Papa Mar chuke hai in Hindi Moral Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | पापा मर चुके हैं

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पापा मर चुके हैं

पापा मर चुके हैं

जयश्री रॉय

आज एकबार फिर अरनव को बिस्तर पर उसकी इच्छाओं के चरम क्षण में अचानक छोडकर मै उठ आयी थी। अब बाथरूम के एकांत में पीली रोशनी के वृत के नीचे खड़ी आईने में प्रतिबिंबित अपनी सम्पूर्ण विवस्त्र देह की थरथराती रेखाओं की तरफ देखने की त्रासदी झेलने के लिए मैं बाध्य भी थी और अभिशप्त भी... अपने अंदर के उन्माद के इस पल को मैं धैर्य से गुजर जाने देना चाहती थी, मगर जानती थी, यह इतना सहज नहीं होगा! पूरी देह में रेंगती हुई चीटियों की कतारें जैसे अब धीर-धीरे गले के अंदर थक्के बाँधने लगी थीं। भीतर सनसनाकर उठते हुए आंतक के गहरे नीले बवंडर को मैंने आप्राण घुटककर पसलियों में वापस धकेलने का प्रयास किया था, मगर वह निरंतर बना रहा था- अपनी सम्पूर्णता में, पूरी भयावहता के साथ! कुछ न सोच पाने की मनःस्थिति में मैं बेसिन का नल खोलकर अपने चेहरे पर पानी छपकती चली गयी थी। सामने जीवित दुःस्वप्न की तरह खड़े आईने की मटमैली धुंध में सुलगता हुआ चेहरा पिघलते हुए आहिस्ता से खो गया था। अब बचे रह गये थे बस वे आँसू जो अभी-अभी पलकों के किनारे तोडकर बह आये थे- सिंके हुए गालों पर संवेदनाओं की आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते हुए, ठोढ़ी से छाती तक की उघरी त्वचा को एक ही क्षण में पूरी तरह से भिगोते हुए।

अपने नग्न घुटनों में चेहरा छिपाये मैं फर्श पर बैठ गयी थी - हे ईश्वर! कबतक... यह नर्क कबतक...! मैंने आज अपने उन्माद के अतिरेक में अरनव के चेहरे पर अपने नाखून खुबा दिये थे! अंधेरे में दर्द से छटपटायी हुई उसकी आवाज से मैं स्वयं आहत हो उठी थी- अब ये क्या हो गया मुझसे...! क्या सचमुच मैं अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही हूँ ?

आज अरनव का हमेशा का मान-मनुहार एक जिद्द में बदल गया था। वह किसी भी सूरत में मेरी ’न’ सुनने के लिेए राजी नहीं था। आपस की छीना-झपटी में मेरा नाइट गाउन पूरी तरह से फट गया था- अपनी टीसती देह पर उसके गर्म होंठ, जीभ, दाँतों की जबर्दस्ती को मैं सह नहीं पा रही थी। जांघों के बीच उसकी अबाध्य उंगलियाँ उद्दंड हुई जा रही थीं... वही शराब की गंध में डूबा हुआ खौफनाक अंधेरा, वही मुझमें बलात् प्रविष्ट करती हुई पशुवत् मर्दानी कठोरता... मेरी देह का पत्येक अणु यकायक अपने अंदर के खौलते हुए लावे की जद में आ गया था - नहीं! अब यह दुबारा मेरे साथ नहीं होगा...!

अरनव मेरी जानुओं को अपने दोनों घुटनों से चांपते हुए एक गर्म सलाख की तरह मेरे अंदर आमूल धंस आया था। मेरी साँसें रूक गयी थीं, अंदर एकबार फिर तहस-नहस हो जाने का तूफान था। ‘पापा...!‘ अपनी यातना के चरम क्षण में भी मैंने उसे ही पुकारा था जिससे भागते हुए आज उन्माद के इस कगार पर आ पहुँची थी! तेज नाखून से तड़पकर अरनव मुझसे अलग हो गया था- ‘ यू मैड वुमन...!‘ झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ ये प्रत्याशित शब्द मेरे वजूद पर गाज की तरह गिरे थे। अंदर का एक बहुत बडा हिस्सा अनायास अवश हो आया था। मेरे भीतर के बार-बार नकारे हुए सत्य को आज अरनव ने एक स्पष्ट नाम दे दिया था। एक आदमकद आईने की तरह सामने खड़ा होकर वह जानलेवा सच बोलने पर उतारू था... मेरे अंदर सहने की सारी शक्ति जैसे यकायक चुक आयी थी, इसलिए खुद को समेटकर मै चुपचाप उसके सामने से हट गयी थी।

