वैश्या वृतांत
यशवन्त कोठारी
अहिंसा ही मनुष्यत्व है!
प्राचीन भारतीय दर्शन व संस्कृति में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है । जैन धर्म का यह मुख्य सिद्धान्त है । जैन साहित्य में 108 प्रकार की हिंसा बताई गई है । हिंसा को अहिंसा में बदलने की प्रक्रिया को मानवता कहा गया है । बौद्ध धर्म में भी अहिंसा को सदाचार का प्रथम व प्रमुख आधार माना गया है । अहिंसा परमो धर्मः कहा गया है। रमण मर्हिर्ष ने अहिंसा को सर्वप्रथम धर्म माना है । अहिंसा को अल्बर्ट आइन्सटीन, जार्जबर्नांड शा, टाल्स्टाय, शैली तथा अरस्तू तक ने अपने विचारों में उचित और महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। भारतीय विचारकों कपिल, पातंजलि, शंकराचार्य, इस्लाम के सूफी सन्त तथा गुरुनानक, महात्मा गांधी तक का प्रमुख अस्त्र अहिंसा ही था ।
आज विश्व में सर्वत्र हाहाकार है । हिंसा है । मानव-मानव का और जीव-जीव का शोषण कर रहा है । आतंकवाद का बोलबाला है, ऐसी स्थिति में हमें त्राण का एक मात्र मार्ग अहिंसा में नजर आता है । आज व्यक्ति, समुदाय, समाज, राष्ट्र, विश्व सब विघटनकारी महाविनाश के मुहाने पर खड़े हैं ।
हर तरफ अराजकता, अनुशासनहीनता, शोषण और जातिवादी, सम्प्रदायवादी ताकतों का बोलबाला है । ऐसी स्थिति में वैचारिक दृष्टि से बुद्धिजीवियों का ध्यान अहिंसा जैसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की ओर जा रहा है । अहिंसा से ही प्रतिकार हो सकता है । सुधार और समन्वय हो सकता है । अहिंसा से सामाजिक समरसता हो सकती है । वैचारिक न्याय प्राप्त हो सकता है । ऊंच-नीच का भेदभाव मिट सकता है । परिग्रह से बचना, क्रोध से बचना, तृष्णा और ऐषणा से बचना हो तो अहिंसा की शरण में जाना चाहिए । अहिंसा हमें धनेषणा, यशएषणा तथा पुत्रेषणा तक से बचने की प्रेरणा देती है । हिंसा, बलात्कार, आतंकवाद, शोषण सबका कारण परिग्रह और ऐषणा है और ऐषणा से बचाव के लिए मानव के पास केवल एक अस्त्र है - अहिंसा । हिंसा केवल जीवों की हत्या ही नहीं हैं । किसी का हक मारना, किसी के प्रति अन्याय करना भी हिंसा है और अन्याय का प्रतिकार अहिंसा ही है । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, ज्ञानी-तपस्वी, विचारकों, दार्शनिकों ने हिंसा को नरक का द्वार कहा है । परिग्रह और संग्रह में आसक्ति है, दुःख है, करुणा नहीं है, दया नहीं है । अतः असंतोष है और असंतोष के कारण हिंसा उत्पन्न होती है, असहिष्णुता पैदा होती है, व्यक्ति सामंजस्य नहीं करता है, उग्र हो जाता है, उग्रता में हिंसा करता है और समूल नष्ट हो जाता है । निवृत्ति मार्ग की ओर ले जाने वाला प्रमुख अस्त्र है अहिंसा । वेदों से लेकर आज तक प्रकाशित साहित्य हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है । जीवन में अहिंसा को स्थान देने वाला कभी असफल नहीं होता । ईश्वर उससे कभी विमुख नहीं होता । लोकहित को सर्वोपरि माना जाना चाहिए । कटु वचनों तक से परहेज रखना चाहिए । जैन धर्म में अहिंसा और उसके परिपालन के निर्देश बड़ी सूक्ष्मता और विचारशीलता से दिए गए हैं । अज्ञानी धर्म को नहीं मानता है । ज्ञानी के वचनों की अवहेलना करता है और परिणाम स्वरूप स्वयं भी दुःख पाता है, घर-परिवार, समाज और राष्ट्र को भी परेशान और दुःखी करता है ।
