अमर प्रेम
(2)
सुशीला बुआ की बातों को सुनने के बाद मुझे यह एहसास हुआ कि “शायद माँ भी अपनी जगह गलत नहीं है नकुल”, यह दुनिया है ही ऐसी “जो घर से बाहर नौकरी करने निकली हर औरत को अपने बाप की जागीर समझती है” और हर कोई उसका फायदा उठाने की कोशिश करता है। हो न हो, यही वजह रही होगी की माँ नहीं चाहती थी कि मैं नौकरी करुँ और मुझे भी वही सब झेलना पड़े जो उन्हें झेलना पड़ा था कभी....“जानते हो नकुल मैं उनकी बहुत इज्ज़त करती हूँ, मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है। इसलिए मुझे उनसे कोई शिकायत भी नहीं है।
मैं तो बस उन्हें यह समझना चाहती थी कि सिर्फ एक डर के कारण ज़िंदगी जीना ही छोड़ देना मेरी नज़र में कोई समझदारी नहीं है। लेकिन फिर भी यदि वो ऐसा ही चाहती है कि मैं नौकरी न करुँ तो ऐसा ही सही। आखिरकार उन्होंने मुझ से ज्यादा दुनिया देखी है। “हाँ तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली” मुझे भी यही लगा कई बार कि माँ ने तुम्हें सिर्फ मेरी पसंद और मेरा प्यार होने की वजह से इस शादी से इंकार नहीं किया। मगर एक बहू के रूप में वो अब भी दिल से तुम्हें अपना नहीं पायी है।
मेरे कारण तुम्हारी ज़िंदगी नर्क हो गयी ना सुधा, मैं तुम्हें वैसा कुछ भी नहीं दे पाया जैसा हमने सोचा था। ना घर, ना परिवार, ना धन और ना ही अपना समय, कुछ भी तो नहीं दिया मैंने तुम्हें”, फिर भी तुम मुझ से कितना प्यार करती हो। “हर रोज़ मेरे लिए मेरी माँ की नाराज़गी सहती हो। मगर कभी अपने चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आने देती हो” इतनी महँगाई में यूँ मेरे साथ तंग हालातों में भी तुम खुश रह लेती हो। कभी कुछ नहीं कहती, कभी कोई शिकायत तक नहीं कि तुमने मुझ से, और तो और रोज़-रोज़ मेरे इतनी देर रात गए घर आने पर भी तुमने कभी झगड़ा नहीं किया। ना कोई प्रश्न ही किया कभी “मगर यक़ीन मानो सुधा ईश्वर गवाह है” मैं दिन रात बस तुम्हारे और अपने परिवार के लिए रोज़ी रोटी की जुगाड़ में लगा रहता हूँ। “ताकि तुम सबको एक अच्छी और ख़ुशहाल ज़िंदगी दे सकूँ”। बस इसी सब में उलझे रहने के कारण मैं चाहकर भी वक्त नहीं दे पाता हूँ तुम्हें,
सुधा नकुल को छेड़ने के बहाने बात काटते हुए अरे जाओ छोड़ो-छोड़ो कौन कहता है जी कि मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है “रहने दो रहने दो, सब पता है मुझे कि तुम क्या करते हो क्या नहीं” “बड़े आए सफ़ाई के अब्बा” साफ–साफ कहो ना कि अब मुझ से मन भर गया है तुम्हारा, मोटी हो गयी हूँ ना मैं इसलिए अब मैं पसंद नहीं तुम्हें, जब देखो मोटा कहते रहते हो। नकुल हँसते हुए मोटी तो तुम हो इसमें कोई शक नहीं है जानती हो बहुत क्यूट हो तुम, तुम्हें देखते से ही ना तुम्हारे गाल खींचने का मन होता है। जाओ-जाओ मैं तो मोटी हूँ नाटी हूँ, आए बड़े प्यार दिखने वाले चलो अब यह सब छोड़ो भी। अरे छोड़ो कैसे, नकुल ज़रा सुधा के क़रीब आते हुए कहता है अभी तो बहुत कुछ कहना बाकी है।
सुधा "वो सब तो ठीक है, मगर गाड़ी मैं चलाऊँगी और तुम साइड में बैठो" बोलो है मंजूर! 'नहीं तो मुझे नहीं जाना है' सोच लो ....नकुल कहता है, "तुम भी न...ऐसा भी कभी हुआ है कि तुमने कुछ कहा हो और मैंने मना किया हो" अच्छा-अच्छा ठीक है, नकुल की बात काटते हुए सुधा बीच में ही बोली, "अब जल्दी करो वरना पूरा दिन यूँ ही निकल जायेगा" और दोनों गाड़ी में बैठ गए।
पहले तो सुधा चुपचाप गाड़ी चलाती रही। लेकिन फिर उससे रहा नहीं गया और उसने नकुल से कहा "ऐसा "गूंगे का गुड खाकर क्यूँ बैठो हो, कुछ गाओ गुनगुनाओ ना" नकुल बोला अरे मैं क्या गाउँ...तुम ही कुछ गाओ ना"
