विद्रोहिणी
(8)
उस्तादराज
उन दिनों लोगों को अखाडें का बड़ा शौक था। शहर में जगह जगह अखाड़े खुले हुए थे जहां उस्ताद लोग तरह तरह के दाव व कुश्तियां सिखाया करते थे।
शहर के प्रमुख चौराहे पर स्थित पान की दुकान पर एक पहलवान बैठा करता था।
वह दुकानदार से थोड़ी थोड़ी देर में पण मांगकर अनेक पान चबाया करता व जब दुकानदार उससे पैसे मांगता तो वह हिसाब में उधार लिखने को कह देता। दुकानदार की हिम्मत नहीं थी कि उससे हिसाब चूकता करने का कहे। न ही पहलवान कभी पैसे देने की तोहमत उठाता।
उस चॉराहे से गुजरने वाले हर राहगीर को उसे ‘ हरिहर उस्ताद ’ कहकर सलाम करना आवश्यक होता व बदले में उस्ताद दोनों हाथ उपर उठाकर ‘ हरिहर भिया ’ कहकर जबाब देते।
यदि कोई राहगीर उस्ताद को बिना विश किए चौराहे से गुजरने का प्रयास करता तो उस्ताद के पट्ठे उसे दो चार पटकने वहीं चोराहे पर मारते I अगली बार राहगीर दूर से ही ‘हरिहर उस्ताद ’ की आवाजें निकालते हुए गुजरता।
पहलवान की वह बैठक ऐक प्रकार से अघोषित कोर्ट थी। लोग पहलवान की फीस चुकाकर अपने छोटे मोटे झगड़ों को उसकी मदद से हल करवाया करते थे। कोर्ट के न्याय का प्रमुख सिद्धांत था ‘ जिसकी लाठी उसकी भैंस ’ । जो फीस दे उसी के हक में पहलवानजी फैसला दे दिया करते थे। उसमें किसी प्रकार की ना नुकुर की गुंजाइश नहीं होती। यदि दूसरा पक्ष किसी प्रकार का असंतोष जाहिर करता तो पहलवान के पट्ठे उसे तीन चार पटकने वहीं लगाते। बेचारा प्रतिपक्ष मन मसोसकर उनके अन्याय को ही न्याय मान लेने में अपनी खैर समझता।
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झगड़ा 2
उन दुष्ट पड़ौसी महिलाओं ने श्यामा केा चुपचाप रहते देखा तो उनके ताने दिनोदिन बढ़़ते चले गए। अब उनके समूह में रोज नई औरतें शामिल होने लगी।
उनमें से कुछ दुष्ट औरतें तो श्यामा को लकड़ी से मारने के लिए सभी को उकसाने लगी।
इस महाभयानक परिस्थिति को करीब एक सप्ताह बीत चुका था। तब श्यामा का धैर्य भी टूट चुका था। उसने हताश होकर उन औरतों से आर या पार की लड़ाई करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। एक सुबह जब वह हमेशा की तरह अपने काम पर निकली तो उसने देखा कि आठ दस महिलाओं का बड़ा समूह उसका रास्ता रोककर खड़ा था।
उसे देखते ही उनमें से एक ने हाथ मटकाते हुए कहा, ‘ देखो कैसी बनठन कर अपने यारों को रिझाने जा रही है, रांड ! ’
इस पर श्यामा ने तमककर जबाब दिया, ‘ तू भी आठ दस यार करले, किसने मना किया है ? ’
यह सुनते ही वहां सन्नाटा फैल गया । श्यामा जो कई दिनों से बिना उत्तर दिए उनके ताने सुनती आ रही थी, उससे उन्होंने ऐसे जबाब की उम्मीद नहीं की थी।
तब दूसरी पड़ोसन ने मोर्चा संभालते हुए कहा- ‘ हम तेरे जैसी थोड़े ही हैं जो बेशर्मी से अपने मरद को छोड़कर दूसरे के साथ खुलेआम रह रही है। ’
