Tanaji Malusare -Maratha Sher in Hindi Biography by MB (Official) books and stories PDF | तानाजी मालुसरे - मराठा शेर

Featured Books
Categories
Share

तानाजी मालुसरे - मराठा शेर

मराठा शेर - तानाजी मालुसरे

मराठा सेना का शेर जिसने मराठा साम्राज्य के लिए कई युद्ध लड़े और मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। यह कहानी वीर तानाजी मालुसरे की है जिनकी मराठा सेना में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ स्वराज के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान देते हुए मराठा साम्राज्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। वह जीवन भर छत्रपति शिवाजी महाराज के अभिन्न मित्र व सहयोगी रहे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने ही उन्हें मराठा शेर की उपाधि प्रदान की।

तानाजी मौलसरे का बचपन

तानाजी मालुसरे का जन्म 1600 में महाराष्ट्र सतारा के गोडोली में एक कोली परिवार में हुआ था। वह सरदार कालोजी व पार्वती बाई के पुत्र थे। उनका एक भाई भी था जिसका नाम सरदार सूर्याजी था। इनकी माता पार्वती बाई का इन दोनों भाईयों के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके अलावा इनके मामा कोंडाजी शेलार का भी इनके जीवन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। माता पार्वती बाई व मामा कोंडाजी शेलार ने तय किया कि तानाजी व सूर्याजी मराठा सेना के सिपाही बनेंगे। अतः दोनों को ही युद्ध कला व शस्त्र चलाने की शिक्षा दी जाए।

छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ मित्रता

तानाजी मालुसरे छत्रपति शिवाजी महाराज के सबसे विश्वासपात्र साथी थे जिन्होंने उनके साथ स्वराज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उनकी मित्रता का कारण उनकी एक समान सोंच थी। दोनों ही अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे व स्वतंत्र मराठा साम्राज्य की स्थापना करना चाहते थे। दोनों मिलकर ‌विभिन्न किलों को फतह करने की योजना बनाते थे।

धीरे धीरे दोनों की दोस्ती बढ़ने लगी। शिवजी महाराज अक्सर ‌तानाजी के घर जाते थे। इससे उनकी मित्रता सूर्याजी से भी हो गई। यह पारिवारिक घनिष्ठता दोनों तरफ थी। शिवजी महाराज की माता जीजाबाई तानाजी से बहुत प्रभावित थीं। बाद में तानाजी ने मराठा सेना के गठन में अहम भूमिका निभाई।

अपने पिता के बाद जब छत्रपति शिवाजी महाराज गद्दी पर बैठे तो उन्होंने अपनी मराठा सेना के गठन का निश्चय किया।

शिवजी महाराज ने तानाजी से कहा,

"तानाजी, हम दोनों मित्रों की मातृभूमि को लेकर एक जैसी भावना है। मैं तुम्हें अपनी मराठा सेना का प्रमुख बनाना चाहता हूँ।"

यह सुनकर तानाजी बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा,

"राजे, मैं प्रसन्न हूँ कि आपने मुझे इस महत्वपूर्ण कार्य के योग्य समझा। मैं आपको कभी निराश नहीं करूँगा। मैं पूरी ईमानदारी से काम करूँगा व स्वतंत्र हिंदवी साम्राज्य की स्थापना में प्रण प्राण से हिस्सा लूँगा।"

अंततः तानाजी ने एक सूबेदार के रूप में माराठा सेना की बागडोर संभाली। वह बहुत ही पराक्रमी और वीर थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनके तथा अन्य योद्धाओं के साथ मिलकर कई युद्ध लड़े। इससे हिंदू साम्राज्य की स्थापना का आरंभ हुआ। राजगढ़ किले की जीत के बाद मराठाओं की गिनती वीर योद्धाओं में होने लगी।

राजगढ़ के बाद मराठाओं ने चकन के किले पर चढ़ाई कर उस पर कब्ज़ा किया। इसके बाद छत्रपति शिवाजी महाराज की महानता की धाक जम गई। फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा तथा बीस अन्य किलों पर फतह हासिल की। वह सभी मराठा साम्राज्य का हिस्सा बन गए। छत्रपति शिवाजी महाराज विशाल मराठा साम्राज्य के राजा बन गए थे। अब उनकी योजना कोंकण क्षेत्र में साम्राज्य विस्तार करने की थी। उन्होंने इस योजना पर काम करते हुए नौ अन्य किलों पर अपना परचम लहराया।

