाता हूं घरों से.... ऐसी चीजंे कहां।’’ टूटे हुए मन से जमील ने कहा।

‘‘ और जो उठाएगा भी तो क्या तू इतना संत आदमी है कि हमें बता देगा? और कौन-कौन साथ हैं तेरे, इस धंधे में?.. बता?’’ थानेदार की आवाज गरजी ।

साथ बैठे बेलदार प्रकाश से रहा न गया-‘‘साब! ये बेकसूर आदमी है। मैं जानता हूं इसको। मेरे साथ रहता है।’’

मुसीबत के वक्त प्रकाश के इन शब्दों ने सच में अंधेरे को चीर दिया। पर अगले ही क्षण थानेदार हरकत में आ गया। सीट से उठकर एक भरपूर थप्पड़ पड़ा प्रकाश के गाल पर।

‘‘ अबे तू क्या राजा हरिश्चंदर के खानदान का है?, जो तुझ पर विश्वास कर लूं। और साले तुझे कौन जानता है यहां? बिहार से आया है या यूपी का है? तू भी इसके संग शामिल है क्या चोरी में?’’ प्रकाश थानेदार का मुंह ताकता रह गया। गाल पे पड़े तमाचे से उभर आईं लाल परतों के किनारे खौफ की सफेद परत भी खिंच गई थी। जमील सब समझ रहा था ये थप्पड़ उसीके नाम का है जो प्रकाश को पड़ा है। लंबी,उबाऊ कार्यवाही से संतुष्ट होकर डाॅक्टर साहब चल दिए। आज हाॅस्पीटल में उनकी ओ. पी. डी. थी और गुप्ताजी को भी पुलिस के आसरे न बैठकर गाड़ी दुरूस्त करानी थी। थानेदार ने इतना सच तो बता दिया था उन्हें कि कुछ मिलने की उम्मीद न रखें पर समझौता इस बात पर हुआ कि इन लोगों को सस्ते में न छोड़ा जाए । इनको मिली सजा, सबक बने औरों के लिए। कुछ मजदूर भी भेज दिए गए पर जमील, प्रकाश और गार्ड को नहीं भेजा गया। अपमान के साथ-साथ आज की दिहाड़ी मारे जाने का भी जमील को दुख था। और अब कल से कौन बुलाएगा उसे अपने घर कबाड़ लेने? इस थुक्का-फजीहत से निकल भी गया तो थाने की कहानी कई दिन चलेगी और फिर डाॅक्टर साहब और गुप्ता जी अब क्या उसे जमे रहने देंगे वहां? कितने सवाल जमील पर अपना शिकंजा कसते ही जा रहे थे। और सबसे बड़ा सवाल तो यही था इस बेबात की कैद से कब छूटेंगे?

उन तीनों को एक कोने में मुजरिम की तरह बिठा दिया गया। बरसों पहले उमेश के चेहरे पर जिस नफरत को जमील ने पाया था वही आज और धारदार होकर थानेदार के चेहरे पर उग आई थी। एक नाम, सिर्फ एक नाम की वजह से जमील मुख्य अपराधी मान लिया गया था और उसके साथ बैठे दो लोग अपराध को अंजाम देने वाले उसके साथी के रूप में बिठाए गए थे। उसके मन में बरसों पहले की अब्बा की बात लहर की तरह उठी ... तक्सीम। जब शहर आया था तो उसने सोचा था यहां किसी को किसी के जात-धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। राजधानी का खुलापन उसने इसी रूप में महसूस किया और सराहा था। पर आज की घटना ने उसके सामने एक बड़ा सच ला खड़ा किया कि बातें जब तक ढकी-छिपी रहें सब बहुत संुदर दिखाई देता है। परत उघाड़ दो तो हर जगह एक बजबजाता नाला ही है और कुछ नहीं। अपमान और आतंक की परतें तनिक शिथिल हुईं तो भूख की मारी आंतों ने मुंह उठाया। पर यहां कौन सुनेगा? सुबह से शाम होने को आई। सब तो पूछ डाला, अब क्या? इतने में रहमत चाचा के साथ ठेकेदार संतोष आता दिखाई दिया। संतोष का आना-जाना है इन थानों में। कहीं कोई अवैध निर्माण करवाता है तो मालिकों से थाना-पुलिस की झोलियां वही तो भरवाता है। जमील और प्रकाश समझ गए कि यहां से छूटे मजदूरों ने ही ये दूर की कौड़ी खोज निकाली है। उम्मीद और बेचैनी की कसमसाहट माथे पर खिंचती चली जा रही थी। आखिरकार वही हुआ। यहां भी संतोष ने पुलिस की झोली भरवाई। पूरे दिन की उनकी ‘मेहनत’ जाया नहीं हुई। अच्छी कमाई हुई।

