Tees in Hindi Love Stories by Jyotsana Kapil books and stories PDF | टीस .....

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टीस .....

जैसे-2 उपन्यास अपने चरम पर पहुंचता जा रहा था दिव्या लेखक के भावों में डूब उतरा रही थी।वह उपन्यास के पात्रों के साथ रो रही थी,हँस रही थी। कहानी की समाप्ति के साथ नायिका के आँसू उसकी आँखों से बह पड़े।एक तीखा खालीपन उसे विचलित कर उठा।वह देर तक कथानक के प्रवाह में डूबती उतराती रही। शब्दों के कुशल चितेरे, उपन्यासकार आदित्य रॉय की तस्वीर को देखती रही।


कितनी सशक्त लेखनी है आदित्य की,क्या उन्होंने भी प्रेम को इतनी ही शिद्दत से महसूस किया होगा ? कैसे मानव मन के एक एक भावों को पकड़ लेते हैं वो ? कितना सूक्ष्म विश्लेषण है उनका ? वे स्वयं कैसे होंगे वास्तविकता में ? बहुत कोमल, भावुक और मन को भाने वाले ? अथवा कठोर , अहंकारी और अप्रिय ?


" अब सो भी जाओ यार-कब तक लाइट जलाए बैठी रहोगी " पति ऋषभ ने झुँझलाते हुए टोका तो जैसे वह सोते से जाग पड़ी।


" ये ऋषभ भी न....बस अपने से ही मतलब रखते हैं-दूसरे की भावनाओं से कोई लेना देना नहीं " उसने रोष में आकर लैम्प बन्द कर दिया।


लगभग 35 वर्षीय दिव्या की ज़िन्दगी बिलकुल उबाऊ व नीरस हो चली थी। ऋषभ बड़ी नीरस प्रकृति के व्यक्ति थे। वो भले और उनका काम भला । जीवन में अर्थोपार्जन के अतिरिक्त कुछ और भी आवश्यकताएं हैं ये जानते ही नहीं थे। हँसना-खेलना, घूमना-फिरना,परिवार को वक़्त देना, ये सब उनकी दिनचर्या में शामिल ही नहीं था। वे ऑफिस चले जाते और दोनों बच्चे स्कूल।जीवन में ठहराव आ गया था।कहीं कोई उथल पुथल नहीं। अपने खालीपन को भरने के लिए उसने इंटरनेट को अपना साथी बना लिया।पढ़ने की शौक़ीन तो थी ही, अब जैसे सारा संसार उसकी उँगलियों की हलचल में समा गया।


देश के जाने माने उपन्यासकार आदित्य रॉय की लेखनी ने उसे मोहित कर लिया। उनके हर उपन्यास को उसने ढूंढ कर पढ़ना शुरू कर दिया। जितना उन्हें पढ़ती उतना ही उनकी लेखनी की क़ायल होती जाती। तभी एक दिन सुना कि आदित्य किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए शहर में आने वाले हैं ,तो वह ख़ुशी से उछल पड़ी। उनसे मिलने का उसका ख्वाब अब पूरा होने ही वाला था।


कार्यक्रम चल रहा था और वह मन्त्र मुग्ध उन्हें सुन रही थी। लगभग 45 वर्षीय आकर्षक , ओजस्वी व्यक्तित्व,भावप्रवण आँखें,धीर गम्भीर स्वर और वाक् पटुता। कुल मिलाकर एक शानदार व्यक्तित्व के स्वामी।


" ऑटोग्राफ सर " उसने एक खूबसूरत छोटी सी डायरी उनकी ओर बढ़ा दी। उनके बढ़ते कदम थम गए। उन्होंने एक दृष्टि उसपर डाली और फिर उसका नाम पूछकर मुस्कुराते हुए अपना हस्ताक्षर दे दिया। उसने जल्दी-2 उन्हें बताया की उसे उनका लेखन अत्यंत प्रिय है,और उनकी समस्त रचनाएँ पढ़ चुकी है। उन्होंने विनम्रता से उसका आभार व्यक्त किया और पत्रकारों से बात करते हुए आगे बढ़ गए।


