Satya - 3 in Hindi Fiction Stories by KAMAL KANT LAL books and stories PDF | सत्या - 3

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सत्या - 3

सत्या 3

कंधे पर एक छोटा सा बैग लटकाए सत्या मानगो पुल के पास ऑटोरिक्शा से उतरा. सड़क पार करते समय बेख़्याली में वह एक तेज रफ्तार ट्रक के नीचे आते-आते बचा. ट्रक के ड्राईवर ने ज़ोर से ब्रेक लगाई. ट्रक के टायर चीखे. सत्या सदमे में अपनी जगह पर जैसे जम गया. खलासी ने खिड़की से बाहर सर निकालकर एक भद्दी सी गाली दी. आस-पास गुज़रते लोग भी रुककर गालियाँ देने लगे, “अबे मरने का इरादा है क्या?” एक भला मानस सत्या का हाथ पकड़कर उसे सड़क के पार ले गया.

ट्राफिक फिर सामान्य ढंग से चलने लगी. किंतु सत्या को सामान्य होने में काफी समय लगा. इस बीच “घाटशिला-घाटशिला” की आवाज़ लगाते दो बसों के खलासी सत्या के सपाट चेहरे पर कोई प्रतिक्रया न देख बस को आगे बढ़ा ले गए. काफी देर बाद सत्या पास आकर रुकी एक बस पर चढ़ गया. कुछ और लोग भी चढ़े. बस के आगे लिखा था टाट से राँची, सुपरफास्ट एक्सप्रेस.

कंडक्टर से जब उसने घाटशिला की टिकट माँगी तब जाकर उसे अहसास हुआ कि वह ग़लत बस पर चढ़ गया है. हाईवे पारडीह चौक पर वह बस से उतर गया. उसके उतरने के बाद कंडक्टर ने जब उसका मज़ाक उड़ाने की कोशिश की तो एक यात्री ने उसे टोका, “ऐसे किसी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए. बेचारा परेशान दिख रहा था. हम इसको काफी देर से देख रहे थे. पहले तो एक ट्रक के नीचे आते-आते बचा. फिर ग़लत बस में चढ़ गया. क्या पता गाँव में कोई अपना मर गया हो इसका और दुख के कारण इसका दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा हो.”

बस के सारे लोग ख़ामोश हो गए. कंडक्टर भी जाकर अपनी सीट पर बैठ गया.

बस से उतरकर सत्या अपने ख़्यालों में डूबा पारडीह चौक से पैदल ही डिमना चौक की तरफ चल पड़ा. वहीं से उसको घाटशिला की बस मिलने वाली थी.

डिमना चौक पर पहुँचकर सत्या बस का इंतज़ार करने लगा. एक विक्षिप्त हाथ फैलाकर वहाँ खड़े लोगों से पैसे मांग रहा था. बढ़ी हुई दाढ़ी, उलझे बाल, शरीर पर मैली सी गंजी, कंधे पर तार-तार एक कंबल और मैली-कुचैली एक पोटली, पीछे से फटी और आगे से चेन खुली हुई घुटनों तक की पैंट. एक मक्खी उसके चेहरे पर भिनभिना रही थी. उसको अपने पास देखते ही या तो लोग अपनी जगह बदल लेते थे या फिर कुछ पैसे उसकी हथेली पर रखकर उसे चलता कर देते थे. कुछ तो उसे डांटते और मारने की धमकी तक दे देते थे. लेकिन इस सब का उसपर कोई असर नहीं पड़ता

था.

सत्या के सामने आकर जब उसने हाथ फैलाया तो सत्या ने न ही उसको देखकर नाक भौं सिकोड़ी और न दुत्कारा ही. उसने कमीज़ की ऊपरी जेब में हाथ डाला और जो पहला नोट हाथ में आया उसको देकर सामने से आती बस पर चढ़ गया. कंडक्टर ने दरवाज़े को ज़ोर से थपथपा कर सीटी बजाई और बस को आगे बढ़ा दिया.

विक्षिप्त काफी देर तक मिली हुई नोट को उलट-पलट कर देखता रहा. सत्या ने शायद ध्यान नहीं दिया था. उसने पाँच सौ रुपये का नोट दे दिया था. अच्छी तरह नोट का मुआयना करने के बाद वह विक्षिप्त अपने गंदे बदसूरत दाँत निपोर कर ज़ोर से हँसा और नाचने लगा. लोगों ने उसे ज़्यादा तवज्जो नहीं दी. विक्षिप्त खुशी से कुलाँचे मारता पास के एक होटल की ओर दौड़ा.

