The Author Prabodh Kumar Govil Follow Current Read प्रकृति मैम - आई हवा By Prabodh Kumar Govil Hindi Biography Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books જીવન પ્રેરક વાતો - ભાગ 09 - 10 શિક્ષકનું મહત્ત્વ: ભારતીય સંસ્કૃતિમાં શિક્ષકની ભૂમિકા - 09 ... પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 35 મમ્મી -પપ્પાસુરત :"આ કેવિન છે ને અમદાવાદ જઈને બદલાઈ ગયો હોય... ભાગવત રહસ્ય - 146 ભાગવત રહસ્ય-૧૪૬ અજામિલ નામનો એક બ્રાહ્મણ કાન્યકુબ્જ દેશમાં... ઉર્મિલા - ભાગ 7 ડાયરી વાંચવાના દિવસે ઉર્મિલાના જીવનમાં જાણે નવી અનિશ્ચિતતા આ... રાય કરણ ઘેલો - ભાગ 1 ધૂમકેતુ ૧ પાટણપતિ આખી પાટણનગરી ઉપર અંધકારનો પડછાયો પડ... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by Prabodh Kumar Govil in Hindi Philosophy Total Episodes : 21 Share प्रकृति मैम - आई हवा (1) 2.1k 7k 1 10. आई हवागर्मी की छुट्टियां आई ही थीं कि घर से वो खबर भी आई कि मेरी मां, छोटा भाई और बहन कुछ दिन के लिए घूमने मुंबई आ रहे हैं।ऐसा लगा कि बंद कमरे में हम जैसे कोई घुटन महसूस कर रहे थे, पर अब कोई खिड़की खुली और ताज़ा हवा आई।इसी बीच मेरी पत्नी के छोटे भाई का चयन मुंबई आई आई टी में हो गया। वो भी मुंबई आ गया। कुछ दिन वो हमारे साथ घर पर रहा, फ़िर हॉस्टल में चला गया। वो छुट्टी के दिन हम लोगों से मिलने आता रहता था और मेरे लेखन का बेहद गंभीर और नियमित पाठक था। मेरे आलेखों पर गहन चर्चा भी करता था।अब घर से और भी लोगों के आने से हमारा घर कुछ दिन के लिए गुलज़ार हो गया।हम अपने शहर के वासी ज़रूर होते हैं पर इसे निगाह भर के देखते तभी हैं जब कोई अपना मेहमान बन कर अपने पास आए।उन्हें घुमाने और मुंबई दर्शन कराने में हमने भी मुंबई को एक नए सिरे से देखा। रोज़ ही कहीं न कहीं घूमने का कार्यक्रम बनता। छुट्टी के दिन को तो आराम से पूरे दिन हम किसी दर्शनीय स्थल पर बिताते ही थे, बाक़ी के दिनों में भी दोपहर बाद भाई,बहन और मां हमारे बताए किसी दर्शनीय स्थल पर पहुंच जाते और मैं तथा मेरी पत्नी अपने अपने ऑफिस से और मेरी पत्नी का भाई अपने इंस्टीट्यूट से फ़्री होने के बाद वहीं पहुंच जाते। कमला नेहरू पार्क, फ़िल्म सिटी, गेटवे ऑफ़ इंडिया, फ्लोरा फाउंटेन, महालक्ष्मी मंदिर, एलिफेंटा गुफाएं, एसेल वर्ड,चौपाटी, मरीन ड्राइव, जुहू, इस्कोन मंदिर, बोरिवली नेशनल पार्क आदि हमने दो सप्ताह में सब देख डाला।पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि हम केवल पत्थरों के जंगल और इंसानों की भीड़ में ही नहीं रहते, बल्कि इस शहर में सांस लेते हुए भी ढेर सारे ठिकाने हैं जो लोगों को ताज़ा हवा की तरह सुकून देते हैं।ढेर सारी फ़िल्में भी हमने देख डाली।हर जगह घूमते हुए भाई और बहन की निगाहें सड़कों पर दौड़ती लग्ज़री गाड़ियों में किसी फ़िल्म स्टार को तलाश करने में भी जुटी रहतीं। जुहू बीच के पास स्पोर्ट्स कार में बैठे सुजीत कुमार को भी उन्होंने ही पहचाना। चेंबूर स्टेशन के सामने रूपेश कुमार, जगदीश राज( अभिनेत्री अनिता राज के पिता और ख्यात चरित्र अभिनेता) को मैंने पहचान कर उन्हें दिखाया।