Indradhanush Satranga - 22 in Hindi Motivational Stories by Mohd Arshad Khan books and stories PDF | इंद्रधनुष सतरंगा - 22

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इंद्रधनुष सतरंगा - 22

इंद्रधनुष सतरंगा

(22)

तौलिया किसका ?

बारिश के मौसम में यूँ तो आँधी नहीं आती, पर कभी-कभी पुरवाई पेड़-पौधों को ऐसा गुदगुदाती है कि वे खिलखिलाकर लोट-लोट जाते हैं। ऐसे में अगर धूप की आस में कपड़े छत पर फैले हों तो उन्हें पतंग बनते देर नहीं लगती। गायकवाड़ के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने कपड़े धुलकर छत पर फैला रखे थे। शरारती हवा ने उन्हें उठाकर पटेल बाबू के आँगन में उछाल दिया।

पटेल बाबू उस समय कंधे पर तौलिया लटकाए नहाने की तैयारी में थे। तभी गायकवाड़ का कुर्ता-पाजामा लहराता हुआ आँगन में लगे गुड़हल पर आ गिरा। कुर्ते का रंग देखते ही पटेल बाबू समझ गए। कढ़ा हुआ काला कुर्ता मुहल्ले में अकेले गायकवाड़ ही पहनते थे। पटेल बाबू उसे उठाने को बढ़े ही थे कि हवा ने एक तौलिया भी आँगन में ला गिराया। पर वह गुड़हल पर न अटककर वहाँ गिरा, जहाँ पानी और गंदगी फैली हुई थी। पटेल बाबू ने उसे हवा में ही लपकने की भरसक कोशिश की पर सफल न हुए।

तौलिए के मामले में पटेल बाबू बहुत चैतन्य रहते थे। सफाई का आलम यह था कि हर दिन तौलिया धुलता था। दूसरा कोई उसे छू भी नहीं सकता था। वह ख़ुद भी दूसरे का तौलिया इस्तेमाल करने से परहेज़ करते थे। कहते थे, ‘सारी बीमारियों की जड़ तौलिया है। जिस घर के तौलिए गंदे रहते हैं वहाँ तंदुरुस्ती नहीं फटकती।’

पटेल बाबू का तौलिया तार-तार हो चुका था, देखने वाले उसे हटाकर नया ले आने की सलाह देते थे, लेकिन उनका मानना था कि तौलिया जितना पुराना होता है उतना ही मुलायम होता है। इसीलिए अपना बदरंग हो चुका तौलिया उन्हें प्रिय था।

गायकवाड़ के तौलिये की हालत देखकर पटेल बाबू को बड़ा अफसोस हो रहा था। तौलिया धुलने लायक हो चुका था। गंदगी ऐसे चिपक गई थी कि बिना धुले साफ हो पाना संभव नहीं था। पटेल दुखी होकर सोच रहे थे, ‘कितना अच्छा और नया तौलिया है। पर महाराज से इतना भी नहीं हुआ कि क्लिप लगा देते। अब तो बिना पानी में खौलाए इसके कीटाणु नहीं मरनेवाले। पर मुझे क्या पड़ी है। जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा।’

कपड़ों का गोला बनाकर पटेल बाबू छत पर वापस फेंकने जा रहे थे कि उनके अंतर्मन ने फिर कुरेदा, ‘गायकवाड़ को भला क्या पता चलेगा तौलिया कहाँ गिरा था? वह तो बेचारा इस्तेमाल कर लेगा। कहीं कोई इंफेक्शन हुआ तो सारा पाप मेरे सिर आएगा।’

लेकिन मन ने दूसरा तर्क दिया, ‘हुँह मुझे क्या? मैं यह सब क्यों सोच रहा हूँ। गलती तो उन्हीं की है। क्यों न लगाई क्लिप? अब जैसा किया है, वैसा भुगतें।’

मन में बड़ी देर तक तर्क-वितर्क चलते रहे। कभी एक पलड़ा भारी हो जाता, तो कभी दूसरा। आखि़रकार अंतर्रात्मा ने विजय पाई। पटेल बाबू मन ही मन बोले, ‘गायकवाड़ मुझे दोस्त समझें या दुश्मन। मैं जानते-बूझते उन्हें ख़तरे में नहीं डाल सकता।’’

यह सोचते हुए पटेल बाबू ने तौलिया धुलने के लिए एक तरफ डाल दिया। कुछ सोचकर अपना पुराना तौलिया निकाला, जो आज ही धुला था और उसे बाक़ी कपड़ों के साथ अख़बार में लपेटकर गोला बनाया और गायकवाड़ की छत पर वापस उछाल दिया।

उधर गायकवाड़ बेचैनी से चक्कर काट रहे थे। उन्हें पता तो चल गया था कि कपड़े उड़कर कहाँ गए हैं, लेकिन पटेल बाबू के आँगन में झाँकने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। आखि़रकार जब कपड़ों का गोला एकाएक छत पर ‘धप्’ से गिरा तो उनकी जान में जान आई। लेकिन जैसे ही अख़बार हटाकर कपड़े देखे तो चेहरे की रंगत बदल गई। कुर्ता-पाजामा तो उन्हीं का था, पर तौलिया बदला हुआ था। गायकवाड़ ने इसका दूसरा ही मतलब निकाला। एकदम चीख़ पड़े, ‘‘सरेआम चोरी! इतनी हिम्मत! मेरा नया तौलिया रखकर पुराना दे दिया।’’

