Santaap in Hindi Moral Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | संताप

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संताप

संताप

“आज उम्र के जिस पड़ाव पर बैठा हूँ, यहाँ आराम से बैठकर पीछे देखना सुविधाजनक लगने लगा है. पिछले कई साल से अनुभव करने लगा हूँ, देह की, मन की आग अब वैसी तीव्रता से नहीं जलाती, जैसी तब थी, जब इस सारे नाटक का आरंभ हुआ था.”

“नाटक?”

“हाँ, नाटक ही तो है. केवल हमारा बचपन ही सहज होता है. जब बंदिशें नहीं होती. मर्यादाओं के घेरे गले में फांसी की रस्सी नहीं बांधते, चारों ओर की भीड़ अंगुली की हरकत तक को सिर्फ अपने हितों के परिपेक्ष्य में देखती नहीं फिरती. जब चारों ओर 'ये तुम्हें शोभा नहीं देता' की गूंज पैरों को जकड़े नहीं पडी रहती. बचपन बीत जाने के बाद तो हम सब जीवन भर रंगमंच के विभिन्न पात्रों की भूमिका ही निभाते रहते हैं. खुद हम में से भला कौन जी पाता है?”

वे और भी न जाने क्या क्या कहते रहे. उनकी ऑंखें वेदना से शून्य थीं. स्वर भी सपाट था. कोई उल्लास, या द्वेष उसमें नहीं महसूस हो रहा था. अगर कहीं कुछ था तो निर्वस्त्र हो चुकी घोर निराशा...

जैसे जीवन के सब पहलू, सारे रास्ते, सब पगडंडीयाँ घूम-फिर कर इसी एक महाशून्य तक आ पहुंचे हों. सात दशक देख चुकी उनकी तीव्र दृष्टि वाली आँखों को समेटे, कुछ युवा से दिखायी देते, कुछ-कुछ गहरी होती जाती रेखाओं से भरे चेहरे ने अभी झुर्रिओं से दोस्ती करना शुरू ही किया था.

मेरा उनसे परिचय भी बड़ी ही नाटकीय परिस्थितिओं में हुआ था. हुआ यूँ कि मैं घूमती-फिरती एक खूबसूरत महकती कली की ओर आकर्षित हो गयी थी. डॉ. मिश्र के घर के सामने वाले लॉन में लगी इस कली की खुशबु का आनंद लेने जैसे ही मैं इस पर बैठी तो अचानक उसने अपने पट बंद कर लिए. शायद कली के आराम करने का वक़्त हो गया था.

और इस तरह मैं इसमें क़ैद हो कर न चाहते हुए भी रात भर के लिए इसकी साथी हो गयी. फिर मैंने कुछ उठा-पटक सी महसूस की, जैसे कोई मुझे उठाये लिए जा रहा हो, बिलकुल ऐसे जैसे कोई आप को सोते हुए पलंग समेट उठा ले जाए.

फिर मैंने महसूस किया था कहीं रखा जाना. और थोड़ी देर बाद नमकीन पानी की हल्की मंद भाप और मैं समझ गयी कि ये शाम और आने वाली रात डॉ. साहिब के ड्राइंग रूम की काफी टेबल पर फूलदान में ही बितानी होगी.

लोग चाहे मुझे घिनौनी मक्खी ही कहें, लेकिन अपने व्यवहार में मैं नितांत दार्शनिक हूँ. जो, जैसा जहाँ मिल जाए मुझे सभी स्वीकार है. दिन भर की भोजन ढूँढने की थकान थी, ऊंघने लगी थी कि टुकड़े-टुकड़े वार्तालाप मेरे कानों में पड़ा. पंखुड़ी में एक बारीक सा छेद था, उसी में से 'उनका' चेहरा दिखाई दिया तो शब्द कुछ मुखर हो उठे. और मैं बेहरकत हो ध्यान से सुनने लगी.

डॉ. साहिब का स्वर कुछ तीखा सा था., जैसे कोई आदमी धीमे स्वर में चीख रहा हो. कुछ ज़नाना सी आवाज़ में वे उन्हें अपना प्लान समझा रहे थे.

“मैं तो सर, अब अपने आप को समाज सेवा में झोंक देना चाहता हूँ. जीवन भर खुद धन कमाया, ऐशो-आराम किया, अब यश कमाना चाहता हूँ.”

ऐशो-आराम बोलते समय उनके स्वर में जो एक अजीब आलस भरा आनंद आ गया था, उससे शायद उनके चेहर पर कुछ खुमार भी आया हो. लेकिन मैं इधर-उधर सर घुमा कर भी उनके चेहरे को अपनी दृष्टि में नहीं पकड़ सकी. अलबत्ता 'उनका' चेहरा दमक उठा था.

ठोस मर्दाने स्वर में वे बोले, “डॉ. साहिब यही तो बात है. हम सब को जीवन की संध्या कला में अपना दायित्व निभाना चाहिए. समाज के प्रति हम सबका दायित्व बनता है. अब देखिये ना, मैं अपने कस्बे में जो लाइब्रेरी की इमारत के लिए कर रहा हूँ, इसीलिये ही तो है.”

डॉ. साहिब अपने बारे में कुछ और भी कहना चाहते थे, शायद वे प्रयास जिन्हें समाज सेवा की संज्ञा दी जा सके, कुछ अस्पष्ट शब्द उनके सुनायी भी पड़े, लेकिन 'उनका' दबंग धारा प्रवाह संवाद सब बहा ले गया.

“छोटा सा कस्बा है साहिब बिन्दौर, .... है ना? अजी साहब. मैं रिटायर हुआ तो वहीं जाना था मुझे. बचपन में भी सुना था और अब जब वहां जा कर रहा तो फिर वही बात सूनी कि यहाँ लोग ईंटें नहीं बनाते. पुराने खंडहरों की ईंटें और अरावली के पत्थर. यही काफी हैं, यहाँ मकान बनाने को. मन में जिज्ञासा हुयी, यहाँ के इतिहास को जानने की... अब आप तो जानते हैं, सारी उम्र केमिस्ट्री पढ़ाता रहा. खुद रिसर्च की, कितनों को करवाई, पर इतिहास सदा मेरा प्रिय विषय रहा है. सो इस नगर का इतिहास जानने की प्रेरणा मुझे ले गयी नगर के पुस्तकालय की तरफ."