मैंने भी स्मिता पाटिल, रणधीर कपूर, फरियाल को देखा।हमारा पूरा परिवार ही अमिताभ बच्चन का जबरदस्त प्रशंसक था। हम लोग उनकी सभी फ़िल्में देखने की कोशिश करते।ये लगभग वो दिन थे जब फिल्मी दुनिया राजेश खन्ना का जलवा उतरते हुए और अमिताभ का जलाल चढ़ते हुए देख रही थी। मुंबई के आलीशान सिनेमा घरों मिनर्वा, मेट्रो, मराठा मंदिर,अप्सरा आदि में अमिताभ की फ़िल्मों के रिलीज़ के साथ उनके भव्य कट आउट लगाए जाते थे। लोग दस गुने पैसे देकर भी ब्लैक में टिकट लेकर उनकी फ़िल्में देखने को तैयार रहते थे। हमने भी कई बार ब्लैक में टिकिट खरीदे।जुहू पर घूमते हुए एक बार घोड़ा लेकर जा रहे एक लड़के ने मेरे भाई को बताया कि ये फ़िल्म शूटिंग का घोड़ा है, ख़ाली समय में हम इसे बच्चों को समुद्र के किनारे सैर कराने के लिए लाते हैं। भाई ने घोड़े को बड़े कौतूहल से देखा। बहन की टिप्पणी भी सुनाई दी- भैया,घोड़े के ऑटोग्राफ ले लो।हम लोग आपस में मज़ाक करते रहे कि काग़ज़ पर घोड़े के खुरों के निशान लिए जा सकते हैं।घर पर आने के बाद भी हम सब देर तक ताश खेलते, बातें करते या गाने सुनते और गाते।हम लोग मां और भाई बहन को अपनी उन दीदी के घर भी ले गए जो पेडर रोड पर रहती थीं। वो असल में मेरी मौसी की बेटी ही थीं। अतः वो मां से मिल कर बहुत खुश हुईं और उन्होंने मां में अपनी दिवंगत मां को खोजा जो मेरी मां की सगी बड़ी बहन थीं। रिश्ते एक बार फ़िर जैसे नए हुए।इसी तरह हमें एक दिन ये भी पता लगा कि मेरी पत्नी के रिश्ते के एक चाचा मरीन ड्राइव पर रहते हैं। हम उनसे मिलने भी कभी - कभी मरीन ड्राइव जाते थे। उनका एक बेटा उस समय बहुत छोटा था, और सब कहते थे कि उसकी शक्ल फ़िल्मस्टार रेखा से बहुत ज़्यादा मिलती थी।हम उन्हें कहते थे कि वो किसी फ़िल्म में रेखा के बचपन के रोल के लिए रेखा की फ़िल्मों के निर्माता- निर्देशकों से मिलें।ये अच्छा लगता था कि मुंबई जैसे विराट महानगर में हमें मित्र ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार भी मिल रहे हैं।मेरी मां चित्रा की मम्मी से भी आत्मीयता से मिलीं जिन्होंने हमारे कठिन दिनों में मेरी पत्नी की देखभाल किसी मां की तरह ही की थी। वो लोग भी कभी - कभी हमारे घर आते और हम सब मिल कर खूब ताश खेलते।मेरे ऑफिस के लोग तो हमारे घर से बहुत दूर दूर रहने के कारण कभी हमारे घर वालों से घुल मिल नहीं पाए, किन्तु मेरी पत्नी के ऑफिस के लोग हमारी ही कॉलोनी में रहने के कारण मिलने भी आते रहते थे और हमें अपने घर भी बुलाते रहते थे।एक और ऐसा ही तमिलियन परिवार था जिससे हमारी घनिष्ठता थी। वो जब कभी अपने घर पर आमंत्रित करते तो ज़मीन पर बैठ कर केले के पत्ते में स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय खाना खाने का आनंद आ जाता था। हमारे यहां आने और हिंदी फ़िल्मों के लिए हमारा रुझान देखने के बाद उनकी रुचि भी हिंदी की फ़िल्म देखने में बढ़ गई। उनका स्कूल में पढ़ने वाला बेटा एक दिन मुझसे बोला- अंकल,कल मैं एक हिंदी फ़िल्म देखूंगा,कैसी है? उसने नाम बता कर कहा।मैंने कहा, अच्छी है,उसका म्यूज़िक बहुत अच्छा है।अगले दिन वो आकर मुझसे बोला- अंकल, म्यूज़िक कहां अच्छा था? ...