Sabreena - 7 in Hindi Women Focused by Dr Shushil Upadhyay books and stories PDF | सबरीना - 7

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सबरीना - 7

सबरीना

(7)

गुरूजी ने कहा, लो पियो...

डाॅ. साकिब मिर्जाएव बेहद उत्साहित और जोशीले आदमी लग रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि मां-बाप ने काफी ध्यान से उनकी परवरिश की थी। चलते हुए उनके पांवों की धमक साफ सुनी जा सकती थी। जब वे आगे रखने के लिए अपना पैर उठाते तो उनका पेट जैसे एक ओर लटक जाता और अगले कदम के साथ दूसरी ओर। मोटापे ने उनकी गर्दन को भी खत्म कर दिया था। मानो सिर को सीधे धड़ पर फिट कर दिया गया हो। खोपड़ी पर पूरा चांद उभर आया था। इक्का-दुक्का बाल कहीं-कहीं दिख रहे थे। लेकिन, कानों पर बालों का गुच्छा मौजूद था। उनकी छोटी आंखें भरे गालों के बीच बटन-सी चमक रही थीं। वे वजह-बेवजह हर बात पर हंस रहे थे। सुशांत उनसे थोड़ा बचकर चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि वे चलते वक्त किसी के ऊपर गिर सकते हैं, लेकिन वे अपनी रौ में चले जा रहे थे। उनके स्वभाव से लग गया था कि वे काफी मनमौजी किस्म के आदमी हैं। उन्हें एक-दो बार प्रोफेसर तारीकबी से भी मजाक की और उनकी लहराती हुई दाढ़ी को पकड़कर उन्हें आगे खींचने का उपक्रम किया। प्रोफेसर तारीकबी ने इस बर्ताव पर कोई नाखुशी नहीं जताई। इससे लगा कि डाॅ. मिर्जाएव पहले भी उनकी दाढ़ी खींचकर मजाक करते रहे होंगे। फिर उन्हेें सुशांत की याद आई और प्रोफेसर तारीकबी के पीछे चल रहे सुशांत को खींचकर आगे ले आए। सुशांत की कमर पर धोल जमाकर कुछ पूछा, लेकिन सुशांत को धोल से मिला धक्का याद रहा, सवाल सुनाई ही नहीं दिया।

सामने विभाग दिखाई दिया। दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग। काफी संख्या में लड़के-लड़कियां दरवाजे पर मौजूद थे। सबरीना तेजी से आगे आई और विभाग के छात्र-छात्राओं को लीड करने लगी। विभाग में घुसने से पहले प्रोफेसर तारीकबी और सुशांत के ऊपर पानी छिड़का गया। महक से पता चला कि ये पानी नहीं, बल्कि पुष्प-जल था। फिर कुछ लड़कियों ने कोट के बटन में गुलाब टांक दिया। बुखारा का रेशमी लबादा अब भी सुशांत के कंधों पर पड़ा था। लबादे के बीच से अकेला गुलाब झांक रहा था, जैसे टकटकी लगाए हुए सबरीना को देख रहा हो। पूरा माहौल औपचारिक था, लेकिन उसमें अपनेपन की खुशबू साफ महसूस हो रही थी। सुशांत और प्रोफेसर तारीकबी को सीधे सभागार में ले जाया गया। सभागार में काफी लोग जमा थे। लोबान की खुशबू माहौल में तारी थी। आगे की कुर्सियों पर मेहमानों को बैठाया गया और फिर मंच पर उज्बेकी धुन बिखरने लगी। मंच के किनारे से निकलकर अप्सरा-सी लड़कियों का समूह नृत्य प्रस्तुत करने लगा। गीत के बोल समझ में नहीं आ रहे थे, लेकिन धुन जानी-पहचानी लग रही थी। भारत की कई फिल्मों में ऐसी धुने सुनाई देती हैं। शायद यहीं से चुराई गई होंगी! संगीत, नृत्य, गायन और उज्बेकी सौंदर्य ने ऐसा माहौल रचा कि सुशांत को इस बात पर संदेह होने लगा कि ऐसी मोहक प्रस्तुति के बाद उसके नीरस भाषण की कोई अर्थवत्ता रह जाएगी या नहीं!