आदित्य से हुई वह छोटी सी मुलाकात उसके लिए अविस्मरणीय थी। कई दिन तक दिलो दिमाग पर वह छोटी सी भेंट छाई रही। इंटरनेट पर उसने उनके जीवन परिचय को ढूंढा। वे सोशल साईट पर भी सक्रिय थे। उसने तुरन्त उन्हें मित्रता प्रस्ताव भेजा। पर कई दिन तक इंतज़ार के बाद भी उधर से कोई प्रतिक्रिया न थी। एक बार पुनःप्रयास किया,पर इस बार भी निराशा ही हाथ लगी। कई बार उत्साहित होकर ऋषभ से आदित्य के बारे में बात करने की कोशिश की। पर उन्हें न साहित्य से कोई मतलब था न लगाव। उनके लिए साहित्य ऐसी वस्तु है जो व्यक्ति का समय और धन बर्बाद करती है। तो फिर भला साहित्यकार से क्या मतलब होता। उनके इसी नीरस व्यक्तित्व से दिव्या को शिकायत रहती थी। और वे उसे मूर्ख समझते थे। अभी भी आदित्य के लिए उसकी दीवानगी उन्हें एक मूर्खता से बढ़कर और कुछ नहीं लग रही थी। आदित्य के नए उपन्यास का आना उसके लिए एक बड़ी सूचना थी।उसने बाजार में उपलब्ध होते उसे खरीद लिया। यह देखकर वह ख़ुशी से झूम उठी की इस उपन्यास में आदित्य के जीवन परिचय के साथ उनका पता और फ़ोन न. भी था। कथानक में उनकी कलम का वही जादू क़ायम था। भावनाओं का वही चिरपरिचित ताना बाना। इस बार उसने फोन करके अपनी राय बताने का निर्णय लिया।


आदित्य का परिचित स्वर उसके कानों में गूँजा। उसने बताया की उनका नया उपन्यास वह पढ़ चुकी है और उसे बहुत पसन्द आया। यह भी बताया की कैसे एक कार्यक्रम के दौरान उनकी मुलाकात हो चुकी है। न जाने उन्हें याद आया अथवा नहीं परन्तु नई कृति की इतनी जल्दी और सुंदर प्रतिक्रिया पसन्द तो आनी ही थी उन्हें। आखिर एक लेखक चाहता ही क्या है ? अपने पाठक की प्रशंसा ही न , जो उन्हें मुक्त कण्ठ से मिल रही थी। उसने यह भी कहा की " मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ- दो बार आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज चुकी हूँ-प्लीज़-प्लीज़-प्लीज़ एक्सेप्ट कर लीजिये न " उन्होंने उसे भरोसा दिलाया की वे उसे स्वीकार कर लेंगे।


पुनः प्रारम्भ हुई एक प्रतीक्षा।परन्तु सप्ताह भर के भीतर ही उन्होंने अपना वादा पूरा किया।दिव्या आल्हाद से भर उठी।


जल्दी से उन्हें आभार का सन्देश भेजा। प्रतिउत्तर मिल जाने पर उसका हृदय खिल उठा। जब भी अपने भावों के आलोड़न से विवश हो जाती तो उन्हें सन्देश भेज देती। कभी जवाब मिलता और कभी नहीँ भी। ऐसे ही शनैः -2 बातों का क्रम चल निकला। कुछ समय पश्चात कभी-कभी से प्रारम्भ हुआ ये सिलसिला प्रतिदिन और फिर दिन में कई बार बातों तक आ पहुँचा।


