The Author Prabodh Kumar Govil Follow Current Read प्रकृति मैम - हरा भरा वन By Prabodh Kumar Govil Hindi Biography Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books Trembling Shadows - 20 Trembling Shadows A romantic, psychological thriller Kotra S... Was it GHOST? Was it GHOST?A torch has enough light to make them reach to... HAPPINESS - 106 Dilbar He is a fool who does not understand the gestures of... Finding only You - 2 (yesterday, We read that Nivaan tell Rivaj that our work i... Trembling Shadows - 19 Trembling Shadows A romantic, psychological thriller Kotra S... 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पहुंचते सवेरा ही हो जाएगा।आज उस फ़िल्म की शायद उतनी याद नहीं है जितनी सीढ़ियों की।पत्र - पत्रिकाओं में लगातार लिखना शुरू हो जाने से आने वाली डाक की मात्रा भी बहुत बढ़ गई थी। कई पत्रिकाएं,अख़बार डाक से आने लगे थे। पत्र भी बहुत सारे आते। कई बार रचनाओं की स्वीकृति आती तो कई बार रचनाएं लौट कर भी आतीं। उन दिनों मुंबई में हिन्दी टाइपिंग की सुविधा भी बहुत ज़्यादा नहीं थी, इसलिए मैं ज़्यादातर लेख,कहानी आदि हाथ से लिख कर ही भेजता था।बहुत बार ऐसा होता कि कोई आलेख लौट कर आ जाता तो उसे दोबारा फ़िर कहीं भेजने के लिए संशोधित करते हुए दोबारा हाथ से ही लिखना पड़ता था। आने वाले पत्रों में यदि कोई पत्र रजिस्ट्री से आता तो उसका बहुत महत्व होता। कभी भुगतान के चैक होते तो कभी कोई महत्वपूर्ण सूचना। हम दोनों के ऑफिस जाने के कारण घर दिनभर बंद रहता। ऐसे में कोई रजिस्टर्ड पत्र आता तो पोस्ट मैन घर पर एक पर्ची डाल कर जाता कि आपका रजिस्टर्ड पत्र है,जिसे पोस्ट ऑफिस से प्राप्त कर लें। बाद में उसे मेरी पत्नी ऑफिस जाते समय डाकखाने से लेती। मैं सुबह नौ बजे ही घर से निकलता था जबकि उसे दस के बाद निकलना होता। जबकि ऑफिस दोनों का ही ग्यारह बजे का था।एक दिन घर पर डाकखाने की ऐसी ही पर्ची आई कि आपका रजिस्टर्ड पत्र है, पोस्ट ऑफिस से साइन करके ले लीजिए।संयोग से उस समय दो - तीन ज़रूरी पत्र आने वाले थे जिनका इंतजार था। एक तो सुनने में आया था कि काफ़ी समय पहले दी गई मेरी एक परीक्षा का फाइनल रिजल्ट निकल गया था और सफल होने वालों के कॉल लेटर्स आने लगे थे।दूसरे, पत्रकारिता की परीक्षा में स्वर्ण पदक मिलने के बाद मुझे दिल्ली प्रेस से भी सूचना मिली थी कि सरिता के तत्कालीन प्रबंध संपादक मुंबई आ रहे हैं और वे नरीमन प्वाइंट में मेरा इंटरव्यू लेंगे।आशाओं से भरा मैं रजिस्टर्ड पत्र का इंतजार कर रहा था। संयोग से किसी ज़रूरी मीटिंग के कारण मेरी पत्नी को सुबह जल्दी जाना था, और फिर दो दिन की सरकारी छुट्टियां आ रही थीं। मुझे लगा कि मुझे पत्र आज ही प्राप्त कर लेना चाहिए ताकि कहीं कोई अवसर हाथ से न निकल जाए।मैंने ऑफिस से छुट्टी लेकर उस दिन पोस्ट ऑफिस जाने का कार्यक्रम बनाया।