इंद्रधनुष सतरंगा
(23)
दिल्ली का सफ़र
कर्तार जी को दिल्ली जाना था। आतिश जी ने उनका रिज़र्वेशन करा दिया था।
कर्तार जी एजेंसी के कामों से अक्सर दिल्ली आया-जाया करते थे। उनकी यात्रएँ इतनी अचानक और हड़बड़ी भरी होती थीं कि रिज़र्वेशन करा पाना मुश्किल होता था। ज़्यादातर उन्हें सामान्य डिब्बे में ही यात्र करनी पड़ती थी। सामान्य डिब्बे आमतौर पर भीड़ से खचाखच भरे होते थे। तिल रखने की भी जगह नहीं होती थी। कर्तार जी को प्रायः उसी भीड़ में यात्र करनी पड़ती। कर्तार जी छः फिट के हट्टे-कट्टे आदमी थे। किसी को कसकर डपट दें तो वह ऐसे ही सीट छोड़कर खड़ा हो जाए। लेकिन काम की तलाश में घर-बार छोड़कर जा रहे ग़रीबों के चेहरे जैसे उन्हें रोक लेते। धूल-सने बाल, लगातार जागने से सूजी आँखें और पस्त चेहरा देखकर साहस न होता कि उन्हें डपटकर उठा दें और ख़ुद पैर पसारकर सोएँ।
जैसे-तैसे सप़फ़र की धक्का-मुक्की सहकर दिल्ली के स्टेशन पर उतरते तो टाँगें जवाब दे चुकी होतीं। लेकिन दिल्ली पहुँचने की ख़ुशी सारा दर्द भुला देती। दिल्ली का प्रेम उन्हें बार-बार अपनी तरफ खींचता था। दरअसल वह दिल्ली में ही पल-बढ़कर बड़े हुए थे। हालाँकि उनके पुरखे लाहौर के निवासी थे। किंतु देश-विभाजन के समय उनके दादा दिल्ली आकर बस गए थे। कर्तार जी ने जब से होश सँभाला तो दिल्ली को ही अपनी मातृभूमि माना। वह उसी की गलियों में धूल-मिट्टी खेलकर बड़े हुए थे। एजेंसी का काम तो बहाना होता था, उन्हें तो बस दिल्ली जाने का मौका चाहिए होता था।
किंतु इस बार आतिश जी ने बार-बार कहकर उनका रिजर्वेशन करा दिया था। नहीं तो इस बार भी उनका सफर खड़े-खड़े ही बीतता। वह मन ही मन आतिश जी को दुआएँ दे रहे थे।
यात्र वाले दिन कर्तार जी समय पर स्टेशन पहुँच गए। रिज़र्वेशन-चार्ट में अपना नाम देखते-देखते उनकी नज़र अपने ठीक नीचे लिखे नाम पर पड़ी--एस0 एन0 घोष। कर्तार जी का हृदय धड़क उठा, ‘कहीं यह अपने घोष बाबू तो नहीं--सुरेंद्र नाथ घोष।’ लेकिन मन ने समझाया, ‘यह कोई और एस0 एन0 घोष होंगे। अपने घोष बाबू शहर से बाहर जाते ही कहाँ हैं? अगर मौका पाएँगे तो कलकत्ता भागेंगे। दिल्ली में उनका कौन बैठा है?’