दिव्या की प्रत्येक श्वास और हृदय के स्पंदन में आदित्य ही बस चुके थे। प्रत्येक क्षण उनका ही चेहरा ही उसकी आँखों के समक्ष रहने लगा। अक्सर फोन पर भी बात होने लगी । ये अंतर अवश्य आया था की अब पहल आदित्य की ओर से भी होने लगी थी। फोन अब हमेशा वे ही करते थे। गुड मॉर्निंग और गुड नाइट के सन्देश भी उनके ही होते। दिव्या एक तीव्र बहाव में बही जा रही थी।स्वयं को सम्हालने के सारे प्रयास निरर्थक सिद्ध हो रहे थे। आदित्य का आकर्षण उसे बुरी तरह से सम्मोहित कर चुका था। अब बात सिर्फ एक सिद्धहस्त लेखक और उसकी एक बड़ी प्रसंशिका तक नहीं रह गई थी। यद्यपि आदित्य ने कभी ऐसा कोई शब्द नहीं कहा की वो समझ पाती की वो उसके लिए किस प्रकार के भाव रखते हैं। सिर्फ एक पाठिका, एक मित्र, या कुछ और ?


कई बार वह सत्य जानने को व्याकुल हो उठती की वे उसके लिए कैसी भावना रखते हैं। पर स्पष्ट रूप से कुछ पूछने का साहस उसमे था नहीं। और सत्य जानने का कोई पैमाना भी न था। कई बार हृदय में अपराधी भाव भी पनपता।


" ये क्या कर रही हूँ मैं ? किस दिशा में अपने कदम बढ़ा दिए हैं मैंने ? क्या ये ऋषभ के साथ बेईमानी नहीं ? मुझे सिर्फ उनके प्रति समर्पित होना चाहिए , दो बच्चे हैं मेरे, यूँ बहकना ठीक नहीं मेरा, एक पर पुरुष के प्रति ऐसा उन्माद ? आखिर हैं कौन वो मेरे ? कुछ भी तो नहीं, कहीँ मेरा विवाह खतरे में न पड़ जाए-मुझे तो ऐसे सम्बन्धों से सदैव घृणा थी, फिर मैं ही अब ऐसे......? हे ईश्वर.....क्या करूँ मैं ?" वह अपना सर थाम कर बैठ गई। तीव्र वेदना ने उसे घेर लिया। " पर मैंने ऐसा भी क्या अपराध कर दिया ? " अब मन ने दूसरी राह अपनाई।


" कुछ भी तो नहीं- बस बात ही तो करती हूँ उनसे, ऋषभ के प्रति कौन सा दायित्व नहीं निभाया मैंने ? सब कुछ तो करती हूँ, किसी बात में पीछे नहीं हटती, पर क्या यही भाव उनके लिए महसूस करती हूँ ?......नहीं-उनके लिए भावों का ये आलोड़न कभी महसूस नहीं किया, यानि गलत कर रही हूँ मैं, किसी किशोरी की भाँति जबरदस्त खिंचाव महसूस कर रही हूँ, इस उम्र में ये सब पागलपन ? कितनी मूर्ख हूँ मैं " शूल की तीव्रता उसे आहत कर रही थी।


समय निकलता रहा और भावों का संघर्ष भी अनवरत चलता रहा। सब कुछ यथावत था। वही समय पाते ही बात करना,दिन में एक फोन कॉल और फिर अगले दिन की प्रतीक्षा। स्वयं पर से नियंत्रण छूट गया था उसका। तभी एक दिन आदित्य ने बताया की अगले सप्ताह वे एक सैमीनार के लिए उसके शहर आने वाले हैं। दिव्या को लगा मानो हृदय स्पंदन करना ही बन्द देगा। ख़ुशी से बावली हो उठी। एक-एक पल काटना अब दूभर हो रहा था।


तय हो चुका था की सैमीनार के पश्चात उनके गैस्ट हाउस में मुलाकात होगी। ऋषभ से आदित्य की बात करना वो बन्द कर चुकी थी। कहीं न कहीं ये अपराध बोध भी था की कहीं वे उसकी मनोस्थिति न जान जाएँ।