डाकघर में काउंटर पर घर आई हुई पर्ची दिखा कर मैंने अपने नाम आया हुआ पत्र मांगा। कुछ देर इधर - उधर तलाश करने के बाद एक आदमी ने मुझे एक लिफ़ाफा लाकर दिया और कहा- सर, रजिस्ट्री नहीं,आपके नाम ये बैरंग पत्र है। इस पर एक रुपए का टिकट कम है,आप दो रुपए दे दीजिए।मैंने हताश होकर दो रुपए दिए और पत्र लिया। उसे वहीं खोलकर देखा तो उसमें किसी मित्र का बधाई कार्ड था जो उसने मुझे पत्रकारिता का कोर्स पूरा होने पर भेजा था। गलती से टिकट कम लगा दिया था।मैंने पोस्टमास्टर के पास जाकर शिकायत की कि बैरंग पत्र का इंटिमेशन अपने रजिस्ट्री कह कर क्यों दिया है। वे बोले, सॉरी सर, पर बैरंग पत्र लेने लोग आते नहीं हैं,इसलिए ऐसा लिखना पड़ता है।मैं मन ही मन आम जनता को सराहता हुआ घर आया, क्योंकि छुट्टी तो मैं ले ही चुका था। ख़ैर, मैंने दिन को व्यर्थ नहीं जाने दिया और एक कहानी लिख डाली, जो जल्दी ही नवभारत टाइम्स में छपी। कहानी का शीर्षक था "सपाट अक्स"।तब तक मैं काफ़ी सारी कहानियां भी लिख चुका था जो सारिका,नवनीत,सरिता, मुक्ता, नवभारत टाइम्स और कई लघुपत्रिकाओं में छप चुकी थीं।मुझे कभी - कभी लगता था कि मेरी शुरुआती कहानियों के शीर्षक मेरे अपने भोगे हुए पलों से ही जाने - अनजाने आए हैं।मेरी कहानियां "हड़बड़ी में उगा सूरज", "सॉफ्ट कॉर्नर","सपाट अक्स","ख़ाली हाथ वाली अम्मा" आदि ऐसी ही कहानियां थीं।मैं कभी - कभी धर्मयुग के कार्यालय में भी जाता था। माधुरी और फिल्मफेयर में भी लिखने लगा था।धर्मयुग उस समय हिंदी की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका मानी जाती थी,और देश भर के प्रसिद्ध साहित्यकारों को उसमें पढ़ा जाता था।पत्रिका साप्ताहिक थी। हर अंक में केवल एक कहानी उसमें छपती थी। पर लेखक के फोटो और परिचय के साथ सुन्दर साजसज्जा से जिसकी कहानी वहां छप जाती वो देश का प्रतिष्ठित लेखक हो जाता। और किसी रचना के साथ लेखक का फ़ोटो नहीं छपता था।एक दिन बैठे - बैठे मैंने मित्रों के बीच घोषणा कर दी कि मैं भी धर्मयुग में पहली बार अपनी फ़ोटो के साथ ही छपूंगा। अब मैं उसमें कभी कोई लेख,कविता या छोटी रचना नहीं भेजता था,केवल अपनी नई कहानी,जो भी लिखी होती, उसे ही वहां भेजता।कहानी लौट आती। मेरे पास धर्मयुग से कुल सत्ताइस लिफ़ाफे लौट कर आ गए।इन सभी कहानियों को बाद में दूसरी पत्रिकाओं ने छापा। कुछ कहानियों को संशोधित करके दो - तीन बार भी धर्मयुग में भेजा।पर वो रिजेक्ट होकर वापस आती रहीं।यहां तक कि एक बार स्वयं संपादक डॉ धर्मवीर भारती ने भी मुझसे कहा- तुम अपने लेख क्यों नहीं भेजते हो? कहानियां तो हम साल भर में केवल बावन छापते हैं,और कई बार तो एक - एक दिन में साठ कहानियां आ जाती हैं। अंबार लगा रहता है।मैंने कुछ नहीं कहा।किन्तु धर्मयुग के अगले ही होली विशेषांक में एक पृष्ठ पर रामेश्वर शुक्ल अंचल, चंद्रसेन विराट और मेरा फोटो एक साथ एक हास्य लेख के साथ छपा।