बिराज बहू
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
(2)
लगभग डेढ़ माह बाद...
नीलाम्बर का बुखार आज सुबह उतर गया। बिराज ने उसके कपड़े बदल दिए। फर्श पर बिस्तर बिछा दिया। नीलाम्बर लेटा हुआ खिड़की की राह एक नारियल के पेड़ को देख रहा था। हरिमती उसे पंखा झल रही थी। कुछ देर बाद बिराज नहा-धोकर आई। उसके भीगे बाल पीठ पर छितराए हुए थे। उसके आते ही कमरे में एक दीप्ति-सी हुई।
नीलाम्बर ने चौंककर कहा- “यह क्या?”
बिराज ने बताया- “पंचानन्द बाबा की पूजा करनी है। सामग्री भिजवाई है।” उसने पति के सिरहाने बैठकर उसके माथे को छुआ- “अब बुखार नहीं है... सारे गाँव में चेचक फैला हुआ है। शीतला माता के मन में जाने क्या है! मोती मोउल के बच्चे के रोम-रोम पर माता की कृपा है।”
नीलाम्बर ने पूछा- “मोती के कौन-से लड़के को शीतला निकली है?”
बिराज ने कहा- “बड़े लड़के को।” उसने प्रार्थना की- “शीतला माँ! गाँव को शीतल करो... आह! उसका यही लड़का कमाता है। पिछले शनिवार को अचानक मेरी नींद टूट गई। मैंने तुम्हें स्पर्श किया, शरीर जल रहा था। मेरा तो खून जल गया। काफी रोई। फिर शीतला माता की मनौती मानी कि ये अच्छे हो जाएंगे तो मैं पूजा चढ़ाऊंगी, तभी अन्न-जल ग्रहण करुंगी, वरना जान दे दूंगी।” बिराज की आँखे छलछला आई। आँसू गिर पड़े।
“तुम उपवास कर रही हो?”
पूंटी ने बताया- “हाँ दादा, भाभी कुछ नहीं खाती। शाम को कच्चा चावल, वह भी मुट्ठीभर... और एक लोटा जल।”
नीलाम्बर को बुरा लगा, बोला- “यग तो पागलपन है।”
बिराज ने साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछते हुए कहा- “हाँ, यह पागलपन है, असली पागलपन! तुम स्त्री होते तो पति का महत्त्व समझते! पत्नी के सीने में कैसी पीड़ा होती है यह जानते... पूंटी! यदि पूजा करने जाना चाहती हो तो नहा-धोकर तैयार हो जाओ।”
“मैं जरुर जाऊंगी।”
“अपने दादा के लिए प्रार्थना करना।”
पूंटी के जाते ही नीलाम्बर ने कहा- “मेरे लिए वह तुमसे श्रेष्ठ वरदान मांगेगी।”
बिराज ने सरलता से हंसकर कहा- “कितने ही नाते-रिश्ते हों, पर पत्नी से ज्यादा सही प्रार्थना पति के लिए कोई भी नहीं कर सकता। मैं पाँच दिनों से उपवास कर रही हूँ, पर मारे चिंता के भूख को भूल ही गई। मैंने क्या-क्या किया- यह मेरा दिल ही जानता है। यदि तुम्हें कुछ भी हो जाता तो मैं जिन्दा न रहती। मांग का सिन्दूर मिटने के पहले ही मैं अपना सिर फोड़ लेती... विधवा का शुभ-यात्रा में कोई मुंह नहीं देखता, शुभ-कर्म में कोई नहीं बुलाता। दोनों हाथ पल्लू से बाहर नहीं निकाल सकती, माथे से आंचल नहीं हटा सकती... छि:-छि:! यह जीवन भी कोई जीवन होता है! जिस युग में लोग स्त्रियों को जलाकर मार डालते थे- वही ठीक था... अब वे स्त्री का दुख-दर्द नहीं समझते।”
नीलाम्बर ने कहा- “फिर जाकर तुम समझा दो।”
बिराज ने कहा- “मैं समझा सकती हूँ... और केवल मैं ही क्यों, जो तुम्हें पाकर खो देगी, वही समझा देगी।” सहसा बिराज हंस पड़ी- “मैं भी क्या बक-बक किए जा रही हूँ। बदन में कहीं दर्द तो नहीं है?”
नीलाम्बर ने ‘ना’ के लहजे में सिर हिलाकर कहा- “नहीं।”
बिराज से निश्चिन्त होते हुए कहा- “फिर कोई चिन्ता की बात नहीं। मुझे भूख लगी है, कुछ बनाने की तैयारी करुं! सच, आज तो मेरा कोई हाथ भी काट डाले तो क्रोध नहीं आएगा।”
नौकर यदु ने फिर पूछा- “क्या वैद्यजी को बुलाकर लाना होगा?”
