Domnik ki Vapsi - 26 in Hindi Love Stories by Vivek Mishra books and stories PDF | डॉमनिक की वापसी - 26

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डॉमनिक की वापसी - 26

डॉमनिक की वापसी

(26)

रेबेका को छोड़कर फ्लैट पर पहुँचते हुए बहुत देर हो गई थी.

उस रात वह अकेला होकर भी अकेला नहीं था. वहाँ से लौटकर लग रहा था कोई नाटक देखके लौटा है. उस फ़कीर की किस्सा कहती आँखें जैसे साथ चली आईं थीं. उसकी कही बातें अभी भी कानों में गूँज रही थीं, ‘हर समय में तुम्हें बनाने और मिटाने वाले तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं। मुहब्बत के मददगार और उसके दुशमन एक ही छत की सरपस्ती में पलते हैं।’

फिर रेबेका सामने आ गई. याद आया ‘सच ही कह रही थी मेरा किरदार भी बूढ़ा होके उसी फ़कीर के जैसा दिखेगा... रेबेका ने अनंत से मिलाके ख़ुद को समझने का एक नया दरीचा खोल दिया, शायद वह जानते थे कि उस किस्सागो की बातों में कुछ है जो अपनी कई सौ साल पुरानी कहानी से मेरे मन की कोई फाँस निकाल देगा.’

लगा उसी समय रेबेका को फोन करे. इतने दिनों में पहली बार अकेला होना बुरा लग रहा था. रेबेका के साथ की जरूरत लग रही थी. मन को टटोला तो लगा सच में उसकी याद आ रही है...

दूसरे दिन शाम को दोनों इंडिया गेट के पास मिले. लगा बीच की दूरी पहले से बहुत कम हुई है, या लगभग खत्म हो गई है. आज दोनों में से किसी के पास प्रश्न नहीं थे.

कुछ देर बाद रेबेका ने कहा ‘हम यूँ ही चलते रहेंगे या सोचेंगे भी कि हमें कहाँ चलना है?’

‘तुम बताओ.. कहाँ चलोगी?’

‘ले चलोगे?’

दीपांश ने हाँ में सिर हिलाया.

रेबेका ने ख़ुश होते हुए कहा ‘मुझे वहाँ ले चलो जहाँ तुमने पहली बार डॉमनिक का किरदार निभाया था.’

दीपांश ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘हम्म.. वह जगह मरम्मत के लिए फिलहाल बंद है, पर तुम देख सकती हो...’

दीपांश के लिए जो बात बहुत मामूली थी और लगभग भुलाई जा चुकी थी उसपर रेबेका को इतना ख़ुश देखकर उसे आश्चर्य हो रहा था. वे आधा-पौन घंटे में ऑटो से चितरंजन पार्क के उस पुराने थिएटर के सामने पहुँच गए थे. थिएटर का एक हिस्सा मरम्मत के बाद दुरुस्त हो गया था. पर पीछे अभी भी बाँस-बल्लियाँ बंधी थीं जिनपर मोटी-मोटी रस्सियाँ झूल रही थीं जिन्हें देखके लगता था कि थिएटर अभी भी बंद ही है. उन्हें गेट पर तांकझांक करते देख एक गार्ड बाहर निकल आया था. दीपांश उसको कुछ बता ही रहा था कि उसके पीछे से आते हुए एक बुजुर्ग ने उसे पहचान लिया था. उससे इजाज़त लेकर वे थिएटर के भीतर आ गए थे.

लॉबी में अभी भी कितने ही नाटकों के पोस्टर दीवारों पे चिपके थे... लगता था कई दास्तानें सुने जाने के लिए कानों के इंतज़ार में हवा में स्थिर खड़ी हैं.. लगता था वे हल्के से कंपन से दीवारों से उतर कर बोलने लगेंगीं.... रेबेका ने एक कोने में खम्बे पे लगे ‘डॉमनिक की वापसी’ के पोस्टर को खोज लिया था... दीपांश ने एक बड़े से खटके को नीचे किया तो तेज़ रोशनी पोस्टर पर पड़ने लगी थी.... दोनों एक टक पोस्टर को देखते रहे... रेबेका ने मुड़के दीपांश को ऐसे देखा जैसे पोस्टर के चेहरे से उसका मिलान कर रही हो....

दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में कुछ अनकहा पढ़ लिया..

डॉमनिक ने उसका हाथ पकड़कर, उसे अपने पास खींच लिया।

रिबेका ने बल्ब की ओर इशारा करते हुए कहा, 'बहुत रोशनी है, यहाँ'

'तो?'

'नहीं इतनी तेज़ रोशनी में नहीं।'

'क्यों?'

'इसमें वे निशान भी दिखते हैं, जो अब नहीं हैं'

दीपांश ने उसे बाहों में भरते हुए कहा, 'छत पर चलते हैं'

रेबेका ने भी उत्साह से हामी भरी।

दोनो दौड़ते हुए लॉबी से छत पर जाती हुई सीढ़ियों की तरफ़ बड़े। सीढ़ियों के घुमावों पर आए अंधेरों में दीपांश ने रेबेका को कई बार अपनी बाहों में भरा। उसने भी पूरे उत्साह से उसका साथ दिया। सीढ़ियों से छत तक पहुंचने से पहले एक अंधेरे मोड़ पर रेबेका ने दीपांश को ऐसे चूमा जैसे यह उसके जीवन का पहला चुम्बन हो, फिर एकदम छिटक कर पीछे हट गई। वह दीपांश से इस तरह से दूर हुई, जैसे खेल का कोई बहुत जरूरी नियम भूल गई हो। उसे जैसे अचानक याद आ गया हो कि उसे तो खींचना है, सोखना है दूसरे का दुख, त्रास और थकन और उसे देना है आनंद, एक कल्पनातीत सुख। आश्वस्त करना है सामने वाले को, आगे के लिए कि वह ऐसे ही सुख देती रहेगी उसे, बिना किसी अवरोध के, दूसरे रिश्तों की तरह, उनके बीच कभी, कुछ भी पुराना नहीं पड़ेगा पर इस सबमें वह तटस्थ रही आएगी, हिलने नहीं देगी अपने भीतर का जल, उठने नहीं देगी कोई हिलोर, कोई कंपन। रक्त, अस्थी, मज्जा, कुछ भी बह निकले शरीर से पर बहने नहीं देगी भावनाओं को, पिघलने नहीं देगी सीने में जमी बर्फ, बहने नहीं देगी दुख का हिमालय, जो सालों से धरा है, सीने पर।

……पर आज उसे यह क्या हो रहा है! वह सोच रही थी कि क्यूँ आँखें पनियायी जा रही हैं, बार-बार, क्यूँ लग रहा है कि वह दीपांश के उलझे बालों में उँगलियाँ फिराए और बाहों में भींच कर उसका सिर लगा ले अपनी छाती से। क्यूँ लग रहा है कि कोई न छुए उसे उसके छूने के बाद। क्यूँ मन है कि उतार दे, देह पर दिनों-दिन से ओढ़ी बेशर्मी। क्यूँ याद आ रहा है, आज अपना ही पन्द्रह साल पुराना चेहरा।

