Anjane lakshy ki yatra pe - 9 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 9

Featured Books
Categories
Share

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 9

पिछले अंक में अपने पढ़ा-
अब उन लोगों ने हमें बन्धनमुक्त किया। पहनने को वस्त्रादि दिए और सिपाहियों की निगरानी में घूमने फिरने की आज़ादी भी प्रदान की। ...हमारी वापसी की तैयारियां चल रही थीं...
अब आगे पढ़ें...
-------------------------------

नौवा भाग

बंधनमुक्त किंतु दोषमुक्त नही

इस सारे प्रकरण मे एक बात हमे समझ मे आई कि यहां के सामान्यजन हमसे बहुत प्रभावित लग रहे थे। यह शायद गेरिक की विद्वत्ता पूर्ण वार्तालाप के कारण था। यूं भी, जन सामान्य तो सदैव शान्ति ही चाहता है। यह तो सत्ता की भूख है, जिसके कारण जन सामान्य को युद्धों का सामना करना पड़ता है। जिस प्रकार युद्ध और अशान्ति सत्ता की प्राणशक्ति है, उसी प्रकार शान्ति जन सामान्य की। इसी कारण मानव समाज के उद्भव से आज तक हम सदैव ही, युद्ध और शान्ति के मध्य भी एक संघर्ष देखते आये हैं।
अभी तक हमारा भविष्य सुरक्षित नही हुआ था। और यही हमारी चिन्ता का मुख्य कारण था। चूंकि, हमारे सम्बंध मे अभी कुछ भी निश्चित नहीं था; अत: हमारा चिन्तित होना भी स्वाभाविक ही था। कहा भी गया है कि अनिर्णय ही अनिश्चय को जन्म देता है और अनिश्चित भविष्य ही चिन्ता को। यदि सब कुछ निश्चित हो जाये तो फ़िर चिन्ता रहे न अपेक्षा। तो, हम अपनी आगे की रणनीति पर विचार विमर्श तो कर ही रहे थे, साथ ही यहां के शासक और प्रशासन की हमारे प्रति व्यवहार पर भी सूक्ष्म दृष्टि लगाये हुये थे।
और कठिनाई यह भी थी, कि जन सामान्य से सम्बंध स्थापित करना इतना आसान नही था। सम्बन्ध स्थपना मे सम्वाद स्थापना का विशेष महत्व है। सम्वाद हेतु भाषा की आवश्यकता होती है और यही हमारी सबसे बड़ी समस्या थी। वे हमारी भाषा से अनभिज्ञ थे और हम उनकी। फ़िर भी प्रभु का धन्यवाद कि वे हम पर विश्वास और हमसे सहानुभूति रखते थे। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे ज्वालामुखी प्रभावित क्षेत्र के टापू से यहां तक पहुंचने की साहस और संघर्ष से परिपूर्ण कथा इस टापू के जन जन तक पहुंच चुकी थी और हम उनकी दृष्टि मे नायक बन चुके थे। कल तक जो बच्चे और किशोर हमारी तरफ़ मुट्ठियाँ तान हमे धमका रहे थे, वे आज हमारे इर्द-गिर्द घूम रहे थे। वे हमसे सम्वाद स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे, और बड़ी उत्सुकता से हमारी ओर देखते थे। नवयुवतियाँ तो अपने स्वप्नजड़ित नयनो से हमारी ओर बड़ी अभिलाषा से देखने लगी थीं।
हम भी अपनी तरफ़ से सम्वाद स्थापना हेतु परिश्रम कर रहे थे। इस सारे समय हम अपने मुखमंडल को पूरी तरह स्नेहिल मुस्कान से सुशोभित किये रहते। कारण कि, आपका मुस्कुराता हुआ रूप, सामने वाले के लिये अभयदान की तरह होता है। आपकी मुस्कान, सामने वाले को न सिर्फ़ आपकी ओर से निश्चिन्त करती है अपितु आपकी ओर आकर्षित भी करती है।