नीलाम्बर ने बीच में कहा- “ना।” मगर बिराज ने कहा- “एक बार बुला ही ला... वे अच्छी तरह देख लेंगे तो चिन्ता मिट जाएगी।”
***
तीन-चार दिन बाद...
नीलाम्बर स्वस्थ होकर चण्डी-मण्डप में बैठा था।
तभी मोती मोउल आकर रोने लगा- “दादा ठाकुर! यदि आपने मेरे बेटे छीमन्त को नहीं देखा तो वह नहीं बचेगा। देवता! आपकी चरण-धूलि के स्पर्श से ही वह स्वस्थ हो जाएगा।”
नीलाम्बर ने पूछा- “उसके शरीर में कुछ दाने निकल आए है?”
मोती ने अश्रु पोंछते हुए कहा- “क्या बताऊं... कुछ पता नहीं चलता। नीच जाति में जन्मा हूँ... मूढ़ हूँ, कुछ जानता ही नहीं कि क्या करुं... आप चलिए।” उसने उसके दोनों पैर पकड़ लिए।
नीलाम्बर ने पांव छुड़ाकर कोमल स्वर में कहा- “तू चल, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।”
मोती मोउल अपनी आँखें पोंछता हुआ चला गया।
नीलाम्बर सोचने लगा कि वह अस्वस्थ है, दुर्बल है, वह कैसे कहीं जा पाएगा? पर वह रोगियों की सेवा करके उतना लोकप्रिय हो गया है कि आसपास के गांवों के लोग भयंकर बीमारियों में भी उसे दिखाकर सांत्वना और आशीर्वचन लेते हैं, तभी उनके परिवारवालों को धैर्य होता है। नीलाम्बर यह भलीभांति जानता था कि ये अशिक्षित और भोले लोग डॉक्टर-वैद्य की दवाओं की अपेक्षा उसकी चरण-धूलि और मन्त्रबद्ध पानी में अधिक श्रद्धा रखते हैं! यही कारण था कि वह भी किसी को निराश नहीं करता था।
मोउल के जाने के बाद वह काफी बेचैन हो गया। सोचना लगा कि बाहर कैसे निकले? बिराज से वह डरता था। यह बात उसे कैसे कहे?
इसी समय हरिमती ने आवाज दी- “दादा! भाभी सोने के लिए कह रही है।”
नीलाम्बर ने कोई जवाब नहीं दिया।
हरिमती ने समीप आकर कहा- “दादा, सुनाई नहीं पड़ा?”
नीलाम्बर ने कहा- “नहीं।”
हरिमती ने बताया- “जब से खाया तब से यहीं बैठी हो। भाभी का हुक्म है कि बैठने की जरुरत नहीं है, जाकर सो जाओ।”
नीलाम्बर ने आहिस्ता से पूछा- “पूंटी! तुम्हारी भाभी क्या कर रही है?”
“भोजन करने बैठी ही है।”
नीलाम्बर ने खुशामद-भरे स्वर में कहा- “मेरी लाड़ली बहन, मेरा एक काम करेही?”
“जरुर।”
नीलाम्बर ने धीरे से कहा- “चुपके से मेरी चादर और छाता ला दे।”
हरिमती की आँखे विस्फारित हो गई, बोली- “ना दादा ना, भाभी उधर ही मुंह करके बैठी है।”
नीलाम्बर ने फिर पूछा- “तो तुम नहीं ला सकोगी?”
“नहीं दादा, भाभी नाराज हो जाएंगी। तुम चलकर सो जाओ।”
उस समय दोपहर के दो बजे थे। धूप बहुत तेज थी, इसलिए उसका बिना छाता लिए जाने का साहस नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर अपनी बहन का हाथ पकड़कर भीतर आकर लेट गया।
हरिमती इधर-उधर की बातें करके सो गई। नीलाम्बर सोचता रहा कि यह बात बिराज को कैसे कही जाए कि उसका हृदय पिघल जाए।
***
दिन ढल गया था। बिराज अपने घर के चिकने और ठण्डे सीमेंट के फर्श पर छाती के नीचे तकिया दबाए अपने मामा-मामी को पत्र लिख रही थी कि किस तरह गाँव में शीतला माता का प्रकोप हुआ, कैसे उसी का घर मृत्यु की छाया से बचा, कैसे उसका सुहाग... उसकी चूड़ियां बची रहीं, यह लम्बी दास्तान लिखने से खत्म ही नहीं हो रही थी। तभी नीलाम्बर ने लेटे-लेटे पुकारा- “बिराज! मेरी एक बात मानोगी?”