‘‘चाचा अब न रूक सकूंगा मैं यहां।’’ शहर में सब कुछ खत्म हुआ मानकर एक गहरी हताशा में जमील ने कहा।

‘‘ कहीं भी चला जा बेटा तेरा सच तो संग चलेगा ही। फिर अब गांव में क्या धरा है तेरे लिए? और शहर, ये हो या कोई और क्या फर्क पड़ता है। थोड़े दिन में भूल जाएंगे सब। तू कोई और मोहल्ला पकड़ लियो।’’ रहमत चाचा ने समझाते हुए कहा।

‘‘लोग भूल भी जाएं चाचा पर मैं क्या भूल सकूंगा?’’ सवाल वाजिब था और रहमत से जवाब देते न बना।

कुछ दिन उदास रहने के बाद जमील सचमुच गांव चला आया। घटना के चंद दिन हताशा में ज़रूर बीते पर उसे ये समझा गए शहर ही अब उसका अंतिम ठिकाना है। अच्छा-बुरा चाहे जैसा। घर की गरीबी, गांव में नौजवानों के लिए पसरी बेकारी, दिन ब दिन बढ़ती जिम्मेदारियों की सोच ने जमील की ज़िल्लत को कहीं बहुत दूर धकेल दिया। फैसला लेने के बाद भी उसका एकदम से संयत और सहज होना असंभव था। थाने से जान छुड़ाने के चक्कर में रूपये भी काफी खर्च हो गए थे। गांव वापिस लौटकर उसे फिर वैसी राहत मिली जैसी कभी यहां से शहर आकर मिली थी। समय की इस अजीबोगरीब शक्ल-सूरत को वह बनते-बिगड़ते बड़े नजदीक से देख रहा था।

घर में उसने शहर का सच किसीसे नहीं कहा। सबने माना घर की याद के चलते जमील वापिस आया है पर उसकी उदासी किसी से छिपी न रह सकी। अब्बा रोज ही उसे यार-दोस्तों के घर जाने और गांव के बुर्जगों से मिलने की बात कहते। ऐसा नहीं है कि जमील को पुराने दोस्तों से मिलने में कोई एतराज था। वैसे भी जिस तरह समय की धरती पर तीखे पत्थरों के नुकीले कोने पानी की गोद में पड़े रहने से अपना नुकीलापन खो बैठते हैं ऐसा ही जमील के साथ हुआ था। उमेश और युसुफ की बात वह लगभग भुला चुका था। अब तीनों घर-परिवार वाले हो चले थे और उमेश आज भी हिंदू लड़कों के लीडर के रूप में ही जाना जाता था। मिलने पर सबके बीच कटुता के निशान नहीं थे पर रामफल को छोड़ सबमें एक झिझक बाकी थी जो पुलिया के दिनों को हरा नहीं होने दे रही थी। घूमते-घामते जमील पुलिया पर भी हो आया। पुलिया आज भी किशोर-जवान दोस्तों का अड्डा थी। वहां आज भी कोई चिंता, दुख, परेशानी और तकलीफ नहीं थी बस चेहरे बदल गए थे। जमील को लगा जैसे इन चेहरों ने वक्त की धारा को उसके लिए पीछे मोड़ दिया है। कुछ क्षण अतीत में जीकर जब जमील लौटा तो सब नदारद था। चेहरे की उदासी कुछ और बढ़ गई। इधर उसने पाया जाकिर का रूतबा भी बढ़ चला था गांव में। जाकिर भाई खासी इज्जत से नवाजे जाने लगे थे। अल्लाह और ईमान की राह का हवाला देकर अच्छा रूआब जमा लिया था उन्होंने। अब्बा ने कई दफा उनसे मिल आने की बात कही पर जमील का मन न माना । उसकी याद में अब भी जाकिर का सच जिंदा था। और आज के शांत माहौल में भी जाकिर और उमेश के उस समय के चेहरे याद आते ही उसका मन उचाट हो जाता था। उसे लगता ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं जो इंसान को उसकी मेहनत, काबीलियत और ईमानदारी से नहीं सिर्फ उसके धर्म से जानना पसंद करते हैं और समय आने पर दूसरे की पतंग काटना जिनका पसंदीदा खेल है। और इस खेल के सख्त नियम हैं क्रूरता और मनमाफिक बर्बरता, जिसमें दूसरे के लिए कोई रिआयत नहीं। शहर की घटना को जब इस सबसे जोड़कर देखता तो पाता ये चेहरे वहां भी इसी रूप में है- ‘ये खेल है कबसे जारी’।

