Pachhtava in Hindi Moral Stories by Satish Sardana Kumar books and stories PDF | पछतावा

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पछतावा


पछतावा
सतीश सरदाना
सुबह के सवा नौ बजे तीन जन इंछापुरी रेलवे स्टेशन पर उतरे।पैसेंजर ट्रेन की अधिकांश सवारी शिव मंदिर की तरफ मुड़ गई।ये तीन जन उनसे विपरीत खेतों के दरम्यान एक पगडंडी पर बढ़ चले।यह पगडंडी बल खाती सर्पिणी की भांति टेढी मेढ़ी होकर जुते खेतों के बीच से जटशाहपुर जाने वाली सड़क पर जाकर मिल जाती थी।इस पगडंडी से थोड़ा हट कर एक विशाल नीम के तले तीनों रुक गए।इस जगह पर वे ठीक एक साल पहले भी आ चुके थे।फर्क सिर्फ इतना था कि उस दिन खेत की मिट्टी गीली थी।कहीं कहीं पानी भी भरा था।ऐसे ही एक पानी के गड्ढे में एक अधजला शरीर पड़ा था।घटनास्थल पर पुलिस थी जो उन्हें शिनाख्त के लिए वहां लाई थी।लाश का चेहरा धुयें से कुछ काला पड़ गया था।लेकिन इतना नहीं कि पहचान में ही न आए।
"एक अफसोस रह जाता है।अवनीश शुरू से ही चुप्पा और जिद्दी था।लेकिन प्यार बहुत करता था।हमने उसे ऐसी औरत के हाथ में जाने दिया जिसने उसे बरबाद कर दिया।उसके लिए तो कोई निग्घी सी कुड़ी होती जो उसकी जिद को सहलाते हुए और प्यार से बहलाते हुए उसे सही रास्ते पर रखती।जरीना उसके लिए बेहद गलत लड़की थी।दिल्ली की पैदावार अपने अहंकार और स्वार्थ में पगी हुई,उसे पता ही नहीं था कि घर कैसे बनाया और चलाया जाता है।उसे तो बस पैसा चाहिए होता है खर्चने को,चाहे पति चोरी करे, डाका डाले या अपनी चमड़ी छील कर उसे दे।आज अवनीश हमारे साथ नहीं है तो इसमें सारी हमारी गलती है।हमने उसके लिए सही जीवनसाथी नहीं चुना।"मां आंसुओं के सागर में डूबी हुई कहे जा रही थी।मैं खाट पर बैठा सुन रहा था।यह खाट पड़ोस के एक खेतिहर की थी।जो हमारे लिए चाय लाने अपनी ढाणी तक गया था।वो जो तीन लोग यहाँ तक आए थे।उनमें एक मैं था।एक मेरी मां,तीसरा इस इलाके से परिचित एक शख्स था जो हमारा कभी किराएदार हुआ करता था।आजकल इधर ही उसकी नौकरी थी।
"तू कुछ नहीं बोलता।"मां ने रुककर मुझसे पूछा।
"मैं क्या बोलूं।परमात्मा ने जो दिन हमें दिखाया है उसने हमारे मुंह से ज़बान ही छीन ली है।क्या तो लड़का था और क्या बन गया था।पिछले दो साल से सिग्नल आ रहे थे कि उसकी गृहस्थी में कुछ भी ठीकठाक नहीं चल रहा।हम लोग फिर भी आंखें मूंदे बैठे रहे।"
"हां!मैंने तुम्हें कितनी बार तो फोन पर कहा,गिरीश !भाई का कुछ करो।भाई का कुछ करो।तुम ही हमेशा चुप लगा जाते थे।"मां ने कहा तो मुझे मां की अर्धरात्रि में की गई फोनकॉल याद आई।
मां कह रही थी,"वो आधी आधी रात शराब पीकर नशे में धुत कार लेकर दिल्ली की सड़कों पर भटकता है।घर जाने की बजाय होटल में सोता है।ऐसी क्या उसकी बीवी है कि उसके लिए दरवाजा भी नहीं खोलती।मैंने तो ऐसी बीवियां ही देखी हैं जो पति के वापिस न आने तक पलक भी नहीं झपकाती।"