मेरा संकल्प पूरा हुआ। उसके बाद मैं अन्य रचनाएं भी वहां भेजने लगा और कई लेख, व्यंग्य, कविताएं आदि मेरे धर्मयुग में छपे। "धूप" मेरी धर्मयुग में छपने वाली पहली कहानी थी। जिसमें एक हिन्दू परिवार में बचपन से ही एक मुस्लिम बच्चा "मुन्नू" किसी बुज़ुर्ग महिला की देखभाल के लिए नौकर होते हुए भी घर के सदस्य की तरह रह रहा है। किन्तु चौदह साल बाद शहर में एक दिन हिन्दू मुस्लिम दंगे और कर्फ्यू के दौरान बूढ़ी दादी पहली बार उसे उसके असली नाम से पुकारती है और वो नवयुवक हो चुका लड़का घर की छत पर जाकर अकेले में रोता है।कुछ कहानियां सारिका में भी छपी।इन्हीं दिनों मैंने कुछ रचनाओं के अंग्रेज़ी अनुवाद भी किए। अंग्रेज़ी से हिंदी में अनूदित मेरी कुछ कहानियां कहानीकार, सारिका आदि पत्रिकाओं में छपी।मैंने समरसेट माम की कई कहानियों के अनुवाद किए।इन्हीं दिनों एक नई बात मेरे देखने में आई। कुछ पत्रिकाएं सीधे सीधे किसी राजनैतिक,सांस्कृतिक या वैचारिक धारा को पोसती थीं। वो किसी भी घटना को एक खास चश्मे से देखती थीं। उनके लिए समग्र जीवन या आपके अनुभवों का कोई महत्व नहीं था। वे केवल लेखों में ही नहीं, बल्कि कहानी, कविता में भी अपना मनपसंद विचार ढूंढ़ती थीं।बाकायदा आपसे कहा जाता था कि आप कहानी में से ये बात निकाल दीजिए,या इसका अंत इस तरह कर दीजिए।मैं उनसे पूछता कि ये मेरी कहानी है या आपकी?चंद साहित्यकारों- संपादकों के इस रुख के चलते मुझे वो साहित्यकार बौने और उनकी पत्रिकाएं सर्कस नज़र आती थीं। मैं उनसे दूरी बना लेता था।इस बारे में मेरी कई संपादकों से सीधी बात हुई। एक बार एक नामी साहित्यकार संपादक ने मुझसे कहा- आपके पात्र ने ऐसा निर्णय क्यों लिया, इससे बेहतर था कि वो यूं करता!मैंने उनसे कहा- उस बेचारे को क्या पता था कि आप कौन से पंथ के हैं? उसने तो जो भोगा, उसके अनुसार उसका मानस बन गया।डॉ धर्मवीर भारती ने मुझसे ये भी कहा था कि कुछ लघु पत्रिकाओं के संपादक हमें व्यावसायिक घरानों की पत्रिका कह कर कोसते भी रहते हैं, और हमारे पास अपनी कहानी कविताओं का अंबार भी लगाए रहते हैं। वे चाहते हैं कि हम उन्हें छाप कर देशभर में ख्यात भी कर दें और वे अपनी पत्रिका के माध्यम से अपने संकीर्ण विचार - टापू पर अपना साम्राज्य लेकर बने भी रहें।एक बार इस बारे में कथाबिंब के संपादक अरविंद से भी विस्तार से बात हुई। हमने आपसी विचार - विमर्श से पत्रिका में एक नया स्तंभ "आमने सामने" शुरू किया जिसमें हर बार किसी एक लेखक से उसकी निजी बात और रचना प्रक्रिया पर विस्तृत टिप्पणी मंगवाई जाती थी और उसे लेखक की प्रतिनिधि रचना के साथ छापा जाता था। ये स्तंभ काफ़ी लोकप्रिय हुआ और इसमें देशभर के नामचीन लेखक शामिल हुए।इन्हीं दिनों मेरा परिचय कमलेश्वर से भी हुआ और मैं उनके कार्यालय में आता जाता भी रहा। आकाशवाणी के बाद जब वो मुंबई में काफ़ी समय देने लगे थे तब फ़िल्मों की पटकथा, श्रीवर्षा, कथायात्रा आदि के माध्यम से उनकी सक्रियता और दृष्टि मुझे आकर्षित करती थी।इस्मत चुग़ताई,मंटो, राही मासूम रज़ा, कृष्णा सोबती, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि मेरे पसंदीदा लेखक बनते चले गए। ये विलक्षण, अद्भुत और कल्पनातीत था कि इनमें से कई के साथ मुझे प्रत्यक्ष भेंट करने का अवसर मिलता रहा।