Shoukilal ji ka khat chor ji ke naam - 2 in Hindi Comedy stories by Krishna manu books and stories PDF | शौकीलाल जी का खत चोर जी के नाम - 2

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शौकीलाल जी का खत चोर जी के नाम - 2



मैं शौकीलाल जी के निवास पर जा धमका। उस वक़्त जनाब बाथरूम का आनंद उठा रहे थे। बाथरूम से आ रही गुनगुनाने की स्वर लहरी उनके आनंद मग्न होने की चुगली कर रही थी।

उनके आनंद में खलल डालने का मेरा इरादा नहीं था। मैं चुपचाप उल्टे पांव लौट जाता लेकिन मुझे उनसे भेंट करना जरूरी था। अतएव व्यवधान डालना पड़ा।

मैंने उन्हें ऊंची आवाज दी। वे वहीं से ऊंची आवाज में बैठने को कहा फिर गुनगुने लगे। मैं उनके बिस्तर पर ही बैठ गया। कमरे में पड़ी चीजों को बेवजह निहारने लगा। सारी चीजें पुरानी थीं जिन्हें मैं पहले भी कई बार देख चुका था।कुछ देर बाद मैं बोर होने लगा। बोरियत दूर करने के लिए किसी पत्र-पत्रिका की तलाश में मैंने इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। लेकिन कोई ढंग की पत्रिका नजर नहीं आयी। अचानक मुझे ख्याल आया। शौकीलाल जी बिना पढ़े सोते नहीं थे। उनकी आदत थी। पढ़ते-पढ़ते जब उनकी आंखें भारी होने लगतीं तो पत्रिका को तकिया के नीचेे रख दिया करते थे।

शायद तकिया के नीचे कोई पत्रिका हो, यह सोचकर मैंने तकिया हटाया। तकिया के नीचे मुझे कागज का एक टुकड़ा दिख गया जिसे तह लगा कर बड़ी हिफाजत से रखा गया था। कागज में क्या लिखा है, जानने की उत्सुकता जग गई। किसी की निजी चीजों में झाँकने की आदत अच्छी नहीं होती लेकिन उत्सुकता जब चरम सीमा पर पहुँच जाए तो उचित अनुचित का बोध कहाँ रहता है?

मैंने आहिस्ता से कागज निकाला। चोर निगाहों से बाथरूम की तरफ देखा। आश्वस्त होने के बाद तह खोलकर कागज सामने कर लिया। पढ़ने के पहले मैंने कयास लगाया। कहीं यह प्रेम पत्र तो नहीं? साठा तब पाठा। सठियाये शौकीलाल जी का दिल किसी षोडसी ने चुरा लिया हो। नहीं, नहीं। मुझे इस कयास को झटकना पड़ा। मक्खियां वहीं भिनभिनाती हैं जहाँ गुड़ होता है। हमारे शौकीलाल जी सूखे सोंठ हैं। भला इनपर कोई मक्खी क्यों पर मारेगी?

मैंने दूसरा कयास लगाया, शायद शौकीलाल जी ने कोई लेख-वेख लिखा हो। लेकिन साहित्य के सताये शौकीलाल जी से फिर इस दलदल में धंसने का मतलब था-आ बैल मुझे मार जिसे वे स्वप्न में भी नहीं कर सकते थे।

मैंने फिर एक नजर बाथरूम की ओर डाली। शौकीलाल जी के गुनगुनाने की आवाज लगातार आ रही थी।

जब मुझे विश्वास हो गया कि मेरी चोरी पकड़ी नहीं जाएगी तो मैंने पढ़ना शुरू किया। अरे यह तो खत है, मेरे मुँह से अनायास निकला। इतना लम्बा खत ! आश्चर्य हुआ मुझे। खत की पहली पंक्ति पढ़ते ही मुझे हँसी आ गई। बड़ी मुश्किल से मैंने हँसी रोकी वर्ना शौकीलाल जी के चौकन्ना हो जाने का खतरा था। अच्छा तो यह बात है ! राज खुला भी तो इतने दिनों के बाद। मैं सोचने लगा।

पिछले दस-पंद्रह दिनों से शौकीलाल जी सनकी की तरह बातें करने लगे थे। चौराहे पर, पान की गुमटी के सामने, होटल, दुकान जहाँ भी शौकीलाल जी से भेंट होती और चर्चा का दौर चलता तो आखिर में वे जुमला उछालते- अरे छोडो भाई, केवल मुँह ठेठाने से क्या होगा? आजकल तो जमाना चोरों का है। कभी चोरों का गुणगान करने बैठते तो घंटों उनकी प्रशंसा में कसीदे काढ़ने लगते। निचोड़ यही होता कि आज के सबसे बड़े और सुखी इन्सान चोर-उचक्के हैं।

एक दिन शौकीलाल जी मिले तो 'चोर पुराण' लेकर बैठ गए। मैं चिढ़ गया। कड़वी आवाज में बोला-'आजकल आप चोरों की वकालत जोरदार ढंग से करने लगे हैं। कहीं आप पर चोर बनने का शौक तो सवार नहीं हो गया।' हमारी बातचीत दूसरे लोग भी सुन रहे थे। वे ठठाकर हँस दिये। उन्हें शौकीलाल जी के शौक के बारे में पता था। तब शौकीलाल जी अपमानित होकर वहाँ से चल दिए और फिर नहीं दिखे। अनजाने में मैंने उनका दिल दुखाया था। मैं उनसे क्षमा मांगना चाहता था। जब वे कहीं नहीं दिखे तो मुझे शंका होने लगी। शौकीलाल जी कहीं बीमार तो नहीं हो गये।

आज मौका मिला तो खैर-खबर लेने उनके निवास पर चला आया। यहाँ आया तो रहस्य से पर्दा उठ गया। मैं सोचने लगा, क्या जमाने का रंग ढंग ऐसा हो गया कि लोग बाग चोर बनने करने लगे। शौक के क्रोनिक डिजीज के मरीज शौकीलाल जी ने कुछ ऐसा ही इरादा कर लिया है। उनके खत से तो यही लगता है।

@कृष्ण मनु