मोर देन हंड्रेड टाइम्स द हीरो सैड...ये है इश्क़ इश्क़, ये है इश्क़ इश्क़! हम सब उसके भोलेपन पर हंस कर रह गए।वहां दक्षिण भारतीय परिवारों के साथ घुलने- मिलने में हम लोग भी उन्हें अपनी हिंदी के कई नए शब्द सिखाते और कन्नड़, तेलुगु, तमिल या मलयालम भाषा के कई शब्द हम भी सीखते।एक साथ ताश खेलते समय जब हुकुम, चिड़ी, पान, ईंट को भी सब साथी अलग- अलग नामों से पुकारते तो ख़ूब आनंद आता।कुछ दिन बाद सब लोग वापस लौट गए। लेकिन सबके आ जाने से आसपास के घरों में हमारा मेलमिलाप काफ़ी बढ़ गया।असल में हम दोनों ही अपने- अपने काम में बहुत व्यस्त रहते हुए कभी लोगों के लिए ज़्यादा समय निकाल ही नहीं पाए थे।मेरी पत्नी की पी एच डी अब लगभग पूरी हो चुकी थी और जल्दी ही उसके नाम के आगे डॉक्टर लग जाने वाला था।उसके डॉक्टर हो जाने से मेरे मन से भी एक बड़ा बोझ उतर जाने वाला था।मुझे याद था कि कभी "आंधी" फ़िल्म देखते हुए मेरी एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी को गंभीरता से लेते हुए मेरी पत्नी ने किसी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा में न बैठने का निर्णय ले लिया था। इससे एक ओर जहां मैं ये सोच कर मन ही मन खुश हुआ था कि मेरी होने वाली पत्नी मेरी बात को इतनी गंभीरता से लेती है, वहीं मैं ये जानकर विचलित भी हुआ था कि मैंने कभी राज्य भर को टॉप करने वाली मेधावी लड़की के मानस में सपने देखने वाली नज़र को ही झुका डाला।अब उसके कंप्यूटर साइंस में डॉक्टरेट हो जाने के बाद वो एक दिन डॉक्टर, इंजिनियर, प्रोफ़ेसर, प्रशासनिक अफसर तैयार करने वाली शख्सियत बनेगी,ये विश्वास मुझे हो गया था। उस समय ये क्षेत्र बिल्कुल नया था और इसमें मुंबई से पी एच डी हो जाने वाले लोग तो देशभर में इने गिने ही थे।दूसरे,जैसे मास्टर की बीवी मास्टरनी का खिताब घर बैठे बैठे पा जाती है, वैसे ही डॉक्टर का पति होने से अब कोई न कोई रुतबा मैं भी पा जाने वाला था।देशभर के महत्वपूर्ण संस्थानों से मेरी पत्नी का संपर्क तेज़ी से जुड़ने लगा था।मैं ऐसी बातों पर विश्वास तो नहीं करता था पर फ़िर भी कभी - कभी मुझे लगता था कि मैं कहीं किसी हिंदी साहित्यकार का ही दूसरा जन्म लेकर तो नहीं पैदा हो गया?हिंदी मौक़े- बेमौके मेरे जेहन पर छाई रहती थी। मैं अकारण ही अंग्रेज़ी संस्कृति से उदासीन रहता,जबकि मैं देखता था कि थोड़े से पढ़े लिखे या अर्द्ध शिक्षित लोग भी अंग्रेज़ी दां बनने - दिखने की कोशिश में लगे रहते थे।मैं अंग्रेज़ी की बेहतरीन दक्षता रखते हुए भी इससे न तो प्रभावित होता और न इसके कारण किसी दबाव में आता।नियति ने भी मानो मेरा मनभावन संकेत समझ लिया और एक दिन एक लाइब्रेरी में बैठे- बैठे मेरे सामने अख़बार में एक ऐसा विज्ञापन आ गया जिसमें कुछ राष्ट्रीयकृत बैंकों में राजभाषा अधिकारी मांगे गए थे। इनका उद्देश्य विज्ञापन में बताया गया था कि ये बैंक में हिंदी के प्रयोग के लिए लोगों को प्रेरित करेंगे तथा अहिंदी भाषी लोगों को हिंदी सीखने में मदद करेंगे, उनके लिए प्रशिक्षण आयोजित करेंगे और पाठ्य सामग्री तैयार करेंगे। साथ ही सरकार की भाषा नीति को बैंक में लागू करने का दायित्व निभाएंगे।