Sukh - Dukh in Hindi Moral Stories by Upasna Siag books and stories PDF | सुख – दुःख

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सुख – दुःख

सुख – दुःख

हर्तिषा धीरे -धीरे चलती हुई अपने सुख -दुःख करने की जगह आ बैठी। उसका मानना है कि घर में एक जगह ऐसी भी होनी चाहिए जहाँ इंसान अपना सुख -दुःख करके अपने आप से बतिया सके। इस बात पर उसके पति हँसे थे कि लो भला !कोई अपने आप से भी बतियाता है क्या ! तो वह मन ही मन हंस पड़ी कि आप क्या जानो औरतों का मन ...!

जब से माँ-पिताजी साथ रहने लगे है तो स्टोर को भी एक बेड रूम की शक्ल दे दी गयी है क्यूँ कि छोटे घर में अगर कोई आ भी जाये तो यह बेड -रूम का काम दे सके। इसी स्टोर की एक अलमारी में उसका मंदिर है जहाँ वह अपनी देवी माँ से बातें भी करती है और अपना सुख -दुःख भी।

वह सुबह से ही अनमनी सी थी। जब उसने अखबार में पढ़ा "जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हम किसी अपने से कुछ कहना चाहते है और वह हमारे पास नहीं होता "तो अचानक उसे अपनी नानी की याद आ गयी।

शाम को जब सुखजीत के साथ गुरुद्वारा गयी तो एक वृद्धा को देख कर ठिठक कर रुक गयी और उसको देखने लगी अरे ये तो नानी जैसी ही लगती है। लेकिन उसके पास चाह कर भी नहीं जा पाई। दिल में एक हूक सी उठी और आँखों में पानी आ गया।

उसकी नानी कितनी प्यारी थी। भोली सी, एकदम शांत सबको एक ही नज़र से देखना। सबका ख़याल रखने वाली, समझदार पर थोड़ी सी दब्बू भी थी और हर्तिषा की तो जान ही थी।

गर्मियों की छुट्टियों में जब ननिहाल में आते तो गाँव का शांत वातावरण उसे बहुत अच्छा लगता। आँगन में मामाजी के छः बच्चों और चार बहने वे खुद और भी कई परिवार के सदस्यों के साथ रात को देर तक बातें, हंसी -ठिठौली, कभी गीत -संगीत का कार्यक्रम चलता, थक कर वहीँ लगी चारपाइयों पर सो जाते और सुबह नानी के दही बिलौने की घर्र -घर्र की आवाज़ से आँखे खुलती।

नानी सभी बच्चों को आवाज़ लगा कर बुलाती और एक -एक मक्खन की गोली सबको खिला देती। दिन चढ़ते सभी बच्चे इधर -उधर व्यस्त हो जाते पर हर्तिषा तो नानी के आस पास ही रहती। कभी नानी चूल्हा जलाते हुए उसको आवाज़ देती जा कागज़ का टुकड़ा ला, आग जल नहीं रही, धुंआ हो रहा है। वो भाग कर कागज़ तो उठा लाती पर अगर उसपर कुछ लिखा होता तो वो नानी की धुएं से जलती आँखों को भुला कर उस पर लिखा क्या है, पढने बैठ जाती और फिर नानी जल्दी से कागज़ छीन कर चूल्हे में डाल देती और आग भक से जल जाती और एक आग उसके मन में कि क्या है पढने भी नहीं दिया ! नानी धुएं से निकले आंसू पोंछ रही होती और वह नानी का भाषण सुन कर आँसू पोंछ रही होती।

नानी शुरू हो जाती कि ऐसी भी क्या पढाई है, कुछ काम सीखो अगले घर जाना है और माँ को भी पाठ पढ़ाने लगती कि इसका क्या होने वाला है सारा दिन किताबों में आँखे फोड़ती रहती है या रेडियो कानो के लगा लिया।

शादी के बाद कौन इसको गाने सुनने देगा और किताबें ला कर देगा, कुछ तो घर का काम आना ही चाहिए। माँ उसे खींच कर गोद में बिठा लेती और नानी को बहुत प्यार से समझाती कि माँ अभी छोटी है ये, सब सीख जाएगी ...! पर नानी की आखों में तो एक चिंता सी लहराती दिखती थी।

एक तरफ जहाँ बड़ी दीदी घर में बैठी चुनरी में सितारे टांक रही होती वहीं हर्तिषा बाहर बैठक में नाना को "सत्यार्थ -प्रकाश "सुना रही होती और नाना का स्नेह पा रही होती।

उसके नाना आर्य समाज के कट्टर समर्थक थे। घर में कोई पूजा -पाठ, भजन या सत्संग करना या कीर्तन आदि में जाने की सख्त मनाही थी। उन्होंने नानी को कभी भी कोई व्रत नहीं करने दिया था। लेकिन धर्म भीरु नानी को करवा -चौथ का व्रत करने को मना भी नहीं कर पाए। वे उस दिन सुबह ही नानी को कहते कि आज तो तुम मेरे साथ ही खाना खाओगीऔर नानी का जवाब हमेशा की तरह एक ही होता, आज उनका पेट खराब है और आज उन्होंने कुछ भी नहीं खाना। तो वे कहते कि हर साल इस व्रत के दिन ही तुम्हारा पेट क्यूँ खराब होता है और हँस कर चल देते।