राजेन्द्र यादव, अमृता प्रीतम,विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, हरिवंश राय बच्चन,रामेश्वर शुक्ल अंचल,शरद जोशी, हरि शंकर परसाई से न केवल मिलने और बातचीत करने का मौका मिला, बल्कि कुछ के साथ तो काम करने का मौका भी मुझे मिला।एक दिन तो ऑफिस की छुट्टी लेकर भी मुझे बैरंग पत्र मिल गया था लेकिन जल्दी ही दिल्ली प्रेस का वो रजिस्टर्ड पत्र भी आ गया जिसमें मुझे दिल्ली प्रेस का मुंबई का विशेष संवाददाता नियुक्त किया गया था। मुंबई में हुए मेरे इंटरव्यू के बाद मुझे मेरा परिचय पत्र भी भेज दिया गया था। अब मैं सरिता, मुक्ता, भू भारती आदि पत्रिकाओं के लिए नियमित लिखता था।लेख भी होते और कहानियां भी। टिप्पणियां भी होती थीं। मेरे खींचे हुए कुछ फोटोग्राफ भी छपते थे। मैंने अपना एक सहयोगी फोटोग्राफर भी नियुक्त कर लिया था। हम दोनों साथ - साथ निकलते और फीचर्स तैयार करते।एक दिन एक दिलचस्प नज़ारा देखने को मिला। हम लोग छुट्टियों में मुंबई से अपने घर जा रहे थे। ट्रेन में हमारे सामने की सीटों पर एक परिवार बैठा था जिसमें एक पति - पत्नी और उनके दो किशोर बच्चे थे। दोपहर के समय जब सब सवारियां लगभग उनींदी सी होती हैं तब वो दोनों भाई बहन एक साथ मिलकर एक सरिता हाथ में लेकर पढ़ने लगे, जो कुछ देर पहले उनकी मम्मी पढ़ते - पढ़ते सो गई थीं।सरिता पलटते हुए उन्हें मेरा खुद का एक चित्र दिखाई दिया। सरिता में "सरिता के लेखक" शीर्षक से किसी एक लेखक का फ़ोटो आरंभिक पन्नों पर छापा जाता था। उनके पास सरिता का जो अंक था, संयोग से उसमें मेरा ही फ़ोटो था। वो दोनों एक दम से उत्तेजित हो गए और मुझे वो चित्र दिखाने लगे।उन्होंने नींद में से अपने माता - पिता को भी जगा दिया।नींद से जागने के कारण पहले तो उनकी मम्मी झल्लाई पर फ़िर पूरी बात सुन कर मुस्कराने लगी। उन्होंने मेरी ओर देखकर मुझे अभिवादन भी किया।उसके बाद लड़की और उसकी मम्मी तो पेज़ खोलकर मेरा आलेख पढ़ने लगे पर लड़का सीट से उठकर मेरे पास ही आ बैठा। वो काफी देर तक तरह- तरह के सवाल करता हुआ मुझसे बातें करता रहा।वो शायद बारहवीं कक्षा का छात्र था। बहन कुछ छोटी थी।मेरे ऑफिस में धीरे धीरे ये जानकारी फैलने लगी कि मैं अब पत्रकारिता पर ही ध्यान देना चाहता हूं। जबकि मेरे साथ के दूसरे लोग बैंकिंग, अकाउंट्स, मैनेजमेंट आदि में डिग्रियां बढ़ाने में लगे थे। और एक दूसरे के प्रति सम्मान होते हुए भी हमारे बीच एक दूसरे के प्रति उदासीनता भी पनप रही थी।इस बीच फ़िल्म पत्रिका माधुरी ने एक नया स्तंभ शुरू किया - "आपकी कहानी फ़िल्म निर्माताओं तक कैसे पहुंचे"। इसमें वो एक कहानी छापते थे ताकि यदि किसी निर्माता को आपका स्टोरी आइडिया पसंद आए तो वो संपर्क करके कहानी पर पूरी पटकथा लिखवाने के लिए संपर्क कर सके।यद्यपि इसमें इस बात की भी संभावना थी कि आपका स्टोरी आइडिया पढ़ने के बाद कोई आपसे संपर्क न करके अपने कहानी विभाग में ही उस पर स्क्रिप्ट डेवलप करवा ले। उस समय तक ज़्यादातर बड़े निर्माता - निर्देशकों ने अपने निजी कहानी विभाग बनाने शुरू कर दिए थे।