Badi Didi - 4 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | बड़ी दीदी - 4

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बड़ी दीदी - 4

बड़ी दीदी

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 4

मनोरमा माधवी की सहेली है। बहुत दिनों से उसने मनोरमा को कोई पत्र नहीं लिखा था। अपने पत्र का उत्तर न पाकर मनोरमा रूठ गई थी। आज दोपहर को कुछ समय निकालकर माधवी उसे पत्र लिखने बैठी थी।

तभी प्रमिला ने आकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

माधवी ने सिर उठाकर पूछा, ‘क्या है री?’

‘मास्टर साहब का चश्मा कहीं खो गया है, एक चश्मा दो।’

माधवी हंस पड़ी, बोली, ‘जाकर अपने मास्टर साहब को कह दे कि क्या मैंने चश्मों की कोई दुकान खोल रखी है?’

प्रमिला दौड़कर जडाने लगी तो माधवी ने उसे पुकारा, ‘कहा जा रही है?’

‘उनसे कहने।’

‘इसके बजाय गुमाश्ता जी को बुला ला।’

प्रमिला जाकर गुमाश्ता जी को बुला लाई। माधवी ने उनसे कहा, ‘मास्टर साहब का चश्मा खो गया है। उन्हें एक अच्छा-सा चश्मा दिलवा दो।’

गुमाश्ता जी के चले जाने के बाद वह फिर मनोरमा को पत्र लिखने लगी, पत्र के अन्त में उसने लिखा-

‘प्रमिला के लिए बाबूजी ने एक टीचर रखा है, उसे आदमी भी कह सकते हैं और छोटा बालक भी कह सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इससे पहले वह घर से बाहर कभी नहीं रहा। संसार का कुछ भी नहीं जानता। अगर उसका ध्यान न रखा जाए, उसकी देख-रेख न की जाए तो पलभर भी उसका काम नहीं चल सकता। मेरा लगभग आधा समय उसने छीन रखा है, तुम्हें पत्र कब लिखूं। अगर तुम जल्दी आईं तो मैं इस अकर्मण्य आदमी को दिखा दूंगी। ऐसा निकम्मा और नकारा आदमी तुमने अपने जीवन में नहीं देखा होगा। खाना दिया जाता है तो खा लेता है वरना चुपचाप उपवास करके रह जाता है शायद दिन भर भी उसे इस बात का ध्यान नहीं आता कि उसने खाना खाया हे या नहीं। एक दिन भी वह अपना काम आप नहीं चला सकता, इसलिए सोचती हूं की ऐसे लोग घर से बाहर निकलते ही क्यों हैं? सुना है, उसके माता-पिता हैं। लेकिन मुझे तो ऐसा लगता है कि उसके माता-पिता इन्सान नहीं पत्थर हैं। मैं तो शायद ऐसे आदमी को कभी आंख की ओट भी नहीं कर सकती।’

मनोरमा ने मजाक करते हुए उत्तर दिया- ‘तुम्हाके पत्र से अन्य समाचारों के साथ यह भी मालूम हुआ की तुमने अपने घर में एक बन्दर पाल लिया है और तुम उसकी सीता देवी बन बैठी हो। फिर भी सावधान किए देती हूं-तुम्हारी मनोरमा।’

पत्र पढ़कर माधवी उदास हो गई। उसने उत्तर में लिख दिया, ‘तुम मुहंजली हो, इसलिए वह नहीं जानती कि किसके साथे केसा मजाक करना चाहिए।’

प्रमिला से माधवी ने पूछा, ‘तुम्हारे मास्टर का चश्मा कैसा रहा?’

प्रमिला ने कहा, ‘ठीक रहा।’

‘मास्टर साहब उस चश्मे को लगातार खूब मजे से पढ़ते हैं। इसी से मालूम हुआ।’

‘उन्होंने खुद कुछ नहीं कहा?’ माधवली ने पूछा।

‘नहीं, कुछ नहीं।’

‘कुछ भी नहीं कहा? अच्छा है या बुरा है?’

‘नहीं, कुछ नहीं कहा।’

माधवी का हर समय प्रफुल्लित होने वाला चहेरा पलभर के लिए उदास हो गया, लेकिन फिर तुरन्त ही हंसते हुए बोली, ‘अपने मास्टर साहब से कह देना कि अपना चश्मा फिर कहीं न खो दें।’

‘अच्छा कह दूंगी।’

‘धत् पगली, भला ऐसी बातें भी कहीं कही जाती हैं। शायद वह अपने मन में कुछ खयाल करने लगें।’

‘तो फिर कुछ भी न कहुं?’

