Anuradha - 7 - Last Part in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | अनुराधा - 7 - अंतिम भाग

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अनुराधा - 7 - अंतिम भाग

अनुराधा

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 7

कुमार नही आया, यह सुनकर विजय की मां मारे भय के कांप उठी ‘यह केसी बात है रे? जिसके साथ लडाई है उसी के पाक लड़के को छोड़ आया?’

विजय ने कहा, ‘जिसके साथ लड़ाई थी वह पाताल मे जाकर छिप गया है। मां, किसकी मजाल है जो उसे खोज निकाले। तुम्हारा पोता अपने मौसी के पास है। कुछ दिु बाद आ जाएगा।’

‘अचानक उसकी मौसी कहां से आ गई?’

विजय ने कहा, ‘मां भगवान के बनाए हुए इस संसार में कौन कहां से आ पहुचता है कोई नहीं बता सकता। जो तुम्हारे रुपये-पैसे लेकर डुबकी लगा है, यह उसी गगन चटर्जी की छोटी बहन है। मकान से उसी की निकाल भगाने के लिए लाठी-सोटा और प्यादे-दरबान लेकर युद्ध करने गया था लेकिन तुम्हारे पोते ने सब गड़बड़ कर दिया। उसने उसका आंचल एसा पकड़ा कि दोनों को एक साथ निकाले बिना उस निकाला ही नहीं जा सकता था।’

मां ने अनुमान से बात को समझकर कहा, ‘मामूली होता है, कुमार उसके वश में हो गया है। उस लड़की ने उस खूल लाड़-प्यार किया होगा शायद। बेचारे को लाड़-प्यार मिला ही नहीं कभी,’ कहकर उन्होंने अपनी अस्वस्थता की याद करके एक गहरी सांस ली।

विजय ने कहा, ‘मैं तो वहा रहता था। धर के अंदर कौन किसे लाड़-प्यार कर रहा है, मैंने आंखों से नहीं देखा। लेकिन जब चलने लगा तो देखा कि कुमार अपनी मौसी को छोड़कर किसी तरह आना ही नहीं चाहता था।’

मां का सन्देह इतने पर भी नहीं मिटा। कहने लगी, ‘गंवइ-गांव की लड़कियां बहुत तरह की बातें जानती हैं। साथ न लाकर तूने अच्छा नहीं किया।’

विजय ने कहा, ‘मां, तुम खुद गंवई-गांव की लड़की होकर गंवई-गांव की लड़कियों कि शिकायत कर रही हो। क्या तुम्हें शहर की लड़कियों पर अंत में विश्वास हो ही गया?’

‘शहर की लड़किया ? उनके चरणों में लाखों प्रणाम,’ यह कहकर मां ने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिए।

विजय हंस पड़ा। मां ने कहा, ‘हंसा क्या है रे? मेरा दुःख केवल मैं ही जानती हूं और जानते है वे,’ कहते-कहते आंखें डबडबा आई। बोली, ‘हम लोग जहां की है, वह गांव क्या अब रहे हैं बेटा? जमाना बिल्कुल ही बदल गया है।’

विजय ने कहा, ‘बिल्कुल बदल गया है। लेकिन जब तक तुम लोग जीती हो तब तक शायद तुम्हीं लोगों के पुण्य से गांव बने रहेंगे मां। बिल्कुल लोप नहीं होगा उनका। उसी की थोड़ी-सी झांकी अबकी बार देख आया हूं, लेकिन तुम्हें तो यह चीज दिखाना कठिन है, यही दुःख रह गया मन में।’ इतना कहकर वह ऑफिस चला गया। ऑफिस के काम के तकाजे से ही उसे यहां चला आना पड़ा है।

शाम को ऑफिस से लौटकर विजय भैया-भाभी सासे भेंट करने चला गया। जाकर देखा कि कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ रहा है। श्रृंगार की चीजें इधर-उकर बिखरी पड़ी हैष भैया आरामकुर्सी के हत्थे पर बैठे जोर-जोर से कह रहे हैं, ‘हरगिज नहीं। जाना हो तो अकेली चली जाओ। ऐसी रिश्तेदारी पर मैं-आदि-आदि।’

