Dorr - Rishto ka Bandhan - 9 in Hindi Love Stories by Ankita Bhargava books and stories PDF | डोर – रिश्तों का बंधन - 9

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डोर – रिश्तों का बंधन - 9

डोर – रिश्तों का बंधन

(9)

पूर्वी अपने मम्मी पापा के साथ अपने घर चली गई थी, रिन्नी दीदी तो उन लोगों से पहले ही निकल गई थी बोलीं, 'मां और दीपक भैया दोनों की ही तबीयत खराब है, उन्हें ज्यादा देर अकेले छोड़ना ठीक नहीं।' मेहमानों के जाने के बाद भी वो लोग कई देर तक उनकी ही बातें करते रहे, पूर्वी पहले से ही सबसे हिली मिली थी पर इस बार तो वह अपनी ही हो गई थी, अब तो बस सबके मन में एक ही चाह थी कि जल्दी से उसकी शादी चिंटू के साथ हो जाए और वह हमेशा के लिए उनके परिवार का हिस्सा बन जाए। अगले दिन चिंटू भी दिल्ली चला गया, शादी की तारीख तय हो गई थी और उसके पास छुट्टी बहुत कम थी। चिंटू के जाते ही घर फिर से सूना सूना हो गया था और नयना की पहली सी दिनचर्या भी शुरू हो गई बस फर्क मात्र इतना आया था कि अब वह अक्सर किसी ना किसी बहाने से रिन्नी दीदी के घर भी चली जाया करती थी। बहुत कोशिश करती ना जाए पर जाने खुशी के साथ उसकी ऐसी कौनसी अनदेखी, अनजानी डोर बंध गई थी जो उसे अपनी ओर खींच ही लेती थी। नयना रिन्नी दीदी के घर जाती और खुशी के साथ खूब खेलती। खुशी भी अब बड़ी हो रही थी वह अपने आसपास के लोगों को पहचानने लगी थी, नयना से उसकी दोस्ती भी हो गई, वह नयना को देख कर खुश होती कभी पूरा मुंह खोल कर हंसती कभी अलग-अलग भंगिमाएं बना कर उसे रिझाती, अब तो वह किलकारियां मारना भी सीख गई थी।

एक रोज़ जब नयना रिन्नी दीदी के यहां पहुंची तो उसने देखा खुशी की दादी भी आई हुई हैं, हालांकि नयना के प्रति उनका व्यवहार प्रेमपूर्ण रहा किंतु उसके बाद नयना का रिन्नी दीदी के घर जाने का मन नहीं हुआ खासकर यह जानकर कि दीपक की मां दीपक की दूसरी शादी करना चाहती हैं, इसके लिए उन्होंने लड़कियां देखना भी शुरू कर दिया था। नयना को सोच कर ही थोड़ा अजीब लगा कि दीपक को भी दूसरी शादी से ऐतराज नहीं था यद्यपि वह भी जानती थी कि दीपक के लिए ताउम्र अकेला रहना और अकेले खुशी की परवरिश करना संभव नहीं होगा पर इतनी जल्दी अपने जीवनसाथी को भूल पाना भी क्या उसके लिए इतना सहज है? आखिर एक इंसान जिसके साथ कभी ज़िंदगी बांटी थी, अपने सारे सुख-दुख और सपने बांटे थे उसकी जगह किसी और देना इतना ही आसान होता क्या? खैर यह उनके परिवार की बात थी उसे क्या, फिर भी वह मन ही मन यह प्रार्थना तो कर ही रही थी कि दीपक की मां दीपक के लिए जिसे चुनें वह दीपक के लिए अच्छी पत्नी के साथ साथ खुशी के लिए एक अच्छी मां भी साबित हो। दीपक का दुख समझ कर बस उसकी हो कर ही ना रह जाए खुशी के लिए भी अपने जीवन में थोड़ी सी जगह बना पाए।