इस पद के लिए देश के कई बड़े शहरों में लिखित परीक्षा आयोजित की जा रही थी। बाद में सफल उम्मीदवारों का साक्षात्कार होना था।मैं अख़बार की फोटोकॉपी करवा कर अपने साथ ले आया और अपनी अलमारी में रख दी।इसी बीच दिल्ली की जर्नलिस्ट वेलफेयर फाउंडेशन की ओर से भी एक विज्ञप्ति प्रकाशित की गई थी, जिसमें देशभर के पत्रकारों से "नेहरू और भारत" विषय पर एक लंबा आलेख मांगा गया था जिसमें पहले स्थान पर रहने वाले प्रतियोगी के लिए सरकारी खर्च पर रूस यात्रा का पुरस्कार था और कुछ अन्य प्रोत्साहन पुरस्कार भी थे। ये भी कहा गया था कि इस प्रतियोगिता के चुनिंदा आलेख एक स्तरीय स्मारिका में छापे जाएंगे।दिल्ली प्रेस का विशेष संवाददाता बनने के बाद कुछ और अखबारों तथा पत्रिकाओं ने भी मुझे ब्यूरो प्रमुख या विशेष संवाददाता बनने के प्रस्ताव दिए।मैं इस माहौल में अपने दिमाग़ के हाथों पशोपेश में पड़ कर कुछ- कुछ विभाजित सा होने लगा था।एक मन कहता था कि प्रेस में अच्छी पोजिशन के लिए प्रयास करना चाहिए और प्रेस से तन मन धन से जुड़ जाना चाहिए। किन्तु दूसरी ओर मेरा मन रचनात्मक लेखन की तरफ़ मुड़ कर मुझे कहानी कविता लिखने के लिए उकसाता था।हर रिपोर्ट,हर घटना,हर किस्सा मुझे बात को अपने दृष्टिकोण से लिखने के लिए उकसाता जिसका सीधा सा अर्थ था कि मैं वास्तविकता नहीं, बल्कि फिक्शन लिखूं।और रिपोर्टर या पत्रकार की सी प्रखरता, प्रतिबद्धता, तत्परता मैं अपने लेखन में ला ही नहीं पाता था।इन्हीं दिनों मुंबई में नया विधान सभा भवन बन कर तैयार हुआ।इसका लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री ने किया। समारोह का विधिवत निमंत्रण आया।मैंने जाकर रिपोर्ट भी तैयार की और अपने छायाकार से कुछ अच्छे फोटो भी तैयार करवाए। मैंने अपने हाथ से भी खींचे।लेकिन इसी शाम को मुंबई महानगर पालिका के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते ने गोवंडी क्षेत्र में कुछ झुग्गी बस्तियों को गिराने का काम भी अंजाम दिया।मैं वहां भी पहुंचा और मैंने कुछ ऐसे लोगों से बात की जिनकी झुग्गियां गिरा दी गई थीं। फ़ोटो कवरेज़ भी किया।विधानसभा के भवन के लोकार्पण की मेरी रिपोर्ट दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं में "राज की मत पूछिए, राजमहल लीजिए" शीर्षक से छपी और इसके साथ ही झुग्गियां उजड़ने की मेरी रिपोर्ट भी मिला कर छापी गई।शिवाजी चौक पर शिवसेना नेता की गिरफ़्तारी की खबर पर मैं निषिद्ध क्षेत्र में जा घुसा और एक पुलिस कर्मी के हाथ से पीठ पर डंडे की हल्की सी मार भी झेली।मुंबई में एक जगह आग लगने की कवरेज पर पहुंचा तो एक नया अनुभव हुआ। एक अधिकारी ने बताया कि आग के ऐसे फ़ोटो कोई नहीं लेता। बिल्डिंग और अहाते के फोटो लो,और आग के स्टॉक फोटोज़ कुछ बड़े फोटोग्राफर्स से ले लो।मुंबई में "जगन्नाथ की रथयात्रा" का कवरेज़ लगभग पूरे दिन यात्रा के साथ रह कर किया। हरे राम हरे कृष्ण मिशन के विदेशी अनुयायियों की कर्मठता और प्रतिबद्धता देखी तो आभास हुआ कि मनुष्य अपने को जीवन के किसी भी क्षेत्र में एकाग्र कर ले तो राह स्वतः मिलती चली जाती है।