"मां!वह दिल्ली की लड़की है,कोई गांव देहात की डरपोक लड़की नहीं है।थप्पड़ भी खाती रहे और पैर भी पूजती रहे।मैं बीस साल से दिल्ली में रह रहा हूं।इधर लोग छोटी सी बात होने पर 100 नम्बर घुमा देते हैं।"मैने जवाब दिया था।
"फिर हम अपने लड़के का दुख कैसे भी कम नहीं कर सकते?कोई तो रास्ता होगा।वह तो जब भी मुझे फोन करता है।फूट फूट कर रोता है।ऐसे तो लड़कियां भी न रोती होंगी।मेरा तो जी हिल जाता है।मैं तो वकुहे में पड़ जाती हूं।"मां रोने को हो जाती थी।
"रास्ता क्यों नहीं है।रास्ता है तलाक़!जहां न निभ रही हो।आपसी शर्म लिहाज तक खत्म हो गई हो।एक दूसरे से ऐसे लड़ते हैं कुत्ते बिल्ली भी क्या लड़ते होंगे वहां एक ही समाधान है तलाक!अब तलाक के लिए न तो आप राजी हो न वे दोनों।"
"बेटा!हमारे यहाँ तलाक नहीं होते।हम लोग तो बच्चों के भविष्य की भी तो सोचते हैं।बच्चे तो कहीं के न रहेंगे।"
मां की चिंता जायज थी।
बड़े ऑपरेशन की जरूरत ही तब पड़ती है जब बीमारी लाइलाज हो जाए।तलाक अपने आप में ही एक समस्या है।लेकिन आप इंसान हो।सबके साथ एक साथ तो इंसाफ नहीं कर सकते न।
अगर अवनीश को उस जलती आग से निकालना था तो हाथ तो सबके थोड़े थोड़े जलने ही थे।सबने अपने अपने हाथ बचा लिए।अवनीश अकेला जल मरा।
उसकी मौत के बाद पीछे मुड़कर देखने का मन तो नहीं करता।फिर भी कुछ घटनाएं, कुछ कहे गए वाक्य बरबस याद आ ही जाते हैं।मेरा इक्कीस वर्ष का ठाडा जवान भाई,हट्टा कट्टा कसरती शरीर,गोरा रंग और बाहों की उभरी मांसपेशियां।उन दिनों हर दूसरे महीने उसे प्यार हो जाता था।होली आने पर मेरे ससुराल गया था।वहां एक लड़की से होली खेलते खेलते दिल लगा बैठा।उन दिनों सविता,यानि मेरी पत्नी के घुटने से लगकर बैठा रहता।"भाभी,मेरी वहां शादी करवा दे।सोने के कंगन दिलवाऊंगा तुझे।"सविता हंस देती,"देवर जी!छह महीने रुक जाओ।फिर बात करती हूं।"
भाभी से रूठ जाता।मुझ से कहता।मैं हँसकर टाल देता।
छह महीने में तो उसकी तीन गर्लफ्रैंड बदल गई थी।
दिल्ली में जॉब लगने के बाद वह अक्सर मेरे पास नोएडा आता था।उसके रिश्ते की बात चलने लगी थी।एक से एक खानदानी लोग उसे अपना दामाद बनाना चाहते थे।लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।कब और कहां वह जरीना से टकरा गया,इस बारे में मुझे नहीं मालूम।लेकिन उस लड़की ने इसे ऐसा फंसाया कि बात शादी तक पहुंच गई।पिता जी को वे लोग कतई पसंद नहीं थे।सगाई के दिन भी उनका चेहरा इस बात की गवाही देता था कि यह संबंध ठीक नहीं होने जा रहा।
"अहंकारी और ओछे लोग हैं।।न ही लड़की कोई हूर की परी है।अवनीश ने जाने इसमें क्या देखा?भगवान सुख रखे।ये लोग निभाने वाले लगते नहीं हैं।"पिता ने मुझसे अकेले में कहा था।अवनीश उन लोगों में मस्त था।इतना ही मेरे लिए बहुत था।भविष्य के गर्भ में झांकने वाली नजर मैने नहीं पाई थी।क्या होगा,इन बातों का अंदाजा कोई ठीक ठीक नहीं लगा सकता।