घर में चिंटू की शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं, विन्नी दीदी तो बच्चों की परीक्षा होने के कारण शादी से कुछ दिन पहले ही आने वाली थी पर माही दीदी और गिन्नी दीदी आ गई थीं, रिन्नी दीदी तो शहर में थी ही। उनके आने से घर में रौनक हो गई, सबके बच्चे मिल कर पूरा दिन घर में धमा चौकड़ी मचाए रखते, कब दिन हुआ और कब शाम पता ही नहीं चलता। उनके बच्चों के साथ खेलते हुए अक्सर नयना को खुशी की याद आ जाती। एक दिन रिन्नी दीदी जब घर आई तो कुछ उदास लग रही थी चाची के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि एक लड़की से दीपक की शादी की बात चल रही है मगर दीपक और उसकी मां दोनों ही असमंजस में हैं कि हां कहें या ना। क्योंकि वह लड़की खुशी की ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहती, उसकी इच्छा थी कि खुशी को किसी और को गोद दे दिया जाए तो वह शादी के लिए तैयार है। जब नयना ने यह सुना तो उसे भी खुशी की फिक्र होने लगी।

नयना को उस लड़की की सोच पर आश्चर्य भी हो रहा था और दुख भी, एक छोटी सी बच्ची से भला कैसी असुरक्षा, अभी तो बस उसे थोड़ा सा प्यार ही तो चाहिए। नयना को दीपक पर भी बड़ा क्रोध आ रहा था कि कैसा पिता है जो अपने स्वार्थ के लिए अपनी नन्ही सी बच्ची के साथ अन्याय करने जा रहा है। उसका मन तो कर रहा था कि वह सीधे जाए और दीपक की मां से कह दे, 'आप खुशी को मुझे गोद दे दो और अपने बेटे की नई दुनिया बसा दो, खुशी को मैं पाल लूंगी, उसे मां और पिता किसी की कमी महसूस नहीं होने दूंगी।' पर कह ना सकी आखिर रिन्नी दीदी की ससुराल में जाकर कुछ भी कह देने से उनके लिए समस्या खड़ी हो जाती।

नयना भी मिली थी उस लड़की से एक बार रिन्नी दीदी के ही घर, कुछ अजीब सी लगी, थोड़ा अलग सा व्यवहार कर रही थी। सिर्फ मिलने भर आई थी दीपक से और फिर भी एक तरह से उस पर अपना अधिकार ही जता रही थी, किसी और का तो क्या खुशी तक का भी दीपक के आसपास होना पसंद नहीं आ रहा था उसे। नयना के ऑफिस की एक पीऑन को अपनी बेटी का किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन करवाना था। पीऑन ज्यादा पढ़ी हुई नहीं थी, अनुकंपा नियुक्ति के तहत अपने मृतक पति के स्थान पर नौकरी लगी थी, वह ऑफिस का काम भी ठीक से नहीं जानती थी बार बार समझाने पर भी गलतियां कर देती तो बेटी की पढ़ाई के बारे में बेचारी क्या जानती। नयना ने अपने पुराने कॉलेज में जहां से उसने ग्रैजुएशन किया था में भी पूछा पर वहां तब तक एडमिशन बंद हो चुके थे। फिर उसे कॉलेज में ही प्रोफेसर दीपक का ध्यान आया, नयना ने इस बारे में रिन्नी दीदी से बात की तो उन्होंने उसे दीपक का नंबर दे दिया। काफी देर तक नयना असमंजस में रही कि उसे दीपक से बात करनी चाहिए या नहीं, वह दीपक के बारे में इससे अधिक कि वह रिन्नी दीदी के देवर हैं कुछ भी नहीं जानती थी। जाने कैसे स्वभाव का इंसान हो, उसकी मदद करना पसंद करे भी या नहीं। पर फिर आखिर उसने दीपक का नंबर डायल कर दिया, "हैलो..."

"हैलो! दीपकजी?"