तभी उन्हें ढूँढते हुए आतिश जी ऊपर आ गए और कहने लगे, ‘‘अरे, आप यहाँ छुपे बैठे हैं। पुकार-पुकारकर मेरा तो गला ही सूख गया।’’

गायकवाड़ ग़ुस्से में भरे बैठे थे। आतिश जी को सामने पाकर भँड़ास निकालने का मौका मिल गया। चीख़ते हुए बोले, ‘‘आइए, देखिए, पटेल बाबू की सीनाज़ोरी। मेरा नया तौलिया उड़ा लिया, बदले में यह पुराना और सडि़यल तौलिया लौटाया है। सरेआम धोखा?’’

गायकवाड़ ने यह बात जान-बूझकर इतने ज़ोर-ज़ोर से कही कि पटेल बाबू के कानों तक पहुँच जाए।

‘‘आपको ज़रूर कुछ ग़लतप़फ़हमी हो रही है। फिर से पहचानिए शायद आपका ही हो।’’ आतिश जी बोले।

‘‘यह--यह मेरा है? ऐसा फटा तौलिया मैं इस्तेमाल करता हूँ? ज़रा पास से देखिए।’’ गायकवाड़ चीख़कर बोले।

आतिश जी ने ध्यान से देखा तो उन्हें भी पहचानने में देर न लगी कि तौलिया किसका है। गायकवाड़ आपे से बाहर हुए जा रहे थे। आतिश जी उन्हें समझाते हुए बोले, ‘‘अगर ऐसी बात है तो चलिए अपना तौलिया वापस ले आते हैं।’’

‘‘आप ही जाइए। उसकी चौखट पर तो मैं भूलकर भी नहीं जाऊँगा।’’

‘‘ठीक है आप बाहर खड़े रहिएगा। मैं जाकर ले आऊँगा।’’

आतिश जी की इस बात पर गायकवाड़ किसी तरह सहमत हुए। दोनों पटेल बाबू के दरवाजे़ पहुँचे। आतिश जी ने दस्तक दी। थोड़ी देर बाद झटके के साथ दरवाज़ा खुला और पटेल बाबू चिमटे से तौलिया लटकाए बाहर आए। तौलिए से गर्म पानी की भाप उठ रही थी।

‘‘यही माँगने आए हो न? यह लो।’’

पटेल बाबू गु़स्से में खौल रहे थे। उन्होंने गायकवाड़ की हाय-तौबा सुन ली थी।

‘‘साफ करने के लिए खौलते पानी में डाला था। सोचा था सुखाकर दे दूँगा। पर उसे लगता है कि मैं चोर हूँ तो ले जाए। अभी, इसी समय।’’

आतिश जी ख़ामोश खड़े सुनते रह गए। उनसे कुछ कहते न बन पड़ा। ओट में खड़े गायकवाड़ पर तो जैसे घड़ों पानी पड़ गया।

‘‘आतिश जी, आप तो जानते हैं कि मेरे पास एक ही तौलिया है। यह भी जानते होंगे कि मैं उसे किसी को इस्तेमाल नहीं करने देता। पर वह भी मैंने दे दिया कि उसे परेशानी न हो, उसका काम न रुके। मैं फिर भी किसी तरह काम चला लूँगा। लेकिन उसे तो मैं चोर नज़र आने लगा हूँ। वह तो सारे नाते भूल गया है----’’ पटेल बाबू की आवाज़ भर्रा गई।

अब गायकवाड़ से न रहा गया। निकलकर सामने आ गए और खिसियाए हुए से बोले, ‘‘मुझे माफ कर दो, पटेल बाबू । मैंने तुम्हें ग़लत समझा।’’

पटेल बाबू की आँखें छलक आईं। भर्राती हुई आवाज़ में बोले, ‘‘ठीक है, लो, यह तौलिया पकड़ो।’’

‘‘अरे ऐसे कैसे ले लेंगे?’’ आतिश जी ने बीच से ही तौलिया लपकते हुए कहा, ‘‘इसकी पेनाल्टी भरनी पड़ेगी।’’

‘‘कैसी पेनाल्टी?’’ गायकवाड़ चौंके।

‘‘अभी चलकर हम दोनों को एक-एक प्याली कड़क चाय पिलानी पड़ेगी।’’

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं,’’ गायकवाड़ सहर्ष बोले।

‘‘अभी आप पी लीजिए, आतिश जी, मैं बाद में पी लूँगा। मुझे ऑफिस की देर हो रही है।’’ पटेल बाबू बोले। उनकी आवाज़ में एक संतोष था।

गायकवाड़ आतिश जी के साथ वापस मुड़ लिए। लेकिन चलते-चलते ठहरकर बोले, ‘‘आपकी चाय उधार रही, पटेल बाबू।’’

पटेल बाबू कुछ न बोले। बस मुस्कराकर रह गए।

***