धीरे-धीरे हम कुछ संकेतों और भाव-भंगिमाओं की सहायता से सम्वाद करने मे सफ़ल भी होने लगे। इससे हमारे मध्य दूरियाँ मिटने लगीं और उनकी भाषा के एक दो शब्द भी हमारी स्मृति मे स्थापित हो गये। हाँ, उन शब्दों के अर्थ और उनके उपयोग से हम अब भी अनभिज्ञ ही थे। कितने समय के पश्चात हम मानवों के मध्य थे और अब तो स्वीकृत भी थे। किन्तु सिर्फ़ सामान्य जन द्वारा ही, क्योंकि प्रशासन कि दृष्टि मे हम अभी भी सन्देह से परे नही थे। और इसी सन्देह के निवारण हेतु तो फ़िर से हमारे द्वीप तक की यात्रा की तैयारियाँ चल रही थीं। अत: हम अपने व्यवहार मे पूर्ण्त: नियन्त्रित थे। हम अपनी सीमाओं से परीचित थे। और कोई भी गलत कदम उठाने से बचने हेतु पूर्ण्त: सजग। फ़िर भी उन मत्स्यकन्याओं ने जादू जो कर रखा था। और एक नवयुवती विशेष रूप से मन मस्तिष्क पर सवार होने लगी थी। और भी मत्सकन्यायें हमे घेरे रहती और हमसे वार्तालाप करने का प्रयास करती; किन्तु वह सिर्फ़ टकटकी लगाये मेरी ओर देखती रहती। उसके गुलाबी चेहरे पर हमेशा एक आशापूर्ण मुस्कान होती। जब वह मेरी ओर देखती उसकी आंखो मे कितने ही स्वप्न तैरते नज़र आते। मै उन सपनो को पढ़ना चाहता, उन सपनो को जीना चाहता, उन सपनो को पूर्ण करने हेतु अथाह परिश्रम करना चाहता था। किन्तु, जब मै उसकी ओर देखता वह लजाकर आंखे झुका लेती। इससे मेरी तृष्णा और बलवती हो उठती। इस खेल मे मै अपनी अवस्था, अपनी स्थिति और स्वयम् को ही भूलने लगा था।
यह सब एक जादू जैसा था। एक जादुई अनुभव था। मैने जीवन मे पहली बार प्रेमगरल पिया था। किंचित, पहली बार जीवन जिया था। मन-मस्तिष्क विचित्र भावनाओं से ओतप्रोत थे।
प्रेम का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा था …
गेरिक ने चेतावनी दी, “हम लोग अभी भी संदेह के घेरे मे हैं। अभी दोष-मुक्त नही हुये हैं; अत: कोई भी भूल हमारा जीवन समाप्त कर सकती है।”
“मै अपने प्रेम के लिये अपने जीवन की बलि दे सकता हूँ। वह जीवन ही क्या जिसमे प्रेम न हो?”
“वह प्रेम ही क्या जिसमे जीवन न हो। प्रेम की सफ़लता विनाश मे नही, निर्माण मे है। प्रेम का उद्देश्य एक नीड़ का निर्माण होता है; जहाँ और भी नवजीवन अंकुरित होकर फ़ूलें फ़लें। उनका पोषण प्रेम का लक्ष्य होता है। जीवन की बलि देना, प्रेम की पराजय है; प्रेम की स्थापना मे ही प्रेम की विजय है। अत: धैर्य से काम लो। पहले स्वयम् को दोष-मुक्त सिद्ध करो, इनका विश्वास जीतो।“
मै अभिभूत था। मेरा मित्र सदैव विद्वत्तापूर्ण बातें करता है। उससे असहमत होने का तो प्रश्न ही नही उठता। और मैने जब पहली बार उसे देखा तो उसे क्या समझ बैठा था? एक दैत्य! सोंचकर मुझे हसी आ गई।
“मैने ऐसी मूर्खतापूर्ण बात तो नही कही…” मुझे हसता देख वह बोला, “तुम किस कारण हस रहे हो?”
“मूर्खतापूर्ण बात? नही मित्र तुम्हारे बारे मे तो ऐसा सोचना भी मूर्खता है। तुम जैसा विद्वान मित्र तो भाग्य से ही मिलता है। कहा गया है एक विद्वान मित्र जीवन के हर अभाव को दूर कर देता है। और भी कहा गया है, यदि एक विद्वान मित्र हो तो फ़िर समाज की भी क्या आवश्यकता है।” मैने कहा, “मित्र मै तो अपनी पहली भेंट के बारे मे सोच कर हस रहा था। मैने तुम्हे क्या समझ लिया था? एक दैत्य …… एक राक्षस … जो मुझे मारकर खा जायेगा … हा हा हा …”
इस बात पर हम दोनो ही हसने लगे …”