"हां नयना, मैं आपके ही फोन का इंतज़ार कर रहा था, भाभी ने मुझे बताया था आपकी पीऑन की बेटी के बारे में, अभी तो मैं कॉलेज में हूं, क्लास लेने जा रहा हूं इसलिए ज्यादा अच्छे से नहीं बता पाऊंगा, आप एक काम करिए शाम को घर आ जाइए, हो सके तो उस लड़की के डोक्युमेंट्स की कॉपी भी ले आइए, मैं देखता हूं मैं क्या कर सकता हूं, अगर संभव हुआ तो कल एडमिशन करवा दूंगा।"

"पर कल तो सेकिंड सैटरडे है!"

"तो! सेकिंड सैटरडे की कॉलेज में छुट्टी कबसे होने लगी?" दीपक ने कहा तो नयना झेंप कर रह गई और, "ठीक है शाम को आती हूं," कहकर जल्दी से फोन काट दिया पर फोन काटने से पहले उसके कानों तक दीपक की हंसी की आवाज पहुंच गई थी। 'धत्त कितनी बेवकूफ है तू नयना कि इतना भी याद नहीं रख पाई सेकिंड सैटरडे की छुट्टी केवल ऑफिस में होती है कॉलेज में नहीं,' नयना को भी अपनी बेवकूफी पर हंस आ गई।

शाम को नयना ने अपनी पीऑन से कह कर उसकी बेटी गीता को भी बैंक ही बुला लिया और उसे भी अपने साथ रिन्नी के घर ले गई ताकि वह खुद दीपक से बात करके हर चीज अच्छे से समझ सके। एक लड़की भी तब रिन्नी दीदी के घर आई हुई थी जो नयना के लिए सर्वथा अजनबी थी। रिन्नी दीदी ने ही बताया था कि, 'यह शादी के सिलसिले में दीपक मिलने आई है।' दीपक का रवैया उन लोगों के प्रति काफी सहयोगात्मक रहा, उन्होंने बड़़े प्यार से गीता को एडमिशन की सभी औपचारिकताओं से अवगत करा दिया। किन्तु उस अजनबी लड़की को शायद नयना और गीता की उपस्थिति खल रही थी तभी वह उन दोनों को घूर रही थी। रीन्नी दीदी के द्वारा नयना का परिचय अपनी बहन के रूप में करवाने के बाद भी उसकी भाव भंगिमा में किंचित भी परिवर्तन नहीं आया। कुछ अजीब सी नज़रों से वो देखे जा रही थी नयना को, आंखों ही आंखों में लगातार नयना के प्रति अपनी नाराज़गी, नापसंदगी जताए जा रही थी। नयना परेशान हो गई और सोचने लगी, 'कहां फस गई, जल्दी से गीता अपने एडमिशन की औपचारिकताएं समझ ले और वह निकले यहां से।' आज नयना को अपनी ही बहन के घर घुटन हो रही थी। आखिर जब दीपक और गीता की बात पूरी हो गई तो नयना ने राहत की सांस ली और दीपक को धन्यवाद कहते हुए उसे लेकर चली आई। उसने घर से बाहर आ कर दो तीन लंबे लंबे सांस लिए जैसे कि खुली हवा में सांस लेकर अंदर की घुटन को दूर करना चाहती हो, आज जीवन में पहली बार नयना को रिन्नी दीदी के घर से बाहर निकल कर राहत महसूस हो रही थी।