जंजीरा किले को जीत कर छत्रपति शिवाजी महाराज ने दक्षिण कोंकण पर अपना राज्य स्थापित किया। इन सभी विजयों में ‌तानाजी ही प्रमुख सरदार थे।

तानाजी का विवाह

तानाजी का विवाह सावित्रीबाई मालुसरे के साथ हुआ जो सदैव उनके लिए एक मजबूत स्तंभ की तरह खड़ी रहीं। उन दोनों का रायबा मालुसरे नाम का एक बेटा भी था।

पुरंदर समझौता

राजपूत मिर्ज़ा राजे जय सिंह किसी भी कीमत पर छत्रपति शिवाजी महाराज को हराना चाहता था। इसलिए उसने पूरी ताकत से उन पर हमला किया। राजपूत मिर्ज़ा राजे जय सिंह मुगल सेना का सेनापति था। वह पुरंदर किले पर हमले के लिए पूरी तरह से तैयार था। इस बार कड़ी टक्कर थी क्योंकी आमने सामने का मुकाबला था।

भीषण युद्ध हुआ। मराठों के लिए किले को बचाए रखना कठिन हो रहा था। स्थिति गंभीर थी। पराजय का खतरा देख कर छत्रपति शिवाजी महाराज तानाजी से मिले।

"तानाजी, मुझे फ़िक्र है कि क्या हमारी सेना जय सिंह की सेना से लड़ने की स्थिति में है ?"

तानाजी ने जवाब दिया,

"राजे हम मराठा हैं और हमें हार स्वीकार नहीं। हम अंतिम सांस तक लड़ेंगे। जय‌ सिंह को मुगलों का साथ मिला है। हम बहादुरी से लड़ेंगे किंतु विजय के बारे में नहीं कहा जा सकता है।"

छत्रपति शिवाजी महाराज ने अनुभव किया कि मुगलों से युद्ध करना मराठा साम्राज्य के लिए घातक होगा और उनके सैनिकों के लिए नुकसानदेय होगा। इसलिए ‌अपने लोगों को मुगलों के आधीन करने की जगह उन्होंने एक समझौता किया। उन्हें लगा कि अपने सैनिकों को मुश्किल में डालने से समझौता करना अच्छा है। उन्होंने तानाजी से कहा कि वह उनका प्रस्ताव मिर्जा राजा जय सिंह के पास लेकर जाएं।‌

तानाजी ने वहाँ जाकर कहा,

"मिर्ज़ा राजा जय सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज अब युद्ध को जारी नहीं रखना चाहते हैं।‌ वह आपके साथ समझौता करना चाहते हैं। यदि आप इस विषय में बात करना चाहें तो हम तैयार हैं।"

मिर्ज़ा राजा जय सिंह यह सुनकर बहुत खुश हुआ। वह बहुत चालाक था।‌ उसने तेइस किले उसकी सेना को सौंपने के लिए कहा। औरंगजेब यह बात सुनकर बहुत खुश हुआ। समझौते के तहत कोंधाना का किला जिसे तानाजी ने जीता था जय सिंह और उसके सहायक मुगलों को सौंप दिया गया।

पुरंदर का समझौता मराठाओं और मिर्ज़ा राजा ‌जय सिंह के बीच 11 जून 1665 में हुआ। इसके अंतर्गत छत्रपति शिवाजी महाराज को अपने तेईस किले देने पड़े। उसने मराठाओं की शान में बट्टा लगा दिया।

जो किले दिए गए उनमें कोंढाणा का किला विशेष पहचान रखता था। यह किला माता जीजाबाई के कक्ष से दिखाई पड़ता था। यह मराठाओं के लिए महत्वपूर्ण किला था। अतः माता जीजाबाई की इच्छा थी कि मराठा सेना उस पर दोबारा कब्जा कर भगवा झंडा फहराए। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज से इस बारे में बात की।

"शिवबा, कोंढाणा का किला मराठा साम्राज्य के लिए बहुत ज़रूरी है। अतः तुम उसे दोबारा जीत लो।"

छत्रपति शिवाजी महाराज माता जीजाबाई की इच्छा का सम्मान करते थे पर वह यह भी जानते थे कि यह काम बहुत कठिन होगा।

उन्होंने माता जीजाबाई को समझाया,

"आई साहेब, मैं आपकी बात समझ रहा हूँ किंतु कोंढाणा का किला जीतना बहुत मुश्किल है। कई लोगों ने उसे जीतने की कोशिश की पर कोई विजयी वापस नहीं आया।"