माधुरी के इस स्तम्भ में पहली कहानी डॉ अचला नागर की "तलाक़ तलाक़ तलाक़" छपी, जिस पर जल्दी ही फ़िल्म "निकाह" बनी। निकाह एक ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्म थी जिसने माधुरी के प्रयास की सार्थकता सिद्ध कर दी।उसी समय मेरी भी एक कहानी "तो क्या हुआ" शीर्षक से माधुरी में छपी। इसके बाद मैंने फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन की सदस्यता भी ले ली।इसका कार्यालय दादर में था। कभी - कभी वहां जाने पर इस क्षेत्र के लोगों से मुलाक़ात भी होती और चर्चाएं भी होती थीं।मैंने अपने कुछ मित्रों की मदद से फ़िल्म ट्रेड पत्रिका में अपने विज्ञापन भी देने शुरू कर दिए थे।मुझसे कुछ निर्माताओं ने संपर्क भी किया। मैंने दो तीन विज्ञापन फ़िल्में भी लिखीं।निर्माता निर्देशक भीमसेन से बात होने और उनकी फ़िल्मों की तरह की पटकथा की मांग होने पर मैंने अपनी कुछ कहानियों को अंग्रेज़ी में भी तैयार किया।इन्हीं दिनों एन एफ डी सी ने अच्छी कहानियां चुनने के लिए, कहानियों पर पुरस्कार या अनुदान देने की योजना भी शुरू की। मेरी कहानी "सतह पर झुका क्षितिज" इसमें "इनवर्टेड होराइजन" नाम से एक निर्माता ने दाखिल की। कहानीकार को तब केवल दस हज़ार रुपए दिए जाते थे।किन्तु मैंने ये भी अनुभव किया कि इस क्षेत्र में क़िस्मत आजमा रहे लोग पैसे के प्रति पूरी तरह बेपरवाह होते थे। उनका तो केवल ये सपना होता था कि जो उनके दिमाग़ ने सोचा,वो पर्दे पर दुनिया देखे।मेरी पत्नी का स्वास्थ्य अब पूरी तरह सुधर चुका था। पहले प्रसव की पीड़ा और असफलता के बाद हमें डॉक्टर से ये हिदायतें भी मिली थीं कि हम इस दिशा में जल्दी फ़िर कुछ न सोचें।हम दोनों ही अपने - अपने कामों में सिर से पैर तक डूबे हुए थे और हमें ये ख्याल तक न था कि डॉक्टरों की दी हुई मियाद कितनी निकल चुकी है और कितनी बाकी है!पहला प्रसव एक जटिल सिजेरियन ऑपरेशन था,जिसके कारण मेरी पत्नी के शरीर पर ऑपरेशन के जो निशान आए,उन्हें लेकर वो बहुत चिंतित रहती थी। उसके दिमाग़ में हर स्त्री की तरह ये शंका भी थी कि ये आंतरिक "कुरूपता" कहीं उसके आकर्षण में कमी लाने वाली न सिद्ध हो। किन्तु मैंने इस संदर्भ में अपनी पत्नी को न केवल गहराई से समझाया बल्कि ये विश्वास भी दिलाया कि शरीरों पर अवलंबित प्रेम वस्तुतः प्रेम होता ही नहीं।उसे इस ओर आश्वस्त करने की कोशिश में ही शायद मेरी कहानी "अपाहिज़" का ताना बाना बुना गया। मैं खुद कई बार ये अनुभव करता रहा कि इस कथानक में मैं किसी भी किस्म की जिस्मानी कमी या अपंगता को जमकर बेअसर करने की पुरजोर कोशिश करता रहा। अतिरेक की हद तक जाकर भी मैंने अपनी बात कही। संभवतः मैं अवचेतन में अपनी पत्नी से ही संवाद करता रहा।ये कहानी कई जगह छपी। बाद में मेरी किताब में भी।