जवान बेटे की उदासी जब किसी भी तरह, कई दिन तक दूर नहीं हो सकी तो अम्मा को एक ही उपाय सूझा-उसकी शादी। शमशेर खालू ने पहले ही लड़की देख रखी थी और वो मां को पसंद भी थी।

‘‘ वैसे अभी तो नहीं पर जैसा तुम कहो अम्मा.. आज नहीं तो कल करनी ही है शादी। ’’ जीवन का एक और बड़ा काम निबट जाए कुछ यही अंदाज था जमील का। और लो बात पक्की हो गई।

‘‘ बेटा तू ले जाना सोनी को अपने साथ शहर। यहां दिल न लगेगा उसका तेरे बिना। और वो यहां रही तो तू भी भगा-भगा आएगा हर दूसरे दिन।’’ शहर के लिए निकलने से पहले मां ने जमील से कहा।

‘‘ नहीं अम्मा वहां,कहां?... तेरे पास ही रहेगी।’’

जमील का गंभीर और निश्चयात्मक स्वर सुनकर रेशम भी सकते में आ गई। लड़के की आवाज में शादी को लेकर खुशी की एक धड़कन तक नहीं मिली उसे। चुप रहना ही उसे ठीक लगा इस वक्त। जमील के दिमाग में पहले भी काई उलझन नहीं थी अपनी होने वाली बीबी को लेकर। शहर की दमघोंटू,गंदी बस्ती उसे यों भी इंसानों के रहने लायक नहीं लगती थी। फिर काम पर जाने पर पीछे सताने वाली फिक्र के बारे में उसने पहले ही गौर कर लिया था। बाद मे थाने की घटना ने तो उसके निर्णय पर पक्की मोहर लगा दी । गांव में रहेगी तो सुरक्षित रहेेगी वहां के मुकाबले। जमील ने ठान लिया।

शहर आकर जमील ने दोबारा काम जमाया। रहा जमुनापुरी मंे ही प्रकाश, अनोखे और सुनील के साथ पर काम का मोहल्ला बदल लिया। साथ रहने वाले अनोखे ने बड़ी मदद की। इस बीच जमील की शादी हो गई और कुछ समय बाद वो एक बेटे का बाप बन गया। अब जीवन के सारे सुख उसके हिस्से में थे। बात-बात पर हंसता और बेबात पर भी उसकी हंसी न थमती। अब उसे दोगुनी ताकत से कमाना था। एक अच्छा जीवन, भाई-बहनों की जिम्मेदारी, बेटे की सही पढ़ाई-लिखाई और बहुत से अरमान थे उसके। सोनी ने उसकी जिंदगी में उमंगे भर दी थीं। शहर वापिस आकर जमील ने अनोखे की मदद से एक बड़ी सोसायटी का काम उठा लिया। अनोखे भी उसी सोसायटी में माली का काम करता था। नए काम की शुरूआत के साथ पिछले सारे अनुभवों को जमील ने सिरे से दरकिनार कर दिया था। बस अब उसे अपना काम पूरे ईमान से करना था। इधर उसने पाया कि राजधानी में चुनाव के बाद हवा कुछ बदल चली है।

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