‘माँ काली भोजनालय’ का मालिक दरवाज़े पर ही अपनी कैश काउंटर के पीछे बैठा था. अंदर छोटे-छोटे टेबुलों के आगे बेंचों पर बैठे लोग जिलेबी-समोसा और चाय का आनंद ले रहे थे. विक्षिप्त को पास आता देख होटल का मालिक दूर से ही चिल्लाया, “कहाँ चला आ रहा है? रुक जा वहीं पर .... हाँ, वहीं बैठ ....चाय पिएगा?.......अरे गनेस, इसे एक सिंघाड़ा और चाय दे दे.”

विक्षिप्त ने वहीं से अपना खाने का ऑर्डर दिया, “चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी,” और पाँच सौ का नोट निकाल कर होटल के मालिक को दिखाया. होटल के मालिक ने उसे इशारे से पास बुलाया. उसके हाथ से नोट लेकर उसे अच्छी तरह देखा. आसमान की तरफ उठाकर ग़ौर से उसके अंदर झांका और आश्वस्त होकर बोला, “गनेस, इसको चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी दे दे..... चल यहीं जमीन पर बैठ जा,” उसने नोट गल्ले में डालने की जगह अपनी जेब में सरकाई और अपनी दुकानदारी में व्यस्त हो गया.

विक्षिप्त ने अपनी पोटली में से अपना अलमुनियम का कटोरा निकाला और ज़मीन पर बैठकर खाने का इंतज़ार करने लगा. गनेस ने लाकर उसके कटोरे में जब एक समोसा डाला तो वह ज़ोर से चिल्लाया, “चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी.”

होटल के मालिक ने भी गनेस को डाँट लगाई, “अरे बोले थे ना, सुनाई नहीं दिया तेरे को. लाकर दे इसको चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी, और बाद में चाय भी देना.”

गनेस मालिक के चेहरे को ऐसे देखने लगा जैसे समझने की कोशिश कर रहा हो कि

कहीं मालिक ने मज़ाक में तो नहीं कहा है. मालिक से दुबारा घुड़की मिलने के बाद

वह दौड़ कर समोसो और जिलेबी ले आया और विक्षिप्त को देकर बुरा सा मुँह बनाने लगा.

पाँच मिनट में विक्षिप्त सारा कुछ चट कर गया. होटल के मालिक ने उसे और दो समोसो और दो जिलेबी दिलाई. पहले उसने पानी पीने की इच्छा ज़ाहिर की. पानी पीकर वह फिर से खाने में जुट गया. कुल आठ समोसो और छः जिलेबियाँ खाने के बाद उसने दो चाय पी और अफर कर वहीं ज़मीन पर लेट गया.

एक ग्राहक ने होटल के मालिक पर तंज भी कसा, “क्या बात है, आज पगले पर बहुत मेहरबान हो रहे हो?”

“आज पंडित जी बोले थे कि किसी को भर पेट खिलाओगे तो व्यापार में फायदा होगा. इसीलिए,” उसने उसे समझाने की कोशिश की. ग्राहक हँसा, “लेकिन अभी तो गँवा रहे हो,” पैसे चुकाकर ग्राहक हँसता हुआ अपने रास्ते चला गया.

होटल के मालिक नें एक बार मुड़कर विक्षिप्त को देखा और फिर अपने काम में ऐसे लग गया जैसे उसे बिल्कुल भूल गया हो. थोड़ी देर बाद विक्षिप्त ने करवट बदली. फिर उठकर बैठ गया. काफी देर तक बैठे रहने के बाद वह उठा और कैश काउंटर के पास आकर खड़ा हो गया. होटल के मालिक ने मुड़कर प्यार से कहा, “अब हो गया बाबा, आगे जाओ.”

विक्षिप्त ने दाँत निपोरे, “पाँच सौ का नोट. पैसा.”

“चलो-चलो अब जाओ भी. धंधा का समय खराब मत करो,” होटल के मालिक ने उसे टरकाने की कोशिश की.

विक्षिप्त ने परेशान होकर इस बार ज़ोर से कहा, “पाँच सौ का नोट. पैसा दो.”

होटल मालिक, “भागता है या लगाएँ दो डंडे?”

विक्षिप्त हतप्रभ होकर इधर-उधर देखने लगा. फिर गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में उसने दोहराया, “पाँच सौ का नोट. पैसा दो न.”

होटल मालिक आगबबूला हो गया और उसने अपने दो लड़कों को उसे वहाँ से खदेड़ने के लिए कहा. दोनों लड़के डंडे लेकर दौड़े. विक्षिप्त सड़क की दूसरी तरफ भागा और उसने हाथ में ईंट का एक टुकड़ा उठा लिया, “मार देंगे, मार देंगे.”