‘हां, कुछ मत कहना।’

शिवचन्द्र माधवी का भाई है। एक दिन माधवी ने उससे पूछा, ‘जानते हो, प्रमिला के मास्टर रात-दिन क्या पढ़ते रहते है?’

शिवचन्द्र बी.ए. पढ़ता था। प्रमिला के तुच्छ मास्टर जैसों को वह कुछ समझता ही नहीं था। उपेक्षा से बोला, ‘कुछ नाटक-उपन्यास पढ़ते रहते होंगे। और क्या पढेंगे?’

लेकिन माधवी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने प्रमिला के द्वारा सुरेन्द्र की एक पुस्तक चोरी से मंगवा ली और अपने भाई के हाथ में देकर बोली, ‘मुझे तो यह नाटक या उपन्यास नहीं दिखाइ देता।’

शिवचन्द्र ने सारी पुस्तक उलट-पुलट कर देखी लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आया। बस इतना ही समझ पाया कि वह इस पुस्तक का एक भी अक्षर नहीं जानता और यह कोई गणित की पुस्तक है।

लेकिन बहन के सामने अपना सम्मान नष्ट करने की इच्छा नहीं हुई। उसने कहा, ‘यह गणित की पुस्तक है। स्कूल में छोटी क्लासों में पढा़यी जाती है।’

दुःखी होकर माधवी ने पूछा, ‘क्या यह किसी ऊंची क्लास की पुस्तर नहीं है? क्या कॉलेज में पढ़ायी जाने वाली पुस्तक नहीं है?’

शिवचन्द्र ने रुखे स्वर से उत्तर दिया, ‘नहीं, बिलकुल नहीं।’

लेकिन उस दिन से शिवचन्द्र सुरेन्द्रनाथ के सामने कभी नहीं पड़ता। उसके मन में यह डर बैठ कया है कि कहीं एसा न हो कि वह कोई बात पूछ बैठे, ‘जिससे सारी बातें खुल जाएं और फिर पिता की आज्ञा से उसे भी सवेरे प्रमिला के साथ मास्टर साहब के पास कॉपी, पेंसिल लेकर बैठना पड़े।’

कुछ दिन बाद माधवी ने पिता से कहा, ‘बाबूजी, मैं कुछ दिनो के लिए काशी जाऊंगी।’

ब्रज बाबू चिन्तित हो उठे, ‘क्यो बेटी, तुम काशी चली जाओगी तो इस गृहस्थी का क्या होगा?’

माधवी हंसकर बोली, ‘मैं लौट आऊंगी। हंमेशा के लिए थोड़े ही जा रही हूं।’

माधवी तो हंस पड़ी लेकिन पिता की आंखे छलक उठी।

माधवी ने समझ लिया कि ऐसा कहना उचित नहीं हुआ। बात संभालने के लिए बोली, ‘सिर्फ कुछ दिन घूम आऊंगी।’

‘तो चली जाओ, लेकिन बेटी यह गृहस्थी तुम्हारे बिना नहीं चलेगी।’

‘मेरे बिना गृहस्थी नहीं चलेगी?’

‘चलेगी क्यों नहीं बेटी! जरूर चलेगी, लेकिन उसी तरह जिस तरह पतवार के टूट जाने पर नाव बहाव की ओर चलने लगती है।’

लेकिन काशी जाना बहुत ही आवश्यत था। वहां उसकी विधवा ननद अपने इकलौते बेटे के साथ रहेती है। उसे एक बार देखना जरूरी है।

काशी जाने के दिन उसने हर एक को बुलाकर गृहस्थी का भार सौंप दिया। किसी दासी को बुलाकर पिता, भाई, और प्रमिला की विशेष रुप से देखभाल करने की हिदायक दी लेकिन मास्टर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। ऐसा उसने भूलकर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। एसा उसने भूलकर नहीं बल्कि जान बूझकर किया था। इस समय उस पर उसे गुस्सा भी आ रहा था। माधवी ने उसके लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन इस समय उसने मुंह से एक शब्द भी कहकर कृतज्ञता प्रकट नहीं की, इसलिए माधवी विदेश जाकर इस निकम्मे, संसार से अनजान और उदासीन मास्टर को जतलाना चाहती है कि मैं भी कोई चीज हूं। जरा-सा मजाक करने में हर्ज ही क्या है? यह देख लेके में हानि ही क्या है उसके यहां न होने पर मास्टर के दिन किस तरह कटते हैं? इसलिए वह काशी जाते समय किसी से सुरेन्द्र के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह गई।