वह गुरुत्व विहीन हो छत की मुंड़ेर पर बैठ गई थी, जहाँ से सड़क पर दौड़ती गाड़ियाँ चाबी भरे खिलौनों-सी इधर-उधर भागती हुई लगती थीं। उसके शरीर में बढ़ती रक्त की गति ने उसके शरीर का तापमान बढ़ा दिया था। उसकी धड़कनें किसी रेलगाड़ी-सी प्रेम और स्वार्थ की समानान्तर पटरियों पर तेज़ी से दौड़ रही थीं। वह अपने वर्तमान के विराट रेगिस्तान को पलभर में लांघकर किसी कल्पनालोक में पहुँच जाना चाहती थी। वहाँ, जहाँ शायद पीछे छूटे रिश्तों की गर्माहट अभी भी क़ैद थी। एक गर्म बिछौने पर माँ-बाबा की तस्वीर, टूटे खिलौने, भाई की जेब में मिली गाँजे की पुड़िया, पहले प्यार में लिखा अधूरा ख़त- सब बेतर्तीब पड़े थे। आस-पास और भी चीजे थीं। वह उन सबको जल्दी-जल्दी पहचान रही थी- लाल साइकिल, गुलाबी फ्राक, जाफ़री में पड़ता धूप का तिकोना टुकड़ा, सिनेमा हॉल के अंधेरे में पहले स्पर्श की गुदगुदी, दवा-खांसी-कर्ज़, और भी बहुत कुछ,……और फिर,…रास्ते, चौराहे, मोड़ और अन्त में एक अंधेरी गली और उसमें गूँजता सॉयरन, जो अतीत से वर्तमान में, कल्पना से यथार्थ में लौट आने की चेतावनी देता है।

उसे लगा वह छत की मुंडेर से गिर जाएगी, ज़मीन पर बिछी एक काली पट्टी पर, जिसपर कई रंग की कारें ट्रेफिक में फसी धीरे-धीरे रेंग रही हैं।

तभी दीपांश ने उसे एक झटके से मुंडेर से नीचे खींच लिया. उसकी आँखों का रंग बदला हुआ था. उसने अपनी मजबूत बाहों में उसे जोर से भींच लिया. और अपने होंठ उसके उन होंठों पे रख दिए जो उसके चेहरे पे अभी-अभी उगे थे, चिर प्यासे और अभी तक अनछुए रहे आए... उसकी पकड़ में वह चाह के भी हिल नहीं पाई.

कुछ देर वहीं ख़ामोश बैठे रहे फिर जैसे एक साथ दोनों के मन में कोई तूफ़ान उठा.

बिना किसी सवाल-जवाब के दोनों दीपांश के फ्लैट पर चले आए...

रेबेका कुछ कह पाती, उससे पहले ही, दीपांश ने एक झटके में उसके गाउन की पट्टियों को उसके कंधों से खिसका कर नीचे कर दिया। उसने रोका नहीं। वह खिसककर पैरों में उलझता नीचे जा गिरा। इतने साल, इतने पुरुष, इतनी रातें, अच्छे-बुरे-भयावह कई तरह के अनुभव- सब बेकार।

आज जैसे सब नया था।

वह डर रही थी, काँप रही थी। अब न प्रेम की मन:स्थिति थी, न व्यापार की। यह जैसे एक अलग ही अनुभव था। इस धंधे में बने रहने के लिए उसने, जो एक अदृश्य लबादा ओढ़ रखा था, आज वह लबादा उसे अपने आस-पास कहीं नहीं दिख रहा था। वह लबादा, जिसे ओढ़कर वह नग्न होकर भी नग्न नहीं होती थी, वह यहाँ आते हुए कहीं छूट गया था।

……… अब डॉमनिक के चेहरे से भी वह बच्चों-सी मासूमियत गायब थी। अब वह कोई दूसरा ही लग रहा था। उसकी देह पर कई हाथ उग आए थे, रेबेका जैसे बिना लड़े ही परास्त हुई जा रही थी। वह स्वयं से ही पूछ रही थी कि आज क्या वजह है कि उसे अपने सारे शस्त्र बेकार जान पड़ रहे हैं।

उसने निमिष उसे देखा।

फिर अपने भीतर कुछ टटोलने की कोशिश की, पर आज वहाँ से उसकी किसी बात का उत्तर नहीं आ रहा था। जो भी वहाँ घट रहा था, या घट सकता था, वह सब जानती थी। पर उस समय वह इतना ही समझ पा रही थी कि पहले कभी वह इस तरह इस सबमें मन से भागीदार न थी। वह डर भी रही थी और खुद को बचाना भी नहीं चाहती थी। कुछ था जो उसके मन की अर्गलाएं खोल रहा था, वह बिखर रही थी...

