Wo Farishta in Hindi Motivational Stories by Renu Gupta books and stories PDF | वो फरिश्ता

Featured Books
Categories
Share

वो फरिश्ता

यह कहानी टाइम्स गृप के समाचारपत्र सांध्य टाइम्स में 10 अक्तूबर, 2019 को प्रकाशित हो चुकी है।

वो फरिश्ता

“अंकल, आपने आज राखी क्यों नहीं बांधी? देखिये, मैंने कितनी सारी राखियां बाँधीं हैं। ये अनु दीदी की, ये तनु दीदी की, वो ना अंकल, दिल्ली में रहती हैं। और अब मेरी छोटी बहन भी मुझे राखी बांधेगी। भगवानजी ने मुझे एक छोटी बहन का गिफ्ट दिया है आज,” मेरे पाँच वर्षीय बेटे किंशुक ने आई. सी. यू. के बाहर वेटिंग लाउंज में बैठे एक नितांत अनजान शख्स से पूछा।

“बेटा, मेरी भी एक बहन थी, लेकिन वह तो आसमान का तारा बन गई”।

“आप उससे रोजाना बातें करते हो क्या? मैं तो अपनी बहन से रोज़ ढेर सारी बातें करूंगा,” किंशुक का धारा प्रवाह संवाद जारी था।

अपनी क्षुब्ध मनः स्थिति में मुझे हर चीज़ काटने को दौड़ रही थी, बेटे की भोली भाली चटर पटर भी। समय के साथ मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कनू, अपनी पत्नी को हमेशा के लिए खो देने की दहशत मेरे समस्त चेतना पटल पर शिद्दत से हावी होने लगी। कनू की इसी अस्पताल में अभी सुबह डिलिवरी हुई और उसने एक बिटिया को जन्म दिया, लेकिन आपरेशन के समय नसें फट जाने से उसकी ब्लीडिंग शुरू हो गई। कनू के ग्रुप का ब्लड संयोगवश इस अस्पताल या शहर के किसी भी अस्पताल मैं मौजूद नहीं था। मैं सभी जगह फोन कर अत्यंत हताश मनः स्थिति में बैठा था, कि डाक्टर ने मुझे फिर बुलाया और मुझसे कहा, मिस्टर अमन, अगर एक घंटे में आपने खून का इंतजाम नहीं किया तो मेरे लिए आपकी पत्नी को बचाना बहुत मुश्किल होगा”। डाक्टर के कहे ये शब्द मेरे जेहन में फ्रीज़ होकर अनवरत हथौड़े की मानिंद वार कर रहे थे। कनु को हमेशा के लिए खो देने का खौफ़ मेरे समस्त वज़ूद को लीलता प्रतीत हो रहा था। क्या करूँ, क्या ना करूँ, कुछ सूझ नहीं रहा था। इस छोटे से शहर में मैं अभी तीन माह पहले ही आया था, सो किसी से ज्यादा जानपहचान ना थी। इस शहर में आने से पहले मैं दिल्ली में माँ, बाबूजी और दो भाइयों के परिवारों के साथ संयुक्त परिवार में था कि अचानक मेरा तबादला इस शहर में हो गया। कनु को सातवाँ माह लगा ही था। माँ, बाबूजी सभी ने कनु की इस हालत में उसे अपने साथ अकेले यहाँ लाने के लिए बहुत मना किया लेकिन पहली पहली बार संयुक्त परिवार से दूर अपनी छोटी सी गृहस्थी में स्वतंत्र रहने के चाव में मैंने किसी कि भी एक ना सुनी और बाबूजी से कह दिया, “अभी तो डिलिवरी में समय है, मुझे अकेले कनु के बिना रहने में खाने पीने की बहुत असुविधा होगी। अम्मा को मेरे पास जल्दी से जल्दी भेज दीजिएगा”। अम्मा कल ही मेरे पास आने वाली थीं। आज कनु के साढ़े सात माह पूरे हो गए कि सुबह ग्यारह बजे के करीब कनु को प्रसव पीढ़ा शुरू हो गई और मुझे उसे यहाँ लाना पड़ा। बाबूजी को मैंने अस्पताल के लिए रवाना होने से पहले ही फोन कर दिया था, यहाँ आने के लिए। उन्हें यहाँ पहुँचने में दो ढाई घंटे और लगने वाले थे। अब डाक्टर ने खून का इंतजाम करने के लिए महज एक घंटे का वक़्त दिया था। विकट बेबसी में मेरी आँखों से धार धार आँसू बहने लगे। जेहन में सप्तपदी के समय पुरोहित के कहे गए शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे, “आज से आप पति पत्नी के सुख दुख साझा हुए,” और मेरा अन्तर्मन मुझे धिक्कारने लगा, “वह जो तेरा आधा अंग है, वह पल पल मौत के मुंह में जा रही है। तू उसकी जान बचाने के लिए क्या कर रहा है? अवश विवशता में मैं फूट फूट कर रो पड़ा, कि तभी कंधों पर एक स्पर्श से मैं तनिक सचेत हुआ। बगल की सीट पर बैठा वही बेटे से बातचीत करने वाला इंसान मुझे झिंझोड़ रहा था, हे मिस्टर, संभालिए अपने आप को। मुझे बताइये, क्या परेशानी है? शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ”। अपने आंसुओं को पोंछते हुए मैंने उसे सारी बातें बताईं। “आपकी वाइफ का ब्लड ग्रुप क्या है?”