श्यामा बोली ‘ मेरा मरद ऐसा अच्छा लगता है तो यहां क्यों बैठी है, चली जा उसके पास ; पैसे नहीं हों तो तेरा टिकट मैं कटवा देती हूं।‘ श्यामा ने ईंट का जबाब पत्थर से दिया।
सभी औरतें बगलें झांकने लगी।
तब तीसरी ने कहा, ‘ इस बेशरम औरत ने अपने मोहल्ले में रंडीखाना खोल दिया है। ’
इस पर श्यामा ने क्रोधित स्वर में कहा ‘ ज्यादा सती सावित्री मत बन। मुझे पता है तेरे मरद के काम पर जाते ही आस पड़ौस से कौन कौन मरद तेरे घर में घुसते हैं। और दरवाजा बंद करके क्या क्या रास लीला चलती हैं। मेरी जबान मत खुलवाना, रांड! ’
यह सुनते ही उस औरत के चेहरे का रंग उड़ गया क्योंकि श्यामा ने सरेआम उसकी पोल उजागर कर दी थी। कुछ देर रूककर उनमें से ऐक ने सभी से विचार विमर्श करके कहा
‘आने दो हमारे घरवालों को, आज तो हम इस रंडी को हमारे मकान से निकालकर ही रहेंगे। ’’
इस पर श्यामा ने कहा ‘ न मैं तुम लोगों से डरती हूं न तुम्हारे मर्दो से। भविष्य मे मेरे रास्ते में मत आना नही तो ठीक नहीं होगा। ’
यह कहते हुए वह दनदनाती हुई अपने काम पर निकल गई।
यद्यपि उसका दिल आने वाले अज्ञात भय से धड़क रहा था किन्तु श्यामा भी स्वरक्षा की अपरिहार्य आवश्यकता के कारण उन पर उग्र आक्रमण करने को विवश थी।
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झगउ़ा 3
अगली शाम जब श्यामा थकी हारी काम पर लौटी तो उसने देखा कि उसके घर के आगे पंद्रह बीस लोगों की भीड़ जमा है। उन लोगों ने कन्हैया को घेर रखा था। वे सब उसे बुरी तरह डांट रहे थे। श्यामा को आते देख उनमें से ऐक ने कहा ‘ कन्हैया तेरी रखैल को समझा लेना। यह हमारी औरतों को गालियां देती है। ’
दूसरा बोला, ‘ इसने हमारे मोहल्ले में रंडीखाना खोल रखा है। ’
इस पर श्यामा ने जोर से चिल्लाकर कहा, ‘ तुम्हारी औरतें मिलकर रोज सुबह से मेरा रास्ता रोककर मुझे रंडी कहकर ताने देती हैं। उन्होंने मेरा जीना मुहाल कर रखा है। ’
तीसरा बोला, ‘रंडी को रंडी न कहें तो क्या देवी कहकर तेरे चरण पूजें। ’
चौथा और उग्र होकर बोला, ‘ अपने पति को छोड़कर यहां बड़ी चैधराहट बता रही है। ’
इस पर श्यामा ने भी क्रोधित होकर कहा, ‘ जरा जबान संभालकर बात करना। ऐक दिन दोपहर को चुपके से घर आकर देखना तुम्हारी औरतें तुम्हारे जाने के बाद किस किस को अपने कमरे में बुलाकर क्या क्या गुल खिलाती हैं। ’
इस पर दो तीन लोग उसे मारने को लपके। श्यामा ने भी अपनी चप्पल निकाल ली और हाथ उठाकर कहा, ‘ खबरदार ऐसी चप्पल सिर पर पड़ेगी कि सारी हेंकड़ी धरी रह जाऐगी। ’
चप्पल हाथ में देखकर वे लोग जहाँ के तहां रुक गऐ । वे ऐक ऐक करके धीरे धीरे वहां से चुपके से खिसकने लगे।
कन्हैया ने श्यामा को धक्का देकर कमरे के अंदर धकेला व कहा,
‘ हमें इनसे झगड़ा नहीं करना चाहिए। इन लोगों कि संख्या बहुत ज्यादा हैं । हम इनका सामना नहीं कर सकते। ’
इस पर श्यामा ने कहा, ‘मैं तो किसी के मुंह लगती ही नहीं पर ये सारी औरतें इकट्ठी होकर एक सप्ताह से मुझे ताने व गालियां दे रही थी। इनका सामना करना जरूरी था। ’
