Badi baai saab - 6 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | बड़ी बाई साब - 6

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बड़ी बाई साब - 6

बड़ी हुई तो दादी उसकी शादी को लेकर अतिरिक्त चिन्तित नज़र आईं. चिन्ता की वजह था नीलू का बढ़ता वज़न. रंग भी बहुत साफ़ नहीं था नीलू का,. लेकिन गेहुंआ वर्ण की नीलू का नाक-नक़्श बहुत सलोना था. अच्छी लम्बाई की वजह से बढ़ा हुआ वज़न भी अटपटा नहीं लगता था. दादी की ही तरह खूब लम्बे बाल. दिमाग़ से खूब तेज़ नीलू को पढ़ने का भी खूब शौक था. हर काम लगन से करने का गुण उसे अपनी मां गौरी से मिला था. उतनी ही सहनशील भी. हां, रसोई के काम उसे एकदम नहीं भाते थे. दादी ने भी कभी खाना बनाने पर ज़ोर नहीं दिया. गौरी कई बार टोकती भी कि छुट्टियों में थोड़ा बहुत रसोई का काम सीख लो, लेकिन नीलू को तो रसोई के नाम पर ही बुखार चढ़ने लगता.
नीलू के लिये लड़के देखने का कार्यक्रम बड़ी बाईसाब ने उसके बी.एस.सी. में आते ही शुरु कर दिया था. उन्हें पहले ही अन्देशा था कि लड़की का वज़न, बहुत जल्दी अच्छा लड़का हाथ न लगने देगा. लड़की की अन्य योग्यताओं पर उसका शारीरिक सौंदर्य हमेशा भारी पड़ता रहा है. भले ही बाद में लड़की मोटी हो जाये, शादी के समय एकदम इकहरा बदन ही चाहिए. रंग साफ़ हो, रसोई के कामों में निपुण हो, वाणी से मिठास झरती हो, लज्जाशील हो…. लड़की न हुई हाथ से गढ़ी प्रतिमा हो गयी…. नीलू को भी कई लड़कों ने देखने के बाद चुप्पी साधी तो कई लड़के बड़ी बाईसाब ने नापसन्द किये. कहीं लड़का अच्छा था, तो घर पसन्द नहीं आया, घर अच्छा था तो लड़का पसन्द करने लायक़ न था. होते-होते तीन साल निकल गये. दादी ने अपना अभियान और तेज़ किया. इस बीच एम.एस.सी. के दो साल भी निकल गये. नीलू शौक़िया एक प्रायवेट स्कूल में पढ़ाने लगी. बी.एड. का फ़ॉर्म आया, भरा गया. बी.एड. भी हो गया. लेकिन बड़ी बाईसाब ने उसे सरकारी नौकरी के लिये कभी संविदा शिक्षक की परीक्षा में शामिल नहीं होने दिया. पता नहीं उन्हें क्या डर था…. शायद डर कम, नीलू के चुने जाने का भरोसा ज़्यादा था, और वे नहीं चाहती थीं कि नीलू उनसे दूर जाये.
अभी जहां नीलू का रिश्ता तय हुआ है, वहां गौरी ने कभी नहीं चाहा था बेटी को भेजना. शुरु में भी इन लोगों की ओर से ही प्रस्ताव आया था. लड़का अच्छा है, लेकिन पता नहीं क्यों, गौरी को उसके मां-बाप एकदम न भाये. लड़की की शादी के मामले में केवल लड़के का अच्छा –बुरा होना देखना चाहिये, ऐसा गौरी नहीं मानती. उसका मानना है कि लड़की का अधिकांश समय परिजनों के बीच ही बीतता है. ऐसे में यदि घरवाले समान सोच वाले न हुए, समान नहीं तो अच्छी विचारधारा वाले कह लीजिये, न हुए तो लड़की का तो जीना मुश्क़िल हो जायेगा. आजकल के बच्चे जिस माहौल में रहते हैं, उन्हें उसी माहौल के अनुकूल ससुराल भी मिले, ऐसी कोशिश की जानी चाहिये. बाक़ी तो लड़की समझौते करती ही है, अघोषित रूप से ये इबारत बड़े-बड़े हर्फ़ों में लिखी होती है, उसकी ज़िन्दगी की स्लेट पर. लड़के के मां-बाप कुछ ज़्यादा ही मीन-मेख वाले, लालची टाइप लोग लगे थे गौरी को. जब पहली बार आये थे तो लड़की से ज़्यादा उनका ध्यान घर के वैभव पर ही था.