इसी बीच कमरे में दो पैरों की आहट सुनायी दी, साथ ही कप प्लेटों की खनक. मैं समझ गयी कि चाय नाश्ते का दौर शुरू हो चूका है. यानि डॉक्टर साहिब और 'उनकी' मित्रता गहरी है.

कुछ ही देर में मैंने उन्हें नमकीन से भरा चम्मच मुंह में ले जाते देखा. मेरी अनगिनत मूंछें लालसा से लटपटा उठीं, सारा जिस्म अनचीन्हे स्वाद की यदा में झुरझुरा उठा. पर मैं लाचार थी. फूल की पंखुड़ियां मज़बूत थीं. हार कर मन मार कर पुन: दार्शनिक बनी मैं उनके लगातार चलते जबड़े और हिलते होंठों को देखती अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को चक्षु बना कर उनकी आत्म-कथा में डूबने लगी.

डॉक्टर साहिब अब गहरी चुप्पी लगा बैठे थे. बीच-बीच में उनकी 'हूँ हाँ' अवश्य सुनायी दे जाती थी. लगातार तेज़ रफ़्तार से चलती रेल जैसे 'उनके' लम्बे आत्मलीन वाक्यों के बीच इंजन की कभी-कभार बज उठती सीटी जैसी.....

"अजी, साहब क्या बताऊँ? तंग गली के दोनों ओर घरों से निकलते गंदे पानी से भरी खुली नालियाँ, नाले के दोनों ओर एक-एक पैर रखे दीर्घ शंका से निवृत होते एक वर्ष से ले कर ६-७ वर्ष तक के नंग-धडंग बच्चे... बदबू... सडांध.... मक्खियाँ.... साइकिलों की घंटियों की टन-टन ..... कभी कभी गुज़रते किसी खटारा स्कूटर की गड-गड और घरघराता हॉर्न बजाता कोई शोहदा सा दिखता कस्बाई फैशन परस्त नौजवान... ऐसी बदबू कि साहब, खाया पिया सब बाहर निकलने को बेताब. लेकिन साहब देखिये ये लोग ज़िन्दगी भर किस शान से इसी माहौल में जिए चले जाते हैं. यहाँ तक कि अपने कुनबे भी बढ़ाते चले जाते हैं."

अब तक चाय का कप भी खाली हो चुका था. कप उनके चेहरे से हट चुका था और उन्होंने चाय-नाश्ता करते वक़्त चुस्त हुए शरीर को पुनः ढीला छोड़ दिया था. अब उनके होठों और जबड़ों के साथ-साथ पूरा चेहरा बेहद काले घने बालों समेत मुझे दिखायी दे रहा था. मैं तो जन्म से ही काली हूँ, ज़ात की मक्खी. उनके काले बालों से मुझे कत्तई कोई ईर्ष्या नहीं हुयी.

लेकिन मक्खिओं के नाम पर जो घृणा का भाव 'उन्होंने' कमरे की हवा में छोड़ा था, उस पर मेरे अंतर्मन में तीव्र प्रतिक्रिया हुयी थी, लेकिन जल्दी ही वही ठंडापन लौट आया था... दार्शनिक हूँ ना.

वैसे देखा जाये तो ये आदम की ज़ात है अव्वल दर्जे की स्वार्थी. अब देखिये न. गंदगी खुद करेंगे, और जो इस गंदगी के बाय-प्रोडक्ट के रूप में हमारा जन्म और विस्तार होगा तो घिन से नाक मुंह बंद कर के खुद को सफाई-पसंद घोषित करते फिरेंगे. पर छोडिये, मैं भी क्या पचड़ा ले कर बैठ गयी. बातें तो हम 'उनकी' सुन रहे थे, यह मेरा अहम् कहाँ बीच में आ कर खडा हो गया?

इस बीच डॉक्टर साहिब का पतला सा स्वर बड़ी देर के बाद सुनायी दिया. वे अपने नौकर से चाय के बर्तन उठाने को कह रहे थे. डर रहे हैं, शायद मेरी जात वाला कोई न आ जाए.... कितना भी दर्शन बघारु हूँ तो आखिर मैं एक मक्खी ही. जातिवाद मुझ में कूट कूट कर भरा है.

आदम ज़ात हो या हम कीट-पतंगे. अपने ज़ात के हक में कैसा ज़हरीले दंश जैसा अहम् भीतर पाले बैठे रहते हैं. यह तभी पता चलता है, जब किसी गैर ज़ात के पाँव की हल्की सी भी आहट का अंदेशा आस-पास होने लगे. एकदम से फन उठा कर बाहर निकल आता है... हमला करने को तत्पर.....

पर इस समय मैं मजबूर हूँ. तभी तो दोनों पंख एक बार फडफड़ा कर फिर वहीं बैठ गयी हूँ. लेटने का सुख हमारे भाग्य में नहीं है, पृकृति ने जिस्म ही ऐसा बनाया है. सच कहूँ तो जब आदम ज़ात को लेटे हुए देखती हूँ तो ईर्ष्या से सुलग उठती हूँ. उस वक़्त एक ही प्रार्थना मन में उठती है कि हे भगवान् अगर मैंने इस जनम में कोई भला काम किया है. कभी किसी को सुख दिया है तो अगले जनम में मुझे आदमी ज़रूर बनाना और अगर संभव हो तो सरकारी अफसर की बीवी बना देना..... सारी ज़िन्दगी पलंग तोड़ने का सुख भोग लूंगी और फिर उसके बाद कुछ नहीं मांगूंगी.

डॉक्टर साहिब का नौकर चाय की ट्रे ले जा चुका था. सोफे के दाहिनी ओर की तिपाई पर रखी सुपारी दान से इलायची उठा कर मुंह में डालते 'वे' आगे बोले----

"गली खत्म हुयी तो बाज़ार का चौक था. पंसारी की दूकान के बाहर बोरे का मुंह खोल कर रखी गयी साबुत लाल मिर्च की धांस और चाय के ढाबे पर लगातार उबलती चाय पत्ती की महक आपस में घुल-मिल कर अजीब समा बाँध रही थी. चौक के बीचोंबीच बैठा था, नंगा पागल. डॉक्टर साहिब, पता नहीं हमारे देश के हर बाज़ार में एकाध नंगा पागल या पगली अनिवार्य रूप से क्यूँ पाए जाते हैं? हमारे यहाँ शायद मानसिक रोगी ज्यादा ही होते हैं." उनकी आवाज़ में वितृष्णा आ गयी थी.