सुरेन्द्रनाथ उस समय कोई प्राब्लम साल्ब कर रहा था। प्रमिला ने कहा, ‘रात को बड़ी बहन कासी चली गई।’

प्रमिला की बात उसके कानों तक नहीं पहुंची। उसने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।

लेकिन तीन दिन के बाद जब उसने देखा कि दस बजे भोजन के लिए कोई आग्रह नहीं करता। किसी-किसी दिन एक और दो बज जाते हैं। नहाने के बाद धोती पहनते समय पता चलता है कि धोती पहले की तरह साफ नहीं है। जलपान की प्लेट पहले की तरह सजाई हुई नहीं है। रात को गैस की चाबी बन्द करने के लिए अब कोई नहीं आता। पढ़ने की झोंक में रात के दो और तीन-तीन बज जाते हैं, सुबह जल्दी नींद नहीं खुलती। उठने में देर हो जाती है। दिन भर नींद आंखो की पलके छोड़कर जाना ही नहीं चाहती और शरीर मानो बहुत ही शिथिल हो गया है। तब उसे पता चला कि इस गृहस्थी में कुछ परिवर्तन हो गया है। जब इंसान को गर्मी महसूस होती है, तब वह पंखे की तलाश करता है।

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक पर से नजर हटा कर पूछा, ‘क्यों प्रमिला, क्या बड़ी बहन यहां नहीं है?’

उसने कहा, ‘वह काशी गई है।’

‘ओह, तभी तो।’

दो दिन के बाद उसने अचानक प्रमिला की ओर देखकर पूछा, ‘बड़ी बहन कब आएगी?’

सुरेन्द्रनाथ ने फिर पुस्तक की ओर ध्यान लगाय दिया और भी पांच दिन बीत गए। सुरेन्द्रनाथ ने पैंसिल पुस्तक के ऊपर रखकर पूछा ‘प्रमिला, एक महिने में और कितने दिन बाकी हैं।’

‘बहुत दिन।’

पैंसिल उठाकर सुरेन्द्रनाथ ने चश्मा उतारा। उसके दोनों शीशे साफ किए और फिर खाली आंखो से पुस्तक की ओर देखने लगा।

दूसरे दिन उसने पूछा, ‘प्रमिला, तुम बड़ी बहन की चिठ्ठी नहीं लिखती?’

‘लिखती क्यो नहीं?’

‘जल्दी आने के लिए नहीं लिखा?’

‘नहीं।’

सुरेन्द्रनाथ ने गरही सांस लेकर कहा, ‘तभी तो।’

प्रमिला बोली, ‘मास्टर साहब, अगर बड़ी बहन आ जाए तो अच्छा होगा?’

‘हां, अच्छा होगा।’

‘आने के लिए लिख दूं?’

‘हा, लिख दो।’ सुरेन्द्रनाथ ने खुश होकर कहा।

‘आपके बारे में भी लिख दूं?’

‘लिख दो।’

उसे ‘उसे लिख दो’ कहने में किसी प्रकार की दुविधा महसूस नहीं हुई। क्योंकि वह कोई भी लोक व्यवहार नहीं जानता। उसकी समझ में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि बड़ी बहन से आने के लिए अनुरोध करना उसके लिए उचित नहीं है, सुनने में भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन जिसके न रहने से उसे बहुत कष्ट होता है और जिसके न होने से उसका काम नहीं चलता, उसे आने के डरा भी अनुचित प्रतीत नहीं हुआ।

इस संसार में जिन लोगों में कौतूहल कम होता है वह साधारण मानव समाज से कुछ बहार होते हैं। जिस दिल में साधारण लोग रहते है, उस दल के साथ उन लोगों का मेल नहीं बैठता। साधारण लोगों के विचारों से उनके विचार नहीं मिलते। सुरेन्द्रनाथ के स्वभाव में कौतुहल शामिल नहीं है। उसे जितना जानना आवश्यक होता है वह बस उतना ही जानने की चेष्टा करता है। इससे बाहर अपनी इच्छा से एक कदम भी नहीं रखना चाहता। इसके लिए उसे समय भी नहीं मिल पाता, इसलिए उसे बड़ी बहन बारे मे कुछ भी मालूम नहीं था।

