Sabreena - 10 in Hindi Women Focused by Dr Shushil Upadhyay books and stories PDF | सबरीना - 10

Featured Books
Categories
Share

सबरीना - 10

सबरीना

(10)

विद्रोही पिता जेल में मर गए

‘उस पल मेरे लिए दुनिया की सारी नैतिकता, सारे मूल्य और इंसानियत, सब कुछ खत्म हो गया। मेरे भीतर गुस्सा, नफरत और कुंठा भर गई। मैं बदला लेना चाहती थी। पर, किससे बदला लूं, पता ही नहीं था। जिंदगी बेहद बोझिल हो गई। हर रात सपने दिखते कि मेरी मां ने हम तीनों को उस आदमी का पता बता दिया जो हमारा असली पिता है। अगली बार नया सपना दिखता कि हम तीनों बहनों का डीएनए हमारे पिता से मैच हो गया और पुरानी रिपोर्ट गलत थी। लेकिन, सपने कभी यथार्थ में नहीं बदल पाए, जो सच था, वो भयावह रूप में सामने था। अब उसी के साथ जीना था या पलायन करना था।’

सबरीना को सुनते हुए सुशांत को लगा कि उसके पास शब्दों की कमी है और वो कोई सांत्वना नहीं दे सकता, कोई दिलासा नहीं बंधा सकता। आखिर वो कौन-सी नीति-कथा होगी जो मन बहलाने के काम आ सके ? कोई नहीं। सुशांत को इस बात पर हैरत हो रही थी कि क्या वजह रही होगी, जिसके चलते सबरीना अपनी जिंदगी के सबसे स्याह पन्नों को खोल रही थी। उसे अपने भीतर से कोई तार्किक जवाब नहीं मिला। शायद सबरीना की बातों से कोई जवाब मिल सके।

‘ मैंने और स्तालिनोवा ने जैसे अपने पिता से बचकर रहना शुरू कर दिया। समझ ही नहीं आ रहा था कि उनका सामना कैसे करें, वो इतने बड़े दुख को इतने सालों तक सहते रहे। उन्होंने किसी से शिकायत नहीं की, वे उन बच्चियों को पालते रहे, जिनके वो पिता ही नहीं थे। वो दिलराबिया को उसके मरते दम तक सीने से लगाए रहे। जबकि, उन्हें पता था कि दिलराबिया से उनका कोई रिश्ता नहीं है। मुझे लगता कि ये कैसा आदमी है! इसने मां से बदला क्यों नहीं लिया ? इसने खुलकर विरोध क्यों नहीं किया ? दुनिया के सामने क्यों नहीं बताया कि वो किस औरत के साथ जिंदगी निभा रहा है ?’

सबरीना के ये सारे सवाल उसे मथते रहे और जब बर्दाश्त के बाहर हो गए तो उसने बेहद तल्खी से इन्हें अपने पिता के सामने पटक दिया। उनका जवाब सबरीना के लिए और भारी साबित हुआ।

‘ सबरीना, मैं फौज में हूं, तुम्हारी मां कलाकार थी। जो कुछ हुआ, वो एक फौजी और कलाकार की जिंदगी के बीच की दूरी का उदाहरण भर है। हमारे बीच इतना स्पेस था कि कोई तीसरा उसमें घुस गया। और जब कोई तीसरा आ गया तो फिर चैथे, पांचवें या दसवें के आने में देर नहीं लगती। वो अपने कलात्मक विस्तार को तलाश रही थी और बुरी राह पर चली गई। अब उसको दोष देने से क्या होगा। उसकी उम्मीदें और सपने मेरे जैसे व्यक्ति से बड़े थे, पर उसने जो ढंग चुना वो गलत था। सबरीना, कई बार मुझे लगता है कि दिलराबू की बजाय मेरी गलती थी, संदेह मैंने ही किया, न करता तो जिंदगी चल ही रही थी। उस संदेह ने हम सभी को भीतर तक कचोट डाला, मार डाला। इसे जिंदगी भर ढोते रहने से जिंदगी और भारी हो जाएगी। मेरे मन में तुम्हारी मां के लिए अब कोई नफरत नहीं है। सब कुछ उसकी मौत के साथ खत्म हो गया।’

सबरीना बेहद जोर से चिल्ला पड़ी। ‘झूठ, झूठ बोलते हैं मेरे पिता। उनके मन में नफरत थी, वो गुस्से में थे, पर वो किसी को नहीं दिखाना चाहते थे। उन्हें अच्छा, ईमानदार और अनुशांसित होने का घमंड था!’