"नहीं, साहब. मानसिक रोगी तो हर देश में पाए जाते हैं. लेकिन हमारे यहाँ हम रोगी को संभालना नहीं चाहते. शारीरिक रोगी की तो फिर देख-भाल हो जाती है, मानसिक रोगी तो तो पूरी तरह उसके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है. इसका परिणाम होता है... पली, सुमेरपुर या फिर नागौर के चौक में खडा एक नंगा आदमी..." डॉक्टर साहब के स्वर में सहानुभूति थी.

"बजा फरमाया आपने, डॉक्टर साहब. सच कहूँ तो मुझे लगता है हम में और उनमें फर्क तो सिर्फ कपड़ों का ही होता है. कहीं कहीं तो हम उनसे भी अधिक पागल होते हैं. बस, हम अपने पागल मन और तन को आवरणों से ढँक लेते हैं. कभी-कभी तो मैं खुद घबरा जाता हूँ. लगता है उसी की तरह नोच कर अपने सारे आवरण उतार कर, दौड़ कर उसी की बगल में ना जा खडा हो जाऊं. इसीलिये उसकी तरफ देखने से भी घबराता हूँ. सारे शरीर में झुरझुरी सी भर जाती है.

उस दिन जो उसके पास से गुज़रा तो वह अपने जिस्म के सारे अंगों का प्रदर्शन करता हुआ निहायत देहाती ढंग से एक हाथ पर रखी बाजरी की रोटी को दुसरे हाथ से चूर-चूर कर खा रहा था. लोग-बाग़ उसके आस-पास से आ-जा रहे थे, निर्लिप्त दिखाई देते. औरतें उसके पास से गुजरतीं तो मुंह दुसरी ओर घुमा लेतीं. सर का पल्लू थोडा और नीचे सरका लेतीं, जैसे मानो इसी जतन से वे उस पगले के कमर के नीचे के हिस्से को ढक लेंगीं.

मेरे आगे अपनी नानी या दादी की अंगुली थाम कर चलता चार-पांच साल का बालक उसे देखते ही ठिठक गया था. उसकी अंगुली से उसे खींचती धकेलती प्रौढ़ औरत की चाल कुछ और तेज़ हो गयी थी. वह बच्चा पीछे जमते जाते पांवों को घसीटता, पागल की तरफ झुकता जाता, आँखों में विस्मय और कौतूहल भरे कुछ पूछना चाहता था. शायद उसे वह पागल खुद अपने जैसा दिख रहा था. सारे कपडे उतार कर निश्चिन्त रोटी खाता... बच्चा शायद नहीं जानता कि निश्चिन्त हो कर कपडे उतारने और कपडे न पहनने के बोध के बीच का अंतर ही आदमिओं की दोनों किस्मों में फर्क करता है. पागल और होशमंद....

काफी आगे निकल जाने पर मैंने उसके बचकाना स्वर में एक सवाल सा उठता सुना और साथ ही जवाब में उस औरत की ठोस झिडकी भी. गलती किसकी और डांट पडी किसको?"

एक सम्मिलित ठहाका कमरे में गूंजा तो देर तक ठहरा रहा. दोनों शायद उस दृश्य की कल्पना में डूबे थे जो अभी अभी इस कमरे में खींच गया था. शब्दों के मूर्त इशारों से. ' उनकी' भारी आवाज़ फिर गूंजी.

"वे दोनों चले जा रहे थे. औरत उसे खींचती और बच्चा बेमन से खिंचता..... बीच बीच में वह पीछे मुड कर देख भी लेता था. इस सारी ठेलम -ठेल के बीच ही मुझे लाइब्रेरी की ईमारत दिखाई दी थी. जिसके अहाते को आस-पास के गावों से आये मरीजों के रिशतेदारों ने भर रखा था. लाइब्रेरी से सटी हुयी सरकारी हस्पताल की ईमारत है, आप तो जानते ही हैं डॉक्टर साहब."

"हाँ, मैं सी. एम्. ओ. रहा तीन साल उस हस्पताल का. बड़े अजीब अनुभव रहे. साहब." डॉक्टर साहब भी मानो अतीत में डुबकी लगा बैठ थे.

"तो आप तो जानते ही होंगें. लाइब्रेरी के अहाते में पसरे ये लोग, बीच-बीच में तीन ईंटें जोड़ कर, गाँव से लाया पीपा खोल कर रोटी पकाने की जुगाड़ में थे. बच्चों की धमा-चौकड़ी बदस्तूर जारी थी. एक बात तो ज़रूर है डॉक्टर साहब, हम हिन्दुस्तानी और कुछ करें न करें बच्चे ढेर पैदा कर लेते हैं. धन्य हैं हमारी औरतें... "

"क्यूँ साहब, मर्दों का रोल कम है क्या? रोज़ ज़मीन में बीज बोना भी तो मशक्कत का काम है."डॉक्टर साहब एक स्वर में अब 'ऐशो-आराम' वाला आश्वर्य नहीं अलबत्ता निर्लज्जत की तीखी छुरी जैसी धार थी.मैं तो शर्म से पानी पानी हो गयी.

क्या सोचते हैं आप? हम मक्खियों को शर्म नहीं आती? आती है, जनाब. आप लोग जब निर्लज्जता से खुली आँखों हमारा काम-व्यवहार देख रहे होते हैं, तब भी आती है. पर क्या करें? हमारी ज़िन्दगी छोटी होती है और दिन लंबा....... अँधेरे का इंतजार हम नहीं कर पातीं.

"मैं भी कुछ ऐसा ही सोचता था डॉक्टर साहब. पर मेरी धारणा बदल गयी, जब मैंने एक स्वतंत्र पढ़ी लिखी महिला से खुल कर बात-चीत की. जानते हैं, उसने क्या कहा? बोलीं अगर औरतों के वश में होता तो वे कभी दूसरा बच्चा पैदा नहीं करतीं. "

कमरे में जैसे कोई पत्थर आ गिरा था. पहला मर्द स्वीकार कर चुका था, दुसरे को पचाने में वक़्त लग रहा था और मैं हतप्रभ थी. यह क्या........?