घोष बाबू से कर्तार जी का वैसे तो कोई झगड़ा न था, पर संबंधों में आत्मीयता भी न रह गई थी। एक-दूसरे के सामने पड़ते तो नज़रें चुरा लेते थे। एक बार किसी बात पर हल्की-सी झड़प होने के बाद दोनों में कभी-कभी जो औपचारिक बातचीत हो जाया करती थी, वह भी बंद हो चुकी थी।
कर्तार जी ने जब डिब्बे में क़दम रखा तो हैरान रह गए। वहाँ सचमुच घोष बाबू विराजमान थे। दोनों की नज़रें मिलीं तो अचकचा गए। उनकी स्थिति विचित्र हो गई। न बोलते बन रहा था, न चुप रहते। सीटें अगल-बग़ल थीं।
जब तक गाड़ी खड़ी रही तब तक सामान सहेजने और बैठने के उपक्रम में समय पता न चला। लोग आते-जाते रहे। चहल-पहल रही। अख़बार वाले, चाय वाले शोर मचाते रहे। पर जब स्टेशन के शोरगुल से छूटकर गाड़ी चल दी और इत्मीनान से बैठने का समय आया तो समस्या विकट हो उठी। देखें तो देखें किधर? कर्तार जी निगाहें उठाते तो सामने घोष बाबू बैठे दिखते और घोष बाबू देखते तो सामने कर्तार जी का चेहरा दिखाई देता। खिड़की से भी कब तक झाँकते। गर्दन दुखने लगी। जैसे-तैसे इसी उहापोह में घंटा भर बीत गया।
घोष बाबू को वैसे तो पान-मसाले की आदत नहीं थी, पर जब सप़फ़र करते तो पान की डिबिया भरकर बैठते थे। ख़ुद तो खाते ही थे, अगल-बग़ल वालों को भी पूछ लेते। आज भी आदत के मुताबिक़ उन्होंने पान की डिबिया निकाली। मन हुआ कि कर्तार जी से भी आग्रह कर लें, पर हिम्मत न पड़ी। एक बीड़ा निकालकर चुपचाप मुँह में रखा और डिबिया बंद करके रख ली।
इस तरह उनका कुछ समय पान चबाने में कट गया। पर थोड़ी ही देर में एक नई समस्या आ खड़ी हुई। पान खाते-खाते मुँह भर गया तो परेशानी आई थूकें कहाँ। सामने की सीटों पर महिलाएँ थीं। उनके बच्चों ने पूरा कब्ज़ा जमा रखा था। महिलाएँ भी बड़े इत्मीनान से हाथ-पैर फैलाकर बैठी थीं। उधर जाकर थूकना तो असभ्यता होती। वाश-बेसिन तक जाने में इतने अवरोध थे कि वहाँ तक पहुँचना और भी मुश्किल काम था। और इधर सामने वाली खिड़की पर कुहनियाँ टेके कर्तार जी बैठे हुए थे।
घोष बाबू का बुरा हाल हो गया। गाल गुब्बारों की तरह फूल उठे। पान के कारण होंठ तो लाल हो ही रहे थे, अब चेहरा भी लाल हो उठा।
कर्तार जी थोड़ी देर तो उनकी विचित्र हरकतें देखते रहे फिर बेहद औपचारिक ढंग से बोले, ‘‘आपको समस्या हो रही हो तो आप इधर आ सकते हैं।’’
घोष बाबू की जान में जान आई। खिड़की तक पहुँचकर मुँह साफ करते हुए बोले, ‘‘धन्यवाद महाशय, आप पान लेंगे?’’
कर्तार जी सहजता से हँस पड़े और बोले, ‘‘जी नहीं, आप की हालत देखकर हिम्मत नहीं पड़ रही।’’
घोष बाबू भी हँस दिए। माहौल हल्का हो गया। थोड़ी देर तक दोनों चुप बैठे रहे। फिर जैसा कि आमतौर पर होता है, मौसम और माहौल पर की गई टिप्पणियों से बातचीत आरंभ हुई। अगल-बग़ल के लोग भी बातचीत में शामिल हो गए। फिर बातों से बातें निकलती गईं। नज़रें चुराकर ‘हाँ-हाँ’ कर रहे घोष बाबू और कर्तार जी धीरे-धीरे खुलकर बातचीत करने लगे। हँसी-ठहाके गूँजने लगे। दोनों धीरे-धीरे सहज हो गए। भूल गए कि उनमें बोलचाल बंद है।
समय बीतता रहा। दूसरे लोग थककर चुप होते गए। कुछ सीटों से टिक कर ऊँघने लगे, कुछ मुँह फाड़कर उबासियाँ लेते हुए खिड़की से बाहर देखने लगे। पर घोष बाबू और कर्तार जी नहीं चुप हुए। बतलाते रहे--घर की बात, बाहर की बात, दुनिया-जहान की बात। आज जैसे उनका हृदय उत्साह से छलका पड़ रहा था। लगता था दो नदियों के बाँध टूट गए हों और उछाल खाता पानी बीच में आने वाली हर दीवार तोड़ देना चाहता हो।
गाड़ी छुक-छुक करती तेज़ गति से मंजि़ल की ओर बढ़ी जा रही थी। नदी-नाले, पेड़-पौधे, हाट-मैदान सब पीछे छूटते जा रहे थे। और साथ ही छूटते जा रहे थे उनके गिले-शिकवे, शिकायतें--पीछे---बहुत पीछे।
कर्तार जी को यह बहुत बाद में पता चला कि घोष बाबू का रिज़र्वेशन भी आतिश जी ने ही कराया था। कर्तार जी बस मुस्कराकर रह गए।
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