इस परिवार में उसके इतने दिन बीत गए। इत तीन महीनों तक अपना सारा भार बड़ी दीदी पर छोड़कर अपने दिन बड़े सुख से बिता दिए। लेकिन उसके मन में यह जानने की रत्ती भर भी जिज्ञासा नहीं हुई कि बड़ी दीदी नाम का प्राणी कैसा है? कितना बड़ा है? उसकी उम्र क्या है? देखने में कैसा है? उसमें क्या-क्या गुण है? वह कुछ भी नहीं जानता? जानने की इच्छा भी नहीं हुई और कभी ध्यान भी आया।

सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं, सो वह भी बड़ी दीदी कहता है। सभी उस स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। वह भी करता है। उसके पास संसार की हर वस्तु का भंडार भरा पड़ा है। जो भी मांगता है, उसे मिल जाता है और यदि उसक भंडार में से सुरेन्द्र ने भी कुछ लिया है तो इसमे अचम्भे की बात कौन-सी है। बादलों का काम जिस तरह पानी बरसाना है, उसी तरह बड़ी दीदी का काम सबसो स्नेह करना और सबकी खोज-खबर रखना है। जिस समय वर्षा होती है, उस समय जो भी हाथ बढ़ता है उसी को जब मिल जाता है। बड़ी दीदी के सामने हाथ फैलाने भी पर जो मांगो मिल जाता है। जैसे वह भी बादलों की तरह नेत्रों, कामनाओं और आकांक्षाओं से रहित है। अच्छी तरह विचार करके उसने अपने मन में इसी प्रकार की धारणा बना रखी है। आज भी वह जान गया है कि उनके बिना उसका काम एक पल भी नहीं चल सकता।

वह जब अपने घर था तब या तो अपने पिता को जानता था या विमाता को। वह यह भी समझता था कि उन दोनों के कर्तव्य क्या हैं। किसी बड़ी दीदी के साथ उसका कभी परिचय नहीं हुआ था और जबसे परिचय हुआ है तब से उसने उसे ऐसा ही समझा है, लेकिन बड़ी दीदी नाम के व्यक्ति को न तो वह जानता है और न पहचानता है। वह केवल उनके नाम को जाना है और नाम को ही पहचानता है। व्यक्ति का जैसे कोई महत्व ही नहीं है, नाम ही सब कुछ है।

लोग जिस प्रकार अपने इष्ट देवता को नहीं देख पाते, केवल नाम से ही परिचित होते हैं। उसी नाम के आगे दुःख और कष्ट के समय अपना सम्पूर्ण ह्दय खोलकर रख देते हैं, नाम के आगे घुटने टेक कर दया की भिक्षा मांगते हैं, आंखों मे आंसू आते हैं तो पोंछ डालते है और फिर सूनी-सूनी नजरों से किसी को देखना चाहते हैं लेकिन दिखाई नहीं देता। अस्पष्ट जिह्वा केवल दो-एक अस्फुट शब्दों का उच्चारण करके ही रुक जाती है। ठीक इसी प्रकार दुःख पाने पर सुरेन्द्रनाथ स्फुर शब्दों में पुकार उठा-बड़ी दीदी।

तब तक सूर्य उदय नहीं हुआ था। केवल आकाश में पूर्वी छोर पर उषा की लालिमा ही फैली थी। प्रमिला ने आकर सोए हुए सुरेन्द्रनाथ का गला पकड़ कर पुकारा, ‘मास्टर साहब?’

सुरेन्द्रनाथ की नींद से बोझिल पलकें खुल गई, ‘क्या है प्रमिला?’

‘बड़ी दीदी आ गई।’

सुरेन्द्रनाथ उठकर बैठ गया। प्रमिला का हाथ पकड़कर बोला, ‘चलो देख आएं?’

बड़ी दीदी को देखने की इच्छा उसके मन में किस तरह पैदा हुई, कहा नहीं जा सकता और यह भी समझ में नहीं आता कि इतने दिनों बाद यह इच्छा क्यों पैदा हुई। प्रमिला का हाथ थामकर आंखें मलता हुआ अंदर चला गया। माधवी के कमरे के सामने पहुंचकर प्रमिला ने पुकारा, ‘बड़ी दीदी?’

बड़ी दीदी किसी काम में लगी थी। बोली, ‘क्या, है प्रमिला?’

‘मास्टर साहब...।’

वह दोनों कमरे में पहुच चुके थे। माधवी हड़बडाकर खड़ी हो गई और सिर पर एक हाथ लम्बा घूंघट खींचकर जल्दी से एक काने में खिसक गई।

सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘बड़ी दीदी, तुम्हारे चले जाने पर मैं बहुत कष्टय...।’

माधवी ने घूंघट की आड़ में अत्यन्त लज्जा के कारण अपनी जीभ काटकर मन-ही-मन कहा, ‘छी!’ ‘छी!’