लेकिन मैं यह सब कहाँ समझ सकती हूँ? मैं बच्चे पैदा नहीं करती ना. अंडे देती हूँ, उनसे अपने आप बच्चे निकलते हैं, ढेरों-ढेर.... अपने आप बड़े होते हैं, घुमते हैं, गंदगी में मुंह मारते फिरते हैं... यूँ ही घुमते-फिरते आदमियों के मुंह से 'माँ' शब्द सुना है , इसका अर्थ क्या होता है. मैं नहीं जानती.

कमरे का सन्नाटा तेज़ चलते सीलिंग फैन के पंखों की आवाज़ और लगातार एक जैसी ताल से बजती खट-खट से भरा हुआ था. आवाज़ ऐसी थी जैसे धातु की कोई चीज़ लकड़ी पर ठोकी जा रही हो. मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी. ध्यान से देखा तो लगा 'उनके' कंधे भी इस खट-खट के साथ ऊपर नीचे हो रहे थे. शायद 'वे' ही हाथ में पहनी हुयी अंगूठी या फिर चाबी से सोफे के हत्थे पर लगी माइका को लगातार ठोक रहे थे. ज्यादा देर चुप्पी नहीं रही. 'उनका' भारी स्वर फिर कमरे में गूज गया.

"डॉक्टर साहब. लाइब्रेरी के भीतर मैं पहुंचा तो दंग रह गया. छोटा सा हाल, सारी दीवारें किताबो से अटी पडी अलमारियों से भरी हुयी, सौ वाट के गिनती के कुछ बल्ब और गरीब अधेड़ मजदूर की तरह थके मांदे मरियल गति से चलते चूं-चूं करते सिफ दो पंखे.

ऐसी उठा-पटक, गंदगी, बदबू और नीम अँधेरे में भी पढ़ने के शौक़ीन तल्लीन मन से पुस्तकों के संसार में डूबे बिलकुल प्रतिमाओं जैसे लग रहे थे. क्या बताऊँ डॉक्टर साहब? मेरा तो दिल भर आया."

'उनका' स्वर एकाएक रुंध आया था. हल्का खंखारकर वे आगे बढ़े, "मुझे तो अंदाजा भी नहीं था कि इस छोटे से अनपढ़ से दीखते कस्बे में इतने पुस्तक प्रेमी होंगे. "

"मैं खुद तो पंख लगते ही यहाँ से भाग गया था. दूर दुनिया से तृप्त हो कर ही लौटा था. यह जान कर लौटा था कि इंसान की गति सभी जगह एक सी ही होती है. मिट्टी सभी जगह कपडे और सिर धूल से भर डालती है. भोजन रोज़ करना ही होता है. लेकिन यहाँ जो इतने लोगों को मैंने देखा , सबके चेहरे पर जकड़न की तड़प थी. कैसे भी हो, इस जकड़ से छूट पाने की गहन आकांक्षा समेटे हर देह मानो अपने ही अत्याचारों से ऐंठी हुयी सी कसमसा रही थी. आँखों की राह शब्दों की शराब पीते ये सारे लोग मुझे मेरे अपने ही जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और दुविधाओं के प्रतिरूप लग रहे थे. मेरे भीतर किसी ने कहा कि उठ बावरे, कुछ कर. अपने लिए तो कितना-कितना करता रहा. कुछ हुआ नहीं. अब यहाँ कुछ कर के देख. कौन जाने यहीं तुझे कोई ठौर मिल जाए. मेरी यही बात मुझे बाँध गयी और मैंने बीड़ा उठा लिया."

"बीड़ा ? कैसा बीड़ा? " डॉक्टर साहब आनंद में थे. उनकी भंगिमा तो नहीं देख पा रहा था पर उनका स्वर शांत था.

"जी डॉक्टर साहब. इतहास तो मैं वहां क्या ढूंढता? लाइब्रेरियन से मिला, उसका दुखड़ा सूना. कस्बे के चार-पांच अधेड़ व्यापारी, जिनके बेटे अब उनका कारोबार चला रहे थे और वे ज़र्दा रगड़ रगड़ कर जबड़े और निचले होंठ के बीच रख कर दिन भर चूसा और थूका करते हैं, इकठ्ठे किया और जा पहुंचा जिला कलेक्टर के पास. बड़े सज्जन आदमी निकले. सरदारजी हैं गंगानगर के..... बड़े दिल के मालिक..."

गंगानगर का नाम सुन कर मन में टीस उठी. मेरा सबसे पहला साथी एक बार किसी की कार में सवार हो कर जा आया था. बड़े गुणगान करता था... वहां की लम्बी सपाट गलिओं का, खेतों का, शुगर मिल का, शराब की मिल का, भोजन से भरे घरों का, खुले आंगन में खाटो पर बैठ कर सब्जी काटती औरतों का और देर रात तक चलती शराब और कबाब की पार्टियों का.

मैंने बहुत बाँधना चाहा उसे अपने लगाव से. पर वह नहीं बंधा. उस पर वहां का नशा ऐसा चढा कि फिर किसी कार की छत से चिपक कर वही चला गया, वापिस नहीं लौटने के लिए. दुःख तो हुआ मुझे, हंसी भी आयी थी. इंसानों की देखा-देखी हम कीट पतंगों में भी मर्द्पना आने लगा है. मुझे अपनी बांदी समझने लगा था. मेरे जैसी ही छेह टांगें हैं उसकी, वही रंग, वही रूप और उस पर तुर्रा ये कि मेरा मालिक बनने चला था. अच्छा हुआ चला गया. यहाँ रहता तो मैं ही उसे छिटक चुकी होती.

यह क्या? मेरी आँख झपकने लगी थी. जोर से सिर झटक कर मैंने अपनी नींद भगाई और सुनने लगी.

"उन्होंने ध्यान से मेरी बात सुनी. फिर बोले --- मैं आपसे सहमत हूँ. पर प्रशासन इसमें कुछ नहीं कर सकता. आप सब नागरिक ही क्यूँ कुछ नहीं करते? तो जनाब मैंने भी कह दिया कि जिले के प्रथम नागरिक तो आप हैं,. सुन कर जानते हैं उन्होंने क्या किया?"

