विद्रोहिणी
(3)
माता का प्रयास
श्यामा की माता कौशल्या ने मंदिर के बाहर से ही उसे आवाज दी, ‘ बेटी श्यामा ! ‘
अपनी माता की चिर परिचित आवाज सुनते ही श्यामा दौड़कर बाहर गई व उससे लिपट गई।
दोनों मां बेटी गले मिलकर बिना कुछ बोले रोती रहीं । श्यामा एक छोटे बालक की तरह लंबी लंबी सिसकियां लेते हुए रो रही थी। माता उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर दुलार रही थी। जैसे शाम के समय घर लौटकर गाय अपने दिनभर के बिछुड़े हुए प्रतीक्षारत हैरान परेशान बछ़ड़े को चाट चाटकर अपना सम्पूर्ण स्नेह उस पर उड़ेल देती है।
बड़ा धीरज रखकर कौशल्या ने पूछा, ‘ कैसी है बेटी ? ’
यह सुनते ही कुछ देर के लिए रूके हुए श्यामा के आंसू फिर बह चले । वे दोनों फफक फफक कर रो पड़ीं। किशन यह नजारा दूर से देख रहा था। उसने मुंह बिचकाते हुए एक दर्शनार्थी से कहा,
‘ देखो कैसा नाटक चल रहा है ? ’
कौशल्या ने किशन को भेंटस्वरूप कुछ रूपये व कपड़े दिए जिसे उसने तिरस्कृत भाव से लेकर ऐक ओर रख दिए। कौशल्या ने किशन से बड़ी विनम्रता से कहा, ‘ जमाई साहब ! मैं श्यामा को कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाने के लिए आई हूं। कृपया हमें अपनी बेटी को ले जाने के लिए आज्ञा दें।’
किशन ने चिढ़ते हुऐ कहा, ‘ यदि श्यामा यहां से चली गई तो मंदिर के काम कौन करेगा ? ’
झाड़ू पोंछा कौन करेगा ? खाना कौन बनाऐगा ? ’
यह सुनकर कौशल्या बउ़ी निराश हो गई। फिर उसने हिम्मत जुटाकर कहा, ‘ देखो साब! मै अपनी बेटी को लेने इतनी दुर से आई हूं। मान भी जाओ जमाईसा, कुछ दिनों की तो बात है । मैं खुद ऐक सप्ताह बाद श्यामा को फिर आपके यहां छोड़ जाउगी। ’
बहुत मनुहार करने पर भी किशन श्यामा को पीहर भेजने के लिए राजी नहीं हुआ।
दूसरे दिन कौशल्या किशन के मामा के पास पहुंची। उसने मामा से श्यामा को ले जाने के लिए आज्ञा मांगी किन्तु मामा ने यह कहते हुऐ उसे किसी प्रकार की मदद देने से इंकार कर दिया कि श्यामा को भेजने या न भेजने का निर्णय किशन का है, वे इस विषय मे कुछ नहीं कर सकते।
इस पर कौशल्या को बड़ी निराशा हुई । वह दुखी होकर बड़बड़ाने लगी ‘ अब मैं क्या करूं भगवान ?
