★~आंखों की भूख~★
यह तो सबको पता ही है कि भूख क्या होती है। लेकिन मेरी नज़र में भूख के भी कई रंग होते है। कोई कोई भूख ऐसी भी होती है जो कभी पूरी ही नही होती। जैसे प्यार की भूख हर इंसान प्यार का भूखा होता है। कुछ इंसानो को प्यार से ज्यादा सम्मान की भूख होती है। यह सब भूखें वह हैं जिन्हें कुछ हदतक तो कम किया जा सकता है। किंतु खत्म नही किया जा सकता।
इन्ही में से एक होती है "आँखों की भूख" यह भी दो प्रकार की होती हैं। एक वो जो खाने के प्रति होती है। क्या आप जानते है हम भोजन मुख से ग्रहण करने से पहले आंखों से ग्रहण करते है। यदि भोजन रंगीन हो, देखने में आकर्षक लगे तो उसके प्रति हमारी रुचि और बढ़ जाती है। किन्तु यही भोजन यदि ज़रूरत से ज्यादा सदा हो तो हमारी भूख मर जाती है या कम जो जाती है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि यह सब हमारी पसंद पर निर्भर करता है कि हमको कैसा भोजन पसंद है।
जैसे रोज के लिए मुझे सदा जीवन उच्च विचार टाइप भोजन पसंद है। किंतु किसी त्यौहार या उत्सव पर मुझे चटपटा खाना पसंद है। यह तो हुई साधारण से लोगों की साधारण सी भूख जो हर व्यक्ति को लगती है। पर अफसोस कि पिछले कई सालों से एक भूख ऐसी है जिसने इंसान को, विशेष रूप से पुरुषों को जानवर बना दिया है।
यहां मेरे कहने का तातपर्य सभी पुरुषों पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर उन्हें सवालों के कटग्रह में खड़ा करने का नही है। बल्कि शिकायत सिर्फ उनसे है जो स्त्री देह को केवल भोग विलास की वस्तु ही समझते है। एक जीत जगती इंसान नही। जिनकी आंखों में स्त्री देह के प्रति एक ऐसी भूख होती है जो स्त्री को पूरे वस्त्रों में होने के बाद भी उसे नग्न महसूस करता देती है।
कहने को तो हम उस भूख को भी "आंखों की भूख" ही कहेंगे। लेकिन वो भूख इतनी गंदी और घिनोनि होती है कि उसके विषय में सोचकर ही खून उबल जाता है। मैं बात कर रही हूँ हमारे समाज में विचार रहे कुछ ऐसे असामाजिक तत्व की जो हर स्त्री को केवल अपनी आंखों से खा जाना चाहते हैं। जिनके कारण एक अच्छे भले इंसानो पर भी लोग भरोसा करते हुए घबराते हैं।
कहने को तो हमारा समाज पहले से ही एक पुरुष प्रधान समाज रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह नही था कि हर पुरुष गलत है या गंदी सोच रखता है। पर इन कुछ मुठी भर असमाजिक तत्वों ने मिलकर एक ऐसा समाज बना दिया जिसमें कोई भी माँ आज अपनी बच्ची को अकेला घर तक पर छोड़ने से डरती है। कोई भी पुरुष आज चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो किसी बच्ची को प्यार से हाथ लगते भी डरता है।
फिर भले ही वह उस बच्ची को अपनी बहन बेटी या फिर इंसानियत की नजर से ही क्यों ना देख रहा हो शक के दायरे में ही आता है।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो क्या हमारे समाज से स्त्रियों का वर्चस्व, उनका महत्व सभी कुछ खत्म हो जायेगा। यदि ऐसा हुआ तो आगे स्त्री केवल एक बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में ही दिखाई देगी। वह भी सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों के घर में क्योंकि इन दरिंदो के डर से कोई भी माँ अपने घर बेटी का जन्म चाहते हुई भी ना चाह सकेगी।
तो क्या उपाय है इस समस्या का ? सिर्फ और सिर्फ एक...! अब समय आ गया है अपनी बेटियों के अंदर छिपी रानी लक्ष्मी बाई को जगाने का, उसे पापा की परी नही एक शेरनी बनाने का, अब बेटियों की शिक्षा में शस्त्र विद्या को अनिवार्य करने का, फिर चाहे हमारी बेटियां कुछ पढ़े न पढ़े किन्तु शस्त्र विद्या का ज्ञान उन्हें हर हाल में होना होना ही चाहिए। उसके बाद ही वह कहीं नॉकरी कर सकेंगी अथवा उन्हें कहीं किसी भी क्षेत्र में काम नही दिया जाएगा। ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए।
ऐसा इसलिए ताकि अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें किसी और से सहायता मांगने या निर्भर रहने की जरूरत ना पड़े और यह जब ही सम्भव होगा जब उन्हें इसके बिना काम न मिले आखिर एक स्त्री है तो एक इंसान ही और काम से बचने की मक्कारी हर इंसान में मौजूद होती है। हर व्यक्ति तभी काम करता है जब वह किसी न किसी तरह मजबूर हो या फिर उसे काम की बेहद ज़रूरत हो।
ऐसे में जब किसी स्त्री को कहीं बिना शस्त्र विद्या जाने काम ही नही मिलेगा तो फिर सब शस्त्र विद्या सीखेंगे ही सीखेंगे। हर हाल में हर स्त्री को यह सीखना इसलिए भी अनिवार्य है क्योंकि एक स्त्री के लिए भेड़िये हर जगह मौजूद है। जब एक बच्चा/बच्ची अपने घर में ही सुरक्षित नही है। तो बाहर की तो बात ही क्या। आज "प्रियंका रेड्डी"6 दिसंबर 2019 के केस में तो कातिलों को एन्काउंटर में मौत मिल गयी और उसको इंसाफ मिल गया।
लेकिन "निर्भया" का केस अब भी लटका है। ऐसे में निर्भया से लेकर अब तक न जाने हमारी कितनी बहन बेटिये ऐसी है जो इन दरिंदों की वेशहत का शिकार बनती आयी हैं और आज भी बन रही है। सरकार से कानून और प्रशासन से दया और इंसाफ की गुहार लगाने और दिवंगत निर्भया की तरह सालों इंसाफ के लिए तरसने से अच्छा है, हम खुद ही अपना इंसाफ करें।
जय हिंद।