कलम को दवात में रखकर सिर उठाकर पूछा- “कौन-सी बात?”
नीलाम्बर सोचने लगा कैसे कहूँ?
बिराज ने फिर कहा- “यदि बात मानने लायक हुई तो मैं जरुर मानूंगी।”
क्षणभर विचारकर नीलाम्बर ने कहा- “बिराज! तुम मेरी बात नहीं मानोगी, इसलिए कहने का कोई लाभ नहीं है।”
बिराज चुप रही। चिट्ठी लिखने के लिए फिर तैयार हुई, पर दिल नहीं लगा। उसके भीतर उत्सुकता बढ़ती गई। वह अच्छी तरह बैठती हुई बोली- “अच्छा बताओ, मैं तुम्हारी बात मानूंगी।”
नीलाम्बर थोड़ा मुस्कुराया। फिर सहमकर बोला- “आज दोपहर को मोती आया था। मेरे पांव पकड़कर रोने लगा... उसको यकीन है कि जब तक उसके घर में मेरी चरण-धूलि नहीं पड़ेगी, तब तक उसका बेटा छीमन्त स्वस्थ नहीं होगा। मुझे एक बार वहाँ जाना है।”
बिराज उसका मुंह देखती रही। थोड़ी देर बाद बोली- “इस बीमारी में जाओगे?”
“जाना ही पड़ेगा, उसे वचन दे चुका हूँ।”
“वचन क्यों दिया?”
नीलाम्बर चुप।
बिराज ने तमककर कहा- “तुम समझते हो कि तुम्हारे जीवन पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है? उसमें कोई भी दखल नहीं दे सकता? तुम अपनी मर्जी का करोगे?”
नीलाम्बर ने हंसकर कुछ कहना चाहा, पर पत्नी के बदले हुए तेवर देखकर वह हंस नहीं सका। किसी तरह इतना ही कह पाया- “उसका रोना देखकर...।”
बिराज बात को काटकर बोली- “ठीक ही तो है। उसका रोना तुमने देखा, पर मेरा रोना इस संसार में देखने वाला कोई नहीं है।” फिर चिट्ठी को पकड़कर बोली- “उफ! ये मर्द कैसे होते हैं। मैंने चार दिन, चार रातें बिना खाए गुजारीं, इसी का यह बदला मिल रहा है। घर-घर बीमारी फैली हुई है। शीतला माता का प्रकोप है और ये बीमारी और कमजोरी में भी रोगी देखने जाएंगे और उसे छूएंगे... जाओ... मेरे तो प्रभु हैं।”
नीलाम्बर के होठों पर एक फीकी मुस्कान दौड़ गई, बोला- “तुम स्त्रियां तो हर बात में भगवान की दुहाई देती हो।”
बिराज क्रोध में उबल पड़ी- “भगवान पर तो तुम्हें ही भरोसा है, हमें नहीं क्योंकि हम कीर्तन नहीं करतीं। तुलसी-माला नहीं पहनतीं, मुर्दे नहीं जलातीं, इसलिए भगवान हमारे नहीं, तुम्हारे हैं।”
नीलाम्बर बिराज के गुस्से पर हंस पड़ा, बोला- “इसमें गुस्सा क्यों करती हो! भगवान पर विश्वास करने के लिए जितनी शक्ति चाहिए उतनी स्त्रियों में नहीं होती, इसमें तुम्हारा दोष क्या?”
बिराज झल्ला पड़ी- “यह दोष नहीं, स्त्रियों का गुण है! हाँ, तुम कितना भी तर्क करो, बातें बनाओ, पर इस बीमारी में तुम्हें घर से नहीं जाने दूंगी।”
नीलाम्बर चुपचाप लेट गया। बिराज भी चुपचाप पड़ी रही। फिर उठी। बुदबुदाई- “ओह! सांझ हो गई। दीया-बत्ती तो करुं।”
वह चली गई। लगभग एक घण्टे के बाद लौटी तो उसने नीलाम्बर को गायब पाया। तुरंत पूंटी को पुकारा- “तेरे दादा कहाँ हैं, जरा बाहर देख।”
पूंटी चन्द क्षणों के बाद हांफती हुई आकर बोली- “दादा कहीं नहीं मिले। नदी-तट पर भी नहीं।”
“हूँ...” बिराज ने हुंकार भरी और रसोई की चौखट पर गुमसुम-सी बैठ गई।
***