आईने में अपने गालों पर टंकी हुई सुलगती अंगुलियों की छाप को देखते हुए मैं रोना नहीं चाहती थी, मगर बस वही किया...रोती रही...! कोई और विकल्प नहीं था मेरे इस अछोर दर्द के पास। बाथरूम के गीले फर्श पर अपनी ही सिसकियों से टूटती हुई मेरे लिए आज भी सबसे बडी तकलीफ यही थी कि मैं अपने जीवन के इतने बडे क्राइसिस के पल में अपने पापा को पुकार नहीं पा रही थी, हालांकि मैं कहीं गहरे जानती थी, आज भी मेरी सबसे बडी रूहानी जरूरत वही हैं...! उनका मेरे जीवन से जाना अभाव की एक पूरी दुनिया ले आया है... इसी अभाव से जन्मी है रिश्तों की एक लंबी फेहरिस्त- दोस्तों की, दुश्मनों की, प्यार की और नफरत की...मगर कोई भी, कुछ भी तो उस उस अभाव का पूरक नहीं बन पाया...! मन के अंदर एक भायं-भायं करता हुआ अंधा कुआं है और उसके सीलन भरे अंधकार में कैद मेरा सहमा हुआ बचपन... वह आज भी बड़ा नहीं होना चाहता! बडों की इस बहुत छोटी दुनिया में तो कभी नहीं... यह स्तब्ध अकेलापन मेरी ढाल भी है और कारावास भी! मैं इससे छूटना चाहकर भी छूटना नहीं चाहती... एक सर्द, स्याह रात के सूने में मेरे हाथ से उनकी उंगली छूट गयी थी... और तभी से मैं उजालों की इस दुनिया में खो गयी हूँ। अबतक खुद को नहीं ढूँढ पायी हूँ, औरों की क्या कहूँ...

पापा की उस छूटी हुई उंगली के साथ खो गया है मेरा सबसे बडा संबल- मेरी आस्था, मेरा होना, मेरे पाँव की जमीन, मेरे सर का आसमान... अपने एकमात्र आश्रय से निकल कर जाना था, बेघर हो जाने की वास्तविक विडंबना क्या होती है! उसके बाद आस्था-अनास्था के मारक द्वन्द्व से जूझती यातना के एक अन्तहीन अन्तरिक्ष में भारहीन होकर न जाने कब से भटक रही हूँ- स्वयं को समेटने के असफल प्रयास में... एक विराट शून्य के सिवाय हाथ में अबतक कुछ भी नहीं आया है। सब में डूबकर उनको भूलाने की कोशिश और फिर उनसब में उन्ही को ढूँढने की कोशिश... और अंततः पा लेने का आतंक... हर टूटे रिश्ते में वास्तव में वही-वही रिश्ता एक नये सिरे से जुड़ा है जिसे पूरी तरह से तोड़कर नष्ट कर देने का प्रयास मैंने बार-बार किया है।

आज आँखों के सामने सायास भुलाये कितने ही दृश्य उमड़े चले आ रहे हैं, जैसे कैमरे में स्लाइड शो चल रहा हो- पापा के कंधों पर बैठी मेले की रंगीनियाँ बटोरती हुयी मैं, पीठ पर बस्ता लटकाये पापा की उंगली पकड़े स्कूल जाती हुई मैं... क्या ये सचमुच में मैं ही थी या कोई चिड़िया- निरंतर चहकती हुई, हंसी की उजली धूप में झिलमिलाती हुई, तितली के परों की तरह रंगीन और चंचल- हर क्षण हवा में फैलकर खुशबू की तरह खो जाने को आतुर... हींग-हल्दी में बसी हुई माँ और आफ्टर सेव से महकते हुए पापा के बीच की रेशम-डोर... इतना प्यार, इतना दुलार अपनी फ्रॉक के छोटे-से घेरे में समेटते-समेटते सच, मैं थक ही जाती थी! पापा मेरी बुची नाक पर चुंबन जडते हुए पूछते - गुड़िया पापा की या मम्मी की? मैं उनके हाथ से चॉकलेट लेकर कहती- पापा की! ‘क्या कहा, फिर से तो कहना...‘ माँ अचानक पीछे से आकर मुझे गुदगुदा देतीं। मैं खिलखिलाती हुई गुड़ी-मुड़ी हो जाती। पापा, मम्मी कपट गुस्से में दोनों तरफ से मेरी दोनों बाँहें खींचने लगते और मैं चिल्ला उठती- छोड़ो मुझे नहीं तो गुड़िया टूट जायगी...