लड़के हँसते हुए वापस चले गए. उसने पास खड़े तमाशाईयों से गुहार लगाई, “मेरा

पैसा...मेरा पैसा. दो न मेरा पैसा.”

एक ग्राहक ने पूछ लिया, “क्या बोल रहा है ये?”

“क्या मालूम क्या बोल रहा है. पागल है साला. अभी-अभी दया करके दस-दस सिंघाड़ा-जिलेबी खिलाएँ. पेट भरते ही न जाने क्या फितुर सवार हो गया, पैसा माँगने लगा. जैसे हम कोई कर्जा खाकर बैठे हैं इसका,” होटल मालिक ने अपनी दयानतदारी का बख़ान किया और उसकी बेवज़ह की माँग से त्रस्त नज़र आया.

तभी ईंट का एक टुकड़ा उसकी कैश काउंटर पर आकर लगा. कई लोगों के मुँह से आवाज़ निकल गई. विक्षिप्त गुस्से में भरा आस-पास बिखरे पत्थरों को बटोरने में लगा था. इस बार होटल मालिक की आज्ञा के बिना ही दुकान के दोनों लड़के डंडे लेकर दौड़े और उसे दूर तक खदेड़ आए. एक ने तो उसे दो डंडे लगा भी दिए. होटल मालिक भी दुकान के बाहर आकर उसे दूर से ही गंदी-गंदी गालियाँ बकने लगा. एक ग्राहक ने उसे समझाया, “अब जाने भी दो बॉस, आख़िर है तो पागल ही न.”

“पागल है तो क्या पत्थर चलाएगा? किसी को अगर लग जाता तो? मेरा कितना नुकसान कर दिया...इसको इस इलाके से ही भगाना होगा. साला आफत कर रखा है,” होटल मालिक बड़बड़ाता हुआ दुकान पर वापस आया और कैश काउंटर की हुई क्षति का मुआयना करने लगा.

विक्षिप्त चौराहे पर खड़ा लोगों से रो-रोकर गुहार कर रहा था, “मेरा पैसा...मेरा पैसा.”

किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. वहाँ गाड़ियों की आमद-रफ़्त का कोलाहल और लोगों की आवा-जाही से भगदड़ का सा माहौल था. किसी को भी उसकी बात सुनने की फुर्सत नहीं थी.

अंत में विक्षिप्त ने रोना बंद किया और कोहनी पर लगी चोट को सहलाने लगा. फिर वह वहाँ से चल पड़ा. किसी को उसे उस इलाके से खदेड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. वह जो गया तो वहाँ फिर कभी नज़र नहीं आया.

केवल पैसे से कभी किसी का भला हुआ है, जो इस विक्षिप्त का होता?

इस घटना से बिल्कुल अनजान सत्या बस में चला जा रहा था. सारी सीटें भरी हुई थीं. बस कंडक्टर उसे पहले से जानता था. उसने उसे एक सीट के पास खड़ा कर दिया और कहा कि गालुडीह में वह सीट खाली हो जाएगी तो वह बैठ जाए. गालुडीह में सीट खाली भी हुई. लेकिन सत्या का ध्यान कहीं और था. पास में खड़े दूसरे यात्री ने जब देखा कि सत्या ने बैठने की पहल नहीं की तो वह जाकर सीट पर बैठ गया.

एक अन्य यात्री यह सब देख रहा था. उसने सत्या की कोहनी को छूकर उसका ध्यान अपनी ओर खींचा और कहा, “हम घाटशिला से पहले ही उतर जाएँगे. आप मेरी सीट पर बैठ जाईयेगा.”

सत्या ने कोई जवाब नहीं दिया. एक जगह जब बस रुकी तो वह यात्री सत्या को अपनी सीट पर बैठ जाने के लिए कहकर बस से उतर गया. कंडक्टर ने सत्या को आवाज़ लगाई कि उसका पड़ाव आ गया है. सत्या भी बस से उतर गया. बस आगे बढ़ गई.

उसके साथ उतरे सहयात्रि ने सत्या से जानना चाहा, “भाई साहब, आप यहीं के रहने वाले हैं? ज़रा बता सकेंगे, यहाँ के मध्य विद्यालय के प्रधानाचार्य का घर कहाँ है? दरअसल यहाँ के विद्यालय में मेरी नौकरी लगी है. कल ही योगदान करना है,” एक ही सांस में वह सब कुछ कह गया. लेकिन सत्या ने ज़्यादा कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और गाँव के अंदर जाती पक्की सड़क की तरफ इशारा करके बताया कि सामने ही विद्यालय पड़ेगा और बगल में ही प्रधानाचार्य का आवास. जबतक सहयात्री उसे धन्यवाद कहता वह कच्ची सड़क पर आगे बढ़ गया था. उसका गाँव अभी काफी दूर था.