'जाने क्या चाहते हैं दीपक और उसकी मां जो अब तक हां या ना क्या जवाब दें यही सोच रहे हैं। अगर मुझे फैसला लेना होता तो कब का ना कह चुकी होती।' अचानक नयना की सोच को झटका सा लगा, 'अगर मुझे फैसला लेना होता,' क्या सच में उसे किसी और के जीवन का फैसला लेने का हक है? दीपक तो पराया है क्या उसे किसी अपने जैसे कि चिंटू की शादी किससे होनी चाहिए यह तय करने का हक है? चिंटू ने भी तो अपनी जीवनसाथी खुद चुनी है, अच्छी लड़की है पूर्वी, पूर्वी और उसका परिवार उन लोगों को बेहद पसंद है, एक अपनापन है दोनों परिवारों में। पर अगर चिंटू ने कोई ऐसी लड़की अपनी जीवनसाथी के रूप में चुनी होती जो उसे पसंद ना होती तो भी क्या वह मना करने का हक रखती थी, शायद नहीं। उस स्थिति में भी नयना को चिंटू की पसंद को अपनाना ही होता। नयना तो क्या शायद चाचा चाची भी चिंटू की पसंद को अपना लेते जैसे विवेक के माता पिता ने किया था जब उसने ऐमिली से नाता जोड़ा था। शुरू में जरूर उन्होंने उसे समझाने का प्रयत्न किया किंतु बाद में तो उन्होंने भी विवेक के फैसले पर स्वीकृति की मुहर लगा ही दी थी।

असल में अब वक्त बदल रहा है अब विवाह पारिवारिक कम और लड़का लड़की की व्यक्तिगत नापसंद से जुड़ा विषय अधिक है और इस विषय में हस्तक्षेप करने का किसी को मात्र उतना ही हक है जितना कि वो दोनों दें। और यदि कोई नाहक हस्तक्षेप करने की कोशिश करे तो उसका अंजाम कुछ कुछ शांति बुआ की तरह होता है। शांति बुआ ने अपने बेटे की पसंद को सिरे से नकार दिया था, इससे उनके बेटे की पसंद तो नहीं बदली पर ना सिर्फ उनकी बहू के साथ वरन बेटे के साथ भी उनके रिश्तों में दूरी अवश्य आ गई।

उस दिन रिन्नी दीदी और उनकी सास दोनों ही आई थीं और खुशी को भी अपने साथ ले आईं थीं, नयना ने उसे गोद में लेना चाहा तो उसने मुंह दूसरी ओर घुमा लिया। नयना आश्चर्य से देखती ही रह गई, इससे पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। इससे पहले जब भी उसने खुशी की ओर अपने हाथ बढ़ाए वह हमेशा मुस्कुरा कर उसकी गोद में आ गई। "खुशी अपनी दोस्त से नाराज़ है नयना, अब वो उससे मिलने नहीं आती ना इसलिए।" रिन्नी दीदी के साथ आए दीपक ने कहा।

"जी, चिंटू की शादी की तैयारियां चल रही हैं उसी में थोड़ा व्यस्त थी।"

"ओह, खुशी आपकी फ्रेंड भाभी लाने की तैयारी में लगी हैं अभी इनके पास वक्त नहीं है, आप इनके साथ बाद में खेलना।"

"नहीं मेरे पास आपके साथ खेलने के लिए हमेशा वक्त है खुशी आप आओ तो सही।" कहते हुए नयना ने फिर से उसे गोद में लेना चाहा तो इस बार खुशी भी नयना की ओर झुक गई।

"अरे वाह ये तो कमाल हो गया, आपको तो खुशी ने इतनी जल्दी माफ कर दिया वरना तो ये मुझसे तो पूरा पूरा दिन रुठी रहती है।"

"क्योंकि दो अच्छे लोग एक दूसरे से ज्यादा देर तक रूठे हुए नहीं रहते।" रिन्नी दीदी की सास ने कहा।

"ये बात है, तो फिर ठीक है आज आप सब अच्छे लोग मिल कर दोस्ती दिवस मनाइए मैं चला मुझे लेट हो रहा है।" दीपक भी अपनी बुआ की बात पर हंस दिए।