अपनी ही तेज सिसकियों से चौंककर मैं उठ खड़ी हुई थी। बाथरूम की फर्श पर न जाने कब से बैठी रह गयी थी! बाहर निकल कर देखा था, अरनव कमरे में नहीं है। इतनी रात को कहाँ गया होगा... मैं परेशान हो उठी थी। तभी बाहर गाडी स्टार्ट होने की आवाज सुनकर बाल्कनी में निकल कर देखा था- गेट से हमारी कार निकल रही है। रात की सूनी सड़क पर जलती-बुझती हुई बत्तियाँ एक मोड़ पर जाकर गुम गयी थीं- पीछे के अंधेरे को और-और गहराते हुए... रात की स्याही में दगदगाता हुआ लाल रंग..! सिहर कर मैं कमरे में भाग आयी थी और फिर एक कटे हुए पेड की तरह बिस्तर पर गिरकर तकियों के बीच दुबक गयी थी... उनकी नर्मी में निरापद होने का आश्वासन ढूँढती हुई... मगर आँखो में दुःस्वप्न की वही असह्य आवाजाही लगी हुई है, खुली आँखों में और-और जीवंत होती हुई और बंद पलकों में दूर तक गहराती हुई... अपने से छूटकर मैं कहाँ जाऊँ...जा सकती हूँ...! विवश पड़ी रहती हूँ, खुली आँखों से वही-वही नर्क देखने के लिए बाध्य और अभिशप्त...

...मम्मी चली गयी हैं सुजय काकू के साथ! पापा ड्योढ़ी में खडे हवा में गोलियाँ दागे चले जा रहे हैं लगातार! सामने का दालान छटपटाते हुए कबूतरों से पट गया है... चारों तरफ उन्हीं के खून और टूटे पंख बिखरे पड़े हैं दूर-दूर तक... ये खूबसूरत पक्षी पापा ने किस लाड-प्यार से पाले थे... इन्हें दाना चुगाये बिना कभी खुद नहीं खाते थे... कहते थे, ये अमन के पक्षी हैं, इन्हें बस प्यार और मुक्ति के नीले आकाश में बेफिक्र उड़ना चाहिए... दादी उनके पाँवों के पास दोहरी होकर बैठ गयी हैं। मैं संगमरमर के स्तंभ के पीछे सहमी हुई खडी हूँ। मेरी हिचकियाँ बँधी हुई हैं। गोली की गूँज से हवेली की बूढ़ी दीवारें कांप-कांप उठ रही हैं।

चार-पाँच महीने पहले सुदर्शन सुजय काकू हमारे जीवन में आये थे और उसके बाद से ही हमारे सहज-सरल जीवन में गिरह पड़नी शुरू हो गयी थी। सुजय काकू रविंद्र संगीत बहुत अच्छा गाते थे और पेटिंग भी बहुत अच्छी करते थे। जब वे विभोर होकर गाते थे- ‘आगुनेर परोसमोनि छोआओ पाने, ए जीबोन पूर्णो कॅरो...‘ मम्मी एकटक उनके चेहरे को ताकती रहती थीं। शायद कोई पारसमणि उनके प्राण को भी अजाने छू गयी थी। पापा-मम्मी के बीच रोज-रोज होनेवाली बहसों ने मुझे न समझ आनेवाली आशंकाओं से भर दिया था। जाने से पहले मम्मी ने अपने गहनों का बक्सा मुझे थमा दिया था। मेरे माथे पर सोने का मांग टीका सजाकर वह चुपचाप रोती रही थीं। उन्हें रोते देख मैं भी रोने लगी थी...।