अचानक विजय को देखते ही प्रभा एक साथ जोर से रो पड़ी। बोली, ‘अच्छा देवर जी, तुम्ही बताओ। उन लोगों ने अगर सितांशु के साथ अनीता का विवाह पक्का कर दिया तो इसमें मेरा क्या दोष? आज उसकी सगाई होगी। और यह कहते हैं कि मैं नहीं जाऊंगा। इसके माने तो यही हुए कि मुझे भी नहीं जाने देंगे।’

भेया गरज उठे, ‘क्या कहना चाहती हो तुम? तुम्हें मालूम नहीं था? हम लोगों के साथ एसी जालसाजी करने की क्या जरूरत थी इतने दिनों तक?’

माजरा क्या है? सहसा समझ पाने से विजय हतबु्द्धि-सा हो गया। लेकिन समझने में उसे अधिक देर न लगी। उसने कहा, ‘ठहरो-ठहरो, बताओ भी तो? अनीता के साथ सितांशु घोषाल को विवाह होना तय हो गया है। यही ना? आज ही सगाई पक्की होगी? आई एम थ्रो कम्पलीटली ओवर बोर्ड (मैं पूरी तरह से समुद्र में फेंक दिया गया)।’

भैया ने हुकर के साथ कहा, ‘हूं और यह कहना चाहती हैं कि इन्हें कुछ मालूम ही नहीं।’

प्रभा रोती हुई बोली, ‘भला मैं क्या कर सकती हूं देवर जी? भैया हैं, मां है। लड़की खूद सयानी हो चुकी है। अगर वह अपना वचन भंग कर रहे हैं तो इसमें मेरा क्या दोष?’

भैया ने कहा, ‘दोष यही कि वे धोखेबाज हैं, पाखंडी है और झूठे है। एक ओर जबान देकर दूसरी ओर छिपे-छिपे जाल फेलाए बैठे थे। अब लोग हसेंगे ओर कानाफूसी करेगें-मैं शर्म के मारे क्लब में मुंह नहीं दिखा सकूंगा।’

प्रभा उसी तरह रुआंसे स्वर में कहने लगी, ‘ऐसा क्या कहीं होता नहीं? इसमें तुम्हारे शर्माने की क्या बात है?’

‘मेरे शरमाने का कारण यह है कि वह तुम्हारी बहन है। दूसरे मेरी ससुराल वाले सब-के-सब धोखेबाज है, इसलिए, उसमें तुम्हारा भी एक बड़ा हिस्सा है इसलिए।’

भैया के चेहरे को देखकर विजय इस बार हंस पड़ा, लेकिन तभी उसने झुककर प्रभा के पैरों की धूल माथे पर लगाकर बड़ी प्रसन्नता से कहा, ‘भाभी भले ही कितने क्यों न गरजें। न मुझे क्रोध आएगा न अफसोस होगा। बल्कि सचमुच ही इसमें तुम्हारा हिस्सा हो तो मैं तुम्हारा आजीवन कुतज्ञे रहूंगा।’

फिर भैया की और मुड़कर बोला, ‘भैया, तुम्हारा नाराज होना सचमुच बहुत बड़ा अन्याय है। इस मामले में जबान देने के कोई मान नहीं होते, अगर उसे बदलने का मौका मिले। विवाह तो कोई बच्चों का खेल नहीं है। सितांशु विलायत से आई.सी.एस. होकर लौटा है। उच्च श्रेणी का आदमी ठहरा। अनीता देखने में सुन्दर है, बी.ए. पास है-और मैं? यहां भी पास नहीं कर सका और विलायत में भी सात-आठ वर्ष बिताकर एक डिग्री प्राप्त नहीं कर सका और अब लड़की की दुकान पर लड़की बेचकर गुजर करता हूं। न तो पद गौरव है, न कोई डिग्री। इसमें अनीता ने कोई अन्याय नहीं किया भैया।’

भैया ने गुस्से के साथ कहा, ‘हजार बार अन्याय किया है। तू क्या कहना चाहता है कि तुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ?’