चलते-चलते वह रेल की पटरी के पास जा पहुँचा. पटरी पार करने के बाद कोई आधे कोस पर उसका गाँव था. लेकिन उसके कदम वहीं रुक गए. वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा, जैसे किसी रेलगाड़ी के आने का इंतज़ार कर रहा हो.

तभी पीछे से उसके बचपन का मित्र भोला अपनी साईकिल पर वहाँ पहुँचा. सत्या को देखकर वह खुश हो गया. उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई, “अरे सत्या, तू आया है? छोटी सी तो बात थी. क्यों आ गया? तू तो माँ के लिए एकदम पागल है.”

माँ का नाम सुनकर सत्या की तंद्रा भंग हुई. वह अपने आस-पास की स्थिति को समझने की कोशिश करने लगा. फिर बोला, “माँ? माँ को क्या हो गया?”

भोला, “बस जरा सी मोच है. अरे हमलोग हैं न गाँव में. हमपर कुछ तो भरोसा कर.”

“कब लगी? कैसे लगी? किस हाथ में लगी? हड्डी तो नहीं टूटी?” एक साथ इतने सवाल सुनकर भोला भी हड़बड़ा गया, “कुछ नहीं हुआ है. बस मामूली सी मोच है. हम डॉक्टर को दिखाए थे. एक्स-रे भी हुआ. तू इतना परेशान मत हो. दो-चार दिन में

ठीक हो जाएगा.”

“तू पहले जल्दी से मुझे घर पहुँचा,” कहकर सत्या उचककर साईकिल की पिछली

कैरियर पर बैठ गया. भोला उसे लेकर चल पड़ा.

घर पहुँचने से पहले ही सत्या कूद कर उतरा और घर की ओर दौड़ा. भोला की साईकिल डगमगा गई. “माँ-माँ,” चिल्लाता हुआ वह घर के अंदर आया. माँ गोबर से आँगन लीप रही थी. बेटे को देखकर जबतक वह कोई प्रतिक्रिया देती, सत्या उसके हाथ को पकड़ कर गीली ज़मीन पर ही बैठ गया और अश्रुपूर्ण नेत्रों से हाथ का मुआयना करने लगा, “कहाँ चोट लगी माँ? कहाँ चोट लगी है? ज़्यादा तो नहीं लगी न माँ?”

“अरे इसमें नहीं, इस हाथ में चोट लगी थी. और छी-छी, ये कहाँ बैठ गया. सारा कपड़ा गंदा कर लिया. चल उठ जा ज़मीन पर से, चल उठ भी,” माँ की बातों को अनसुना करके वह दूसरे हाथ को सहलाने लगा. माँ ने हाथ झटककर कहा, “पागलामी कैनो कॉरछो तुमी (पागलपन क्यों कर रहे हो तुम)? कुछ तो नहीं हुआ है हमको. देखो ठीक है मेरा हाथ.”

“ना-ना, सत्ती बॉलो. कि कॉरे लागलो (नहीं-नहीं सच बताओ. कैसे चोट लगी)?” सत्या ज़िद करने लगा. भोला ने बताया कि पिछले रविवार को बछड़े को बाँधते समय अचानक बछड़ा उछला तो रस्सी हाथ में कस गई. बस यही हुआ था.

लेकिन सत्या ने आश्वस्त होने की बजाय अब नया राग आलापना शुरू किया, “सब मेरे कारण हुआ. हम माँ की बीमारी का झूठा बहाना बनाकर छुट्टी लिए. इसीलिए तुमको चोट लगी. सब मेरा दोष है माँ, सब मेरा दोष है. ये हम क्या कर दिए भगवान. ये हमसे क्या हो गया. माँ, हम तुमको दुख नहीं पहुँचाना चाहते थे. ये क्या कर दिए हम...,” सत्या अब फूट-फूट कर रोने लगा था.

माँ और भोला कोशिश करके भी सत्या को संभाल नहीं पा रहे थे और उसके इस अजीबो-ग़रीब व्यवहार से हैरान और परेशान थे. वे नहीं जानते थे कि दरअसल यह गोपी की हत्या का दुख था, जो सत्या की आँखों से बहा जा रहा था. शायद इस क्रंदन के बाद सत्या का जी कुछ हल्का हो जाए और वह सामान्य हो सके.