Lamho ki gatha - 2 in Hindi Short Stories by सीमा जैन 'भारत' books and stories PDF | लम्हों की गाथा - 2

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लम्हों की गाथा - 2

  • लम्हों की गाथा
  • (4)
  • गँवार
  • आज शंकर की जगह उसका बेटा दूध देने आया।

    घर के दरवाज़े पर उससे दूध लेते हुए मैने पूछा-"सुभाष, आज पिताजी क्यों नही आये?"

    सुभाष ने कहा-"उनकी तबियत ख़राब है भाभी जी।"

    दूध लेकर घर में जाने को पलटती उससे पहले किसी जीप ने सुभाष की मोटर सायकिल को टक्कर मार दी।सारा दूध ज़मीन पर फैल गया।

    आगे सुभाष उसके पीछे मै भागी।इतने सारे दूध का नुक़सान मुझे बेहद दुःखी कर गया।

    सुभाष उन जीप वाले लड़कों से हाथ जोड़कर कह रहा था-"कोई बात नहीं, भाई साहब अनजाने में हो गया आप परेशान न हो!"

    वो लड़के बड़ी गर्वीली मुस्कान के साथ जीप आगे बढ़ाकर चले गए।

    ज़मीन पर फैले दूध को देखकर मेरे गुस्सा सातवें आसमान पर था।

    मैने सुभाष को डाँटते हुए कहा-"तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया था क्या, गँवार! इतना नुक़सान हो गया और तू उनके हाथ जोड़ रहा था।"

    अपनी गिरी हुई मोटर सायकिल को उठाते हुए वो बोला-"भाभी, पिछली बार की समझदारी का ये निशान है।"

    उसने आपने माथे पर टांके के निशान को दिखाया और बोला-"माँ ने अपने मरे मुँह की कसम दे कर कहा था। ख़बरदार! जो आज के बाद तूने किसी से हक़ की बात की तो मेरा मरा मुँह देखेगा।बस भाभी जी तभी से गँवार बन गया हूँ।"

    ***

  • (5)
  • हद हो गई
  • नौकरी लगने के बाद पहली बार माँ, मेरे साथ दिल्ली जा रही थी। हमने अपनी बर्थ पर सामान रखा और ट्रेन चल दी। एक बुज़ुर्ग दंपति हमारे इंतजार में ही बैठे थे। उनकी एक बर्थ ऊपर की थी। उन्होंने मुझसे बर्थ बदलने की बात कही और उनके सूटकेस का नम्बर वाला ताला उनसे नही खुल रहा था वो मुझसे खुलवाया।

    ये सब देखकर माँ को कुछ अच्छा नही लगा और वो बुदबुदाते हुए बोली-"हद हो गई!"

    मैने उनको आँखों से चुप रहने का इशारा किया।

    जब हम माँ बेटे खाना खाने लगे तो मैने माँ से कहा-"अचार तो निकालो, मुझे तो पहले वो चाहिए।"

    "अचार की बर्नी तो घर में ही छूट गई।" माँ जानती थी उनके हाथ का अचार मुझे बहुत पसन्द है।

    हमारी बात जब उन दंपति ने सुनी तो जिद् करके अपने पास से अचार हमें दे दिया। जिसे खाते ही मेरे मुँह से निकल पड़ा-" माँ, ये तो बिल्कुल तुम्हारे हाथ जैसा ही है।"

    अगले स्टेशन पर मुझे पानी का बॉटल खरीदना था। माँ बोली -" रवि, अब तू भी सो जा! रात के बारह बजे अगला स्टेशन आएगा, तबतक मैं तो सो जाऊँगी तू अकेला बाहर जायेगा मुझे पसन्द नहीं!"

    -"माँ, अब मैं बच्चा नही हूँ। तुम चिंता मत करो सो जाओ।"

    हमारी बात सामने वाले बुज़ुर्ग सुन रहे थे।

    वो माँ से बोले-" आप चिंता मत करो दरवाज़े पर मैं खड़ा रहूँगा इसका ध्यान रख लूंगा।"

    सुबह जब स्टेशन आया तो उन दम्पति ने जिद् करके मुझे आचार की बर्नी दे दी। बोले-"अब अगली बार जब माँ भेजे तबतक इससे काम चला लेना।"

    उनके स्नेह के कारण हम उनको मना नही कर पाये। स्टेशन पर उनका सामान उतारकर हम जैसे ही आगे बड़े वो बोले-"बेटे, हमारी गाड़ी आ गई है हम आपको आपके घरतक छोड़ देते है।"

    अबकी बार माँ की आँखे एक बार फिर कह उठी,"हद हो गई!"

    घर जाकर अपना सामान रखा और माँ ने मेरे पास आकर मेरे माथा चूमते हुए कहा-"हदों में जीना जीवन नही है। ये आज तुझसे सीखा।"

    अबकी बार मेरे आँखे कह उठी....

    ***

    (6)

    ड़र

    रविवार का दिन था। सौरभ मेरे सामने बैठा था। उससे बात करने की हिम्मत नही हो रही था। अखबार से अपना चेहरा छुपा, आँसू रोकते हुए बोलने की कोशिश की तो दोस्तों के शब्द कानों में बजने लगे– ‘बड़े बेवकूफ़ हो तुम! मकान बेचकर बीस लाख बेटे के हाथ पर रख दिये, इतना विश्वास! ; अच्छे को बुरा बनते देर नही लगती, वह तभी तक अच्छा था जब तक पैसे तुम्हारे पास थे; दस-पन्द्रह दिन का कहा था, तीन महीने हो गए; कहीं तुम्हें सड़क पर न पहुँचा दे एक दिन; वैसे उन्हें अब तुम्हारी ज़रूरत भी क्या है? लगता है सत्तर लाख के विला के चक्कर में तुमने पुराना मकान भी गंवा लिया।’

    ख़ुद को सम्हाला और सौरभ से पूछा, "बेटा, बहुत समय हो गया, हम कब शिफ्ट हो रहे हैं?"

    सौरभ जो सोचता था मुझे उसपर अटूट विश्वास है बोला, "बाबूजी, एक दूसरा ड्यूप्लेक्स भी देखा है। मुझे लोन नहीं मिल पायेगा इसलिए विभा अपने ऑफिस में कोशिश कर रही है। शायद काम हो जाये।"

    मन डूबने लगा। जो मुझे दिखाया उसे छोड़ दूसरा मकान क्यों? फिर भी बात तो करनी ही थी। इसलिए बोला, "बेटा, जो हमने देखा था, वो भी तो अच्छा था, फिर दूसरा क्यों?"

    "बाबूजी, वहाँ आसपास मन्दिर नही था और चौराहा पार करने के बाद ही कोई दुकान थी। आप और माँ को अकेले जाने में दिक्कत होती। अभी जो दूसरा ड्यूप्लेक्स देखा है, वहाँ सबकुछ पास ही है। आप दोनो को आराम रहेगा। बस, दस लाख ज़्यादा हैं। इसीलिए थोड़ा वक्त लग रहा है। कोई परेशानी है क्या बाबूजी?"

    अब आँखों के आँसू छुपाने की ज़रूरत नही थी। मैने भर्रायी आवाज़ में कहा, "तेरे होते कभी कोई चिंता हो सकती है क्या?"

    वे बोले, “आज शिव मन्दिर पर एक गरीब बुजुर्ग समोसे बाँट रहे थे। मैंने लेने से मना भी किया, पर वे नहीं माने।”

    वह समोसा देखकर मुझे जो खुशी मिली, उसको बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास।

    ***