"क्या किया ?" डॉक्टर साहब इत्मीनान से सुन रहे थे. इतना तो मैं समझ ही गयी थी कि वे रिटायर हो चुके हैं और उनके यहाँ मरीजों की चहल-पहल भी मुझे सुनायी नहीं पद रही थी. शाम उनकी गुलाम थी और वे मनोयोग से उसका उपयोग कर रहे थे.

"अजी साहब, दरयादिल आदमी निकले सरदार जी. जेब में हाथ डाला और एक सौ एक निकाल कर मेरे सामने मेज़ पर रख दिया. बोले, लीजिये श्री गणेश मैंने कर दिया है, अब आप ज़िम्मेदारी संभालिये. जब मेरी जैसी ज़रुरत होगी आदेश कीजियेगा मैं हाज़िर हो जाउंगा."

और डॉक्टर साहब मुझे चुनौती मिल गयी. बचा-खुचा जीवन जीने की राह और खुद से भागने का एक अच्छा बहाना....

'वे' जोर से हंस पड़े. उनकी हंसी में बच्चे के झुनझुने सी तरलता नहीं थी जैसी कि आम तौर पर आत्मलीन व्यक्तिओं की हंसी में पायी जाती है. ना ही मुझे उसमें दम्भ का प्रवाह ठाठें मारता दिखाई दिया. बेहद खाली सी हंसी थी उनकी. सिर्फ हंसी......जैसे कि कोई औरत दाल के खाली हो चुके डब्बे को उठाये तो उसके हल्केपन से जान ले कि भीतर कुछ नहीं है. फिर भी अपनी तसल्ली के लिए उसे हिला कर देखे और अन्दर बचे दो-चार दाने हल्की खुमारी भरी खनक से बज उठें. इतना बताने भर को कि यहाँ कभी अरहर की दाल हुआ करती थी.

"इस बात को साल भर हो चूका है, सर. कितना कलेक्शन हो चूका है अब तक? भई मैं भी तो पिछली दफा आप को पांच सौ दे चूका हूँ." मैं समझ गयी डॉक्टर साहब पूरा किस्सा दूसरी बार सुन रहे है... या शायद तीसरी बार... या चौथी बार.... कौन जाने?

"आपके पांच सौ बड़ी बरकत लाये डॉक्टर साहब. इस समय लगभग साढ़े चार लाख इकठ्ठा हो चुके हैं. घर घर जा कर झोली फैलाई मैंने. शहर के सारे व्यापारी साथ लिए, केवल दो को छोड़ कर. एक देशी शराब का ठेकेदार और दूसरा अंग्रेज़ी वाइन की दूकान वाला. हमने प्रण लिया है कि इनका एक भी पैसा इस पुन्य कार्य में नहीं लगेगा. खुद मैंने तीन बार दस-दस हज़ार डाले हैं."

"तीस हज़ार? क्या साहब? आप भी कमाल करते हैं? कुछ तो हमारी भाभी जी का ख्याल करें. इकलौती बेटी है आपकी. उसके बारे में सोचिये. किसी भी काम को लेकर इतनी भावुकता अच्छी नहीं होती." डॉक्टर साहब जोर दे कर बोल रहे थे. स्वर में तीखापन उभर आया था. आवाज़ फिर पतली हो गयी थी.

"आपकी भाभीजी का हिसा कत्तई नहीं ले रहा हूँ. उनके लायक धन अलग से उन्हीं के नाम से जमा है. जब जितना जैसे चाहें निकलवाएँ और इस्तेमाल करें. मेरी तरफ से कोई दखल अंदाजी नहीं. मुझे हर मामले में इन्होने नीचा दिखाने की कोशिश की, बदनाम किया, बेईज्ज़ती की. लेकिन इस मामले में वे कुछ नहीं कह सकतीं. बेटी को मैंने आत्म-निर्भर बना दिया है, अपने लिए स्वतंत्र है. मेरा तो डॉक्टर साहब एक ही ध्येय है जीवन में... मानसिक स्वतन्त्रता. हम लोग कितनी छोटी सी ज़िंदगी ले कर इस दुनिया में आते हैं, उसे ही मन-मुताबिक जी लें तो मुक्ति पा लें. यही छोटी सी बात भूल जाते हैं और दूसरों की ज़िन्दगी जीने के लालच में लार टपकाते, अपने आस-पास सब की ज़िन्दगी का गुड-गोबर कर डालते हैं."

"होता क्या है? हम सब एक दुसरे से उकताए हुए अलग-अलग दिशाओं में मुंह किये जीवन भर पाँव पटकते रहते हैं, रिश्तों की ज़ंजीर हमें जकड़े रहती है और हम अपनी ही कोशिशों पर लहू-लुहान होते, आस-पास वालों को अपनी दुर्दशा के लिए दोषी ठहराते हैं, जो खुद इसी प्रक्रिया में घायल हुए कहीं पड़े होते हैं. घरों का नहीं पूरे समाज का यही हाल हुआ पड़ा है. सारी वयवस्था विनाश के कगार पर खडी है. मैं तो शायद देखूँगा आप ज़रूर देखेंगे, आप उम्र में मुझसे छोटे हैं. लोग मरेंगे, कीड़ों की तरह और कोई कुछ नहीं कर पायेगा. पाप और पुन्य का असंतुलन अपनी चरम अवस्था तक पहुँच गया है, ख़ास कर हमारे देश में. मुझसे अगर इश्वर ने पूछा तो मैं तो दोबारा इस देश में जनम नहीं लूँगा."

वे उत्तेजित थे. उनकी आँखें लगतार झपक रही थीं. स्वर कुछ और ऊंचा हो गया था, चेहरा लाल हो गया था, सिर के बाल जैसे खड़े हो गए थे.

मेरा अपना सुख विध्वंस में छिपा है लेकिन उनकी बातों से मैं भी दहशत से भर गयी थी. डॉक्टर साहब जैसे सकते में थे. कमरे में तीनों प्राणियों पर उनके वाक्यों ने पारे सा भारी वज़न रख दिया था. चलायमान शब्द अपनी गति भूल कर वहीं ठिठके खड़े थे, जिससे वे और भरे हुये मानो हवा में घुल जाने का सामर्थ्य खो चुके थे.

