दादी के बेहिसाब लाड़-प्यार में पली नीलू बचपन से ही भरे बदन की थी. ये भरा बदन, उम्र के साथ-साथ मोटापे में तब्दील हो गया. बचपन में प्यारा लगने वाला गोल-मटोलपन, अब खटकने लगा. नीलू की आदतें ऐसीं, कि उसके मुंह से कुछ निकला नहीं कि हाज़िर. खाने की तरफ़ से मुंह फेर लेने वाली नीलू पिज़्ज़ा, बर्गर, चाउमिन बड़े शौक से खाती. हर जगह के नम्बर उसके पास नोट थे. जब चाहिये, नम्बर घुमाया और बंदा बड़ा सा डब्बा ले के हाज़िर! शुरु में तो दादी बड़े गर्व से बतातीं-’ हमारी नीलू तो सब्ज़ी-रोटी को हाथ ही नहीं लगाती.’ बाद में उसके फ़ैलते शरीर से सबसे ज़्यादा चिन्ता उन्हें ही हुई. बड़े होने के साथ-साथ नीलू ने खाना तो शुरु किया, लेकिन फ़ास्ट फ़ूड पर रोक नहीं लग सकी, हां कम ज़रूर हो गया. पढ़ाई में तीव्र बुद्धि वाली नीलू हमेशा क्लास में अव्वल आती. बड़ी बाईसाब खाने के साथ भले ही समझौता कर लें, पढ़ाई के साथ कोई समझौता न करतीं. नतीजा अच्छा ही रहा. १२वीं की परीक्षा नीलू ने अस्सी प्रतिशत अंकों के साथ उत्तीर्ण की. दादी ने तुरन्त बी.एस.सी का फ़ॉर्म भरवा दिया. नीलू की इच्छा पी.एम.टी. देने की थी. डॉक्टर बनने का सपना था उसका, लेकिन बड़ी बाईसाब उसे अपने से दूर नहीं करना चाहती थीं. सो पी.एम.टी. की परीक्षा तक में शामिल नहीं होने दिया. साफ़ कह दिया- “जो पढ़ना है, यहीं हमारी नज़रों के सामने रह के पढ़ो.” जबकि गौरी चाहती थी कि उनकी तेज़ दिमाग़ बेटी प्रीमेडिकल टेस्ट ज़रूर दे. लेकिन उसकी कभी चली है? खासतौर से नीलू के मामले में? नीलू तो जैसे उसकी बेटी थी ही नहीं. खूब रोना-धोना मचाने के बाद भी जब दादी टस से मस न हुईं तो नीलू क्या करती? चुपचाप बी.एस.सी. कम्प्लीट किया. एम.एस.सी कर लिया, हो गयी पढ़ाई. दादी ने बी.एड. करने की सलाह दी. नौकरी की तयशुदा लाइन दिखाई दे रही थी नीलू को.
गौरी की छोटी बेटी नंदिनी एम.बी.बी.एस. कर रही थी और बेटा रोहन आईआईटी रुड़की में पढ़ रहा था. नीलू कई बार कहती भी- “बस मुझे ही अपने मन की नहीं करने दी आप लोगों ने. ये दोनों तो जो चाहते हैं करते हैं. शीलू को कैसे भेज दिया दादी ने?” ये कहते हुए नीलू खुद हिचक भी जाती. जानती थी दादी का खुद के प्रति अधिकार भाव. कभी-कभी अखरने भी लगती उसे ये हक़परस्ती. लेकिन क्या करती? दादी से उसे उतना ही लगाव भी तो था…. नीलू जब छोटी थी तो कई बार उसका मन मां के साथ सोने का होता था. दौड़ के पहुंच भी जाती थी मां के बिस्तर पर. लेकिन थोड़ी ही देर में दादी उसे खोजती हुई पहुंच जातीं. दादा को उसने कई बार ये कहते सुना- “ बच्ची को बहू से अलग क्यों किये रहती हो सुनन्दा? दिन भर रखो अपने पास, लेकिन रात को तो उसे मां के साथ सोने दो.” जवाब में दादी केवल दादा की ओर देखतीं, इस देखने भर में पता नहीं क्या था, कि दादा फिर अपने हाथ के अखबार में झांकने लगते. शुरु-शुरु में जब लोग उससे मम्मी का नाम पूछते तो वो सुनन्दा सिंह बुंदेला बताती. बाद में दादी ने ही सुधार किया और उसे मां का नाम रटवाया. बड़ी हुई तो दादी उसकी शादी को लेकर अतिरिक्त चिन्तित नज़र आईं. चिन्ता की वजह था नीलू का बढ़ता वज़न. रंग भी बहुत साफ़ नहीं था नीलू का,. लेकिन गेहुंआ वर्ण की नीलू का नाक-नक़्श बहुत सलोना था. अच्छी लम्बाई की वजह से बढ़ा हुआ वज़न भी अटपटा नहीं लगता था.