इंद्रधनुष सतरंगा
(20)
पुंतुलु का ट्रांसफर
‘‘क्या हुआ पुंतुलु, भाई? इतना परेशान क्यों दिख रहे हैं?’’ आतिश जी ने खिड़की से झाँककर पूछा।
‘‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।’’ पुंतुलु मुस्कराने का असफल प्रयास करते हुए बोले।
‘‘कुछ बात तो ज़रूर है,’’ आतिश जी अंदर आ गए, ‘‘अभी जब इधर से निकला तो आपके हाथों में यह लिफाफा था और अब दस मिनट बाद वापस आ रहा हूँ तो भी यह आपके हाथों में लहरा रहा है। क्या है इस लिफाफे में?’’
‘‘लो, खुद ही देख लो।’’
आतिश जी ने लिफाफा हाथ में ले लिया। खोलकर पढ़ते ही उनका चेहरा फक पड़ गया। ख़ुद को संयत रखते हुए भर्राए गले से बोले, ‘‘बधाई हो, आपको पदोन्नति मिल गई।’’
‘‘हाँ, लेकिन ट्रांसफर आर्डर के साथ। मुझे बंगलुरु जाना होगा।’’
‘‘तो कब जा रहे हैं?’’ आतिश जी ने भरे गले से पूछा।
‘‘चला जाऊँ?’’
आतिश जी ख़ामोश रहे जैसे कुछ सुना ही न हो। सिर नीचे झुका लिया क्योंकि आँसुओं को छिपाना कठिन हो रहा था। थोड़ी देर सन्नाटा रहा। दोनों सिर झुकाए चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर बाद पुंतुलु ने ही सन्नाटा तोड़ा। भरे गले से बोले, ‘‘सोच रहा हूँ चला ही जाऊँ। अब मन यहाँ नहीं लगता। हमारे मेल-जोल को किसी की नज़र लग गई है। भाई-भाई का दुश्मन बना बैठा है। जिन्हें हम कभी अपनी गुण और विशेषताएँ समझते थे, वही आज हमारे बीच लोहे की दीवारें बनकर खड़ी हैं। हमने कभी सोचा ही नहीं था कि हमारी जाति, हमारा धर्म, हमारी भाषा क्या है। हम तो बस हिलमिल वासी थे। लेकिन आज जैसे सब कुछ बिखर गया है। भीतर का इंसान हमारे अहं के आगे छोटा पड़ गया है। अपने सब पराए हो गए हैं। अब यहाँ रहकर भी क्या करूँगा?
पुंतुलु फफक पड़े। आतिश जी उन्हें समझाना चाहते थे पर उनकी आवाज़ भी जैसे घुटकर रह गई।
तभी खिड़की के पास किसी की दबी-दबी रुलाई सुनाई दी। आतिश जी और पुंतुलु लपककर बाहर आए तो देखा घोष बाबू लंबे-लंबे कदमों से घर की ओर भागे जा रहे हैं।
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