प्रोफेसर तारीकबी बिना पूछे ही गीत का अर्थ बताने लगे-

‘ओ पहाड़ों के पार से आए मेहमान, तुम हमारे लिए फरिश्ता हो।

जब यहां से अपने वतन जाओ, तो अपने लोगों को बताना

हमने इस धरती को संभाल कर रखा है,

तुम फिर आना, ओ पहाड़ों के पार से आए मेहमान।

हमने जन्नत नहीं देखी, पर तुम्हें देखा है

अब हमें यकीन हो गया कि तुम खूबसूरत दुनिया से आए हो

हम सब चाहती हैं कि तुम्हारे साथ चलें

पर, हमने अभी तुम्हारा दिल नहीं देखा है

ओ पहाड़ों के पार से आए मेहमान, तुम हमारे लिए फरिश्ता हो।

उज्बेकी धुनों का कुछ ऐसा प्रभाव हुआ कि सुशांत को अपने मन के कोमल कोने भीगते महसूस हुए। प्रस्तुति खत्म हुई और डाॅ. मिर्जाएव मंच पर नमूदार हुए। उन्होंने लच्छेदार भाषा में सुशांत का परिचय कराया और फिर एक-दो वाक्य उज्बेकी में कहे। सुशांत ने प्रोफेसर तारीकबी से पूछा-

‘डाॅ. मिर्जाएव ने उज्बेकी में क्या बात कही है ?’

‘उन्होंने कहा, भारत के विद्वान जादूगर होते हैं। उन्हें सुनें जरूर, पर अपने दिमाग को खुला रखें और विवेक से काम लें।‘ प्रोफेसर तारीकबी ने बेहद सपाट ढंग से जवाब दिया।

‘ओह, ऐसा!‘ सुशांत ने आश्चर्य जताया।

सुशांत से पहले प्रोफेसर तारीकबी ने मध्य एशिया और भारत के रिश्ते का बहुत खूबसूरत विचेचन किया। उन्होंने सदियों पुराने रिश्तों की जड़ों के बारे में बताया। और फिर सुशांत को बुलाया गया। मंच की ओर जाते हुए सुशांत को दो दशक पहले की वो घटना याद आ गई जब भोपाल में यूनिवर्सिटी यूथ फेस्टिवल के मंच पर उसे कविता-पाठ करना था, लेकिन मंच पर जाते ही वो ‘ब्लैक आउट’ का शिकार हो गया था। उसे एक भी शब्द याद नहीं रहा। दर्शकों की हूटिंग के बीच सुशांत को मंच से उतरना पड़ा था। उस पल उसे लगा था, धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए। मंच से नीचे उतरकर वो खूब रोया, लेकिन रोना कोई समाधान नहीं था। समाधान सुशांत के गुरूजी के पास था। वे उसे ग्रीन रूम में ले गए और थैले से अपनी पसंदीदा मदिरा-कैन निकाली। और एक छोटा पैग बनाकर उसकी ओर बढ़ा दिया। गुरूजी ने इतने सख्त लहजे में आदेश दिया कि सुशांत ने एक झटके में पैग खत्म कर दिया। फिर एक और पैग! कुछ देर बैठने को कहा और फिर वो बोले, चलो अब काव्यपाठ के लिए तैयार हो जाओ। सुशांत का डर खत्म हो गया था। वो मंच पर पहुंचा, उसे आज भी याद नहीं कि कविता पाठ कैसा रहा था। बस, उसे इतना याद है कि सभागार में काफी देर तक तालियां बजती रही थी और गुरूजी उसे मंच से उतारकर लाए थे। तालियों से पैदा हुई खुशी काफी वक्त तक दिमाग में बनी रही थी। उस दिन के बाद गुरूजी सुशांत की जिंदगी का और गहरा हिस्सा बन गए थे। बहुत वक्त बाद सुशांत को ऐसा लगा कि उसे आज फिर गुरूजी के उसी पैग की जरूरत है। मंच पर पहुंचकर उसने सभागार पर निगाह डाली, तीसरी पंक्ति में दूसरे नंबर पर सबरीना बैठी थी और उसकी मुस्कुराहट में खुशी और प्रोत्साहन दोनों छिपे हुए थे।

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