नियत समय से काफी पहले वह दर्पण के सम्मुख खड़ी थी। खुद को आलोचनात्मक दृष्टि से देखकर वह सोच में पड़ गई। आज कोई परिधान मन को भा नहीं रहा था। बहुत समय लगाकर यत्न से तैयार हुई। खुद को निहारा तो मन में स्वतः सवाल उठा " क्या मैं उन्हें अच्छी लगूँगी ?" इस प्रश्न का क्या अर्थ ? मस्तिष्क ने उससे पूछा। दुविधा में वह बैठ गई। जाये अथवा नहीं ? बहुत देर तक स्वयं से प्रश्न करती रही। तभी आदित्य की मिसकॉल आई। अर्थात वे अब सैमीनार से निकल चुके थे। स्वतः उसके कदम बढ़ चले दरवाजे की ओर।


सम्मोहित सी वह चली जा रही थी। ऑटो गैस्ट हॉउस के सामने रुका तो देखा आदित्य बेचैनी सिगरेट के कश लगाते बाहर ही खड़े थे। उसे उतरते देख शीघ्रता से आये और मना करने के बावजूद भी ऑटो का किराया देकर विदा किया।


" आइये " सम्मान से झुककर उसे इशारा किया व अंदर चल दिए।


अंदर जाकर चुपचाप वह सोफे पर बैठ गई।आदित्य ने तुरन्त फोन पर कॉफ़ी का ऑर्डर दिया और फिर सामने आकर बैठ गए। मुग्ध भाव से कुछ पल उसे निहारते रहे


" यू आर सो ब्यूटीफुल " उनका गम्भीर स्वर गूँजा।


" थैंक्स " उसे लगा की आज उसका संवरना सार्थक रहा। कॉफी और स्नैक्स के आने के साथ हल्की फ़ुल्की बातों का सिलसिला चल निकला। परन्तु जितनी सहजता से वह उनकी अनुपस्थिति में बात कर लेती थी आज सजग थी।कारण थी उनकी तीक्ष्ण दृष्टि जो उसे चुभ रही थी।


कुछ समयोपरांत वे उठे और बैग में से एक सुंदर पैकिंग से सजा पैकेट निकाला।


" एक छोटा सा गिफ्ट-आपके लिए "उसके हाथ की ओर वो पैकेट बढ़ा दिया। उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखा


" मेरे नए उपन्यास की प्रति, आपको भेंट कर रहा हूँ, इसकी नायिका का पात्र आपको ही ध्यान में रखकर गढ़ा है मैंने "


" ओह, अपनी प्रसन्नता मैं व्यक्त नहीं कर सकती, आईम टच्ड " उसने भावुक स्वर में कहा।


तभी एक गुलाबी रंग का ग़ुलाब भी उनके हाथों में नज़र आया।


" गुलाबी रंग से सजे इस ग़ुलाब के लिए "


रूमानी स्वर गूँजा। दिव्या के कपोल आरक्त हो उठे, पलकें झुक गईं।


आगे बढ़कर वो गुलाब उसके बालों में लगा दिया। जब उसने उस ऊष्म चुम्बन को महसूस किया तो विभोर हो ही रही थी की ऋषभ की जलती निगाहें खुद पर महसूस की। वह विचलित हो गई।उसका भाव परिवर्तन आदित्य ने भी लक्ष्य किया। गिरफ्त ढीली पड़ गई


" सॉरी- शायद मुझसे गलती हो गई " उनके चेहरे पर परेशानी के चिन्ह आ गए।


" सचमुच मेरा इरादा ऐसा न था- पर खुद पर से नियंत्रण खो बैठा मैं " उनके चेहरे पर अपराधी भाव था।


उधर दिव्या स्वयं पर से नियंत्रण खो बैठी थी। चेहरे पर अजीब से भाव थे। हृदय में गहरा संघर्ष चल रहा था। सही -गलत का द्वन्द, क्या करे,क्या न करे। टेबल पर रखा पानी का ग्लास उसने उठाया और एक साँस में हलक से नीचे उतार लिया। कुछ रुककर आदित्य की दी भेंट उठाई और खड़ी हो गई।


" अब मुझे चलना चाहिए, इससे पहले की ज्यादा देर हो जाए "