“O-।“

“ओह, चिंता मत करिए, ईश्वर ने आपकी सुन ली । मेरा भी ब्लड ग्रुप यही है। चलिये, डाक्टर से कहिए, मेरा ब्लड लेने के लिए”।

“क्या, आप देंगे मुझे ब्लड? आपको तो मैं जानता तक नहीं। कोई रिश्ता नहीं आपसे मेरा,” मैंने घोर अचरज से उससे कहा।

“अरे भाई, इंसानियत का तो है, जल्दी करिए, डाक्टर से जा कर कहिए”।

डाक्टर ने आनन फ़ानन में उस इंसान का ब्लड लिया और मेरी पत्नी को चढ़ाया। खून चढ़ाने के बाद भी कनु को सदा के लिए खो देने का डर अभी तक खत्म नहीं हुआ। मन ही मन हनुमान चालीसा का जप करते हुए मैं ईश्वर से कनु कि जिंदगी की भीख मांग रहा था, कि तभी डाक्टर बाहर आई और मुझसे बोली, मिस्टर अमन, आपकी पत्नी अब खतरे से बाहर हैं। स्टेबल हैं। चिंता मत करिए, अब उनको कुछ नहीं होगा”।

डाक्टर के इन शब्दों ने मुझमें चेतना का संचार किया। अपने दु:ख में कनु की जान बचाने वाले उस फरिश्ते को ठीक से धन्यवाद तक अदा न कर पाया था। मैंने उस अजनबी के दोनों हाथ पकड़ लिए “आप मिस्टर,…….”?

“मैं तापस हूँ, तापस गुप्ता”।

“तापस, मैं किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँ? आपने अपना खून देकर मुझ पर जो कर्ज़ चढ़ा दिया है, मैं उसे ताउम्र नहीं चुका पाऊँगा। कभी भी आपको किसी भी चीज़ की जरूरत पड़े, आप बेहिचक मुझसे कहें”।

“अरे नहीं, मिस्टर अमन, आप यह कह कर मुझे शर्मिंदा ना करें। यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं। अपनों को खोने का दर्द मुझसे बेहतर कौन जानेगा? आपरेशन थियेटर में मेरा भाई मौत से लड़ रहा है। भयंकर ऐक्सीडेंट हुआ था उसका। पिछले ही वर्ष मेरी बहन की मौत भी एक ऐक्सीडेंट में हुई। कुछ देना ही चाहते हैं तो उसके लिए दुआ कीजिए, अभी उसका अपरेशन चल रहा है”।

“परमात्मा अच्छे लोगों का हमेशा साथ देता है, फ़िक्र मत करिए, सब ठीक होगा। मैं मन से भाई के लिए दुआ करूंगा।

तभी डाक्टर ने आका उसे खबर दी, “हॅलो मिस्टर तापस, आपरेशन वाज सक्सेसफुल”। मनन और उसके परिवारवालों ने राहत की सांस ली।

तभी मैंने कुछ सोचा और अस्पताल के बाहर जाकर दो राखियाँ ले आया। फिर मैंने तापस से कहा, “तापस, मैं आप जैसे अच्छे इंसान से जिंदगी भर का रिश्ता बांधना चाहता हूँ”।

“जी”।

“एक मिनिट आप मेरे साथ आई. सी. यू. में आयंगे”?

“जी”, तापस की आँखों में जिज्ञासा थी।

“आई. सी. यू. में कनु के बेड के पास जा मैंने उससे कहा, “कनु, तुम हमेशा कहती थी ना, मेरा कोई भाई नहीं, लो ये राखी बांहों इन्हें, इन्होंने ही अपना खून देकर तुम्हारी जान बचाई है”।

कनु ने कांपते हाथों से आँखों में अशेष कृतज्ञता का भाव लिए तापस के राखी बांधी।

फिजाँ इंसानियत की महक से लबरेज़ हो उठी।

रेणु गुप्ता

मौलिक

जयपुर

renugupta2066@gmail.com