...उस रात अपने बिस्तर पर रोते-रोते न जाने मैं कब सो गयी थी। शराब की तेज गंध से चौंककर शायद मेरी नींद बीच रात में खुल गयी थी। आँखें खुलते ही मुझे लगा था, कमरे का घना काला अंधेरा अपनी पूरी भयावहता के साथ मुझपर लदा हुआ है। भय के अतिरेक में मेरी साँसें रूक गयी थीं। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही थी। असह्य पीड़ा और आतंक से मेरी चेतना शून्य-सी होती जा रही थी। मैं किसी तरह पापा को पुकारना चाहती थी। अपनी समस्त शक्ति जुटाकर जब मैंने पापा को पुकारने के लिए अपना मुँह खोलने का प्रयास किया था तो उसी भीषण अंधकार ने मेरे मुँह पर अपना पंजा जमा दिया था - ‘चुप हरामजादी, छिनाल की बेटी...!‘ यह मेरे पापा की आवाज थी...! उन्होंने इतनी शराब पी रखी थी कि उनसे बोला भी नहीं जा रहा था। मैं यकायक जैसे पत्थर बन गयी थी... मुझे नोचते-खसोटते हुए ये हाथ मेरे पापा के थे...! ये थोड़े-से आकारहीन शब्द मुझपर घन की तरह गिरे थे। मेरी मसलती हुई देह के अंदर उस समय एक साथ न जाने क्या-क्या एक ही झनाके से टूटा था, न जाने कितनी मौंते हुई थीं... इंसान मर गया था, भगवान् मर गया था, मेरे यकीन की एक पूरी दुनिया मर गयी थी...! एक ही पल में मेरा बचपन गहरी झुर्रियों में बदल गया था। मेरे जीने का, होने का विश्वास अपनी उंगली छुड़ाकर हमेशा-हमेशा के लिए वितृष्णा, संशय और भय की गहरी नीली घाटियों में खो गया था, संभवतः फिर कभी न लौट सकने के लिए... अब उस भीषण क्षण में कुछ शेष रह गया था तो मेरी असहाय चीखें और मेरी कच्ची देह पर पापा का जघन्य आक्रमण...कोई मिट्टी की गुड़िया को भी उस तरह नहीं तोड़ता, जिस तरह उस रात पापा ने मुझे- अपनी गड़िया को- तोड़ डाला था! उस अछोर दर्द और आतंक के बीच अपने पापा को न बुला सकना ही शायद मेरे लिए सबसे त्रासद अनुभव था। मनुष्य का अपने नितांत संकट के समय में अपने ईश्वर को न बुला पाना उसकी विवशता का चरम है! मैं भी किसे बुलाती, मेरा भगवान् ही मिट्टी का बन गया था। एक मदिर के भग्नावशेष में खंडित देव मूर्तियों के बीच मैं अपनी टूटी आस्था के साथ बिखरी पड़ी थी। इंसान तो हमेशा से मरता रहा है, मगर उस रात मेरे भगवान का मर जाना मेरे लिए असहनीय हो गया था। उस छोटी अवस्था में मेरा मेरे पापा के साथ यकीन से आगे का कोई रिश्ता था...

दूसरी सुबह एक खून और आँसू की नदी के बीच से शायद दादी मुझे उठाकर ले गयी थीं, अपने पैतृक गाँव, फिर कभी अपने बेटे के पास न लौटने के लिए - मुझे न लौटाने के लिए...! वही बिस्तर में तेज बुखार और नीम बेहोशी के बीच डूबते-उतरते हुए मेरे कानों में अस्पष्ट-सी आवाज़ आई थी, पापा ने स्वयं को गोली मार ली है, मेरी ही तरह जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं... दादी खबर सुनकर रोती रही थीं, मगर नहीं गयी थीं! मैं साँसों की कच्ची डोर से बंधी न जाने कब तक जिंदगी से हाथ छुड़ाती और मौत की तरफ भागती रही थी... और एक दिन हारकर अपने तन-मन के घाव समेटकर उठ बैठी थी। दादी ने मुझे मरने नहीं दिया था। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा था, उनकी इस साजिश में उनके कृष्ण भी शामिल हैं जिनकी चौखट पर वे रात-दिन पड़ी रहती थीं। देह के जख्म भर गये थे और मन के जख्म दिखते न थे, मगर उनका समय के साथ और-और दगदगा उठना मैं महसूस कर सकती थी।

...वहीं से मेरी यातनाओं का सफर शुरू हुआ था - सुलगती हुई रेत पर नंगे पाँवों का दुःखता हुआ सफर... हर पल मरते हुए जीने का एक निस्संग और उदास सफर... मुझे कहीं नही जाना था, कहीं नही पहुँचना था, मगर चल रही थी... न जाने क्यों, न जाने किसलिए... उस रास्ते पर अनवरत, यंत्रवत् चलना जो इंसान को स्वयं से ही क्रमशः दूर ले जाय... विवशता किसे कहते हैं, कोई समझ सकता है...!

मैं बोर्डिगं स्कूल में रहकर पढती रही थी। वहाँ भी मैं एक अकेले द्वीप की तरह सबसे कटी हुई निस्संग जीती रही थी। किसी के करीब होना मेरे वश में नहीं रह गया था। स्पर्श मुझे आतंकित करता था। मुझे रिश्तों से डर लगता था, मैं नहीं चाहती थी, कोई भी मेरे करीब आये। अपने चारों ओर एक अदृश्य दीवार उठाकर मैं निस्संग जीए जा रही थी। कोई मेरे पास चाहकर भी पहुँच नहीं पाया! पहुँचता भी कैसे, मैं खुद ही अपने रास्ते में दीवार बनकर खड़ी थी...