‘तुम्हारे चले जाने पर...।’

माधवी मन-ही-मन कह उठी, ‘कितनी लज्जा की बात है।’ फिर धीरे से बड़ी नर्मी से बोली, ‘प्रमिला, मास्टर साहब से बाहर जाने के लिए कह दे।’

प्रमिला छोटी होने पर भी अपनी बड़ी दीदी के व्यवहार को देखकर समझ गई कि यह काम अच्छा नहीं हुआ। बोली, ‘चलिए मास्टर साहब।’

सुरेन्द्र कुछ देर हक्का-बक्का खड़ा रहा, फिर बोला, ‘चलो।’

वह अधिक बातें करना नहीं जानता था, और अधिक बातें करना भी नहीं चाहता था, लेकिन दिन भर बादल छाए रहने के बाद जब सूर्य निकलता है तो जिस तरह बरबर सब लोग उसकी ओर देखने लगते है और पलभर मे लिए उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सूर्य को देखना उचित नहीं है या उसकी ओर देखने से उसकी आंखों में पीड़ा होगी, ठीक उसी प्रकार एक मास तक बादलों से धिर आकाश के नीचे रहेने के बाद जब पहले पहल सूर्य चमका तो सुरेन्द्रनाथ बड़ी उत्सुकता और प्रसन्नता से उसे देखने के लिए चला गया था, लेकिन वह यह नहीं जानता था कि इसका परिणाम यह होगा।

उसी दिन से उसकी देख-रेख में कुछ कमी होने लगी। माधवी कुछ लजाने लगी, क्योंकि इस बात को लेकर बिन्दुमती मौसी कुछ हंसी थी। सुरेन्द्रनाथ बी कुछ संकुचित-सा हो गया था। वह महसूस करने लगा था कि बड़ी दीदी का असीमित भंडार अस सीमित हो गया है। बहन की देख-रेख और माता का स्नेह उसे नहीं मिल पाता। कुछ दूर-दूर रहकर हट जाता है।

एक दिन उसने प्रमिला से पूछा, ‘बड़ी दीदी मुझसे कुछ नाराज है?’

‘हा।’

‘क्यों भला?’

‘आप उस दिन घर के अन्दर इस तरह क्यों चले गए थे?’

‘जाना नहीं चाहिए था, क्यों?’

‘इस तरह जाना होता है कही? बहन बहुत नाराज हुई थी।’

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक बन्द करके कहा, ‘यही तो।’

एक दिन दोपहर को बादल धिर आए और खूब जोरों की वर्षा हुई। ब्रजराजबाबू आज दो दिन से मकान पर नहीं हैं। अपनी जमींदारी देखने गए हैं। माधवी के पास कोई काम नहीं था। प्रमिला बहुत शरारतें कर रही थी। माधवी ने कहा, ‘प्रमिला अपनी किताब ला। देखूं तो कहां तक पढ़ी है?’

प्रमिला एकदम काठ हो गई।

माधवी ने कहा, ‘जा किताब ले आ’

‘रात को लाऊंगी।’

‘नहीं, अभी ला।’

बहुत ही दुःखी मन से प्रमिला किताब लेने चली गई और किताब लाकर बोली, ‘मास्टर साहब कुछ नहीं पढाते, खुद ही पढ़ते रहते है।’

माधवी उससे पूछने लगी। आरभ्भ से अन्त तक सब कुछ पूछने पर वह समझ गई कि सचमुच मास्टर साहब ने कुछ नहीं पढ़ाया है, बल्कि पहले जो कुछ पढ़ा था, मास्टर लगाने के बाद इधर तीन-चार महिने में प्रमिला उसे भूल गई। माधवी ने नाराज होकर बिन्दु को बुलाया, ‘बिन्दु, मास्टर साहब से पूछकर आ कि इतने दिनों तक प्रमिला को कुछ भी क्यों नहीं पढ़ाया।’

बिन्दु जिस समय पूछने गई उस समय मास्टर साहब किसी प्राब्लम पर विचार कर रहे थे।

बिन्दु ने कहा, ‘मास्टर साहब, बड़ी दीदी पूछ रही हैं कि आपने प्रमिला को कुछ पढ़ाया क्यों नहीं?’

लेकिन मास्टर साहब को कुछ सुनाई नहीं दिया।

बिन्दु ने फिर जोर से पुकारा, ‘मास्टर साहब...।’

‘क्या है?’

‘बड़ी दीदी कहती हैं....।’

‘क्या कहती है?’