उधर चिंटू की शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी और इधर नयना की बैचेनी बढ़ रही थी। शादी की आखिरी तैयारियां दौर में थीं, मेहमान आने भी अगले दो चार दिनों में शुरू हो जाने वाले थे, सबकी खुशी और उत्साह चरम पर था पर नयना का दिल धड़क रहा था। उसे अपनी शांति बुआ से डर लग रहा था क्योंकि विवेक के पापाजी फूफाजी के दूर के रिश्तेदार हैं और इसी कारण बुआ ज्यादातर विवेक का ही पक्ष लेती आई हैं। वैसे भी थोड़े पुराने ख्यालात वाली बुआ का नज़रिया कुछ अलग ही होता है हमेशा, स्त्री के धर्म और कर्तव्यों पर वे किसी भी समय अच्छा खासा भाषण सुना देती हैं बस कोई सुनने वाला चाहिए। चिंटू तो फिर भी उन्हें संभाल लेता है, भतीजा है ना लाडला है, वह कुछ कह भी दे तो बुआ बुरा नहीं मानती पर चिंटू तो खुदकी शादी में ही मेहमान की तरह आने वाला था। और उसके अलावा तो बुआ किसी की भी नहीं सुनती यहां तक की चाचा की भी नहीं, मां और चाची की तो हिम्मत ही नहीं होती उनके सामने मुंह खोलने की।

इस उलझन के समय में नयना के लिए एक खबर खुशखबरी की तरह आई उसे एक जरूरी मीटिंग के लिए दिल्ली जाना था, अगर कोई और वक्त होता तो शायद वह परेशान हो जाती पर इस बार तो कुछ वक्त के लिए ही सही घर से बाहर जाना उसे अच्छा लग रहा था। उसने घर में बताया तो चाची थोड़ा परेशान हो गई क्योंकि शादी में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा था और ऐसे में वे नयना को कहीं भी नहीं जाने देना चाहती थी। पर काम जरूरी था तो मना भी कैसे करतीं, पर उन्हें नयना की भी फिक्र हो रही थी, टीवी पर दिल्ली में लड़कियों और महिलाओं को लेकर आने वाली खबरें सुन सुन कर उन्हें थोड़ी घबराहट सी होने लगी थी। नयना ने कहा भी कि वह मैनेज कर लेगी पर फिर भी वे चिंटू को फोन लगा बैठी, उन्होंने चिंटू से नयना के दिल्ली आने के बारे में बात की तो वह बोला, 'पूर्वी और उसकी मम्मी भी दिल्ली आ रहे हैं आप नन्नी दीदी को उनके साथ ही भेज दो आराम से दिल्ली आ जाएगी यहां मैं संभाल लूंगा।' चाची चिंटू से बात करके राहत महसूस कर रही थीं और नयना सोच रही थी, 'कैसी अजीब बात है ना कि इक्कीस वीं सदी में भी हम एक ऐसा सभ्य समाज बना पाने से मीलों दूर हैं जिसमें महिलाएं खुदको सुरक्षित महसूस करें, अकेले सफर कर सकें या दूसरे शहर में जाकर कोई काम कर सकें। अजनबी लोगों के बीच जाने के लिए आज भी महिलाओं के लिए कोई सुरक्षा कवच अनिवार्य है फिर चाहे वह भाई का हो या किसी और का।

शांति बुआ के आने से पहले नयना को इस मीटिंग का आना अपने लिए एक वरदान की तरह लग रहा था। वैसे भी जब जब शांति बुआ घर आती हैं नयना छुपने के लिए कोई कोना ढ़ूंढ़ती है, हमेशा तो काम का बहाना कर बुआ से बच निकलती थी इस बार शादी के माहौल में तो वह बहाना नहीं चल सकता था तो यही सही, दो दिन तो दिल्ली में ही निकल जाने थे और नयना के साथ ही चिंटू भी आने को कह रहा था अब शादी के माहौल में शांति बुआ को दूल्हे के लाड़ चाव से फुर्सत ही कहां मिलेगी। नयना ने चैन की सांस ली और अपनी पैकिंग करने लगी।

