Lamho ki gatha - 3 in Hindi Short Stories by सीमा जैन 'भारत' books and stories PDF | लम्हों की गाथा - 3

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लम्हों की गाथा - 3

  • लम्हों की गाथा
  • (7)
  • फाँस
  • तीन पीढ़ियों से इस परिवार के साथ हूँ। क्या नही देखा मैने! बेटी की विदाई, बहू का आगमन और बहू बेटी के साथ व्यवहार का भेदभाव।

    पहली पीढ़ी की बहू के माता-पिता तो कभी इस घर में खाना न खा सके।एक बार बहू बीमार थी उसे देखने आये और गर्मी के कारण उन्होंने जो पानी पीया उसका ताना बड़ी बहू ने जब तक जी तब तक सुना।

    उसके बाद दूसरी पीढ़ी, बहू के माता-पिता ने खाना खाया पर प्रेम नही, बस एक लिहाज़। बहू क्या करती जाते-जाते अपने पिता को यहाँ की मिठाई भी न दे सकी।माँ जी से पूछा था पर...

    आज तीसरी पीढ़ी की छोटी बहू रोली ने वो कर दिया जो मै देखने के लिए तरस रही थी।

    बड़ी बहू के साथ जो होता था वो देख चुकी थी।

    रोली माँ से बोली-"माँ, बाबूजी की पसन्द का खाना बना ले या उनके लिए...?”

    माँ क्या कहती? बेटी के ससुराल से कोई आ जाये तो दोनों बहुएँ कितनी आवभगत करती है ये कैसे भूल सकती है।

    बोली-"हाँ,जो तेरे बाबा को पसन्द है वही खाना बना ले।"

    रोली बोली-"माँ,यहाँ की फैनी बाबा को देनी है तो में ही बाज़ार से जाकर ले लूँ या...?"

    माँ ने भी कहा-"रोली घर में भी कोई मिठाई नही है ऐसा कर सारा सामान इकट्ठा ही ले आ।"

    आज रोली के बाबा के जाने पर मैने जो सुकून पाया उसके लिए शब्द नही है मेरे पास।

    वैसे भी मै इस घर की खाने की मेज हूँ मेरे शब्दों की ज़रूरत ही किसे होगी।

    मेरा एक तिनका भी गड़ जाये तो आप कहते हो फाँस गड़ गई और मेरे मन में जो इतने सालों से गड़ा था उसे क्या कहोगे?

    नाम चाहे जो हो, पर आज मेरी भी फाँस निकल गई।

    ***

  • (8)
  • बचपन
  • मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता हूँ। रोज़ स्कूल, होमवर्क और बाद में ट्यूशन। क्या करूँ? माँ मुझे नहीं पढा़तीं हैं कहती हैं, ‘मेरे पास टाइम नहीं है।’

    मैं शाम को बहुत कम समय खेल पाता हूँ। मुझे खेलना बहुत अच्छा लगता है। टीवी मुझे पसन्द नहीं। रात को माँ अपने घर के काम और फिर मोबाईल में व्यस्त रहती हैं। मुझसे बहुत कम बात करती हैं। पापा ऑफिस से देर से घर आते हैं।

    आज मैं खु़श था। आज माँ अपनी मित्रों के साथ ‘हरिद्वार वाले’ के यहाँ आई थीं। यहीं मेला भी लगता है। झूले और खिलौने सब यहाँ मिलते हैं। वे सब इकट्ठे हुए और लगे खेलने, वो हॉउसी का खेल होता है ना! मैं बैठा बस देख रहा था।

    उकताकर माँ से कहा, ‘माँ,बाहर चलो मुझे झूले झूलने हैं।’ माँ ने कहा, ‘पहले गेम पूरे होने दो फिर बाहर चलेंगे।’ मैं क्‍या कहता। समझदार बच्चा बने रहना ज़रूरी है। नहीं तो फिर माँ नाराज़ होतीं, ‘अवि तुम कब ....?’ चुप बैठा इंतज़ार करता रहा। कब ये गेम खत्म हों और हम बाहर जायें।