लेकिन मेरी एकाग्रता को क्या कहेंगे कि फ़िल्म पत्रिका माधुरी में किशोरी रमण टंडन द्वारा संपादित फ़िल्म पैरोडी भी मैं लगातार लिख रहा था। लोकप्रिय फिल्मी गीतों पर आधारित इस जोड़ तोड़ में सृजनात्मकता कितनी थी, ये तो नहीं पता,बहरहाल लोकप्रियता ज़रूर कमाल की थी। दूरदराज़ के युवा मुझसे पत्र संपर्क भी करते और मिलने भी चले आते।एक बार मेरी पत्नी को अपने शोध के सिलसिले में ही काम से जयपुर जाना था, तो कुछ दिन घर पर भी रह कर आराम करने की दृष्टि से वो चली गई। लगभग दो सप्ताह तक मैं मुंबई में अकेला रहा। दिनभर ऑफिस में गुजरता ही था, शाम का भोजन मैं चित्रा के घर कर लेता था जो कुछ ही दूरी पर था।इन्हीं दिनों बिहार से दो नवयुवक मेरे पास आए। उन्होंने बिहार से ही होटल मैनेजमेंट का कोर्स किया था और अब प्रैक्टिकल नॉलेज के लिए कुछ दिन किसी बड़े होटल में काम करना था। वो बिहार से किसी लघु पत्रिका के संपादक द्वारा मेरा पता देकर भेजे जाने पर आए थे। बिहार की कई पत्रिकाओं में मैं लगातार लिखता रहा था। वो मुझसे बोले कि हम कुछ दिन मुंबई में ही रहेंगे तो हमारी व्यवस्था किसी उपयुक्त जगह करवा दें।घर पर इन दिनों मैं अकेला ही था। मैंने तत्काल कहा, कि मेरे साथ ही रहें।उनमें एक युवक उन दिनों कुछ पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा आदि लिखता भी रहा था।उससे मेरी बहुत अच्छी पटी। हम दिन भर तो अपने अपने काम पर रहते किन्तु शाम को आकर खाना खाने के बाद देर रात तक खूब घूमते और बातें करते। समुद्र मेरे घर से काफी पास ही था, हम पानी में पांव दिए देर तक बातों में खोए रहते।दूसरा युवक तो थोड़ी रिजर्व प्रकृति का था, वो अक्सर कुछ पढ़ता रहता और हमारे घूमने जाने पर अकेला ही घर पर रह जाता किंतु मैं और फजल इमाम मल्लिक बाहर तफ़रीह करते हुए घूमते। चर्चा में साहित्य भी होता, पत्रकारिता भी, होटल मैनेजमेंट के उनके अनुभव भी, लेखक- साहित्यकार भी और लड़कियां भी।उन्नीस साल के फजल को ये बहुत अखरता था कि होटल में काम करते हुए बड़े - बड़े अमीर लोग हमें न जाने क्या देख कर ढेर सारा पैसा टिप में दे देते हैं। वो कहता,बड़ी शर्म आती है।मैं उसे देखता रह जाता और सोचता- इस दुनिया में क़िस्म क़िस्म की मुसीबतें!वो लोग चले गए। उनके जाने के बाद मुझे मालूम हुआ कि फजल के साथ आया दूसरा लड़का लेखिका सुमन सरीन का भाई है। सुमन सरीन खुद भी माधुरी पत्रिका में उप संपादक के रूप में जल्दी है मुंबई आ गईं।बाद में वो धर्मयुग में भी रहीं। उनके दो जुड़वां भाई लव और कुश थे, जिनमें से एक फजल के साथ मेरे पास आया था।बाद में जुहू से एक और फ़िल्म पत्रिका निकली, सुमन सरीन उसमें चली गईं, जहां कभी - कभी उनसे मिलना होता था।कथाबिंब पत्रिका में हमने एक नया स्तंभ "सागर सीपी" नाम से शुरू किया जिसमें किसी मूर्धन्य साहित्यकार का साक्षात्कार लिया जाता था। कई नामी- गिरामी लोगों के साक्षात्कार के सिलसिले में हम कई बड़े साहित्यकारों से मिलते। इसी सिलसिले में मुझे डॉ हरिवंश राय बच्चन का साक्षात्कार लेने का मौक़ा भी मिला। उन दिनों अमिताभ बच्चन और रेखा को लेकर ख़बरें सुर्खियों में थीं। कहा जा रहा था कि रेखा के साथ अमिताभ एक अलग घर में रहने चले गए हैं। जया बच्चन और खुद बच्चन जी मीडिया से बच रहे थे।