(1)
मौजो से भिड़े हो पतवारें बनो तुम
मौजो से भिड़े हो ,
पतवारें बनो तुम,
खुद हीं अब खुद के,
सहारे बनो तुम।
किनारों पे चलना है ,
आसां बहुत पर,
गिर के सम्भलना है,
आसां बहुत पर,
डूबे हो दरिया जो,
मुश्किल हो बचना,
तो खुद हीं बाहों के,
सहारे बनो तुम,
मौजो से भिड़े हो ,
पतवारें बनो तुम।
जो चंदा बनोगे तो,
तारे भी होंगे,
औरों से चमकोगे,
सितारें भी होंगे,
सूरज सा दिन का जो,
राजा बन चाहो,
तो दिनकर के जैसे,
अंगारे बनो तुम,
मौजो से भिड़े हो,
पतवारें बनो तुम।
दिवस के राही,
रातों का क्या करना,
दिन के उजाले में,
तुमको है चढ़ना,
सूरजमुखी जैसी,
ख़्वाहिश जो तेरी
ऊल्लू सदृष ना,
अन्धियारे बनो तुम,
मौजो से भिड़े हो,
पतवारें बनो तुम।
अभिनय से कुछ भी,
ना हासिल है होता,
अनुनय से भी कोई,
काबिल क्या होता?
अरिदल को संधि में,
शक्ति तब दिखती,
जब संबल हाथों के,
तीक्ष्ण धारें बनों तुम,
मौजो से भिड़े हो,
पतवारें बनो तुम।
विपदा हो कैसी भी,
वो नर ना हारा,
जिसका निज बाहू हो,
किंचित सहारा ।
श्रम से हीं तो आखिर,
दुर्दिन भी हारा,
जो आलस को काटे,
तलवारें बनो तुम ।
मौजो से भिड़े हो ,
पतवारें बनो तुम।
खुद हीं अब खुद के,
सहारे बनो तुम,
मौजो से भिड़े हो,
पतवारें बनो तुम।
अजय अमिताभ सुमन:
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(2)
कुकडु कु
एक मुर्गा सोचा सीना तान,
अब न कभी होगा बिहान,
जो मैं ना बोलूंंगा कुकडु कु,
हा हा ही ही हू हू हू।
मुर्गा पर ये सोच न सका,
सपने सच होते कहाँ भला,
बिन बोले ही हुआ बिहान,
मुर्गा ना बोला कुकडु कु,
हा हा ही ही हू हू हू।
टूटा मुर्गे का अभिमान,
सपना टूटा ज्ञात हुआ ये ज्ञान,
कि बिन बोले भी हुआ बिहान,
अब रोज बोलूंगा कुकडु कु,
हा हा ही ही हू हू हू।
(3)
ज्ञान और मोह
दो राही चुप चाप चल रहे,
ना नर दोनों एक समान,
एक मोह था लोभ पिपासु ,
औ ज्ञान को निज पे मान।
कल्प गंग के तट पे दोनों,
राही धीरे चले पड़े ,
एक साथ थे दोनों किंतु,
मन से दोनों दूर खड़े ।
ये ज्ञान को अभिमान कि,
सकल विश्व हीं उसे ज्ञात था,
और मोह की तृष्णा भारी,
तुष्ट नहीं जो उसे प्राप्त था।
मोह खड़ा था तट पे किंचित,
फल फूलों की लेकर चाह,
ज्ञान गड़ा था गहन मौन में ,
अन्वेषित कर रहा प्रवाह।
पास हीं गंगा कल कल बहती,
अमर तत्व का लेकर दान,
आ जाओ दोनों से कहती,
अमर तत्व मैं करूँ प्रदान।
बहती रहती जन्मों से मैं,
दोनों जल का कर लो पान,
निज की पहचान है निश्चित,
अमरत्व ले लो वरदान।
मोह ने सोचा कुछपल को,
लोभ पर भारी पड़ा,
और उसपे हास करके,
ज्ञान बस अकड़ा रहा।
कल्प गंगे भी ये मुझको ,
सिखला सकती है क्या?
और विहंसता मोह पे वो,
देखता डुबकी लगा।
कल्प गंगे में उतरकर,
मोह तो पावन हुआ,
हो रही थीं पुष्प वर्षा,
दृश्य मन भावन हुआ।
पूज्य हुआ जो पतित था,
स्वयं का अभिमान खोकर,
और इसको ज्ञात था क्या,
ज्ञान का अभिमान लेकर?
पात्रता असाध्य उनको,
निज में हीं जकड़े रहे,
ना झुके बस पात्र लेकर,
राह में अकड़े रहे?
अजय अमिताभ सुमन:
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