" हाँ -यही ठीक होगा "आदित्य ने सहमति में सिर हिलाया।


सारा रास्ता कैसे कटा उसे नहीं पता चला।घर आकर निढाल होकर वह बिस्तर पर गिर पड़ी। तीव्र वेदना से जैसे सिर फटा जा रहा था। अँधेरा किये वह यूं ही पड़ी रही। बच्चे नानी के घर गए हुए थे। इसलिए एकांत में बाधा डालने वाला कोई न था।


" इस तरह तुम अँधेरे में क्यों लेटी हो ? तबियत तो ठीक है न तुम्हारी ?" ऋषभ की आवाज़ से जैसे वह सोते से जाग पड़ी। उनका मस्तक पर रखा हाथ बहुत भला लगा उसे।


" क्या हुआ दिवि, चुप क्यों हो ?" उस स्नेह सिक्त स्वर ने जैसे जलते हुए कलेजे पर ठंडक पहुंचा दी। वह ऋषभ के सीने से लगकर सिसक पड़ी। बहुत देर तक रो लेने के बाद जी कुछ हल्का सा महसूस हुआ।


" अब तो बता दो देवी, बात क्या है , कितना परेशान हूँ मैं "


" कुछ नहीं "


" ओह समझा, बच्चों की याद आ रही है न " उत्तर में उसने सहमति में सर हिला दिया।


" मैं बहुत बुरी हूँ "


" तुम पागल हो- अब कुछ खाने को भी दोगी या नहीं ?"


" ओह नो " वह उछल पड़ी। मैंने अब तक कुछ बनाया ही नही है " आप चेंज करके आइये,मैं झट से कुछ बनाती हूँ " वह उठी तो ऋषभ ने उसका हाथ पकड़ लिया


" आज तो गज़ब लग रही हो,अच्छे-अच्छे का ईमान खराब हो जाए "


इन शब्दों ने उसकी आँखों के सामने पुनः वह दृश्य ला दिया जब आदित्य उसके करीब थे। वह विचलित हो गई।


" अब मुझे कुछ बनाने दीजिये, वरना थोड़ी देर में चिल्लाने लगेंगे " वह फुर्ती से रसोई की ओर चल दी।


दूसरे दिन आदित्य का गुड मॉर्निंग और गुड नाइट का मैसेज आया। उसने प्रतिउत्तर भी दिया ,परन्तु कोई और बात नहीँ हुई। इसके बाद कई दिन तक कोई बात नहीं हुई। फिर धीरे-2 आदित्य के सन्देशों में कमी आने लगी। अब वह कुछ पूछती तो उत्तर भी कभी आता और कभी नहीं। नया उपन्यास अब तक का बेहतरीन उपन्यास था। उसे पढ़कर वह फिर से उनके आकर्षण में बंधने लगी। पर उधर शायद ये डोर ढीली पड़ चुकी थी।अंत में आदित्य के सन्देश बिलकुल बन्द हो गए। उसके किसी भी सन्देश को अब वे पढ़ते तक न थे।


उनकी विमुखता उसे चुभ रही थी आकर्षण पुनः हावी होने लगा था। उसने कई बार सन्देश भेजकर मित्रता का रिश्ता स्थापित करने का प्रयास किया, पर सब बेकार था। फिर एक दिन आदित्य की आई डी सोशल साईट से गायब हो गई। कुछ दिन वह इन्तज़ार करती रही उनके आने का पर फिर वे नज़र न आये। एक दिन जब सब्र का बाँध टूट गया तो उसने उनका नम्बर मिलाया। वह भी कट गया। फिर......फिर......उसका हर प्रयास नाकाम हो रहा था।


" ओह " उसका माथा ठनका "उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया है , मैं मूर्ख इतने दिनों से ये बात समझ ही न सकी " वह स्वयं से बोली।