सुधा ने नकुल की तरफ देखा, उसके घने काले खुले हुए बाल हवा में काली घटाओं की तरह लहरा रहे थे। उस वक्त सुधा उतनी ही खूबसूरत लग रही थी, जैसे कोई परी उसके हवा में उड़ते हुए बाल किसी मन चले भँवरे की भांति उसके चेहरे पर यूँ आ रहे थे, मानो उसका चेहरा कोई फूल है जिसे वह बार-बार छूने को मचल रहे थे। ऐसे में सुधा ने नकुल की तरफ मुसकुराते हुए देखा और गाड़ी की स्पीड के साथ-साथ गाड़ी में लगे रिकार्ड प्लेयर की आवाज़ भी बढ़ा दी और खुद भी बज रहे गाने के साथ ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी।
" एक रास्ता है ज़िंदगी, तो थम गए तो कुछ नहीं,
यह कदम किसी मुक़ाम पर, जो जम गए तो कुछ नहीं"
कि अचानक रास्ते में पड़ी टूटी हुई काँच की बोतल के टुक्कड़ों से गाड़ी का टायर पंचर हो गया। जिसके कारण हवा से बात करती तेज़ी से चली आ रही कार का संतुलन सुधा संभल नहीं पायी और गाड़ी एक पेड़ से बहुत ज़ोर से जा टकराई। उस वक्त चूँकि गाड़ी सुधा चला रही थी। जिसके कारण उसके सर में गंभीर चोट आती है और खून बहने लगता है और सुधा वहीं बेहोश हो जाती है। बहते हुए खून को देखकर नकुल परेशान हो जाता है। उसकी समझ में कुछ नहीं आता है कि वो क्या करे, क्या न करे। वह पागलों की तरह यहाँ वहाँ मदद के लिए पुकारता है। कोई है, कोई है !!! मेरी मदद करो। अरे कोई तो आओ, मगर सुनसान पड़ी लंबी सड़क पर एक परिंदा भी उसकी आवाज़ पर नहीं आता। तो इंसान कहाँ से आते।
बदहवास नकुल सुधा को हिलाते हुए कहता है "तुम घबराओ मत सुधा, कुछ नहीं होगा तुम्हें, मैं हूँ ना मैं कुछ नहीं होने दूंगा तुम्हें "अगले ही पल नकुल भागकर सड़क पर जाता है और इधर-उधर देखते हुए एक बार फिर मदद के लिए गुहार लगता है। "कोई है, क्या कोई है यहाँ, जो मेरी मदद् कर सके" "मेरी बीवी को बहुत गहरी चोट आयी है, अस्पताल ले जाना है उसे, यह कहते-कहते बीच सड़क पर घुटनों के बल बैठते हुए नकुल ज़ोर-ज़ोर रोने लगता है।
तब शायद भगवान को भी उस पर दया आ जाती है और तभी उसे सामने से एक बड़ी गाड़ी आती हुई दिखाई देती है। आशा की यह एक किरण उसे ज़रा सा हौंसला देती है। गाड़ी वाले भी नकुल को यूँ बीच सड़क पर बैठा देखकर उस से सारा हाल पूछते हैं और नम आँखों से नकुल उन्हें पूरा वाक़या बताता है वह गाड़ी वाले उसकी सहायता के लिए राज़ी हो जाते हैं। जल्दी ही गाड़ी के कुछ लोग और नकुल मिलकर सुधा को उठाकर गाड़ी में लिटा देते हैं और फिर उसे अस्पताल ले जाते है। मगर वहाँ डॉक्टर सुधा की जाँच के बाद ही नकुल के पास आकर कहते हैं, "माफ कीजिए बहुत ज्यादा खून बह जाने की वजह से हम उन्हें नहीं बचा पाये"। यह सुनकर जैसे "नकुल के पैरों तले ज़मीन निकल जाती है" और वो पत्थर की मूरत बना ज्यों का त्यों वहीं खड़ा रह जाता है।
पल भर में दृश्य बदल जाता है और नकुल खुद को सुधा की जलती हुई चिता के सामने खड़ा पाता है। धुआँ-धुआँ करके सुधा की चिता जल रही है और उसमें से उठती हुई आग की लपटें इतनी ऊँचाई तक जा रही है, मानो पूछना चाहती है ईश्वर से कि "हे ईश्वर ऐसा क्यूँ किया तुमने मेरे साथ, " श्याम ढल रही है। धीरे-धीरे सभी परिचित नकुल और उसकी माँ को साहस देते हुए अपने-अपने घर को लौट रहे हैं। नकुल का घर लौटने का ज़रा भी मन नहीं है। उसे ऐसा लग रहा है कि सब के लिए वह स्वयं ही ज़िम्मेदार है।
सुधा की मौत ने उसे पत्थर बना दिया है। मगर घरवालों के बार-बार कहने के कारण नकुल घर जाने को राज़ी हो जाता हैं। राज़ी क्या हो जाता है घर वाले उसे जबरन अपने साथ ले जाते है।