कुछ दिन सही चला।फिर धीरे धीरे चुप्पे अवनीश पर वाचाल जरीना हावी होती गई।अवनीश कमाता बहुत था लेकिन जरीना उड़ाने में सिद्धहस्त थी।अवनीश ने भी खर्चों को कंट्रोल करने में कोई परवाह नहीं की।जब तक कमाई थी तब तक चलता रहा।बच्चे हुए,उनके खर्च बढ़े। मकान और गाड़ी के कर्ज,नित नई जगह घूमने के शौक ने हाथ हमेशा खाली रखा।जब भी आपात स्थिति आई उस की पूर्ति के लिए नया कर्ज उठाया गया।
चीजें हाथ से निकलती गई।अवनीश को शराब पीने की लत लगी तो बढ़ती गई।झगड़े बढ़ने लगे।कभी अवनीश रोते हुए मां के पास फोन करता।कभी जरीना पुलिस बुला लेती।
यह समझ कभी न आया कि कसूर ज्यादा किसका है।एक दिन उसके आत्मदाह की खबर भी आ गई।मरकर वह तो सच्चा बन गया।लेकिन जो जिंदा रही वह अपने झूठे न होने की बात पर अड़ी रही।
आज हम उस जगह को फिर से देखने की प्रबल इच्छा से यहां आए थे जहां उसने जान दी थी।वह इतनी दूर यहाँ कैसे पहुंचा।उसने जलने के लिए पेट्रोल कहां से खरीदा।इस बात का खुलासा अगर पुलिस ने किया भी होगा तो हमें पता नहीं था।हम इस हादसे को भूलना चाहते थे।लेकिन आहें और आँसू एक साल बाद भी
इतने ताजे थे कि दर्द भूलने की बजाय बढ़ गया था।जख्म अभी पिछले साल जैसा हरा था।
चाय आ गई थी।पीकर सब खामोश बैठे थे।खेतिहर का नाम विनोद था।विनोद ने ही बात शुरू की।बोला,"मां जी!मैंने आपके लड़के को हाथ में बोतल लिए हुए देखा।मैंने सोचा,शायद कोई लैट्रिन वगैरह बैठने आया है।वह लड़का मुझे देख थोड़ा ठिठका।फिर नीम की ओट में हो गया।इतने में मेरे मोबाइल पर फोन आ गया।मेरा ध्यान फोन की तरफ चला गया।मोबाइल पर बात करते करते अचानक मेरी निगाह नीम की तरफ चली गई तो क्या देखता हूं कि आग में लिपटा एक मानव शरीर मेरी तरफ दौड़ता चला आ रहा है।मैं उसकी तरफ भागा।वह यहां पानी के गड्ढे में गिर गया।पानी की वजह से उसकी आग बुझ गई।वह बोल नहीं पा रहा।उसने हाथ उठाया और उसकी आँखें पथरा गई।
मैंने पुलिस स्टेशन का नम्बर मिलाया।जब तक पुलिस आती तब तक काफी भीड़ हो गई थी।पुलिसकर्मियों ने आकर उसकी तलाशी ली।मोबाइल फोन और पर्स उसकी जेब में था।
जहां से फोन करके आपके पास खबर भेजी गई।
मां एकटक उस शख्स को देखे जा रही थी जो उसके बेटे के आखिरी वक्त का गवाह था।मैं चुपचाप धरती की तरफ देखता हुआ बैठा था।मेरी हिम्मत न हो रही थी कि उसकी तरफ देखूं या उस जगह की तरफ देखूं जहां मेरे भाई ने प्राण दिये थे।न मेरे मन में कोई गुस्सा था।जो कि होना चाहिए था।उसकी पत्नी के प्रति उसके बच्चों के प्रति या समाज के प्रति जो केवल आदमी का ही दुश्मन है,औरत की तरफ सहानुभूति से ही देखता है चाहे आदमी की गलती हो या न हो।यह कैसा एकांगी सोच का समाज बनाया है हमने।जिसे सच झूठ की तमीज नहीं जो वस्तुनिष्ठ होकर नहीं सोच सकता।
मेरा भाई बुरा आदमी नहीं था।वह प्यार पाना चाहता था।अपने बच्चों का भविष्य बनाना चाहता था।एक बेमेल रिश्ते ने उसे मौत के कगार पर पहुंचा दिया।
"चल बेटे!चलते हैं।"मां ने कहा तो मैं मां को लेकर चल दिया।
रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े होकर उस नीम के पेड़ की तरफ आखिरी निगाह डाली जो मेरे भाई के दुखान्त का गवाह था।फिर निगाह फेर ली।सामने दिल्ली जानेवाली पैसेंजर ट्रेन आ रही थी।