छुटिटयों में घर पहुँकर कई बार दादी से पापा के विषय में पूछना चाहा था, मगर दादी के चेहरे की कठिन रेखाओं को देखकर हिम्मत नहीं कर पायी थी। दादी ने पापा की तस्वीरें तक दीवार से हटवा दी थीं। वह एक सच्ची माँ थीं, तभी इतनी कठोर माँ बन सकी थीं। उन्होंने पापा को अपना दूध कभी नहीं बख्शा था। मर कर भी उन्हें माफ नहीं कर सकी थीं। पापा उनकी मिट्टी तक को हाथ लगाने से मना कर दिये गये थे ।

पाँच वर्ष पहले जब मैं बी. ए. फईनल की परीक्षा देकर घर लौटी थी, दादी ने तटस्थ भाव से जानकारी दी थी कि वृंदावन के श्रीनाथ जी के मंदिर की सीढ़ियों पर जो भिखारन मरी हुई पडी मिली थी, वह वास्तव में मेरी माँ थीं...! सुनकर वर्षों से मेरे अंदर जमी हुई पत्थरों की स्तब्ध दुनिया में अचानक एक बड़ी-सी दरार पड़ गयी थी। शिलाएँ पिघलती हैं तो नदी बन जाती हैं, वही नदी जिसे बाँधने के लिए कभी ये शिलाएं जन्मी होती हैं... दर्द बहता है तो अपने तट बंधनों को तोड़ ही देता है...! माँ और भिखारन...! मुझे माँ का जराऊ गहनों में जगर-मगर करता हुआ रूप याद आ रहा था। उनकी कच्ची हल्दी-सी रंगत पर नाक में पडी हीरे की लौंग लश्कारे मारा करती थी। मांग भर सिंदूर में सूरजमुखी की तरह दपदपाती हुई वह हवेली के गलियारों में चाँद-तारे बिखेरती हुई चलती थीं। मैं पापा की तरह सांवली थी। गोरी बनने की आंकाक्षा में प्रायः उनकी हथेलियाँ अपने गालों से रगड़ा करती थीं।

...माँ की मृत्यु की खबर ने मुझे बिल्कुल ही अकेली कर दिया था। वह मेरी जिंदगी में नहीं थीं, मगर कहीं थीं। बस, यही एक तसल्ली रेगिस्तान-सी इस जिंदगी में कहीं से सुकून का चश्मा बनी हुई थी। अब तो वह संबल भी छिन गया था। निःशेष हो जाना शायद इसी को कहते हैं। मैंने अपने अकेलेपन से एक नये सिरे से समझौता करने की कोशिश की थी। अभी ठीक से संभली भी नहीं थी कि दादी भी मुझे छोडकर चली गयीं... यह मेरे अकेलेपन की हद थी, इसलिए एक तरह से मैं निश्चिंत हो गयी थी। सर्वहारा होने का भी एक अपना परवर्टेट किस्म का सुख होता है... उस स्वाद की तरह जो शायद हड्डी चबाते-चबाते लहूलुहान हो गये कुत्ते को अपने ही रक्त से मिलने लगता है...! अपने जख्म भी शायद जानवर इसलिए चाटते रहते हैं कि वे भर न पायें, ताजा बने रहें... वर्जित सुख का स्वाद निशि बनकर अपने पास बुलाता है, फिर-फिर भटकाता है...!

अरनव जीवन में एक बिलकुल अलग अंदाज से आया था। उसका अप्रोच दूसरोँ से अलग था। वह मेरी रूह के रास्ते से दिल की जमीन पर उतरा था। उसके आने से लगा था, स्याह बादलों के ठीक पीछे सूरज का उजाला है, सुबह अब होने ही वाली है। मैं अब मुस्कराने लगी थी, गुनगुनाने लगी थी...! जिंदगी की उदास फजाओं में सात रंगों का इंद्रधनुष भी घुलने लगा था, खिड़की पर चाँद खड़ा था, दरवाजे पर खुशियों की झिलमिल दस्तक थी... ये जादू का मौसम था, अपने सारे तिलस्म के साथ! मैंने आईने में मुस्कराते हुए अपने ही प्रतिबिंब को काजल का टीका लगा दिया था।