तभी दीपांश उसके कान को काटते हुए फुसफुसाया, ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं।’

उसने एक झटके से अपने-आप को समेट लेना चाहा, झूठे गुस्से से बिफ़रना चाहा पर उस पर तो जैसे कुछ और ही सवार था। किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत उसकी देह ढीली पड़ती जा रही थी। ज्यों-ज्यों वह खुलके बिखर रही थी, कोई मजबूत शिकंजा उसे अपनी जद में लेता, कसता चला जा रहा था। वह हार रही थी, या जीत रही थी। वह नहीं जानती थी, पर इतना जानती थी कि वह पूरे प्रवाह से बह रही थी। भीतर कुछ था जो ज़ोर-ज़ोर से हिलोरें ले रहा था। उसके अन्त: में एक ऐसी गूँज थी, एक ऐसी थरथराहट थी, एक ऐसा कंपन था, जिससे उसके भीतर का, उसकी छाती पर धरा हिमालय पिघल रहा था। आज वह जो पा रही थी, वह उसने पहले कभी नहीं पाया था। उसी क्षण उसने जाना था कि इस आदमी से, जिसका नाम दीपांश है उसे ऐसा लगाव हो गया है, जिसे अपने नाटक में यह प्रेम कहता होगा। वह घुलती, टूटती, निढाल होती यह महसूस कर रही थी कि आज उसके मन के सबसे अंधेरे कमरे का ताला अनायास ही खुल गया था। अब उन दोनो की साँसे एकमेक होती, एक-दूसरे का सहारा लेती, आपस में उलझती, किसी ढलान से उतर रही थीं। आज दोनों ने अपने भीतर का शेष उजागर कर दिया था। धीरे-धीरे दोनो एक साथ ही किसी आलम्ब से आ लगे। साँसें विलम्वित में आकर लम्बी हो गईं।

रेबेका ने डॉमनिक के बालों में उंगलियाँ फिराते हुए कहा, ‘हम सब एक बहुत बड़े नाटक का हिस्सा हैं, सबको ज़िन्दगी ने अलग-अलग तरह से प्रेम और नफ़रत का पाठ पढ़ाया है। मैंने जब पहली बार अपने प्रेम में होने की बात अपनी माँ से कही तो उनके मुँह से प्रेम को गाली की तरह सुना, एक शाप की तरह। कारण- तब ठीक से नहीं समझ पाई थी। उस उम्र में लगता था जैसे वे प्रेम की दुशमन हैं। हमारी दुश्मन हैं।’

रेबेका बोलते-बोलते बैड पर सीधी लेट गई। वह छत को ऐसे ताक रही थी मानो उसके पार पसरे आसमान को देख रही हो, उसमें तिरती अतीत की किसी कथा के आपस में उलझे एक-एक धागे को बिलगा कर अनन्त में फैला रही हो...

‘मेरा नाम रेबेका नहीं रिद्धी है. मैंने भी चौदह की उम्र तक शास्त्रीय संगीत सीखा है. एम.पी.-मध्य प्रदेश के एक कसबे- नरवर से हूँ. बहुत छोटी थी जब बाप ने नहर में कूद के आत्महत्या कर ली. उसके बाद छोटा भाई ऐसी संगत में फंसा की कमउम्र में ही जुआ, शराब, चोरी जैसे तमाम व्यसन पाल लिए. बाप के मरने के बाद, माँ गृहस्ती, ज़मीन, अपना धर्म, लोक-परलोक, बाबा के यूँ अचानक रहस्यमय तरीके से जान देने के बाद बची रह गई थोड़ी बहुत शाख बचाने में लग गईं....’ बोलते हुए रेबेका की साँसें तेज़ हो गईं।