    हम जैसे ही बाहर निकले मैं झूलों के पास दौड़ा। बस दो ही झूलों पर बैठा और माँ ने कहा, ‘देर हो रही है, अब घर चलो, हम फिर आयेंगे।’ मेरा मन नहीं भरा था। मैं और घूमना चाहता था। माँ से कहा भी तो बोलीं, ‘ज़्यादा ज़िद नहीं, अवि घर चलो।’

    घर आकर मैं रोने लगा तो माँ चिल्ला पड़ीं, ‘अवि तुम बहुत जि़द्दी हो गए हो। बिलकुल कहना नहीं मानते हो।’

    मेले मैं पूरे वक़्त चुप बैठा रहा। झूले,जो झूलने थे, वो बाद में झूले। वो भी बस दो।

    अब आप ही बताओ और कितना समझदार हो सकता हूँ? वैसे खेलने की उम्र किसकी है, मेरी या माँ की?

    ***

  • (9)
  • गाइड
  • पहना तो हमने आज भी सलवार सूट ही है। मंच पर खड़े हैं हम, जूनियर वैज्ञानिक का ख़िताब लेने के लिए। फर्क ये है कि कभी इसी सूट के कारण किसी ने हमें ‘बहन जी’ कहा था। वे भी आज दूर से हमें देख रही हैं।

    आज से तीन साल पहले हम इस कॉलेज में आए थे। अपने गाँव में 12 वीं में अव्वल आए तो गुरु जी ने हमें शहर में इस कॉलेज में दाखिला दिलवाया। माँ-बाबा को मनाना आसान नहीं था। पहले दिन कॉलेज में किसी से भी बात नहीं हुई। होस्टल में जो पहली मित्र बनीं वो वे ही थीं।

    उन्‍होंने कहा, "ये क्या ऐसे बहन जी की तरह रहोगी? ये सलवार सूट तो अपने गाँव के लिए ही रख दो सम्हाल कर। अब ये जीन्स पर कैसा शर्ट पहना है? बाबाजी का झंगा ! तुम शहर के सबसे बड़े कॉलेज में आई हो। अपने ढंग बदलो।"

    और हम बस चुप ही रह गए थे।

    वे फिर बोली थीं, "फोन? एंड्रॉइड के बगैर कैसे रहोगी? व्हाट्सअप के बिना जीना इम्‍पोसीबिल है।"

    "...यहाँ हम पढ़ने आये हैं ना बहना! " हमने प्रतिवाद किया था।

    "बहना..क्‍या बहना? डूड! यहाँ ये सब नहीं चलेगा। जस्ट चेंज योरसेल्फ! हाउ कुड??" वे इतराकर बोली थीं।

    "भाषा तो हमें अंग्रेजी और फ्रेंच भी आती है। पर हिंदी का ऐसा हाल? और हमारे पास लेपटॉप है न, फिर दूसरे फोन की क्या जरूरत?" हमने फिर अपना तर्क रखा था।

    "मेरा कहा मानो, नहीं तो सब तुम पर हँसेंगे। जैसे मैं गाइड कर रही हूँ वैसे करो। कोई तुम्हारे पास बैठना भी लाइक नहीं करेगा।" वे झल्‍लाईं थीं।

    तीन साल का सफर!! खुद को बदला, पर ऐसे नहीं कि अपनी जड़ों को ही भूल जाएँ। न तो हिंदी में अंग्रेजी का ऐसा घालमेल किया और न ही एंड्रॉइड लिया। बस यूँ ही अपने आत्‍मविश्‍वास का हाथ थामे....आज भी वही सलवार सूट है। हाँ ‘ड्रेसिंग सेंस’ आ गया है।

    अब आप ही बताओ किसे किसके ‘गाइडेंस’ की जरूरत है?

    ***