विजय ने कहा, ‘भैया, तुम बड़े ही पूज्य हो, तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा। तुम्हारे पैर छूकर कहता हूं, मुझे रत्ती भर भी दुःख नहीं हुआ। अपने पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से तो नहीं, किसके पुण्य से बचा सो भी नहीं मालूम। लेकिन ऐसा लगता है कि मैं बच गया। भाभी मैं ले चलता हूं। भैया चाहें तो रुठकर घर में बैठे रहें, लेकिन हम-तुम चलें। तुम्हारी बहन की सगाई में भरपेट मिठाई खा आएं।’

प्रभा ने उसके चेहरे की ओर देखकर कहा, ‘तुम मेरा मजाक उड़ा रहे हो देवर जी?’

‘नहीं भाभी, मजाक नहीं उड़ाता। आज मैं अन्तःकरण से तुम्हारा आशीर्वाद चाहता हूं। तुम्हारे वरदान से भाग्य मेरी ओर फिर से मुंह उठाकर देखे, लेकिन अब देर मत करो। तुम कपड़े पहन लो। मैं भी ऑफिस के कपड़े बदल आऊं।’

यह कहकर विजय जल्दी से जाना चाहता था कि भैया बोल उठे, ‘तेरे लिए निमंत्रण नहीं है। तू वहां कैसे जाएगा?’

विजय ठिठक कर ख़डां हो गया। बोला- ‘ठीक है। शायद यह शर्मिन्दा होंगे, लेकिन बिना बुलाए कहीं भी जाने में मुझे आज संकोच नहं है। जी चाहता है कि दौड़ते हुए जाऊं और कह आऊं कि अनीता, तुमने मुझे धोखा नहीं दिया। तुम पर न तो मुझे कोई क्रोध है, न कोई ईर्ष्या। मेरी प्रार्थना है कि तुम सुखी होओ। भैया, मेरी प्रार्थना मानो, क्रोध शान्त कर दो। भाभी को लेकर जाओ। कम-से-कम मेरी ओर से ही सही। अनीता को आशीर्वाद दे आओ तुम दोनों।’

भैया ओर भाभी दोनों ही हतबुद्धि से होकर एक दूसरे की और देखते लगे। सहसा दोनों की निगाहें विजय के चेहरे पर व्यंग्यं का वास्तव में कोई चिन्ह नहीं था। क्रोध या अभिमान के लेशमात्र भी छाया उसकी आवाज में नहीं थी। सचमुच ही जैसे किसी सुनिश्चित संकट के जाल से बच जाने से उसका मन शाश्वत आनंद से भर उठा था। आखिर प्रभा अनीता की बहन ठहरी। बहु के लिए यह संकेत लाभप्रद नहीं हो सकता। अपमान के धक्के से प्रभा का ह्दय एकदम जल उठा। उसने कुछ कहना चाहा लेकिने गला रुंध गया।

विजय ने कहा, ‘भाभी, अपनी सारी बातें कहने का अभी समय नहीं आया है। कभी आएगा या नहीं, सो भी मालूम नहीं, लेकिन अगर किसी दीन आया तो तुम भी कहोगी कि देवरजी तुम भाग्यवान हो। तुम्हे मैं आशीर्वाद देती हूं।’

समाप्त

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शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बाग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे। उनकी अधिकतर रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद किया गया है। उनका जन्म हुगली जिले के देवानंदपुर में 15 सितंबर, 1876 में हुआ था। उनका बचपन कष्टों से भरा था। शरतच्न्द के जीवन पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर और बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का गहरा प्रभाव पड़ा।

उन्होंने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनकी लिखावट में संजीदगी झलकती है।

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