दिव्य दान.......................
मोहन सिंह मामूली हैसियत का आदमी था। उसने मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बना दिया था। उसके बेटे- बहू बहुत अच्छे स्वभाव के थे। समय पर उसे खाना मिल जाता था और हारी- बीमारी में दवा दारू भी। बहू- बेटे की बहुत सेवा करते थे।
पड़ौस सत्संग भवन में स्वामी भारती जी आए हुए थे। वे कलयुग में राम नाम के महत्व पर प्रकाश डालते हुए बोले "कलयुग केवल नाम अधारा सुमिर सुमिर नर उतरी पारा।" अर्थात एक राम का नाम ही कलयुग का आधार है जिसका सुमिरन करने से मनुष्य संसार रूपी सागर से पार उतर सकता है।"
इसी प्रकार स्वामी जी ने त्याग और दान के महत्व का भी प्रतिपादन किया। घर आने पर मोहन सिंह दान और त्याग के विषय पर चिंतन मनन करने लगा। वह सोचने लगा उसके पास ऐसी कौनसी वस्तु है जिसका व त्याग और दान कर सकता है, उसके पास तो त्याग और दान करने लायक कोई भी वस्तु नहीं है, उसे आत्मग्लानि होने लगी।
सहसा उसके दिमाग में एक विचार कौंधा। उसने अपने पुत्र आनंद को अपने पास बुलाया और बहू की तबीयत के विषय में पूछा, "बेटे! बहू की तबीयत अब कैसी है?"
आनंद ने कहा, "पिताजी! आपकी बहू की तबीयत ठीक नहीं है, इसी वजह से मैंने आज ऑफिस से अवकाश ले लिया है। आधे घंटे बाद उसे हॉस्पिटल दिखाने ले जा रहा हूं।
"ठीक है बेटे! मुझे भी अपने साथ हॉस्पिटल ले चलना।"
" क्यों पिताजी! आपकी तबीयत तो ठीक है ना?"
"हां बेटे तबीयत तो मेरी बिल्कुल ठीक है, परंतु मैं मरणोपरांत अपनी आंखों का दान करना चाहता हूं। इसी सिलसिले में ........।"
आनंद अपने पिता को अवाक अपलक निहारने लगा और उनके नेत्रदान करने के फैसले पर गर्व करने लगा। उसने आगे बढ़कर अपने पिताजी के चरण स्पर्श कर लिए।
कोथली.......................
कोथली लेकर मयंक बुआ जी के यहां पहुंचा। घर में प्रवेश करते ही उनकी मुलाकात सबसे पहले बुआ जी से ही हुई। उसने बुआ जी के चरण स्पर्श किए। बुआ जी ने बड़े प्यार से उसे अपने गले से लगाया और आशीर्वाद की वर्षा करने लगी प्रेमातिरेक के कारण बुआ जी की आँखें छलछला आई और चेहरे पर मधुर मुस्कान छा गई।
प्रश्न मुद्रा में बुआ जी ने घर के सभी परिजनों को बुलाया और अपने भतीजे मयंक से मिलवाया। पूरे घर में खुशी का समाचार फैल गया कि बुआ जी का भतीजा मयंक आया है।
बुआ जी चहक कर बोली, "मेरे भाई- भाभी बहुत अच्छे हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मेरा बहुत मान रखते हैं। राखी, संक्रांत कोई भी तीज- त्योहार खाली नहीं जाने देते। सभी मंगल पर्वों पर मुझे याद रखते हैं, नेग भिजवाते हैं।"
बुआ जी के बेटे की बहू बोली, "माँ जी! यही तो अपनी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है, विश्व में कोई भी संस्कृति ऐसी नहीं जो नारी को इतना सम्मान देती हो।"
बुआजी ने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और अपने भतीजे द्वारा लाई हुई कोथली से खसती- करारी, मोयन डली हुई मीठी व नमकीन दोनों प्रकार की सुहाली, मट्ठी और शक्करपारे निकाले तथा सभी परिजनों ने मिलकर गर्मागर्म चाय के साथ पार्टी जैसा आनंद उठाया। पर बुआ जी की बहू बड़े उद्विग्न भाव से अपने विचारों में खोई हुई सोच रही थी कि काश! उसका उच्च शिक्षित भाई, जो विदेश में लाखों के पैकेज पर किसी बड़ी कंपनी में कार्य करता है, वह भी कभी- कभार किसी तीज, त्योहार पर अपनी बहन को टेलीफोन से ही सही, याद कर लेता, कितना अच्छा होता।
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'