छत्रपति शिवाजी महाराज की बात सुनकर माता जीजाबाई को अच्छा नहीं लगा। शिवजी महाराज अपनी माता का दिल नहीं दुखाना चाहते थे अतः उन्होंने किले को मराठा साम्राज्य में वापस लाने के लिए योजना बनाना आरंभ कर दिया। उन्हें इस काम का दायित्व सौंपने के लायक केवल तानाजी लगे।

तानाजी बहुत बहादुर थे व छत्रपति शिवाजी महाराज के हर युद्ध में सहयोग देते थे। शिवाजी महाराज जानते थे कि तानाजी ही इस काम को सही तरीके से अंजाम दे सकते हैं। अतः उन्होंने तानाजी को यह काम सौंप दिया।

पर जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपना चाहते थे तब तानाजी के पुत्र के विवाह की तैयारियां जोरों से चल रही थीं। विवाह की तिथि पास थी। तानाजी छत्रपति शिवाजी महाराज और माता जीजाबाई को इस अवसर पर आमंत्रित करना चाहते थे। अतः वो अपने मामा शेलार के साथ उन्हें आमंत्रित करने पहुँचे।

तानाजी ने हर्ष के साथ कहा,

"शिवा, मैं तुमको और माता जीजाबाई को अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमंत्रण देने आया हूँ।"

यह समाचार सुनकर छत्रपति शिवाजी महाराज बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा,

"यह‌ तो बहुत खुशी की बात है तानाजी। तुम धूमधाम से रायबा का विवाह करो। किंतु मैं इस अवसर पर शामिल नहीं हो पाऊँगा। मुझे कोंढाणा का किला दोबारा फतह करने जाना है।"

तानाजी अपनी ‌मातृभूमि के प्रति निष्ठा रखते थे। उन्होंने बिना समय गंवाए शिवाजी महाराज से कहा,

"पहले मैं कोंढाणा का किला फतह करूँगा उसके बाद मेरे पुत्र रायबा का विवाह होगा।"

तानाजी का कोंढाणा युद्ध

तानाजी ने कोंढाणा के किले पर चढ़ाई कर दी। काम कठिन था पर तानाजी दृढ़ प्रतिज्ञ थे। मिर्ज़ा राजे जय सिंह ने राजा उदयभान राठौड़ को किले का प्रमुख नियुक्त किया था। उदयभान अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के लिए मुगल सेना में शामिल हुआ था।

कोंढाणा के किले की सुरक्षा व्यवस्था बहुत तगड़ी थी। जिसके कारण इसे जीत पाना बहुत मुश्किल था। यह किला बहुत ही महत्वपूर्ण जगह पर था। अतः छत्रपति शिवाजी महाराज के लिए इसे जीतना परम आवश्यक था। किंतु उदयभान की अगुवाई में 5000 मुगल सैनिक इसकी रक्षा कर रहे थे।

केवल गहरी खाई वाले हिस्से में ही कोई सुरक्षा नहीं थी। तानाजी ने खड़ी चढ़ाई वाली खाई पर चढ़ने का निश्चय किया। तानाजी के पास एक पालतू गोह थी। गोह मजबूत पकड़ वाली एक तरह की छिपकली होती है। जिसके कारण वह एक इंसान का भार भी बिना फिसले सह सकती है। इस पालतू गोह का नाम यशवंती था। यशवंती ने तानाजी को कई मुश्किलों से बचाया था। यशवंती ने तानाजी को कभी निराश नहीं किया था। अतः तानाजी को उस पर पूरा भरोसा था।

तानाजी ने यशवंती को किले के ऊपर फेंका। किंतु वह पकड़ नहीं बना पाई और नीचे गिर गई। तानाजी ने की बार कोशिश की पर सफलता नहीं मिली।‌ सूर्याजी व शेलार मामा ने इसे अपशकुन मान कर वापस लौटने को कहा। पर तानाजी डटे रहे।

तानाजी पक्के इरादे के साथ कोंढाणा का किला जीतने आए थे। तानाजी ने एक बार फिर यशवंती को उछाला। इस बार उसने निराश नहीं किया और खड़ी दीवार से चिपक गई। यशवंती की पकड़ बहुत मजबूत थी। तानाजी यशवंती पर बंधी रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ गए। उनके साथ ही तीन सौ मराठा सैनिक भी गोह में बंधी रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ गए। उनके सात सौ सैनिक नीचे थे। जबकी उनका सामना पाँच हजार मुगल सैनिकों से होना था।

भयंकर युद्ध हुआ। मराठा सैनिकों ने कई मुगल मारे। साथ ही कई मराठा सैनिकों की भी जान गई।

अंत में मुगल सेना का प्रमुख उदयभान तानाजी से लड़ने आया। मराठा शेर तानाजी ने उसका डट कर मुकाबला किया। किंतु लंबे समय तक लड़ने के कारण तानाजी की शक्ति क्षीण हो गई। अपने ऊपर होने वाले कई प्रहारों का सामना करते हुए वह बेहोश हो गए।

वह बुरी तरह से घायल थे। भूख, प्यास और थकान के चलते उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े। पर वह एक योद्धा की तरह मारे गए। मराठा सेना को जब यह पता चला तो उन्हें गहरा आघात लगा। सब शोक में डूब गए। सभी सैनिक हताश थे। पर सूर्याजी ने उन्हें प्रेरित करने के लिए कहा,

"हमारा शेर वीरता से लड़ा पर तुम लोग निराश होकर पीछे हट रहे हो। यह हमारे वीर तानाजी की शहादत का बदला लेने का अवसर है। हमें लड़ कर यह किला जीतना है।"

इन शब्दों ने सैनिकों में ऊर्जा व शक्ति का संचार किया। सूर्याजी और मामा शेलार ने उन्हें एहसास कराया कि तानाजी बहुत बहादुर थे। उन्होंने अंतिम सांस तक लड़ाई की। इससे सभी सैनिक लड़ने के लिए प्रेरित हो गए। मराठा सैनिकों ने पूरी ताकत से मुगलों पर हमला बोल दिया। उनके साहस ने मुगल सेना को परास्त कर दिया। मुगल सेना प्रमुख के मरने से किले की सुरक्षा ध्वस्त हो गई।

मराठा सेना की जीत हुई मुगलों के हरे झंडे की जगह भगवा झंडा किले में फहराने लगा।

गढ़ आला पण सिंह गेला

कोंढाणा किला वापस मिल गया पर मराठा शेर वीरगति को प्राप्त हुआ। अतः जीत के बावजूद मराठा सेना ने कोई खुशी नहीं मनाई। जब वह लोग किले पर कब्जा करने जा रहे थे तो छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनसे कहा था कि जीत के बाद संकेत भेजना। अतः सैनिकों ने जीत का संकेत भेज दिया।

माता जीजाबाई संकेत की राह देख रही थीं। संकेत मिलते ही वो बहुत प्रसन्न हुईं।

जीत की सूचना पाकर छत्रपति शिवाजी महाराज फौरन कोंढाणा की तरफ चल दिए। वह स्वयं तानाजी को इस जीत की बधाई देना चाहते थे। जब वह कोंढाणा पहुँचे तो उन्हें सूर्याजी, शेलार मामा और मराठा सैनिक दिखे पर तानाजी नहीं मिले।

उन्होंने तानाजी के बारे में पूँछा,

"मेरा बहादुर शेर कहाँ है ? मैं उसे बधाई देना चाहता हूँ।"

किंतु किसी ने भी उनकी बात का जवाब नहीं दिया। जब उन्हें तानाजी की मौत का समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए। उन्होंने कहा,

"किला मिल गया। पर मेरा शेर चला गया।"

माता जीजाबाई भी तानाजी की मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत दुखी हुईं। अपने बहादुर दोस्त को खोने ‌का दुख छत्रपति शिवाजी महाराज के लिए सहना बहुत कठिन था।

तानाजी की याद में कोंढाणा किले का नाम बदल कर सिंहगढ़ कर दिया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने तानाजी को सिंह का खिताब दिया था। उन्होंने ने किले का नाम तानाजी मालुसरे के नाम पर सिंहगढ़ कर दिया।

इसके बाद छत्रपति शिवाजी महाराज ने सभी तेईस किले वापस जीत लिए। इस तरह उन्होंने अपनी वीरता का सबूत दिया।

उन्होंने मराठा साम्राज्य स्थापित किया। वह उसके राजा बने। उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज कहा जाने लगा।

तानाजी हर कठिनाई में छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ रहे। वह बहादुर थे। उन्हें हमेशा मराठा सेना के शेर के रूप में याद किया जाएगा।

नोट -

यह जानकारी ऑनलाइन स्रोत से ली गई है। इसे एक कहानी का रूप दिया गया है। किसी भी तरह की त्रुटी अंजाने में हुई है। उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

अनुजा कुलकर्णी