डॉक्टर साहब ज्याद देर तक इस स्थिति को नहीं झेल पाए. उन्होंने अपने होंठ खोले, पारे को धक्का लगा और वह हवा पर तैरता हुआ चारों ओर बिखर गया. अणु अलग-अलग हुए तो वाक्य भी शब्दों के टुकड़ों में टूट कर भारहीन हो गए.

"सर, आप तो निराशवादी हो गए हैं. शायद उम्र का असर आप पर होने लगा है. यह लाइब्रेरी वाला काम आप को निश्चय ही संभाले रखेगा. अब देखिये ना. यहाँ मैं जो करना चाहता हूँ 'चैरिटेबल हस्पताल का काम, उसकी प्रेरणा भी तो मैंने आप से ही पायी. देखिएगा आप. आपके सामने ही हमारा यह प्रयास सरकारी हस्पताल और अमीरों के प्राइवेट नर्सिंग होम्स के लिए चुनौती बन जाएगा. इसकी आधारशिला हम आपसे ही रखवायेंगे."

गंभीर होते जाते वार्तालाप के बीचोबीच उन्होंने एकाएक हल्का सा ठहाका लगाया और हंसी से लबालब भरे शब्दों में बोले, "सच कहूँ तो मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा में हूँ, जब आप कहीं भूले से बीमार पड़ें और मैं एम्बुलेंस में डाल कर आप को अपने हस्पताल में उठा लाऊं."

वातावरण हल्का हुआ तो एक ठहाका उधर से भी आया. पर जो बात उसके बाद आयी उसने सब उथल-पुथल कर डाला. इंसानी मर्दों को ले कर जो सुना देखा था, जो विशवास सत्य मान कर अपने भीतर स्थापित कर लिए थे वे पल में चकना चूर हो कर मिथ्या में बदल गए.

मैं मूढ़ मक्खी अपने अप को दार्शनिक समझे बैठी थी. जैसे कि सारे मानस मानसियों के रहस्यों को पा चुकी होऊं और जानने को कुछ भी शेष न रहा हो. उनकी बात सूनी तो पता लगा कि मैं तो जनम से ही किसी फूल में बंद बैठी हूँ, मेरी खिड़की भी इस छेद जितनी ही छोटी है, इसी से जो आसमान का छोटा सा टुकड़ा मुझे देखाई देता रहा, वही मुझे पूरी दुनिया का भ्रम देता फुसलाता रहा और मेरे अहम् की तुष्टि करता रहा है.... और मैं? चने के झाड..नहीं मक्खियों के लिए कुछ और होना चाहिए. शायद घिसी हुयी बर्फ के रंगीन रसदार चिपचिपे ढेर पर बैठी खुद को सुकरात समझे बैठी थी. जब कि मेरी हालत तो कुएं के मेंढक से भी बदतर है.

हँसते हँसते दांतों को जीभ से चुभलाते वे हल्की सी झेंप की एक किरन को छिपाते से बोले, "डॉक्टर साहब. मुंह सवारे रखिये. नीदर डॉक्टर्स नॉर वीमेन कैन टच माय बॉडी."

डॉक्टर साहब के शॉक अब्सोर्बेर कमज़ोर पड़ गए. उनके मुंह से निकला "क्या?" मेरे स्वर से मेल खा गया.

"नहीं सर. ये क्या कह रहे हैं आप? शादी शुदा है. और आप तो यूनिवर्सिटी में ख़ास कर महिलाओं में बहुत लोकप्रिय है, छात्राओं से लेकर प्रोफेसर तक आपकी फैन रही हैं. छोडिये सर. मुझसे क्या छिपाना? वो कहते हैं न कि दाई से क्या पेट छिपाना? " बात पूरी होते न होते डॉक्टर साहब का स्वर आश्चर्य को समेटता मुस्कराहट की खुनक से भर चला था.

"क्यूँ चौंक गए न? डॉक्टर साहब मैं भला क्यूँ झूठ बोलूंगा? पिछले पैंतीस साल से ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा हूँ. कुछ विशेष कारण थे. कुछ कटुताएं थी, कुछ विषाद थे, अपनी ही निराशाएं थीं और मैंने निश्चय कर लिया. हाँ मानता हूँ मैंने इस फैसले से उस एक औरत को क्लेश दिया. उससे उसका हक छीना पर बाकी सब भरपूर दिया भी तो उसको. छीनने का कारण भी वही थी. उसकी ईर्ष्या, उसका द्वेष, उसकी संकुचित मानसकिता और नासमझी...."

"लेकिन...."डॉक्टर साहब शायद उनकी पत्नी का पक्ष रखा चाहते थे. लेकिन उन्होंने बोलने नहीं दिया.

"सुनो. आज बात निकली है तो पूरा सुनो. आज तक नहीं बोला मैं. आंशिक सत्य सुन कर हो रहे लोगों के आक्षेप पीठ पीछे सुनता रहा, निर्लेप बने रहने का नाटक करता रहा. पर चुभता था, हर तीर चुभता था मुझे, हर वाक्य छुरी की तरह काटता रहा.. मेरी पीठ लहू-लुहान होती रही ज़िन्दगी भर, खून और मवाद टपकता रहा, मैं सहता रहा.... कुछ तो इस उम्मीद पर कि परिवर्तन होगा, कभी वह संभलेगी. कुछ इस कारण भी कि गलती का आरंभ मुझी से हुआ था.

उच्च शिक्षा प्राप्त कॉलेज का प्राध्यापक था, कुछ बुधिमान भी और नितांत कम पढ़ी लडकी से विवाह की हामी भर बैठा. घर वालों की आज्ञा को सर माथे माना. समाज में सुगबुगाहट का शुभ्रम्भ मेरे इस फैसले के साथ ही हो गया था. उस नादान सत्रह वर्षीय ग्रामीण बाला के मन में विष के बीज बो कर मेरे समाज ने मेरे जीवन में उतारा था. जानते हैं पहली ही रात उस उतावली ने दोनों हाथों से खुद ही घूँघट पलट कर पहला संवाद क्या किया था? "

वे कुछ पल रुक कर डॉक्टर साहब के सवाल का इंतज़ार करते रहे. डॉक्टर साहब चुप रहे.