जितना सोचती उसका मस्तिष्क उलझता चला जाता।


" आखिर उन्होंने मुझे ब्लॉक क्यों किया ? क्या उस दिन मेरा रिएक्शन देखकर ? पर मैं गलत कहाँ थी ? उन्होंने खुद भी तो यही कहा था की वो ऐसा नहीं चाहते थे, क्या उन्होंने मुझसे रिश्ता सिर्फ इसीलिए बनाया था की मैं उन्हें.....पर वो ऐसे लगते तो नहीं, न जाने उनके मन में क्या है ?" उसने स्वयं से कितने ही प्रश्न कर डाले।पर कोई उत्तर उसे सन्तुष्ट नहीं कर पाया। जब तक उनसे सम्पर्क था वह बचना चाह रही थी। पर उनके परिदृश्य से गायब होते ही वह बेचैन हो उठी। जितना समय निकलता जा रहा था एक जूनून सा उसपर हावी होता जा रहा था। बात -2 पर क्रोध, चिड़चिड़ाना उसका स्वभाव बनता जा रहा था। बच्चे सहम गए थे और ऋषभ का धैर्य टूटने लगा था। उन्हें उसके बदलाव का कारण समझ नहीँ आ रहा था। कभी रोती कभी हँसती।


एक दिन उन दोनों में ज़ोरदार झगड़ा हो गया । तैश में आकर वह बच्चों को लेकर निकल पड़ी अपने माता पिता के घर। वे लोग उसे देर तक समझाते रहे। पर समझा न सके। अपने आपसे लड़ना जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो उसने आदित्य से एक मुलाकात करने का फैसला लिया।


दूसरे दिन एक सहेली से मिलने का बहाना करके वह चल पड़ी आदित्य के शहर की ओर। ज्यादा दूर नहीं था अतः दो घण्टे बाद वह उनके घर के सामने थी।


नौकर ने उसे बैठक में बैठाया और खबर करने चल दिया। थोड़ी देर बाद एक आकर्षक महिला ने वहाँ प्रवेश किया। वह तुरन्त पहचान गई।ये आदित्य की पत्नी अवन्तिका थी। आदित्य ने उसे अपने परिवार की फोटो दिखाई थी एक बार।अभिवादन के पश्चात उसने बताया की वह आदित्य की बहुत बड़ी प्रशंसिका है,और एक बार उनसे मुलाकात करके उनका ऑटोग्राफ लेने आई है। अवन्तिका एक खुश मिजाज महिला थी। उसने गर्मजोशी से उसका स्वागत किया और नौकर के साथ उसे आदित्य की स्टडी में भेज दिया।


करीने से संवरा अध्ययन कक्ष उसके स्वामी का परिचय दे रहा था। कई कलात्मक तैल चित्र, पुरुस्कार लेते हुए आदित्य की कई तस्वीरें ,ट्रॉफी , स्टील रैक में काँच के पीछे से झाँकते उनके उपन्यास। वह चारों ओर का निरीक्षण कर रही थी की आहट पाकर पलटकर देखा। सामने आदित्य का प्रिय चेहरा सामने था। उसे देखकर आदित्य एकदम चिहुँक से उठे


" आप ?" उनके आश्चर्य का ठिकाना न था।


" यहाँ ?"


" जी मैं " उसने धीमे स्वर में कहा " विश्वास कीजिये, आपके जीवन में कोई तूफ़ान लाने नहीं आई हूँ, सिर्फ एक सवाल का जवाब दे दीजिये, मैं चली जाऊँगी " कहते हुए एक पल को वह ठिठकी


" आपने मुझे ब्लॉक क्यों किया ? क्यों इस तरह मुझे एवोइड कर रहे हैं मुझे ? आखिर मेरा अपराध क्या है ?"


" कुछ मत पूछो दिव्या, कुछ चीजें दबी ढकी रहें यही बेहतर होगा "


" मैं यह जाने बगैर नहीं जाऊँगी, आपकी ये बेरुखी मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही आपने मेरा चैन छीन लिया है , वो वजह छीन ली जो मुझे बेहिसाब ख़ुशी देती थी, सन्तुष्टि देती थी "


" क्या आप मेरे साथ सिर्फ टाइम पास कर रहे थे ?"