‘प्रमिला को पढ़ाया क्यों नहीं?’

अनपमे भाव से उसने उत्तर दिया, ‘अच्छा नहीं लगता’

बिन्दु ने सोचा, यह तो कोई बुरी बात नहीं है, इसलिए उसने यही बात जाकर माधवी को बताया। माधवी का गुस्सा और भी बढ़ गया।

उसने नीचे जाकर और दरवाजे की आड़ में खड़े होकर बिन्दु से पूछवाया, ‘प्रमिला को बिल्कुल ही क्यों नही पढ़ाया?’

दो-तीन बार पूछे जाने पर सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘में नहीं पढ़ा सकूंगा।’

माधवी सोचने लगी, ‘यह क्या कह रहे है?’

बिन्दु ने कहा, ‘तो फिर आप यहां किसलिए रहते है?’

‘यहां न रहूं तो और कहा जाऊं?’

‘तो फिर पढ़ाया क्यों नहीं?’

सुरेन्द्रनाथ को अब होश आया। घूमकर बैठ गया और बोला,‘क्या कहती हो?’

बिन्दु ने जो कुछ कहा था उसे दोहरा दिया।

‘वह पढ़ती ही है, लेकिन आप भी कुछ देखते है?’

‘नहीं, मुझे समय नहीं मिलता।’

‘तो फिर किसलिए इस घर में रहते है?’

सुरेन्द्रनाथ चुप होकर इस बात पर विचार करने लगा।

‘तो फिर आप उसे नहीं पढ़ा सकेगें?’

‘नहीं, मुझ पढ़ाना अच्छा नहीं लगता।’

माधवी ने अंदर से कहा, ‘अच्छा तो बिन्दु पूछो कि फिर वह इतने दिनों से यहां क्यों रह रहे है?’

बिन्दु ने कह दिया।

सुनते ही सुरेन्द्रनाथ प्रोब्लम वाला जाल एकदम छिन्न-भिन्न हो गया। वह दुःखी हो उठा। कुछ सोचकर बोला, ‘यह तो मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई।’

‘इस तरह लगातार चार महिने तक भूल?’

‘हां, वही तो देख रहा हूं, लेकिन मुझे इस बात का इतना ख्याल नहीं था।’

दुसरे दिन प्रमिला पढ़ने नहीं आई। सुरेन्द्रनाथ ने भी कोई ध्यान नहीं दिया।

प्रमिला तीसरे दिन भी नहीं आई। वह दिन भी यों ही बीत गया। जब चौथे दिन भी सुरेन्द्रनाथ ने प्रमिला को नहीं देखा तो एक नौकर से कहा, ‘प्रमिला को बुला बाओ।’

नौकर ने अन्दर से वापस आकर उत्तर दिया, ‘अब वह आपसे नहीं पढ़ेगी।’

‘तो फिर किससे पढ़ेगी?’

नौकर ने अपनी समझ लगाकर कहा, ‘दूसरे मास्टर आएगा।’

उस समय लगभग नौ बजे थे। सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर सोचा और फिर दो-तीन किताबें बगल में दबा कर उठ खड़ा हुआ। चश्मा खाने में बन्द करके मेज परक रख दिया और धीरे-धीरे वहां से चल दिया।

नौकर ने पूछा, ‘मास्टर साहब, इस समय कहां जा रहे है?’

‘बड़ी दीदी से कह देना, मैं जा रहा हूं।’

‘क्या आप नहीं आएंगे?’

लेकिन सुरेन्द्रनाथ यह बात नहीं सुन पाया। बिना कोई उत्तर दिए फाटक से निकल गया।

दो बज गए लेकिन सुरेन्द्रनाथ लौटकर नहीं आया। उस समय नौकर ने जाकर माधवी को बताया कि मास्टर साहब चले गए।

‘कहां गए है?’

‘यह तो मैं नहीं जानता। नौ बजे ही चले गए थे। चलते समय मुझसे कह गए थे कि बड़ी दीदी से कह देना कि मैं जा रहा हूं।’

‘यह क्या रे? बिना खाए-पिए चले गए?’

माधवी बेचेन हो उठी। उसने सुरेन्द्रनाथ के कमरे में जाकर देखा, सारी चीते ज्यों की त्यों रखी हैं। मेज के ऊपर खाने में बंद किया चश्मा रखा है। केवल कुछ किताब नहीं हैं।

शाम हो गई। फिर रता हो गई, लेकिन सुरेन्द्र नहीं लौटा।

दूसरे दिन माधवी ने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘अगर मास्टर साहब का पता लगाकर ले आओगे तो दस-दस रुपये इनाम मिलेंगे।’

इनाम के लालच में वह लोग चारों ओर दौड पड़े, लेकिन शाम को लौटकर बोले, ‘कहीं पत्ता नहीं चला।’

प्रमिला ने रोते हुए पूछा, ‘बड़ी दीदी, वह क्यों चले गए?’