नयना को ऑफिस से निकलते हुए थोड़ी देर हो गई, सांझ घिरने लगी थी। मां ने कहा भी था थोड़ी जल्दी आने को ताकि दिल्ली जाने की बची हुई तैयारी थोड़ी आराम से कर ले क्योंकि हमेशा जब भी कहीं जाना होता है तो नयना की तैयारी आखिरी समय तक चलती रहती है और कुछ ना कुछ जरूरी सामान छूट ही जाता है हर बार। नयना ने कोशिश भी की थी थोड़ा जल्दी निकलने की पर नहीं निकल पाई। काम ही कुछ ऐसा आया कि उसे बैंक की दूसरी ब्रांच जो कि शहर के दूसरे छोर पर थी जाना पड़ा। नयना जब बैंक से घर के लिए निकली तो स्ट्रीट लाइट जल गई थीं। नयना ने अपने आसपास देखा सबको सिर्फ खुद से मतलब था किसी और से नहीं, उसने भी स्कूटी स्टार्ट की और घर की ओर चल पड़ी, ना जाने क्यों उसे चिंटू की हिदायत याद आ गई वह अक्सर कहता रहता है, 'नन्नी दीदी कार खरीद ले, फोर व्हीलर हमेशा टू व्हीलर से सेफ रहता है।' चिंटू चाहे कुछ भी कहे पर उसे तो स्कूटी चलाना पसंद था, चलती स्कूटी पर जब हवा बालों और चेहरे को स्पर्श करते हुए गुज़रती तो उसे अच्छा लगता था, बंद कार में घुटन होने लगती थी। नयना अभी कुछ ही दूर आई थी कि उसे स्कूटी के साइड मिरर से दीपक की कार दिखाई दी, दीपक ने भी उसे देख लिया था, तभी उसने अपनी कार की स्पीड थोड़ी धीमी कर ली थी। दीपक दूसरी लेन में लगभग नयना के साथ साथ ही चल रहे थे, अपनी गाड़ी की स्पीड भी उन्होंने नयना की स्कूटी के बराबर ही रखी हुई थी। दीपक को देख कर नयना के मन में ख्याल आया कि शायद दीपक उसे कमजोर समझते हैं तभी उसके साथ साथ चल रहे हैं, पर उन्हें पता होना चाहिए नयना कमजोर नहीं है, बल्कि मजबूत है वह और किसी भी अप्रिय स्थिति का सामना करने का हौसला रखती है। नयना को खीज सी होने लगी, पता नहीं क्यों पुरुष खुदको महिलाओं का संरक्षक समझ लेते हैं बगैर यह जाने कि उसे संरक्षण चाहिए भी है या नहीं। अगर मेन रोड पर ट्रैफिक ना होता तो नयना वहीं दीपक के साथ दो दो हाथ कर लेती, पर यहां कुछ नहीं हो सकता। 'कोई बात नहीं खुशी को लेने घर तो ये महोदय आएंगे ही, अब घर पहुंच कर ही खबर लेनी होगी, जाने क्या समझता है खुदको, हुंह।'नयना ने झटके से स्कूटी आगे बढ़ा दी।

नयना और दीपक साथ ही घर पहुंचे, वह तो बाहर ही उस पर टूट पड़ती पर चाचा को खड़े देख चुप लगा गई। "नन्नी आज तो बड़ी देर लगा दी आने में? तेरी चाची को तो फिक्र होने लगी थी।"

"हां चाचा, आज देवनगर ब्रांच में कुछ काम आ गया था, वहीं से आ रही हूं।" नयना ने दीपक की ओर देखते हुए कहा।

"दीपक भैया आप भी तो देवनगर ही गए थे ना अपने प्रिंसिपल से मिलने?" रिन्नी ने दीपक से पूछा।

"हां दीदी! मेरे साथ साथ ही तो आए हैं।" ना चाहते हुए भी नयना के स्वर में आक्रोश आ ही गया।