मगर जिस दिन हमारा ये प्यार अशरीरी शब्दों को लांघकर देह की दहलीज तक आ पहुँचा, मैं भय और आतंक से भर उठी। हर मर्दानी छुअन में पापा होते हैं, वह रात होती है और होता है खून में लिसरा हुआ मेरा मासूम यकीन! न जाने कितनी रातें बीत गयी थीं उस रात के बाद, मगर वह रात आजतक मेरे अंदर से बीत नहीं सकी थी पूरी तरह से, बनी हुई थी कहीं-न-कहीं- अपनी सम्पूर्ण त्रासदी और विभीषिका के साथ...! जब-जब अरनव करीब आता, मुझे चूमता, मेरी देह की नर्म रेखाओं को सहलाता, मैं जैसे कीचड़ से लिसर जाती, कीड़े-से रेंगते रहते मेरे शरीर पर देर तक... एकबार मैं उसके आफ्टर सेव ’आजारो’ की महंगी बोतले बीन में फेंक आयी थी - पापा को यही ब्रांड प्रिय था, और मुझे भी इसकी मादक गंध मदहोश कर देती थी, शायद इसलिए इन्हें फेंकना जरूरी हो गया था... हर वह चीज जो जीवन में प्रिय थी, अब दुःख देने लगी थी, क्योंकि पापा मेरे अबकत के जीवन के हर पहलू से जुड़े हुए थे, कोई ऐसा कोना नहीं था, जहाँ पापा नहीं थे... मेरे लिए देह के सुख का स्वाद भी शायद हमेशा के लिए ग्लानि की किसी अतल खाई में खो गया था। कुंठाओं और ग्रंथियों का एक विषम गुंजल बनकर रह गयी थी मैं।

एकबार युनिवर्सिटी कैम्पस में क्लासेज खत्म होने के बाद मैं और अरनव अचानक आ गयी बारिश से बचने के लिए फुटबॉल ग्राउंड के पास वाले गुलमोहर के नीचे आ खड़े हुए थे। एकांत पाकर अरनव ने जब मुझे चूमते हुए मुझसे अंतरंग होने की कोशिश की थी, मैं आतंक से पीपल के पत्ते की तरह कांप उठी थी। मुझे लगा था मेरे भीगे हुए शरीर पर अरनव की सिंकी हुई उंगलियाँ नहीं, छिपकलियाँ फिसल रहीं हैं...! मैं खुद को उससे छुडाकर जमीन पर बिखरी हुई किताबों को उठाये बिना ही वहाँ से चल पड़ी थी। अरनव माफी मांगता हुआ दूर तक पीछे-पीछे आया था। जाहिर है, उसने मेरे इस व्यवहार को मेरा संस्कार-जनित संकोच माना था। मैं भी इसी तरह के बहानों की ओट में अपनी देह बहुत दिनों तक छिपाती रही थी।

शादी की बात जब टालना और संभव नहीं रह गया तब मैंने हाँ कर दी। मगर सुहागरात मेरे लिए वही वर्षों पुराना दुःस्वप्न फिर से ले आया था। न जाने वह रात किस तरह बीती थी। दूसरी सुबह मैं शायद घंटों नहाती रही थी। चाहती थी, अपनी त्वचा ही सारी छुअन के साथ उतार फेंकूँ...सारे पुरूष अंततः पापा ही बन जाते हैं। पापा का पुरूष बन जाना या पुरूष का पापा बन जाना कैसा त्रासद अनुभव हो लकता है, मेरा मर्म ही जानता था। पसीना, आफ्टर सेव और सिगरेट की मिली-जुली गधं ... गालों में दाढ़ी की खड़खडाहट, अबाध्य होंठों का दबाव, उंगलियों का वहशीपन... अरनव के सानिध्य में आते ही न जाने कैसी वर्जित-सी इच्छा और ग्लानि की परस्पर विरोधी मनःस्थिति में मैं हो आती हूँ... कपडों के अंदर देह पसीजने लगता है, गर्म लहू की नदी शिराओं में हरहराने लगती है... मगर दूसरे ही क्षण वही तनाव और कुंठा...! मैं अहल्या की तरह पाषाण हो उठती हूँ! अरनव के लिए मन गीला होता है, मगर अभिशप्त देह की कठिन रेखाएँ सहज नहीं हो पातीं। मैं चाहती हूँ, हमारी रूह के बीच से यह तन की मिट्टी हट जाय, मगर वह हर बार अपरिहार्य नियति की तरह सामने आ खडी होती है।