आगे बोले, " वे बोलीं.... थे दूसरी शादी कद करोला? ...... "

अतीत में विचरते शून्य में ताकते वे कुछ पल रुके . डॉक्टर साहब ने इस बार भी हस्तक्षेप नहीं किया. उनके सारा अस्तित्व ही कानों में सिमट आया था. मेरा तो अस्तित्व ही कितना है?

"मैंने फिर भी गाडी को चलाना चाहा. कभी अपने स्नेह का पेट्रोल डाला, कभी विश्वास से धक्का देने की कोशिश की, कभी डांट -फटकार की चाभी लगाई, पर बात बनी नहीं. जवानी के उम्र थी. एक बच्ची भी हमारे बीच आ गयी. पर इस बीच घर को जो वातावरण बन चूका था मेरे हिसाब से किसी भी बालक के उचित पालन के लिए ठीक नहीं था.

विकारों से ग्रस्त, समस्याओं में डूबी, आत्म-विश्वास से रिक्त, झगड़ालू एक पूरे परिवार के लिए शाप सामान एक ही युवती समाज को देना मेरे लिए अपराध था. और तब तक तो शारीरिक सम्बन्ध भी मेरे लिए पहाड़ से दुर्जेय बन चुके थे.

जहाँ मन का जुड़ाव न हो वहां शरीर सिर्फ वितृष्णा ही बढ़ाते हैं, उनकी नग्न सत्यता, आल्हादकारी समर्पण न बन कर दुर्गन्ध और विवशता के सागर में डुबो डालती है. सो, मैंने व्रत धारण कर लिया. इस प्रण में रहते ढेरों अपशब्द भी उससे सुने. जानता हूँ जो उससे छीना उसकी कमी से उत्पन्न विकारों को बाहर निकलने का ही एक जरिया है उसका आक्रोश,

आज, जब इतने वर्ष हो गए हैं, तब भी दस वर्ष की कन्या से ले कर अस्सी बरस की वृधा तक उनके लिए सौत है. यह एक ठोस सत्य वे नहीं पचा पायीं कि वे अगर मुझे नहीं पातीं तो कोई और भी नहीं पाता. उसके संस्कार, उसकी समझ उसे कुछ सोचने नहीं देते, पूरे समय देह की उठा पटक में उलझाए रखते हैं. मेरी सारी बुधि , क्रिया कलाप , निश्चय, इच्छा शक्ति सब व्यर्थ चले गए. अपने इतने निकट का एक जीवन मैं नहीं संवार सका. मेरी यह आग मेरी चिता के साथ ही बुझेगी. "

डॉक्टर साहब और मैं दोनों ही सुन रहे थे. उनका एकालाप आत्मलीन था. मानों वे खुद से ही बात कर रहे हों. स्वर की उद्विग्नता ठंडी हो चुकी थी. शांत शब्द वाक्यों में मोतियों की तरह पिरोये हुए उनके मुंह से झर रहे थे.

"ऐसा नहीं कि मैं कोई देवता हूँ कि कभी कोई लालसा नहीं होती मुझे. सदा महिलाओं के बीच रहा हूँ , रिसर्च में मदद लेता रहा, देता रहा, लेकिन मेरा अन्तर्मुखी स्वभाव मुझे बचा ले गया. मेरी लालसाओं को मुखर होने का साहस ही नहीं हुआ कभी.

उसके प्रति अपराध बोध तो था ही अंदर कहीं, साथ ही एक बात मुझे झिन्झोद्ती रही. पूरी मर्द जाति को लेकर शंकित रहता हूँ. क्या औरत को केवल क्षुधा तृप्ति का साधन बना कर हम उसे एब्यूज नहीं करते आये हैं? सदियों से. पीढी दर पीढी... यही एक भाव समाता गया और वह खुद भी अपने आप को मात्र एश्वर्य और वंश परम्परा का निर्वाह करने वाली मान बैठी है.

सोचता हूँ तो लगता है हमने उसकी बुद्धि को कुंद कर डाला है. अपने स्वार्थ के लिए उसमें हीन भावना भर कर इस एक पूरे वर्ग को एक दुसरे वर्ग के सामने ला कर खडा कर दिया है और फिर उन्हें सास-बहु, नन्द-भौजाई, माँ-बेटी जैसे उपमाएं दे कर, गालियों की तलवारें और उलाहनों की ढालें उनके हाथों में पकड़ा दी हैं.

और अब हम मर्द सदियों के अपने पुरुषार्थ की सार्थकता देखते एक सैडिस्टिक प्लैजर से भरे अपना दायित्व तक नहीं स्वीकारते. यही कहते फिरते हैं कि औरत ही औरत की दुश्मन है. "

शब्द बह रहे थे. उत्तेजना रहित. मानो जीवन का सत्य उन्होंने पा लिया था. कहना ही शेष था. आज वह भी सम्पन्न हो गया. वे अपना दायित्व निभा ले गए.

डॉक्टर साहब के पास कहने को कुछ नहीं था. वे चुप थे. मेरी तो नियति ही चुप है. कहीं कोई ध्वनी नहीं थी. काफी वक़्त यूँही निकल गया. तभी ख़ट-खट की तीखी आवाज़ करती पदचाप सुनायी दी. मैं पलक झपकते ही समझ गयी कोई नव्यौवना ऊंची एडी के सैंडिल बजाती आ रही है.

कमरे में प्रवेश करते ही वे पैर ठिठके थे. उन्हें देख कर हाथ जोड़े होंगें, शायद सिर भी झुकाया हो, घंटी सी मधुर आवाज़ कमरे की शांत फिजा पर तैरती मुझ तक पहुँची थी.डॉक्टर साहब की बेटी थी. डॉक्टर साहब की बैठकें इतनी लम्बी नहीं चलतीं, इसी कारण जिज्ञासा उसे घर के इस हिस्से तक खींच लाई थी. दूसरा एक कारण भी थी. मेरा मनपसंद विषय भोजन का समय हो चला था. इसी का प्रबंध जानने चली आयी थी.

"नमस्ते, सर. आप हैं? ये हमारे पापा भी अजीब इंसान हैं. मुझे खबर तक नहीं भिजवाई. " हलके आनंद मय विस्मय से पुलकता उसका कमनीय स्वर मुझे बहुत भला लगा.