‘माधवी झिड़क कर बोली, बाहर जा, रो मत।’

दो दिन, तीन दिन करके जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, माधवी की बेचैनी बढ़ने लगी।

बिन्दु ने कहा, ‘बड़ी दीदी, भला उसके लिए इतनी खोज और तलाश क्यों! क्या कलकत्ता शहर में कोई और मास्टर नहीं मिलेंगा?’

माधवी झल्ला कर बोली, ‘चल दूर हो। एक आदमी हाथ में बिना एक पैसा लिए चला गया है और तू कहती है कि तलाश क्यों हो रही हैं?’

‘यह कैसे पता चला कि उसके पास एक भी पैसा नहीं हैं?’

‘मैं जानती हूं, लेकिन तुझे इन सब बातों से क्या मतलब?’

बिन्दु चुप हो गई।

धीरे-धीरे एक सप्ताह बीत गया। सुरेन्द्र लौटकर न आया तो माधवी ने एक तरह जैसे अन्न, जल का त्याग ही कर दिया। उसे ऐसा लगता था जैसे सुरेन्द्र भूखा है। जो घर में चीज मांगकर नहीं खा सकता, वह बाहर दूसरे से क्या कभी कुछ मांग सकता है। उसे पूरा-पूरा विश्वास था कि सुरेन्द्र के पास खरीदकर कुछ खाने के लिए पैसे नहीं हैं। भीख मांगने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिए या तो छोटे बालकों जैसी असहाय अवस्था में फूटपाथ पर बैठा रो रहा होगा या किसी पेड़ के नीचे किताबों पर सिर रखे सो रहा होगा।

जब ब्रज बाबू लौटकर आए और उन्होंने सारा हाल सुना तो माधवी से बोले, ‘बेटी, यह काम अच्छा नहीं हुआ।’

कष्ट के मारे माधवी अपने आंसू नहीं रोक पाई।

उधर सुरेन्द्रनाथ सड़को पर धुमता रहता। तीन दिन तो बिना कुछ खाए ही बिता दिया। नल के पानी में पैसे नहीं लगते, इसलिए जब भूख लगती तो पेटभर नल से पानी पी लेता।

एक दिन रात को भूख और थकान से निढ़ाल होकर वह काली घाट की और जा रहा था। कहीं सुन लिया था कि वहां खाने को मिलता है। अंधेरी रात थी। आकाश में बादल धिरे हुए थे। चौरंगी मोड़ पर एक गाड़ी उसके ऊपर आ गई। गाड़ीवान ने किसी तरह धोड़े की रफ्तार रोक ली थी, इसलिए सुरेन्द्र के प्राण तो नहीं गए लेकिन सीने और बगल में बहुत गहरी चोट लग जाने से बेहोश होकर गिरा पड़ा। पुलिस उसे गाड़ी पर बैठाकर अस्पताल ले गई। चार-पांच दिन बेहोशी की हालत में बीतने के बाद एक दिन रात को उसने आंखें खोलकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

उस समय मेडिकल कॉलेज का एक छात्र ड्यूटी पर था। सुनकर पाक आ खड़ा हुआ।

सुरेन्द्र ने पूछा, ‘बड़ी दीदी आई है?’

‘कल सवेरे आएंगी।’

दूसरे दिन सुरेन्द्र को होश तो आ गया लेकिन उसने बड़ी दीदी की बात नहीं की। बहुत तेज बुखार होने के कारण दिन भर छटपटाते रहने के बाद उसने एक आदमी से पूछा, ‘क्या मैं अस्पताल में हूं?’

‘हां।’

‘क्यों?’

‘आप गाड़ी के नीचे दब गए थे।’

‘बचने की आशा तो है?’

‘क्या नहीं?’

दुसरे किन उसी छात्र ने पास आकर पूछा, ‘यहां आप का कोई परिचित या रिश्तेदार है?’

‘कोई नहीं।’

‘तब उस दिन रात को आप ब़ड़ी दीदी कहकर किसे पुकार रहे थे? क्या वह यहां हैं?’

‘हैं, लेकिन वह आ नहीं सकेंगी। मेरे पिताजी को समाचार भेज सकते हैं?’