" दिव्या " वे तड़प उठे " यूँ गाली तो न दो, अब तक इतना ही जाना है मुझे ? मैं टाइम पास करूँगा ? और वो भी तुम्हारे साथ ? अफ़सोस की तुमने बहुत गलत इमेज़ बना रखी है मेरी "


" तो क्या कहूँ ? क्या समझूँ ? मैंने तो सदा श्रद्धा रखी आप पर, लेकिन वो आप ही हैं जो बेवजह मुझसे दूर भाग रहे हैं "


" या ये सब इसलिये की उस दिन मैंने... आपके ... सहयोग नहीं किया " वह अटकते हुए बोली


" नहीं -कैसे समझाऊं तुम्हे ? मेरा वो इरादा हरगिज़ नहीं था, न जाने कैसे स्वयं पर से नियंत्रण छूट गया था मेरा, यकीन करो "


" तो फिर.....?"


" मैं हार गया हूँ दिव्या, स्वयं से लड़ते लड़ते, न जाने कब और कैसे, न चाहते हुए भी... मैं तुम्हारे आकर्षण से खुद को बचा नहीं पाया, मैं तुमसे प्रेम कर बैठा हूँ" उनके स्वर में एक कसक थी।


" हम दोनों ही तो विवाहित हैं, अपने अपने जीवनसाथी के प्रति दायित्व है हमारा, ये सही नहीं है " वह मौन सुनती रही।


" अपनी भावनाएं बता चुका हूँ, और तुम्हारी पढ़ सकता हूँ, ये प्रेम हमे बर्बादी और बदनामी के सिवा कुछ नहीं देगा, अपनी पत्नी से कोई शिकायत भी नहीं मुझे, वो बहुत अच्छी है , फिर भी न जाने क्यों ये कर बैठा मैं " उन्होंने आश्रय के लिए जैसे एक सिगरेट सुलगा ली।


" लौट जाओ तुम, फिर कभी पलटकर मेरी ओर मत देखना, कभी सम्पर्क करने का प्रयास मत करना, मैं तुमसे मिलना नहीं चाहता, बात करना, देखना, कुछ भी नहीं चाहता, वक़्त बड़े से बड़ा घाव भर देता है, ये घाव भी भर देगा " आदित्य का एक- एक शब्द उसे वेधता चला गया।


" जी, शायद आप ठीक कह रहे हैं, चलती हूँ, गुडबाय " उसका स्वर रूँध गया था।


"हूँ, काश की हम कभी न मिले होते " उनकी वाणी में गहरी पीड़ा थी " या फिर बहुत पहले मिले होते... तो आज ज़िन्दगी कुछ और होती "


उसने तड़पकर उन्हें देखा। अश्रु की दो बून्द नेत्रों से ढुलक पड़ी। आदित्य ने देखा तो विचलित होकर उसे थाम लिया। कोमलता से आँसू पोंछे


" जाओ, गॉड ब्लेस यू , सदा खुश रहो " कहते हुए उसके गाल थपथपा दिए। उसने कातर निगाह से उन्हें देखा और बाहर निकल गई।


महसूस हुआ मानो कोई उसके हृदय को काटकर निकाल रहा है। एक गहरी टीस थी एक सुंदर रिश्ता सदैव के लिए खो जाने की। एक कसक की, अब ये प्रिय चेहरा वो कभी नहीं देख पाएगी। ये परिचित स्वर अब खो गया फिर न सुन पाने के लिए। साथ ही एक अजब सा सन्तोष भी... की जिसे उसने दीवानगी की हद तक चाहा... वो भी उसके लिए उतना ही बेकरार है।


टूटी बिखरी हालत में घर आई तो देखा ऋषभ उसका ही इंतज़ार कर रहे थे।


" घर चलो दिव्या, तुम्हारे बिना जीना मुझे आया ही नहीँ, सूना घर काट खाने को आता है "


" आप सही वक़्त पर आये, मुझे भी आपकी बहुत ज़रूरत है "