कमरे में तीन अट्टहास अलग-अलाग्फ़ दिशाओं से अलग-अलग आवृतियों में गूँज उठे थे. कुछ अनुनाद हो ही गया था.

डॉक्टर साहब बोले, "नेहा. आज अगर तुम्हें खबर भिजवा देता तो जो रहस्य मैंने पाया, जीवन का जो पाठ मैंने पढ़ा उससे वंचित रह जाता. तुम्हारी ओर मुझसे भूल हुयी सो माफ़ कर दो. लेकिन आज मेरा स्वार्थ मुझे कुछ ऐसा दे गया जो मैं किसी किताब में नहीं पा सकता था. "

इस बीच वे अपने स्थान से उठ खड़े हुए थे. नेहा का अभिवादन स्वीकार करते हुए. यह सम्मान उसी के लिए था. इसे मैं बाद में समझ पाई जब हडबडाते स्वर में नेहा ने कहा, "सर. प्लीज. ये क्या कर रहे हैं? मुझे शर्मिंदा मत करिए. मैं तो आपकी शिष्य हूँ. आपसे इतनी छोटी. सर प्लीज. मुझे शर्मिंदा मत करिए."

नेहा का असमंजस उन्हें विचलित नहीं कर पाया. बैठे ही बोल पड़े, "बेटी, हम पुरुष अधिक तो कुछ नहीं कर सकते. स्त्री का सम्मान करना हमारा दायित्व है."

फिर डॉक्टर साहब की ओर मुड कर बोले, "जानता हूँ एक जगह यह सम्मान मैं नहीं कर पाया. उसका मुझे बेहद अफ़सोस है. लेकिन सारी परिस्थिति भी तो मेरे बस में नहीं थी. बहुत कोशिश की मैंने कम से कम अपने जीवन को ही अपनी मुठ्ठी में बाँधने की. लेकिन यह रेत की तरह झर झर कर अँगुलियों की दरारों से बहता रहा. अब तो मैंने बाँधने का प्रयास भी छोड़ दिया है. हाथ खोल दिए हैं. और फिर अब तो रेत में से झांकते किसी खजाने का इंतजार भी शेष नहीं बचा. अब तो इंतजार है अंतिम बुलावे का... "

हँसते हुए वे भले लग रहे थे. वैसे ही बोलते चले गए, " बैठ कर भी तो नहीं होगा इंतजार. छेह वर्ष की उम्र में जो दौड़ शुरू की थी, जब अंगूठा छाप मेरे पिता ने शाला में मेरा नाम लिखवाया था, उसी दौड़ का अंतिम चरण पूरा कर रहा हूँ. जवानी जैसा जोश तो अब नहीं रहा अब, पर हाँ बुढ़ापे की थकावट भी मेरे हिस्से में नहीं , इतना मुझे भरोसा है. देखिये ना. सर के बाल तक अभी काले हैं. आप की तरह खिजाब नहीं लगाता. "

उनके तेज़ ठहाके में डॉक्टर साहब की झेंपी सी खिलखिलाहट तो थी ही, नेहा का भरपूर अट्टहास भी शामिल था.

मैं भी खुश थी. खुद पर लज्जित भी... कई दिनों की अपनी उम्र पर बड़ा नाज़ था मुझे. सोचती थी जीवन से बहुत सीख लिया है अब कुछ नहीं बचा. आज पता लगा कि जिस कोरे पन्ने को ले कर दुनिया में आयी थी वो अभी कोरा ही है. मेरी यात्रा में न जाने कितने पड़ाव और आने बाकी हैं. एकाएक वह फूल जिसमें मैं क़ैद थी मुरझा गया. उसकी पंखुडियां झर गयीं और मैं आज़ाद हो गयी....

फूल के छोटे से आयतन से निकल कर कमरे का भयावह विस्तार मुझमें भय का संचार करने लगा. आजादी के चाह तो नैसर्गिक है पर जो अनजाने आजादी पा ली तो यह डराने लगी मुझे...

आज समझ पाई क्यूँ लोग जीवन भर जंजीरों में जकड़े रह कर गुज़ार देते हैं. खुलेपन से डर लगता है उन्हें. नहीं समझ पाते कि अगर बेड़ियाँ खुल गयीं तो जो ऊर्जा इनकी जकड़न के खिलाफ खर्च हो रही थी उसके क्या करेंगे? ऐसे में कहीं अपना ही सर्वनाश न कर बैठें. यही दर उन्हें ज़िन्दगी भर बेड़ियों में जकड़े रखता है.

कुछ देर रुक कर आजादी के डर पर काबू पाया तो उड़ चली मैं... कमरे की छत पर जा बैठी. वहीं से नीचे देखा. नेहा के किसी बात पर सब खिलखिला रहे थे. अपने ही डर, अपने ही असमंजस में उलझी मैं इस वक़्त कुछ समझ नहीं पाई.

वे निहायत प्रसन्नचित आँखों से दुलार टपकाते नेहा को देख रहे थे. उस दृष्टि में मित्र की कन्या के प्रति स्नेह था, अपनी छात्रा के प्रति प्रेम भी था और था एक स्त्री के प्रति सम्मान का भाव भी......

किन्तु एक और चीज़ जो मुझसे किसी तरह भी नहीं छूट पा रही थी वह मुझे बुरी तरह चौंका गयी. उस दृष्टि में एक पुरुष की लालसा भी पल भर को बिजली की तरह कौंध कर लुप्त हो गयी थी. जिसने उनके आत्म-सम्मान ने उसके उदय होने से पहले ही ढांप दिया था.

मुझे खुद पर विशवास नहीं हुआ. लगा कि जो पल भर पहले देखा था वह झूठ था. फिर भी जिस चीज़ का अस्तित्व खुद देखा हो उसे आसानी से नकारा नहीं जा सकता. मैं बेतरह उलझ गयी थी. आखीर सच क्या था?

क्या जो अब दीख रहा था, सब कुछ सीधा सपाट, या जो मात्र एक पल के लिए कौंधा था, या फिर वो जो पूरी शाम एकाग्र चित्त हो कर सूना था.... मुझे एकाएक फ्रायड के सफल स्नायुरोगी की याद हो आयी. क्या वह एक शब्द था या कि एक पूरा इंसान......? मैं कोई फैसला नहीं कर पाई...

प्रितपाल कौर.