श्यामा ! तुझे इस नर्क से कैसे निकालूं ? ’
अपनी मां को निराश देख श्यामा ने उस के कान में कुछ कहा जिसे सुनकर मां की आंखें आशा से चमक उठी। उसने श्यामा के ओंठों पर हथेली रखकर इशारा किया कि जरा भी आवाज नहीं करना। दीवारों के भी कान होते है। दरसल श्यामा ने मां को चुपके से रात के अंधेरे में निकल भागने की एक योजना सुझाई थी। श्यामा की माता अब मंदिर में रूककर श्यामा की सुझाई गुप्त योजना को कार्य रूप देने के लिए इंतजार करने लगी।
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भजन संध्या
वह गांव अपनी भजन मंडली के लिए प्रसिद्ध था। प्रत्येक गुरूवार रात्रि को कुछ लोग किसी ऐक सदस्य के
घर इकठ्ठा होते । कुछ सदस्य अपने साथ झांझ मंजीरे, करताल, ढोलक, वीणा आदि वाद्य यंत्र लाते।
रातभर वे तरह तरह के भजन गाते। बीच बीच में अवकाश होता जिसमें हंसी ठट्टा व चाय पानी के दौर चलते । भजन गाते गाते वे प्रभु भक्ति में लीन हो जाते। उन्हें तन मन की सुध नहीं रहती। कुछ भक्त प्रेम में उन्मत्त होकर नाचने लगते। ऐसा लगता स्वयं भगवान उन पर भक्ति की बरसात कर रहे हों।
उन भजनों में जीवन की दार्शनिकता के गूढ़ रहस्य छिपे रहते।
ऐक भजन की बानगी देखिये:
‘ थे बाहर देखो काईं, थांके सब सुख है मन माहीं
थे बाहर सुनो रे काईं, थांके अंतरनाद बजाहीं,
थांकि इड़ा पिंगला नाड़ी, वा सुखमन है सुखकारी,
थे वा में ध्यान लगाओ, थांका आवागमन मिट जाही। ’
अर्थात् तुम बाहर क्या भटकते हो, तुम्हारे अंतरमन में ही समस्त सुख विद्यमान है।
अपने अंदर चल रहे अनहद नाद को सुनो। अपनी सुषुम्ना नाड़ी पर ध्यान करो, तुम्हे समस्त दुःखों
से मुक्ति मिलेगी और मोक्ष प्राप्त होगा।
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नाटक
वह गांव दशावतार नाटकों के लिए बड़ा प्रसिद्ध था। इन नाटकों हिन्दू धर्म के अनुसार ईश्वर ने अपने भक्तों की रक्षा, पापियों के नाश तथा धर्म की पुनस्र्थापना के लिए विभिन्न योनियों में अवतार लिया था। इन नाटकों की इतनी प्रसिद्धि थी कि दूर दूर के गांवों से लोग नाटकों के शुरू होने के एक माह पूर्व से ही इस गांव में डेरा जमा लेते थे। झुंड के झुंड लोग, स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध, युवा अपने सामान की गठरी उठाए उस गांव के बाहर ऐक बड़े विशाल मैदान में अपना डेरा तम्बू गाड़ देते थे। मैदान के ऐक किनारे पर ऐक नदी बहती थी। वहां जंगली जानवर जैसे हिरनो के झुंड, भेड़िये, लोमउ़ी आदि प्रायः दिखाई दे जाते थे। रात के वीराने में किसी शेर की गर्जना भी कभी कभार सुनाई देती थी। किन्तु किसी जंगली प्राणी की हिम्मत इंसानों के समीप आने की नहीं होती थीं । यदि कोई हिंसक पशु भूल से भटकता हुआ इंसानी बस्ती के समीप आ जाता तो कदाचित् ही वह जिंदा लौट पाता था। रात के अंधेरे में कुछ देर तो मशालें जलतीं किन्तु फिर अंधेरा छा जाता। सभी लोग अंधेरे में देखने के आदी थे। उनके लिए तारों की रौशनी पर्याप्त थी। चंद्रमा की रौशनी तो सवेरे की रौशनी के काफी नजदीक मानी जाती थी।
यह समय छोटे मोटे खोमचे व फुटकर व्यापारियों के लिए एक लाटरी खुलने के समान था।
वे उस समय इतनी कमाई कर लेते थे जो आने वाले एक वर्ष के लिए पर्याप्त थी। बच्चो के लिए गुब्बारे, , खिलौने, लकड़ी की तलवार, देवों व दैत्यों के मुखौटे आदि बहुत सस्ते मे बेचे जा रहे थे। बाहर से आए लोग मैदान मे ही लकड़ी व कंडों की आग में खाना बना लेते थे।