ऐसे में बच्चन जी ने हमें साक्षात्कार के लिए समय भी दो शर्तों पर दिया। एक तो ये, कि हम जो कुछ पूछेंगे वो केवल उनके बारे में ही पूछा जाए, उसमें अमिताभ या घर के किसी और सदस्य का ज़िक्र न हो। और दूसरे ये, कि जो कुछ लिखा जाए वो छापने से पहले उन्हें पढ़ कर सुनाया जाए, क्योंकि उन दिनों आंखों की तकलीफ़ के चलते वो कुछ लिख- पढ़ नहीं पा रहे थे।लेकिन जब हम उनके दिए हुए समय पर उनके आवास "प्रतीक्षा" में पहुंचे तो किसी कारण पांच- सात मिनट लेट हो गए।गार्ड ने बाहर ही कहा- जल्दी जाइए वो अपने कक्ष में काफ़ी देर से इंतजार में टहल रहे हैं।पहुंच कर जब मैंने उनके पैर छुए तो उठा कर गले से लगाते हुए बोले- अब झुक नहीं पाता, पैर मत छुओ, गले से लगो।जैसे ही मैंने क्षमा मांगते हुए कहा कि हम लोग थोड़े लेट हो गए तो एकाएक बोले- घर मेरे नाम से पूछा था या अमिताभ के नाम से?मैंने कहा- आपके नाम से!कहने लगे- इसीलिए लेट हो गए, अमिताभ के नाम से पूछते तो कोई भी बता देता, और समय से आ जाते।काफ़ी देर तक उनसे बात हुई, अच्छी चर्चा हुई। इस बीच जया बच्चन भी एक बार कमरे में आईं और उनसे अभिवादन हुआ। साथ ही जया के पीछे- पीछे नन्हा अभिषेक भी एक हाथ में सेव लिए और दूसरे से अपनी मम्मी के गाउन को थामे हुए कमरे में आया।अरविंद जी ने बच्चन जी के साथ मेरा फ़ोटो भी खींचा।कुछ दिन के बाद अपना लिखा हुआ इंटरव्यू उन्हें सुनाने के लिए भी फ़िर मैं उनके घर गया।उस दिन घर के भीतर घुसते हुए मैंने गौर किया कि वो काली वैन भी गैरेज में बाहर खड़ी है जिसकी मीडिया में बहुत चर्चा होती थी। वो अमिताभ की वैनिटी वैन थी, जिसमें वे शूटिंग के लिए जाया करते थे। उसमें आराम करने से लेकर तैयार होने तक की सभी सुविधाएं थीं।बच्चन जी से बात करते हुए मेरा ध्यान लगातार इस बात पर लगा रहा कि घर के भीतर आते- जाते अमिताभ कहीं दिख जाएं। पर वो नहीं दिखे।एकबार मुझे उनके ड्राइंग रूम से भीतर घर के अंदर तक जाने का मौक़ा भी मिला,पर शायद अमिताभ ऊपर के अपने कक्ष में होने के कारण नहीं दिखे।जब मैं बोल कर बच्चन जी को मैटर सुना रहा था तब भीतर से कुछ खटर- पटर की तेज़ आवाज़ें आ रही थीं। शायद कुछ बढ़ई घर के भीतर रिपेयर का कोई काम कर रहे थे। बच्चन जी ने उन्हीं को रोक कर मना करने के लिए मुझे भीतर भेजा था।अमिताभ बच्चन के उस बंगले के लॉन में मुझे दो अजूबे और देखने के लिए मिले- एक तो वहां आठ- नौ विदेशी नस्ल के कुत्तों को एक ट्रेनर घुमाता हुआ दिखा, और दूसरे मेन गेट से डाक विभाग की एक वैन ने आकर लकड़ी के कुछ बड़े- बड़े खोखों में बोरियों से ढेर सारी डाक,और चिट्ठियां पलटी। बताया गया कि प्रशंसकों की चिट्ठियां रोज़ इसी तरह आती हैं, जिनका वहां ऑफिस में बैठे लोग अमिताभ की फोटो और साइन किए हुए पत्र के साथ जवाब भी भेजते हैं।इतने बड़े देश में एक महान कलाकार का अपने प्रशंसकों की भावनाओं का ऐसा सम्मान अद्भुत था। और अद्भुत था फैंस का ये प्यार भी! ‹ Previous Chapterप्रकृति मैम - हरा भरा वन › Next Chapter प्रकृति मैम - मिलके बिछड़ गए दिन Download Our App