...अरनव की पतीक्षा में मैंने वह सारी रात पलकों पर काट दी थी। एक न खत्म होनेवाले दुःस्वप्न की तरह बीती थी वह रात। मैं सोने की कोशिश में हर क्षण जागती रही थी। सुबह उठी तो सर भारी था। किचन में पहुँचकर वहाँ अरनव को डायनिंग टेबल पर बैठे हुए पाया। सामने रखी कॉफी ठंडी हो रही थी। हाथ में सिगरेट जलकर अंतिम सिरे तक पहुँच गयी थी। मेरी आहट पाकर उसने चेहरा उठाकर देखा था। उसकी आँखें लाल थीं, जैसे देरतक रोता रहा हो। मैं अपराधी की तरह चुपचाप खड़ी रह गयी थी। हमारे बीच के सारे शब्द चुक गये हों जैसे! थोडी देर बाद उसने न जाने कैसी आवाज में कहा था-‘संदल, लास्ट नाइट आई हैव बीन टु ए होर...!‘ अरनव के शब्दों ने मुझे गहरे तक स्तब्ध कर दिया था। कोई आक्रोश या घृणा के भाव नहीं पैदा हुए थे, बस एक गहरी हताशा और दुःख ने घेर लिया था - ये अकेले होने का सिलसिला न जाने कब खत्म होगा। मुझे चुप देखकर अरनव मुझसे लिपट गया था- ‘आई एम सॉरी हनी...‘ मैंने बडी मुश्किल से पूछा था -‘डीड यू डू इट...?‘ ‘नो, आई कुड नॉट...‘ वह देर तक सिसकता रहा था और फिर हिचकते हुए कहा था -‘ऐन वक्त पर मैं उसका मुँह नोंचकर भाग आया...‘ ‘व्हाट...!’ मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं आया था। ‘यस संदल...ये तुम हो जिसे मैं चाहता हूँ... नॉट एनी वन एल्स....’ हम दोंनों कुछ देर तक एक-दूसरे की तरफ देखते रहे थे और फिर एक साथ हंस पड़े थे- ‘यू आर नटस् अरनव...‘ ‘यस, आई नो आई एम...जस्ट लाइक यू...‘ उसने मेरे सीने में अपना चेहरा धंसा दिया था ।

इसके ठीक एक महीने बाद मैं अस्पताल में पापा के बेड के बगल में बैठी सोच रही थी कि मैं वहाँ क्या कर रही हूँ। पापा मर रहे थे, ये उनके चेहरे पर साफ लिखा हुआ था। बड़ी बुआ ने आधी रात में मुझे फोन करके कहा था - ‘दुलाल मर रहा है संदल... तुझसे मिलना चाहता है। एकबार उससे मिल ले, उसके लिए न सही, अपने लिए... कब तक भागती रहेगी... एकबार सामना करके इस नर्क को गुजर जाने दे अपने अंदर से... तेरे लिए जरूरी है...‘ मैं कभी नहीं जाऊंगी कहकर मैंने फोन पटक दिया था। सारी रात मैं रोती रही थी। अंदर जैसे सारे जख्मों के टाँके एक साथ खुल गये थे। उस रात मैंने अरनव के सामने सबकुछ कन्फेश कर लिया था। अरनव मेरा हाथ अपने हाथ में लिए बैठा रहा था। उसने बिना कुछ कहे मुझे रोने दिया था, कहा था, रो लो संदल, नहीं तो दर्द नासूर बन जायगा... मेरा अकेले का दुःख उस दिन सांझे का होकर जैसे अपना वजन खोता जा रहा था। सुबह के करीब मैं सो गयी थी।

दूसरे दिन अपनी सारी इच्छाओं के विरूद्ध मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार हो गयी थी। अरनव साथ नहीं आया था। अस्पताल के गेट पर मुझे कार से उतारते हुए हल्के से मेरा हाथ दबाया था - ‘ये तुम्हारा सलीब है, तुम्हें ही उठाना है संदल, आगे बढो, मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा...!‘ स्वयं को ढोती हुई-सी मैं पापा के कमरे में दाखिल हुई थी। दरवाजे पर खड़ी बुआ के चेहरे पर मुझे देखकर कोई आश्चर्य के भाव नहीं आये थे, शायद वह जानती थीं, मैं जरूर आऊंगी। कोई खुद से कहाँ तक भाग सकता है और कबतक...।

बिस्तर पर पापा लेटे हुए थे। उनकी आँखों से मैंने उन्हें पहचाना था। बाकी कहीं कुछ पहले जैसा रहा नहीं था। वे बहुत पहले और शायद बहुत बार मर चुके हैं। आज साँसों में पूर्ण विराम लगाने की औपचारिकता भर निभानी है। बिना कुछ कहे मैं भावशून्य आँखों से उनकी तरफ देखती रही थी। एक हद के बाद संवेदनाएँ ऐसे खत्म होती हैं कि अनुभव के परे चली जाती हैं। हाथ रह जाता है तो बस एक अबूझ-सा स्वाद जिसे मन नहीं पहचानता...एक शून्य, एक जड, एक अवश हो जाने की-सी मनःस्तिथि...