कभी - कभी मुझे बहुत शिद्दत से लगता था कि मुझे अपने परिवार से इस तरह दूर होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। इस समय अवश्य ही उन्हें मेरी ज़रूरत होगी। लेकिन घर से इतनी दूर रहते हुए अपने भाई ,बहन और मां के लिए किया भी क्या जा सकता था!यहां मुंबई में मेरी एक रिश्ते की बहन भी थीं जो पेडर रोड पर रहती थीं। कभी - कभी हम लोग उनके घर चले जाते थे,तब परिवार की बातें होती थीं और उनके व मेरे परिवार के बारे में एक दूसरे से पूछ- बता कर हम अपनी ज़िम्मेदारियों की इतिश्री कर लेते थे।वे भी हम लोगों को बताती थीं कि यहां आने के बाद अब उनका परिवार बस पति और बेटे तक सिमट कर रह गया है।उन्होंने आरंभ में विल्सन कॉलेज में समाज शास्त्र पढ़ाया था किन्तु बाद में नौकरी छोड़ दी और अब वे संगीत का अभ्यास करती थीं।वो अच्छी गायिका भी थीं।पत्र- पत्रिकाओं में मुझे पढ़ती भी रहती थीं।उन्हीं दिनों मुंबई जनसत्ता अख़बार समूह ने एक साप्ताहिक पत्रिका "हिंदी एक्सप्रेस" निकाली। इसके संपादक के रूप में भोपाल से शरद जोशी को बुलाया गया। वे अब सपरिवार मुंबई आ गए थे और नवभारत टाइम्स में "प्रतिदिन" शीर्षक से एक नियमित कॉलम भी लिखने लगे थे।शरद जोशी से मेरा परिचय हुआ और मैं कभी - कभी उनसे मिलने नरीमन प्वाइंट जाने लगा।जोशी जी ने मुझसे भी कुछ लेख हिंदी एक्सप्रेस के लिए लिखवाए।एक दिन मैं उनके ऑफिस पहुंचा तो वे मुझे देखते ही बोले- पेडर रोड पर किसी कारण से ट्रैफिक जाम हो गया है, सैकड़ों गाड़ियां रुकी पड़ी हैं, उस पॉश इलाक़े में लता मंगेशकर और आशा भोंसले जैसी हस्तियां रहती हैं,देखो इस पर कोई आलेख बन सकता है क्या?उस दिन शनिवार था। मैं पेडर रोड के लिए निकल गया। वहां जाकर देखा तो सचमुच स्थिति विकट थी। जाम अभी - अभी खुला था और अब ट्रैफिक निकलने लगा था। जब लोगों से बात करके इसका कारण जानने की कोशिश की तो एक मज़ेदार घटना सामने आई।दरअसल वहां एक बिल्डिंग "केनिल वर्थ" में एक बच्चा अपने घर में बैठा होम वर्क कर रहा था कि खिड़की में कहीं से एक बिल्ली का बच्चा आकर बैठ गया।बच्चा पहले तो डरा, फ़िर उसने बिल्ली के बच्चे को भगाने के लिए डराने की कोशिश की। घर इमारत की सत्ताइसवीं मंज़िल पर था, बिल्ली के बच्चे ने घबरा कर खिड़की से छलांग लगा दी। वहां से बिल्ली का बच्चा दीवार के सहारे एक ऊंचे नारियल के पेड़ पर गिर कर फंस गया,और अब जान बचाने के लिए चिल्लाने लगा।उधर बच्चे ने जब बिल्ली के मासूम बच्चे को जीवन के लिए संघर्ष करते देखा तो अपना कर्तव्य समझ कर फायर ब्रिगेड को फोन कर दिया। फायर ब्रिगेड आई और भीड़ भरी सड़क पर सीढ़ियां लगा कर नारियल के पेड़ से बिल्ली के बच्चे को उतारने की मुहिम में व्यस्ततम इलाक़े का ट्रैफिक जाम हो गया।मैंने एक आलेख लिखा - "तू पेड़ पे चढ़ जाएगी मैं फायर ब्रिगेड बुलाऊंगा", जिसे अगले सप्ताह शरद जोशी ने हिंदी एक्सप्रेस के बीच के दोनों पृष्ठों पर भव्य साज सज्जा के साथ छापा।तब तक फ़िल्म "बॉबी" का गीत 'झूठ बोले कौआ काटे' लोगों की जुबान से ओझल नहीं हुआ था। ‹ Previous Chapterप्रकृति मैम- उगा नहीं चंद्रमा › Next Chapter प्रकृति मैम - आई हवा Download Our App