हाँ ...! बात तो हर्तिषा की नानी की हो रही थी। जब हर्तिषा घर के अन्दर जाती तो नानी कह बैठती तुम भी कोई काम सीखो नहीं तो सास चुटिया खींचेगी और वह दौड़ कर नानी के गले में बाहें डाल कर जोर से हिला देती, " अरे नानी, आप चिंता ही मत करो मैं चुटिया कटवाकर बाल छोटे छोटे करवा लूंगी फिर सास के हाथ कुछ भी नहीं आएगा ..., " और नानी पर बहुत लाड़ उंडेल देती। फिर नानी को भी बहुत प्यार आता और भगवान् से अच्छे घर -वर के साथ -साथ अच्छी सास की भी दुआ मांगती।

जैसे -जैसे पढ़ाई का जोर बढ़ता गया ननिहाल भी कम आना होता गया। माँ की होम सांईंस की टीचर की तरह ट्रेनिग चलती रही साथ में पढ़ाई भी चलती रही। फिर एक दिन शादी तय हो गयी लेकिन अब हर्तिषा को नानी याद आने लगी कि अब क्या होगा। नानी की सारी बातें याद आ रही थी कि अब तो किताबों कि दुनिया से बाहर हकीकत कि दुनिया से रूबरू होना होगा। मन ही मन डर गयी हर्तिषा और 4-5 किलो वजन भी कम हो गया। रंग भी काला पड़ गया। लेकिन डरने से भी क्या होना था। शादी का दिन भी आया और विदा हो गयी।

शादी के बाद नानी का डर नहीं, दुआ ही काम आयी और जो उसने शादी से पहले किया चाहा वैसा ही ससुराल में भी करने को मिला। ना किताबों की मनाही ना ही रेडियो सुनने की मनाही पति, सास, ससुर सब वैसे ही अच्छे वाले जैसे कि कोई भी लड़की सपने देखती है।

बेटी का जन्म हुआ तो नानी बहुत खुश हुयी और ढेर सारी चिंता भी जता दी इससे ये संभल जाएगी क्या ?बेटी को लेकर जब ननिहाल गयी तो बड़े ही प्यार से हाथ जोड़ कर बोली, "देबी ! बेटी को भूखा ही मत मार देना थोड़े दिन किताबों और रेडियो को भूल जाना।"

उसने हंस कर पर तनिक गुस्से का दिखावा करते हुए कहा, " नानी जब आपकी शादी हुई तो आप सिर्फ तेरह साल की थी और मैं पूरे बीस की हूँ, मैं ज्यादा अच्छी तरह से सब कर सकती हूँ और एक दिन आपके ही मुहं से कहलवा कर रहूंगी की मैंने सब ठीक तरह से संभाला है ! "

समय चक्र ऐसे ही घूमता रहा। हर्तिषा अब एक बेटे की माँ भी बन गयी थी माँ की ट्रेनिग और नानी की दुआएं सब काम आ रही थी कि एक दुखद समाचार आया कि नानी अपनी याददाश्त भूल गयी किसी को भी नहीं पहचान रही। वह भी गयी मिलने तो देख कर जी भर आया वही भोला सा, प्यारा सा चेहरा पर सबके लिए अजनबीपन लिए हुए। फिर धीरे -धीरे सब नानी की इस बीमारी के आदी हो गए। हर्तिषा का ननिहाल, ससुराल से ज्यादा दूर नहीं था वह अक्सर मिलने जाती थी अपनी नानी से।

एक दिन वह नानी के साथ वह अकेले ही थी कमरे में। उसने नानी का हाथ अपने हाथ में ले रखा था और धीमे से सहला रही थी।

तभी नानी बोली, "तू कौन है !कहाँ रहती है ? यहाँ कितने दिनों बाद आयी है ?"

हर्तिषा का मन किया कि वह जोर जोर से रो पड़े और बोले कि अरे नानी" मैं वही तो हूँ तेरी सबसे प्यारी हर्तिषा, देख आज मैंने सब कुछ संभाल लिया, बस एक बार तू मुझे तो पहचान ले बस एक बार नानी " पर नानी की आँखों में वही स्नेह देख कर रुलाई रोक कर बड़ी मुश्किल से लाड़ जताते हुए बोली" नानी मैं आती तो रहती हूँ यहीं पास ही तो हूँ तेरे ".....फिर जल्दी से बाहर आ गयी और अपनी मामी के गले लग कर रोती रही कई देर।

बस यही आखिरी मुलाकात थी उसकी अपनी नानी के साथ, कुछ समय बाद वो इस दुनिया से चली गयी बिना कुछ कहे बताये बस सब कुछ अपने मन में लेकर। और हर्तिषा के पास बस नानी की दुआएं और यादे ही रह गयी, ना जाने वो कितनी देर बैठी आंसू बहती रही। पति की आवाज़ से चौंक उठी, आज क्या सुख -दुःख कर के बतिया रही हो अपने आप से। और पास आ कर आंसू पौंछते हुए बोले वो पास ही है कहीं नहीं गयी, चलो अब बहुत सुख -दुःख हो लिया बाहर चलो।

उपासना सियाग

upasnasiag@gmail.com

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