पापा ने मेरी तरफ आँखें उठाकर नहीं देखा था। बस उनकी पलकें थरथराती रही थीं - वे निःशब्द रो रहे थे। बिस्तर से मिला हुआ उनका दुबला शरीर लग रहा था जैसे आँसुओं में ही बह जायेगा। पता नहीं, इसी तरह से कितना समय बीत गया था, जब पापा ने रूक-रूककर एक अजनबी-सी आवाज में कहा था -‘मुझे माफ कर दो गुड़िया, मैंने किसी और को सजा देने के लिए... आई वाज़ सिक...जिंदगी भर मरता रहा, मगर फिर भी मर न सका, अब मुझे मर जाने दो, भगवान् मेरी सजा कम न करें, मगर तुम एकबार मुझे माफ कर दो...‘ इतना कहते हुए ही वे बुरी तरह हाँफ उठे थे। पानी से निकली हुई मछली की तरह उनकी हालत थी। मैं अचानक उठ खड़ी हुई थी, अब इस नर्क का अंत हो - ‘ मैंने आपको माफ कर दिया है पापा, आप अपने दिल पर कोई बोझ न रखें...’ इतना कहकर मैं झटके से उठकर कमरे से बाहर निकल आयी थी। अपने पीछे मैंने बुआ की चीख सुनी थी, मगर मुडकर नहीं देखा था- अब मुझे पीछे मुडकर कभी नहीं देखना है, बस आगे बढना है, जहाँ जिंदगी आज भी मेरे इंतजार में शायद कहीं ढेर सारी खुशियाँ लिए खड़ी है। पाप कभी क्षम्य नहीं हो सकता, मगर पापी....?..और तब जब पश्चाताप का लंबा रास्ता तय करके कोई सामने याचक बनकर आ खड़ा हुआ हो- कुदरत की तमाम सजायें झेलकर, स्वयं को ही खत्म कर लेने की नाकाम कोशिश की जिल्लत और ग्लानि झेलता हुआ... अब मैं इस बहस में नहीं पडना चाहती।

वह रात उनपर भी भारी थी, उन्हें भी ले डूबी थी... डूबनेवाला अपने अंजाने ही दूसरों को भी ले डूबता है और कभी-कभी उसे इसका अहसास भी नहीं होता! आज उन्हें माफ करके मैं स्वयं मुक्त हो गयी थी। एक लंबी उम्र से घृणा के इस रिश्ते से जुड़ी हुई मैं खुद से ही अलग होकर रह गयी थी। घृणा का संबंध सबसे बडा संबंध होता है, इसकी वरगद जैसी छाँव के नीचे दूसरा कोई संबंध पनप नहीं पाता... पनप नहीं पा रहा था। इस बंधन को काटना आज जरूरी हो गया था - पापा को मेरे अंदर से सचमुच मर जाने देने के लिए और मेरे सही अर्थों में जी सकने के लिए...इस नासूर का कोई दूसरा ईलाज नहीं था मेरे पास।

घृणा किसी बात का हल हो नहीं सकती, अपनी इस लंबी बीमार जिंदगी ने मुझे अच्छी तरह से सिखा दिया था। मेरी धमनियों में दौडते हुए विष ने मुझे ही प्रतिपल तिल-तिलकर मारा था। स्वयं को प्यार से, जिंदगी से, खुद से जोडने की एक आखिरी कोशिश में मैंने अजगर-से घृणा के इस पाश को अपने जीवन से काटकर आज बहुत दूर फेंक दिया था। मेरे समक्ष दो ही विकल्प रह गये थे- या तो मेरी घृणा या मेरे होने का - मैंने अपने होने का विकल्प चुना था... इसकी एकमात्र कीमत मेरे अंदर की गहरी घृणा थी... मैंने उसे खत्म हो जाने दिया! एक पहाड़ यकायक मेरे सीने से उठ गया हो जैसे, मैंने बाहर की खुली हवा में आकर गहरी साँस ली थी- मैं हील हो रही हूँ... मेरे अंदर प्यार बीज बनकर अखुँआ रहा है... मैं जैसे खुद को ही यकीन दिलाती हूँ। नहीं, अब उन्माद के एक क्षण को अपने पूरे जीवन पर कैसे भी हावी होने नहीं दूंगी, प्यार को नफरत से हारने नहीं दूंग...

अरनव गेट के पास कार के बोनट से टेक लगाये खड़ा है। मैं जल्दी से जल्दी उस के पास पहुँचकर उससे लिपट जाना चाहती हूँ - आज मेरा अरनव सिर्फ मेरा अरनव है, कोई और नहीं! पापा मर चुके हैं, आज पापा सचमुच मेरे लिए मर चुके हैं...!

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