‘हां, भेज सकता हूं।’

सुरेन्द्रनाथ ने अपने पिता ता पत्ता बता दिया। उस छत्र ने उसी दिन पत्र उन्हें लिख दिया। इसके बाद बड़ी दीदी का पता लगाने के लिए पूछा।

‘अगर स्त्रियां आना चाहें तो बड़े आराम से आ सकती हैं। हम लोग उनका व्यवस्था कर सकते हैं। आपकी बड़ी दीदी का पता मालूम हो जाए तो उनके पाक भी समाचार भेज सकते है।’ उसने कहा।

सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद ब्रज बाबू का पता बता दिया।

‘मेरा मकान ब्रज बाबू के मकान के पास ही है। आज मैं उन्हें आपके बारे में बता दूंगा। अगर वह चाहेंगे तो देखने के लिए आ जाएंगे।’

सुरन्द्र ने कुछ नहीं कहा। उसने मन-ही-मन समझ लिया था कि बड़ी दीदी का आना असंभव है।

लेकिन छात्र ने दया करके ब्रज बाबू के पास समाचार पहुंचा दिया। ब्रज बाबू ने चौंककर पूछा, ‘बच तो जाएगा न?’

‘हां, पूरी आशा है।’

ब्रज बाबू ने घर के अन्दर आकर अपनी बेटी से कहा, ‘माधवी, जो सोचा था वही हुआ। सुरेन्द्र गाड़ी के नीचे दब जाने के कारण अस्पताल में है।’

माधवी का समूचा व्यक्तित्व कांप उठा।

‘उसने तुम्हारा नाम लेकर ‘बड़ी दीदी’ कहकर पुकारा था। उसे देखने चलोगी?’

उसी समय पास वाले कमरे में प्रमिला ने न जाने क्या गिरा किया। खूब जोर से झनझानहट की आवाज हुई। माधवी दौडकर उस कमरे में चली गई। कुछ देर बाद लौटकर बोली, ‘आप देख आइए, मैं नहीं जा सकूंगी।’

ब्रज बाबू दुःखित भाव से कुछ मुस्कुराते हुए बोले, ‘अरे वह जंगल का जानवर है। उसके ऊपर क्या गुस्सा करना चाहिए?’

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो ब्रज बाबू अकेले ही सुरेन्द्र को देखने चले गए। देखकर बहुज दुःखी हुए। बोले, ‘अगर तुम्हारे माता-पिता के पास खबर भेज दी जाए तो कैसा रहे?’

‘खबर भेज दी है।’

‘कोई डर की बात नहीं। उनके आते ही मैं सारा इंतजाम कर दूंगा।’

रुपये-पैसे की बात सोचकर ब्रज बाबू ने कहा, ‘मुझे उन लोगों का पता बता दो जिससे मैं एसा इंतजाम कर दूं कि उन लोगों को यहां आने में कोई असुविधा न हो।’

लेकिन सुरेन्द्र‘ इन बातों को अच्छी तरह न समझ सका। बोला, ‘बाबूजी आ जाएंगे। उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी।’

ब्रज बाबू ने घर लौटकर माधवी को सारा हल सुना दिया।

तब से ब्रज बाबू रोजाना सुरेन्द्र को देखने के लिए अस्पताल जाने लगे। उनके मन में उसके लिए स्नेह पैदा हो गया था।

एक दिन लौटकर बोले, ‘माधवी, तुमने ठीक समझा था। सुरेन्द्र के पिता बहुत धनवान हैं।’

‘कैसे मालूम हुआ?’ माधवी ने उत्सुकता से पूछा।

‘उसके पिता बहुत बड़े बकील हैं । वह कल रात आए हैं।’

माधवी चुप रही।

‘सुरेन्द्र घर से भाग आया था।’ ब्रज बाबू ने बताया।

‘क्यो?’

‘उसके पिता के साथ आज बातचीत हुई थी। उन्होंने सारी बातें बताई। इसी वर्ष उसने पश्चिम के एक विश्वविद्यालय से सर्वोच्च सम्मान के साथ एम.ए. पास किया है। वह विलायत जाना चाहता था, लेकिन लापरवाह और उदासीन प्रकृत्ति का लड़का है। पिता को विलायत भेजने का साहस नहीं हुआ, इसलिए नाराज होकर घर से भाग आया था। अच्छा हो दाने पर वह उसे घर ले जाएंगे।’

निःश्वास रोककर और उमड़ते हुए आंसुओं को पीकर माधवी ने कहा, ‘यही अच्छा है।’

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