कन्हैया ने श्यामा को समझाकर कहा ‘ हाथी चले बजार, कुत्ते भूसें हजार’
हमें किसी के मुंह ही नहीं लगना । अपने काम से काम रखना चाहिऐ । बोलने वाले की जबान नहीं पकड़ी जा सकती है। ’
‘नीची करी नाड़, सौ कोस उजाड़ । ’
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हत्या का प्रयास
चैाथे दिन सुबह पांच बजे कन्हैया के दरवाजे पर किसी ने जोरों से दस्तक दी । बाहर अँधेरा था I श्यामा व कन्हैया गहरी नींद में थे। दोनों दरवाजे पर आवाज सुनकर उठ बैठे।
कन्हैया ने पूछा, ‘ कौन है ? ’
किन्तु कोई प्रत्युत्तर नहीं सुनाई दिया। कन्हैया ने तीन बार प्रश्न दोहराया किन्तु जबाब न पाकर वह दरवाजे की ओर बढ़ चला । श्यामा ने चेतावनी देते हुए कहा- ‘ सावधान ! बिना पहचाने दरवाजा न खोलना । चारों ओर हमारे दुश्मन घात लगाए बैठे हैं। किन्तु कन्हैया ने श्यामा की सलाह अनसुनी करके दरवाजा खोल दिया।
वह आठ दस लोगों को सामने खड़ा देख हक्का बक्का रह गया। उन सभी लोगों ने अपने मुंह पर कपड़ा लपेट रखा था। उन लोगों की सिर्फ आंखें ही दिखाई दे रही थी। उनमें से एक ने बाज की तरह झपट्टा मारकर कन्हैया को पकड़ लिया। वे उसे लात घूंसों से बुरी तरह मारते हुए घसीटने लगे। वे कन्हैया को मकान के बीच चौक में स्थित एक बड़े कुए की ओर ले जाने लगे।
श्यामा जोर से चिल्लाई, ‘ मैं अभी पुलिस मे रिपोर्ट करके आती हूं। तुम सबको जेल कराके छोड़ूंगी। ’ वह पुलिस स्टेशन की ओर जाने लगी। किन्तु इस बीच उसने सोचा कि यदि उन्होंने कन्हैया की हत्या कर दी तो ! वह भय से कांप उठी।
उसने दौड़कर कन्हैया को छुड़ाने का प्रयास किया। किन्तु उन लफंगों ने उसे धक्का देकर दूर गिरा दिया। इतने लठंगों के आगे उस असहाय अकेली महिला का कोई वश नहीं था। वह जोर से चिल्लाने लगी, ‘ बचाओ बचाओ ’।
उस मकान के सारे लोग शोर सुनकर जाग गए थे व बड़े कौतुहल से सारा नजारा चटखारे लेकर देख रहे थे। उनकी कन्हैया को बचाने में कोई रूचि नहीं थी।
कुछ देर बाद चार पांच लोगों ने कन्हैया को उठाकर कुए की पाल पर पटक दिया व उसे कुए में फेंकने ही वाले थे कि तभी पहली मंजिल से देख रही एक वृद्धा जोरों से चिल्लाई -
‘ सावधान बदमाशों ! यदि कन्हैया केा तुम मार तो डालोगे तो फिर खुद के अंजाम के बारे में भी सोचना।
तुम लोग फासी से बच जाओगे, यह समझना तुम्हारी बड़ी भूल होगी। पुलिस की मार के सामने बड़े से बड़े बदमाशों को भी जुर्म कबूल करना पड़ता है। सबको फांसी से कम सजा नहीं होगी, याद रखना। ’
वह वृद्धा उनमें सम्मिलित ऐक बदमाश चंद्रा की मां थी। वह अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अनेक बार मां के समझाने पर भी वह नहीं सुधरता था।
उस चेतावनी को सुनकर उन बदमाशों ने कन्हैया को छोड़ दिया। कन्हैया उनसे छूटकर अपने प्राण बचाकर कमरे में दौड़ पड़ा। वह बुरी तरह घायल हो गया।
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