उसकी छाती पर रखा डॉमनिक का हाथ उसकी धड़कनों को महसूस कर रहा था। उनमें उसे अतीत से आती तेज़ पद चापें सुनाई दे रही थीं, ‘मैं बिलकुल अकेली छूट गई. ऐसे में एक लड़का मिला राघव. अक्सर दिल्ली अपने किसी रिश्तेदार के घर आया-जाया करता था. बहुत बातें सुनाता था दिल्ली की. घुटन होती थी अपने घर में. बाप अपनी मौत के पीछे कितने ही सवाल छोड़ गए थे. जिनके जवाब हमारे पास नहीं थे पर उन्हें हमारे सामने समाज का कोई भी आदमी कभी भी टांग दिया करता था. राघव भी गाता था, उसने कहा तुम गा सकती हो. गाना आगे सीख सकती हो. गंदर्भ संगीत विद्यालय में दाखिला दिलाने लाया था. लगा सीख के बाबा का सपना पूरा करुंगी. पर जब जाने लगी तो नाकारा भाई बाप बनके सामने खड़ा हो गया. संगीत के मंदिर जैसे घर में रहते हुए भी उसपे कला और संगीत की छाया भी नहीं पड़ी थी. लगा ये कभी नहीं जाने देंगे. कभी नहीं निकल पाउंगी यहाँ से. और एक दिन सबसे छुपके राघाव के साथ भाग आई. आके विद्यालय में दाखिला भी लिया. दो महीने सीखा भी पर तीसरे महीने सुबह-शाम प्रेम की बातें करने वाला, मुझे कुछ सीखते, बनते देखने वाला राघव मुझे बेचकर गायब हो गया. पैसे, फोन, सर्टीफिकेट्स कुछ भी नहीं था मेरे पास. जिसने खरीदा था उसे अपने नाचने, गाने, लिखने, पढ़ने, बोलने के तमाम हुनर दिखाती रही पर उसकी निगाह इस जिस्म पे अटकी थी. कहा मुझपे यकीन करो ‘मैं एक-एक पैसा चुका दूंगी’. मैं भागकर कहीं नहीं जाऊँगी. मेरा कोई नहीं है. मैं काम करना चाहती हूँ. पर सब बेकार. उन्होंने मुझे धंधे पे बिठा दिया....

कमजोर, नाज़ो में पली, न समझ रोज़ चेहरा देखके उठा ली जाती और आधी रात बीतते न बीतते निकम्मी और नाकारा कहके दुत्कार के लौटा दी जाती. अंजाने ही ज़िन्दगी का नया पाठ पढ़ने लगी. संगीत और कला की ललक भीतर कहीं दब गई. मर्दों की इस दुनिया में जीने, उन्हें ख़ुश करने और उनसे जीतने के हथकंडे सीखने लगी. सब कुछ इतना बेपर्दा हो गया कि दुनिया कुछ और ही लगने लगी. पर संगीत सुनने-सीखने की ललक बनी रही. मुम्बई से भाग के आई एक लड़की ने किसी शहर में तुम्हारा शो देखा था बोली ‘नाटक के अंत में ऐसी वॉयलिन बजाता है कि बस जान ले लेता है.’ उसी के साथ पहली बार देखा था, तुम्हारा नाटक. सचमुच उसने झूठ नहीं कहा था. सारी रात सो नहीं सकी थी... कोई किसी के प्रेम में आज के समय में ऐसे रोता है, ऐसे तड़पता है. मैं पहली बार में ही जान गई थी ये अभिनय नहीं कर रहा है. ये कोई चोट खाया हुआ पागल है जिसके दुःख को कला समझके लोग तालियाँ पीट रहे हैं..’

डॉमनिक उसके साथ उस कथा में उतरकर उसका हिस्सा बन गया था। दोनों एक दूसरे में गुथे बहुत देर तक किसी आदिम प्रतिमा से अचल लेटे रहे...

***