मैदान के ऐक छोर पर ऐक बड़ी स्टेज बनाई जा रही थी। उसके तीन ओर कसीदाकारी किए हुए रेशमी पर्दे लटकाए गए थे। उन पर दिखाए जाने वाले नाटकों के दृष्यों की पेंटिंग की गई थी। सब लोग प्रथम नाटक के प्रारंभ होने का इंतजार बड़ी बेसब्री से कर रहे थें।
उस दिन नाटक प्रारंभ होने वाले थे। सभी लोग बड़े सवेरे ही जाग गए थे। उन्होंने भोर में ही नहा धोकर खाना बना लिया था। अपने समस्त दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर वे प्रथम नाटक प्रारंभ होने का इंतजार करने लगे। शाम अभी दूर थी और समय काटे नहीं कट रहा था।
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मत्स्यावतार
ऐक शाम सूरज के ढलने के साथ ही नाटक के प्रारंभ होने की सूचक घंटी बजी।
स्टेज पर ऐक उद्घोषकर्ता ऐक पतरे के चोंगे में बोल रहा था:
‘ प्रिय भगवद्भक्तों आज हमारा भाग्योदय होने वाला है । जब जब प्रथ्वी पर दुष्टों का आतंक बहुत बढ़ जाता है, धर्म का नाश होने लगता है, तब तब धर्म की स्थापना व भक्तों की रक्षा के लिए भगवान प्रथ्वी पर अवतार लेते हैं। आज हम भगवान के प्रथम अवतार ‘ मत्स्यावतार ’ का नाटक देखने जा रहे हैं।
( पर्दा हटता है। ऐक राजा समुद्र के किनारे अपने पितरों को श्रद्धांजली दे रहा है। तभी उसकी अंजुली में ऐक मछली आ जाती है । )
राजा: ओहो ! कितनी प्यारी मछली है ! इसे अपने महल में ले चलता हूं।
( राजा महल में पहुंचकर अपने सेवकों को आज्ञा देता है।
राजा: सुनो सभी सेवकों ! यह मेरी प्यारी मछली है। इसे बड़ी सावधानी से एक सुंदर पात्र में रख दो। इसकी देखभाल में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं हो पाए।
( मछली को एक बड़े सुंदर पात्र में रख दिया जाता है। उधर मछली प्रतिदिन आकार मे बड़ी होती जाती है और थोड़े थोड़े दिन मे उसके लिए अधिक बड़ा पात्र बदलना पड़ता है। कुछ दिन बाद सेवक घबराते हुए राजा के पास जाते हैं। )
एक सेवक: राजा की जय हो। महाराज अब मछली इतनी बड़ी हो गई है कि उसके आकार के अनुरूप बड़ा पात्र कहीं नहीं मिल रहा है।
राजा: ठीक है हमें अपनी प्यारी मछली को पुनः समंदर में छोड़ना पड़ेगा।
( राजा अपने लाव लश्कर के साथ मछली को समंदर में छोड़ने जाता है। समंदर के किनारे पर पहुंचकर राजा अपनी प्याारी मछली से विदा लेता है। )
राजा: जाओ प्यारी मछली! जाओ। तुमसे विदा लेते हुए बड़ा दुख हो रहा है किन्तु हम विवश हैं।
( अचानक मछली बहुत बड़ी हो जाती है। वह मनुष्य की आवाज में कहती है:
मछली: प्रिय राजन् ! मै मत्स्यावतार हूं i सृष्टि की रक्षा के लिये मैंने मछली का रूप धारण किया है।
बहुत शीघ्र सृष्टि का प्रलय होने वाला है । आप प्रथ्वि के समस्त प्राणियों के एक एक जोड़े लेकर एक बड़ी नाव में सवार हो जाएं। मै आप सबकी रक्षा करूंगी।
( राजा भगवान की पूजा करता है व सभी जीव जंतुओं का एक एक जोड़ा एकत्रित करता हे। महल के सभी लोगों को लेकर राजा एक बड़ी नाव में सवार हो जाते हैं।
भगवान मत्स्य उस नाव को सहारा देते हुए तूफान से निकाल ले जाते है।
पर्दा बंद हो जाता है।)
ढोल, मजीरे व अन्य वाद्य यंत्रों के संगीत के साथ
सब लोग भजन गाते हैं: ‘ श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव ’
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