आत्मा के तीन खण्ड हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । जो इन तीनों खण्डों से गुजर जाता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है । नैतिकता से जीवन जीने वाला ही बहिरात्मा से परमात्मा तक पहुंच सकता है । हम भी सुखी रहंे, दूसरे भी सुखी रहें । जीओ और जीने दो । लेकिन अन्याय को सहन करना भी हिंसा मानी गई है । मानवीय मर्यादाएं, सीमाएं नष्ट हो रही हैं । छोटे बड़े का भेद मिट रहा है और व्यक्ति-व्यक्ति का मांस नोचने को आतुर है, यहीं आकर अहिंसा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है ।
परिग्रह हिंसा है और निवृत्ति अहिंसा है । गांधी जी ने पूरा जीवन एक वस्त्र में बिता दिया जबकि आज गांधी जी के नाम पर अरबों के घोटााले हो रहे हैं, हिंसा का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है । संग्रह करने से हिंसा को दीर्घ जीवन मिलता है, जबकि हमें अहिंसा की आवश्यकता है । व्यक्ति को पेट भरना चाहिए पेटी नहीं । अधिक भोजन अनीति है, झूठन छोड़ना गलत है, हिंसा है । अधिक संग्रह से व्यक्ति के उपयोग करने की शक्ति कम हो जाती है । संग्रहित सामान व्यर्थ ही जाता है । न खुद के काम आता है और ना ही दूसरों के काम आता है।
अहिंसा से मानव निर्भर रहता है । उसे किसी प्रकार का डर या आतंक का सामना नहीं करना पड़ता महावीर ने कहा है-
प्राणी मात्र के प्रति संयमित व्यवहार ही अहिंसा है । अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना अहिंसा है । असंयत नियम विरुद्ध आचरण भी हिंसा है । जीवन-मरण की आकांक्षा रखना हिंसा है । अहिंसा, करुणा, दया, अनुकम्पा का आचरण रखने के प्रयास होने चाहिए । मगर स्वयं पर हिंसा नहीं करनी चाहिए । अनैतिकता को सहन भी नहीं करना चाहिए । हिंसा पर आधारित परोपकार, दान, करुणा, हिंसा के ही पक्ष हैं अतः इनसे बचना चाहिए । हिंसा सामने आने पर व्यक्ति या तो धर्म की बात करे या चुप रहे या वहां से उठ कर चला जाए । हिंसा से पलायन भी अहिंसा ही है ।
अहिंसा व्यक्ति के अन्तर्मन में पैदा होती है । यह एक आत्मिक भाव है। अहिंसा के पालन में समझौता नहीं हो सकता । अन्तर्मन में उपजे भाव को ही मुखरित कर अहिंसा की चर्चा करना चाहिए ।
निर्भय बनो । अहिंसक बनो।
गांधीवादी अहिंसा ने न केवल हमें अंग्रेजों से आजादी दिलाई, वरन् अन्य देशों का भी मार्ग दर्शन किया ।
गांधी धर्म अहिंसा पर आधारित है । महावीर की निवृति अहिंसा, गौतम बुद्ध की करुणामय अहिंसा, ईसामसीह की सेवा, शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग, गीता की योगवादी अहिंसा, कर्मयोग और सत्य अहिंसा के गांधी वादी प्रयोग सभी अहिंसा के रूप हैं । अहिंसा मानव मात्र के ह्रदय में प्रतिष्ठित हो तो सभी जीवों का कल्याण हो सकता है । अहिंसा से असुरी वृत्ति का नाश होता है । मनुष्य स्वयं जीये साथ-ही-साथ दूसरों को भी जीने दे । यह पृथ्वी और अन्तरिक्ष, मनुष्य मात्र का ही नहीं है, वह तो सभी का है । सभी को इस पृथ्वी के उपभोग की स्वतंत्रता है । हिंसा से केवल कुछ ही लोग इसका उपभोग करेें यह उचित नहीं है ।
अहिंसा के जागरण से व्यक्ति के मन में मानवता और सामाजिक भावना जाग्रत होती है ।
अहिंसा व्यक्ति के समग्र चिन्तन में बदलाव लाती है । विचार का रास्ता हिंसा से नहीं अहिंसा से तय किया जाना चाहिए । अहिंसा के पालन से पूरा विश्व एक परिवार बन सकता है राष्ट्र की सीमाएं टूट सकती हैं । वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा पुष्ट हो सकती है । विश्व एक नीड़ बन सकता है । जहां पर सुख, शांति, परोपकार, दया और करुणा का वास हो सकता है । आइये, हम ऐसे ही विश्व के निर्माण में योगदान करने का विनम्र एवं दृढ़ संकल्प करें ।
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यशवन्त कोठारी
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