यहां तक कथा सुनाने के पश्चात व्यापारी को अनुभव हुआ कि, दोनो डाकू निंद्रालीन हो चुके हैं उनकी नाक बजने लगी। उनके अस्त्र शस्त्र बिखरे पड़े हैं। शेरु अपनी कुत्ते वाली नींद सो रहा था । उसे शायद मच्छर या पिस्सू काट रहे थे। वह रह रह कर चौंक उठता। कभी कभी दोनो डाकुओं के खर्रटे की आवाज़ से बेचैन हो उठता। बारी बारी से दोनो की ओर देखता फ़िर अपने पंजों पर सिर रखकर सो जाता । कुछ देर बाद वह अपने मालिक के समीप आया और उसके पैरों से शरीर को सटाकर सो गया। व्यापारी की आंखों मे नींद नही थी। अर्धरात्री का आधा चन्द्रमा, अपनी आधी अधूरा चन्द्रप्रकाश, धरा पर उडेल रहा था । अर्धरात्रि के, अर्ध-चंद्रप्रकाश से सुशोभित वन और वसुंधरा का अद्भुत दृश्य उसके मन को व्याकुल कर रहा था । सारा जगत, श्वेत श्याम और नीलभ वर्णों मे सिमट आया था। तभी दूर एक पहाड़ की चोटी पर एक छायाकृति उभरी। चार टांगो पर धीरे धीरे चलती हुई वह आकृति निश्चय ही किसी पशु की होगी। उसकी गर्दन लम्बी और थूथन भी लम्बी थी जो ऊपर की ओर तनी हुई थी। ऊपर पहुंचकर वह कुछ क्षण को ठहरा फ़िर बैठ गया। निश्चय ही वह कोई भेड़िया होगा। यह विचार व्यापारी के मन मे कौंध गया और भेड़ियों से मुठ्भेड़ की याद ताज़ा हो गई। उसी समय उस प्राणी की छाया की थूथन आकाश की ओर उठी और, “हूऊऊऊऊ…………” की तेज़ पुकार से सारा वनप्रदेश गूंज उठा। यह तो सियार है।
व्यापारी के रोंगटे खड़े हो गये। अब कौनसी नई संकट की घड़ी आन पड़ी है?
इसके बाद जंगल मे चारो ओर से पुकार गूंजने लगी, “हूऊऊऊऊऊ……………।“
शेरू भी उठकर चौकन्ना हो गया। व्यापारी ने उठकर शेरू को थपथपाया। इस थपकी ने शेरू मे जैसे साहस का संचार कर दिया। वह उठा और अपने तीनो साथियों की एक परिक्रमा की मानो निश्चिंत होना चाहता हो सब ठीक तो है। इसाके बाद वह एक ओर को बड़े सधे हुये कदमो से आगे बढ़ा। शेरू के कान ऊपर को उठे हुये थे। व्यापारी भी दबे पांव शेरू के पीछे पीछे चला। शेरू एक पेड़ के नीचे खड़ा अपने सामने नीचे की ओर कुछ देखने लगा। व्यापारी भी उसके पीछे आकर उस वृक्ष की ओट से झांकने लगा। अचानक उसका सिर चकरा गया। वह जिस वृक्ष की आड़ लिये खड़ा था, उसके ठीक आगे बिल्कुल सीधी ढलान थी जो जाने कितने नीचे गहरी खाई मे जाकर समाप्त होती है। अगर भूल से कोई एक कदम भी आगे बढ़ा ले तो सीधा स्वर्गलोक मे ही पहुंचेगा। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। सांस तेज़ हो गई। शेरू नीचे खाई की ओर ही ध्यान पूर्वक देख रहा था। उसके कान खड़े थे। अचानक उसके कान पीछे की ओर गर्दन के समानान्तर तन गये और वह चेतावनी के स्वर मे गुर्राने लगा।
चन्द्रमा का प्रकाश नीचे घाटी मे बिखरा हुआ था। इस प्रकाश मे घाटी का दृश्य इतना स्पष्ट दिखाई दे रहा था जितना दिन मे भी सम्भव नहीं था। नीचे वृक्षों की विस्तृत श्रृंखला दृष्टिगोचर थी। वृक्षों के झुंड कहीं कहीं घने और कहीं विरल थे; तथा कहीं कहीं तो वृक्ष बिल्कुल थे ही नहीं। जहां वृक्ष नही थे वहां कहीं कहीं झाड़ियाँ और कहीं कहीं घांस के मैदान थे। यह जंगल कुछ दूर समतल भूमि से होता हुआ आगे एक छोटे पहाड़ से होकर आगे के विशाल पहाड़ की उंचाईयों तक विस्तार पाया हुआ था । हाँ, यहां से आगे की चढ़ाई पर जंगल अधिक घना भी था और उसके दृश्य उतने स्पष्ट भी नही थे । धीरे धीरे ठीक नीचे घाटी मे वृक्षों के झुरमुट के नीचे से एक धुंधली लम्बी सी आकृति दूर सामने की ओर जा रही थी। यह आकृति असल मे शिकारी जानवरों का एक झुंड थी वे एक दूसरे के पीछे चलते हुये धीरे धीरे आगे बढ़े जा रहे थे। यह शायद जंगली कुत्तों का झुंड था; या भेड़ियों का। हो सकता है सियार हों; लेकिन जो भी हो यहां से इतनी दूर हैं कि हम उनसे सुरक्षित हैं। इस लिये चिन्ता की तो कोई बात नहीं। और यही बात शेरू को भी शायद समझ मे आ गई और इसी लिये अब वह गुर्राने की बजाये भौंकने लगा। उसकी आवाज़ पूरी घाटी मे गूंजने लगी और प्रतिध्वनित होकर पूरे जंगल की नीरवता भंग करने लगी। व्यापारी ने उसे चुप कराने के लिये पुचकारने लगा………।
सन्न्न्न्न्न्न्न खट!!………… एक आवाज़ उसके कान मे गूंजी और वह भयभीत होकर जड़ रह गया। एक तीर उसके दाहिने कान के पास आकर बस एक अंगुल के अन्तर से वृक्ष के तने मे जा धसा।
पीछे वे दोनो डाकू खड़े थे।
जारी है अगले अंक में...
आगे क्या हुआ, जानने के लिए पढ़ें भाग-10
जंगल रात में सोता नहीं है
"तुम्हें चेताया गया था, भागने की कोशिश मत करना" एक डाकू बोला। वह धनुष बाण लिए खड़ा था और उसका निशाना अपने बन्दी यानी, व्यापारी की ओर था। दूसरा डाकू हाथ मे नंगी तलवार लिये खड़ा था।...

मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति.