Domnik ki Vapsi - 29 in Hindi Love Stories by Vivek Mishra books and stories PDF | डॉमनिक की वापसी - 29

Featured Books
Categories
Share

डॉमनिक की वापसी - 29

डॉमनिक की वापसी

(29)

पिछले दो तीन दिन से दिल्ली में सर्दी बहुत बढ़ गई थी. अकेले आदमी के लिए इस मौसम की उदास शामें और लम्बी रातें कितनी बोझिल होती हैं यह दीपांश ने इन दिनों बहुत शिद्दत के साथ महसूस किया था. तीन दिन से ऊपर हो गए थे पर रेबेका का कोई फोन नहीं आया था. जैसे बिना कहे ही कोई मिलने का क़रार था... जिसके चलते बार-बार उसे फोन करने को मन कर रहा था. लग रहा था- इति का पता बता कर रेबेका ने अपनी जिंदगी खतरे में डाली थी.. क्या इसकी कीमत अब रेबेका को चुकानी पड़ेगी... जब उसका कोई फोन नहीं आया तो दीपांश ने ही उसे फोन किया. फोन बंद था... सुबह जैसे सब्र का बांध टूट गया.

खिड़की एक्सटेंशन के रेबेका के कमरे तक वह इससे पहले एक बार ही आया था, और तब रात के समय उसे नीचे सीढियों तक छोड़ के ही चला गया था.

पर आज जब दिन के समय दीपांश उसके कमरे की तरफ बढ़ रहा था तो उसकी गली में एक अलग ही दुनिया साँस ले रही थी. गली में एक चाय की दुकान और दो चार रोज़मर्रा के सामन की छोटी-मोटी दुकानों के अलावा केवल आखिर में एक नाई की दूकान के अलावा कोई बड़ी दूकान वहाँ नहीं थी पर फिर भी गली में आने-जाने वालों की चहल-पहल अच्छी-खासी थी. गली में बहुत अन्दर तक आने के बाद उसे ऐसा लगा जैसे वह मकान नंबर भूल गया है. तब उसने एक दुकानदार से पूछ था, ‘यहाँ एक पीले से रंग का लाल दरवाज़े वाला मकान था जिसके फर्स्ट फ्लोर पर मेरी एक फ्रेंड रहती हैं- रेबेका, मैं थोड़ा लोकेशन भूल गया हूँ क्या आप कुछ मदद कर पाएंगे.’

दुकानदार ने बहुत रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा था, ‘यह पूरा मोहल्ला ही फ्रेंड लोग से भरा पड़ा है.’

इसपर जब दीपांश ने उसे घूरकर देखा तो बोला, ‘मेरा मतलब है सारे घरों के फर्स्ट और सेकेण्ड फ्लोर पर पेइंग गेस्ट लड़का-लड़की ही रहता है. क्या नाम बताया था आपने?’

दीपांश ने न चाहते हुए भी नाम दोहराया, ‘रेबेका...’

‘वो लाल फाटक वाले मकान के फर्स्ट फ्लोर पर जो रहतीं हैं?’

दीपांश ने हाँ में सिर हिलाया.

‘परसों रात में उनके कमरे पर कुछ झगड़ा-झंझट हुआ था. बहुत देर तक आवाज़ आती रही फिर उसके बाद दिखी नहीं.’ उसने गली के दूसरे सिरे की तरफ हाथ हिलाते हुए कहा.

वो आदमी आगे भी कुछ बोलता रहा पर दीपांश उसकी बात सुनने के लिए रुका नहीं. भीड़ को चीरता हुआ वह उस दिशा की ओर बढ़ गया जिस तरफ इशारा करके वह बात कर रहा था. कुछ तेज़ क़दम चलने के बाद वह उस घर के ठीक सामने पहुँच गया. एक अधेड़ महिला ने उसे रोक कर कुछ कहने की कोशिश की थी, पर वह दनदनाता सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया, ऊपर पहुँचकर वह दरवाज़ा पीटने लगा, पर भीतर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी।

तब तक पीछे से आवाज़ देने वाली अधेड़ महिला ऊपर आ गई थी। उसने लगभग चीखते हुए कहा, ‘अंधे हो क्या? तुम्हें इतना बड़ा ताला नहीं दिख रहा है! चाबी मुझे देकर गई है.’

‘कहाँ’

‘कहाँ गई क्या पता? तुम्हें मिले तो कहना- महीना पूरा होने में तीन दिन बचे हैं. अगर तब तक नहीं लौटी तो मैं दूसरा किराएदार रख लूंगी. दो दिन पहले एक आदमी झगड़ा करके गया था. पहले भी एक दो बार आया था इधर, उसके साथ.’ उसके बाद जैसे उसका काम और उसकी बातें ख़त्म हो गई थीं. वह एक घुटना टेड़ा करके धीरे-धीरे नीचे उतर गई.

दीपांश वहां से सीधा अनंत के कमरे पर पहुँचा था. अनंत कमरे पर नहीं थे थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद वे कहीं से थके और हताश लौटे थे. दीपांश उनसे जो कहना चाहता था अनंत को जैसे पहले से ही उसका अंदेशा था. उनके चेहरे से लग रहा था जैसे वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करके थक चुके थे. दीपांश की पुलिस के पास जाने की बात सुनके उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. फिर थोड़ी देर बाद, गहरी ऊब और बेचैनी के साथ बोले- ‘मुझे पुलिस पर बिलकुल भरोसा नहीं. तुम अपनी तरफ से कोशिश जारी रख सकते हो पर फिलहाल उसका दिल्ली या उसके आसपास मिलना मुश्किल है’ उसके बाद कुंडे पर टंगी चिट्ठियों को उतारकर उसमें से कुछ चिट्ठियाँ छांटने लगे थे.

अनंत की बातों ने आज संभालने के बजाय एक अँधेरे कुँए में धकेल दिया था. वहाँ से चला तो रास्ते, शहर, धूप, हवा सब बदली हुई थी.

कमरे पर पहुँचा तो लगा वह सामने खड़ी है और अभी आगे बढ़कर उसके माथे पर हाथ रखके, उसके बालों को पीछे करते हुए कहेगी, ‘तुम्हें अपनी कला में वापसी करनी है.’ निढाल होकर बैड पर बैठ गया.

समय की टिक-टिक के साथ समय बीत रहा था और भीतर कुछ रीतता जा रहा था. दिन का बीतना और रात का उतरना उसे कभी इतना डरावना नहीं लगा था. कमरे की घुटन से बचने के लिए खिड़की खोल दी...

रेबेका जब से मिली थी उसके लिए एक रहस्य ही थी....

जैसे अनायास एक दिन नेपथ्य से निकलकर उसके साथ चलने लगी थी आज उसी तरह किसी धुंधलके में खो गई थी... उसके बारे में सोचते हुए रह-रहके गले में कुछ फँस जाता था. इन दिनों में उसके लिए क्या क्या नहीं सोच लिया था...

ठीक अभी कुछ दिन पहले ही तो जैसे मन की कोई फाँस निकली थी... सोचा यूँ इतनी आसानी से उसे जाने नहीं देगा.. इति को उसने ढूँढा था, उसके लिए. आज जब वही खो गई है तो उसे कौन ढूँढेगा.. कैसे ढूँढेगा.. कहाँ ढूँढेगा... वह ख़ुद ही कहीं से लौट आए तो मिल सकती है.. पर यूँ बैठ के इंतज़ार करना जब असह्य हो गया तो रात के अँधेरे में बिना समय देखे ही उठके चल दिया. फिर उसी की गली ..फिर उसी का कमरा.. और आख़िर में उसके इलाक़े का थाना. न उसकी फोटो, ना कोई पहचान पत्र, न असली नाम, न उससे कोई कह सकने वाला रिश्ता.. न ही जिसपे शक है उसका कोई चेहरा, न किसी दिशा का कोई सुराग. पुलिस ने हँस के हाथ झाड़ लिए. उलटा उसे ही चेताया. कहा, ‘ज्यादा पड़ताल करोगे तो ख़ुद ही धर लिए जाओगे. ऐसी सैकड़ों लडकियाँ इन शहरों में कहाँ से आती हैं और कहाँ चली जाती हैं... कोई नहीं जानता. और न ही कोई जानना चाहता है.’ वह सही कहती थी, ‘लड़कियाँ एक बार खो जाने पर मिलके भी नहीं मिला करतीं.’

गलियों, सड़कों, चौराहों, पुलों, इमारतों से आरपार होते हुए सैकड़ों चेहरों के बीच किसी एक चेहरे को ढूँढते फिरना कितनी हताशा पैदा कर सकता है यह दीपांश की आँखों से दिख रहा था पर रेबेका को ढूँढ़ निकालना उसके अपने वजूद को बचाए रखने के लिए कितना जरूरी था यह उसकी चाल बता रही थी. वह कई घंटों से चल रहा था. आखिर में जब जाने के लिए कोई जगह नहीं बची तो फिर अनंत के कमरे का रुख किया...

अनंत के कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था. अनंत दीवार से टेक लगाए पाँव पसारे ज़मीन पर बिछे एक पुराने कंबल पर बैठे थे. उनकी गोद में सिर रखे दानी सो रही थी. अनंत न दीपांश को गली में घुसते ही देख लिया था. दीपांश कमरे में आकर बिना कुछ कहे उनके पैरों के पास उकडूं बैठ गया था. अनंत ने दानी का सिर हल्का-सा ऊपर उठाया और उसके नीचे से एक दुपट्टा निकाल कर दीपांश की ओर बढ़ा दिया. दीपांश ने उसे हाथ में लेके अपनी गोद में रख लिया. वह रेबेका का दुपट्टा था...

रेबेका की देह जैसे दुपट्टे-सी हल्की होके उसके हाथ पे रखी थी. उसपे सिर रखकर, फफककर रो पड़ा. हिलकते-हिलकते सिर ज़मीन पे लग गया. अनंत ने उसके सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘अब उसे इस दुनिया में ढूँढना बेकार है. अब वो हमेशा हमारे साथ रहेगी. ख़ुद को संभालो, तुम्हें अपना वादा पूरा करना है.’

कुछ देर में दीपांश ने दुपट्टा मोड़ के वापस दानी के सिरहाने रख दिया.

बाहर पौ फटने को थी. आसमान अँधेरे और उजाले के बीच चिरा जा रहा था. गली के अँधेरे में धूसर रोशनी घुल रही थी. कबूतर छतों और दरख्तों से उतरकर सड़क के बीच खड़े सींकचों पे आ बैठे थे. सुबह होते ही शहर के रास्तों पे पहिए बीते हुए कल की तरह घूमने लगे थे.

फ्लैट पर पहुँचते-पहुँचते जाड़े की मरियल-सी धूप पेड़ो के ठिठुरे हुए पत्तों को गरमाने की नाकाम-सी कोशिश करने लगी थी. सीढियों के पास खड़े रमाकांत और अशोक उसका इंतज़ार कर रहे थे. ‘डॉमनिक’ की भूमिका में ऋषभ को लेके किया गया मंचन बुरी तरह नाकामयाब हुआ था. दर्शकों ने, प्रेस ने, क्रिटिक्स ने नाटक को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया था. रमाकांत और अशोक चाहते थे- वह नाटक में वापसी करे. दीपांश ने उनसे एक दिन की मोहलत मांगी थी. कहा था ‘उसे जरूर लौटना है. उसने किसी से कहा है कि वह जरूर लौटेगा.’ रमाकांत और अशोक उसे सोचने का समय देकर चले आए थे.

उसके बाद वह किसी को नहीं मिला था...

***