सुशांत ने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन शब्द उसके हलक में चिपक गए। उसने सबरीना के हाथ को कसकर पकड़ लिया, सबरीना ने उसकी तरफ देखा। उसकी आंखों में समुद्र लहरा रहा था।

‘ आपको क्या लगता है प्रोफेसर, मेरे पिता झूठ बोल रहे थे ?, सबरीना ने सुशांत से पूछा, जैसे वो अपने द्वंद्व से निपटने के लिए एक सलाह चाह रही हो।

‘ नहीं, वो झूठ नहीं बोल रहे थे, वो गलत नहीं थे। शायद वो, तुम दोनों की जिंदगी को अतीत के बोझ से मुक्त रखना चाहते थे।’

सबरीना को फिर पिता की बातें याद आने लगीं। ‘वो जब भावुक होते तो मां के बारे में कहते, उसने मुझे तीन बेटियां दीं, मुझे मुहब्बत और दर्द, दोनों का अहसास कराया। उसने मुझे किसी के लिए जीना सिखाया, तुम लोगों के लिए जीना सिखाया। वो हमेशा कोशिश करते कि हमारे दिलों से मां के प्रति नफरत कम हो जाए।’

‘सुनो प्रोफेसर, वक्त खुद ही तय कर देता है कि अब पुराना दुख छोटा साबित होने जा रहा है।‘ सबरीना ने सुशांत को ऐसे देखा कि मानो उसे अपनी आंखों में समेट लेना चाहती हो। सुशांत अचकचा-सा गया। सबरीना बोलती रही-

‘मास्को में दिन बोझिल थे। मुझे यूक्रेन में बिताया बचपन याद आता था। स्तालिनोवा पिता के नक्शे-कदम पर चलती हुई सोवियत फैाज में शामिल हो गई थी। लेनिनग्राद यूनिवर्सिटी में मेरी पढ़ाई का आखिरी साल था। मैं भारत जाना चाहती थी। शायद, मेरे पिता ऐसा चाहते थे कि में हिन्दुस्तान जाऊं और वहीं नौकरी करूं या आगे पढं़ूं।’

‘हिन्दुस्तान ही क्यों ? उस वक्त तो दुनिया में सोवियत रूस का दबदबा था। आधी दुनिया उसके प्रभाव में थी, राजनैतिक तौर पर हिन्दुस्तान वैसे भी रूस के गुट में नहीं था। फिर हिन्दुस्तान जाने की सलाह क्यों दी आपके पिता ने!‘ सुशांत सबरीना की कहानी के अगले मोड़ों से वाकिफ होना चाहता था।

‘शायद, उन्होंने अपने बचपन में हिन्दुस्तान के बारे में बहुत-सी कहानियां सुनी थीं। उन हमलावर योद्धाओं के बारे में सुना था जिन्होंने हिन्दुस्तान को जीत लिया था, लेकिन वहां के समाज और मूल्यों को नहीं जीत पाए थे। उन्हें लगता था कि दुनिया मे हिन्दुस्तान की औरतें सबसे ज्यादा भरोसे के काबिल होती हैं। वे सोवियत रूस में पले-बढ़े थे इसलिए पश्चिमी समाज के प्रति एक खास तरह का दुराग्रह उनके भीतर था। ऐसे में, हिन्दुस्तान ही बचता था जिसके बारे में वे सोचते थे और सपने बुनते थे। मेरी मां से जो धोखा मिला, उसके चलते भी शायद, उन्हें हिन्दुस्तानी औरतों में वो उम्मीद दिखती थी जो किसी को धोखा देने से परे थी। वे हमेशा अपनी इन्हीं धारणाओं के साथ जिये।’

‘फिर क्या हुआ ?’ सुशांत ने पूछा।

‘मैं हिन्दुस्तान चली गई और 1989 में सोवियत रूस ढह गया। मेरे पिता सोवियत राष्ट्रपति गोर्वाच्यौव की ग्लासनोस्त और पेरोस्त्राइका नीतियों के खिलाफ थे। उन्हें लगता था कि वैश्वीकरण और उदारीकरण सोवियत संघ को लील जाएगा और ऐसा ही हुआ भी। वो 1985 से ही उस समूह के संपर्क में थे जो गोर्वाच्यौव का विरोध कर रहा था। सोवियत विघटन के दिन जैसे ही गोर्वाच्यौव ने सत्ता छोड़ी, सेना के बड़े समूह ने देश पर नियंत्रण करने की कोशिश की। उस समूह में मेरे पिता भी थे। कुछ घंटों के लिए इस समूह की सत्ता कायम रही और फिर सभी को बंदी बना लिया गया। उनके साथ स्तालिनोवा को भी गिरफ्तार किया गया और मेरे लिए रूसी नागरिकता के दरवाजे बंद हो गए।’

‘बगावत करने वाले हजारों सैनिकों और अधिकारियों को साइबेरिया भेज दिया गया। बरसों तक मेरे पिता और स्तालिनोवा के बारे में कुछ पता नहीं चला। कुछ साल पहले मैं प्रोफेसर तारीकबी की मदद से रूस जा पाई। मैंने साइबेरिया की जेलों, सुधार गृहों और जेल कृषि फार्माें में अपने पिता को ढूंढा, लेकिन उनकी कोई खबर नहीं मिली। मास्को में अपने पिता के पुराने घर पर गईं, वहां से पता चला कि उनकी जेल में ही मौत हो गई थी और इस घटना को पांच साल बीत चुके थे। मेरे पिता, मेरे पिता...........’ सबरीना की आखें अपने भीतर लहरा रहे सागर को समेट नहीं पाई और आंसुओं की कतार उसके गालों पर लुढ़क गई।

***