इधर अब भी सुधा की जलती हुई चिता शांत नहीं हुई है। अभी भी उसमें आग है, वह अब भी सुलग रही है। जिसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो जलती सुलगती, चिता में से भी सुधा नकुल को पुकार रही थी और बार-बार यह कह रही है कि "नकुल मुझे यूँ इस भयानक शमशान में जलता सुलगता हुआ छोड़कर मत जाओ" "मुझे यहाँ बहुत डर लग रहा है, कम से कम तुम तो सुनो और समझो मेरी बात, " आज रात यहीं रुक जाओ कल जब मेरी चिता शांत हो जाए ना, तो भले ही चले जाना"...मैं नहीं रोकूंगी तुम्हें, मगर उसकी यह चीत्कार न जाने क्यूँ नकुल तक नहीं पहुँच रही है।
अगले दिन घर आए हुए सभी लोग गुमसुम बैठे नकुल को समझा रहे हैं "बेटा नकुल जाने वाले चले जाते हैं, मगर जो ज़िंदा है, उन्हें तो जीना ही पड़ता है। मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता" "बेटा तुम ही अगर ऐसे हिम्मत हार जाओगे तो “राहुल” का क्या होगा! "ज़रा उसके बारे में भी तो सोचो" इस बात ने जैसे नकुल की तंद्रा को भंग कर दिया। अब तक जिस नकुल की आँखों से अपनी सुधा के लिए आँसू का एक कतरा भी न गिरा था। अपने बेटे राहुल की ओर देखते ही वह नकुल बच्चों की भांति फफक-फफक कर रो दिया।
वक्त अपनी गति से बीतता चला गया। अब ज़िंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी है। सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में पहले की तरह मग्न हो चुके हैं। राहुल अब बड़ा हो गया है। उसकी पढ़ाई पूरी हो चुकी है और अब नौकरी भी करने लगा है। इधर नकुल के बालों में अब सफ़ेदी आ गयी है और आँखों पर चश्मा भी चढ़ गया है। ऐसे में जब तब अपने आप को शीशे में देखते हुए नकुल के मन में सुधा की छवि उभरती है और उसे ऐसा लगता है कि सुधा उसके इस रूप पर भी हंस रही है और हँसते हुए गा रही है।
"मैं का करुँ राम मुझे बूढ़ा मिल गया"
यह बात पल भर के लिए नकुल के फ़ीके चेहरे पर, हल्की सी एक मुस्कान बिखर जाती है। लेकिन वास्तविक ज़िंदगी में अब नकुल और राहुल दोनों की यादों से सुधा अब बहुत दूर जा चुकी की है। हाँ कभी-कभी तीज त्यौहार पर बाप-बेटे दोनों उसे याद कर लेते हैं। मगर अब उनकी रोज़ की ज़िंदगी से सुधा का वजूद अब लगभग मिट चुका है।
घर में टंगी सुधा की तस्वीर और उस पर चढ़ा हुआ चंदन का हार बस यह याद दिलाता है कि यह भी कभी इस मकान का एक अहम हिस्सा हुआ करती थी। "मकान इसलिए कहा” क्यूंकि जब तक सुधा ज़िंदा थी तभी तक यह मकान घर था। "ज़िंदगी से भरपूर सुधा का घर" जो सदा उसके गीतों से गुंजाए मान रहा करता था। लेकिन अब उसके न रहने से यह केवल एक मकान बनकर रह गया है। जहां लोग तो हैं, मगर ज़िंदगी नदारद है।
उसे क़रीब से जानने वालों के लिए तो आज भी सुधा की तस्वीर में से देखती हुई उसकी मुसकुराती आँखें, उसकी मौजूदगी का एहसास दिलाती है। उस तस्वीर को देखकर ऐसा लगता है। जैसे सुधा की आत्मा आज भी उस घर में मौजूद है। मगर जाने क्यूँ उसे कोई महसूस नहीं कर पाता है।
फिर एक दिन आता है जब नकुल अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाने के बाद खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहा है। तभी उसकी आँखों के सामने अचानक सुधा की जलती हुई चिता का दृश्य दिखाई देने लगता है। उसे ऐसा लग रहा है, जैसे जलती हुई चिता में से भी सुधा के गीत बाहर आ रहे है। जैसे वो उससे गीत के रूप में ही कह रही हो"जाओ तुम चाहे जहां, याद करोगे वहाँ, कि एक लड़की दुनिया में है, जो दे सकती है तुम पे जान"
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