"हां भाभी देखा तो मैंने भी था।"

"फिर तो मम्मी आप ऐसे ही फिक्र कर रही थीं नयना की वह अकेली थोड़े ही थी, दीपक भैया थे उसके साथ।"

"पर भाभी मुझे तो नहीं लगता नयना को मेरी मदद की जरूरत है, वह खुद हर परिस्थिति का सामना करने में सक्षम है।" दीपक मुस्कुरा दिया।

'धत्त तेरे की,' नयना को अपनी बेवकूफी पर हंसी आई जिसे उसने बड़ी मुश्किल से कंट्रोल किया। वह तो आज दीपक से लड़ने का पूरा प्लान बनाए हुए थी और यहां इन महाशय के तो विचार ही कुछ अलग हैं, अच्छा हुआ कुछ बोली नहीं वरना मां से ऐसी डांट पड़ती कि सारी हेकड़ी निकल जाती। नयना खुशी को गोद में लेने के लिए आगे बढ़ी, ठीक उसी समय दीपक ने भी खुशी को गोद में लेना चाहा, कुछ देर को तो खुशी उन दोनों के बीच भ्रमित रही पर फिर वह अपने पापा के पास चली गई। खुशी को दीपक की गोद में खेलते, खुश होते देख नयना के दिल में एक टीस सी उठी, वह भी बचपन में अपने पापा के साथ ऐसे ही खेला करती थी। रविवार का पूरा दिन पापा नयना के साथ बिताया करते थे, कभी उसे अपने साथ घुमाने ले जाते तो कभी लूढो खेलते और हार जाते। वह हमेशा सोचती कि पापा को लूढो खेलना नहीं आता, यह तो उसे बहुत बाद में समझ आया कि पापा जानबूझकर उसे खुश करने के लिए हार जाते थे।नयना को उदास सा खुशी और दीपक को निहारता देख मां ने उसकी पीठ थपथपा दी और बोलीं, "अपना सामान जमा ले वरना बाद में फोन पर भी रोती रहेगी मां मेरा यह छूट गया, वह छूट गया।" मां की बात सही थी कल सुबह जल्दी ही निकलना था, अब उसे पैकिंग कर ही लेनी चाहिए, नयना वहां से उठ गई।

"नन्नी उठ जा बेटा देर हो जाएगी, तू फ्रेश हो कर आ तब तक मैं तेरे लिए चाय नाश्ता बनाती हूं।" नयना अपने फोन में सुबह पांच बजे का अलार्म लगा कर सोई थी, पर मां ने उसे पोने पांच बजे ही आवाज लगा दी। "आप क्यों उठ गईं इतनी जल्दी, आप सो जाओ मैं चाय खुद बना लूंगी।" अलार्म बंद करते हुए नयना ने कहा। "नहीं, मुझे नींद नहीं आ रही है, तुम जल्दी से उठो और तैयार होने जाओ, और हां ज्यादा आवाज नहीं करना चाची उठ जाएगी रात को काफी देर से सोई है।" मां की हिदायतें चालू थीं, मुस्कुरा दी नयना मां तो उसे अभी भी बच्ची ही समझती हैं।

नयना नहा कर आई तो मां ने उसे नाश्ता भी परोस दिया, सफर से पहले उसकी कुछ खाने की इच्छा नहीं होती पर मां ने आलू का परांठा बनाया था जो उसका फेवरेट है, अब इसके लिए मना कैसे करती। मां उसकी यह कमजोरी जानती हैं इसीलिए जब भी वह कहीं जाती है हमेशा ऐसा ही कुछ बनाती हैं कि वह मना कर ही नहीं पाती। अभी उसने परांठे का पहला निवाला खाया ही था कि चाची भी उठ कर आ गई और कहने लगीं, "भाभी मुझे उठा देतीं आप क्यों परेशान हुईं, आपके पहले ही कमर में दर्द है।"

"क्या करती तुम्हें उठा कर इसके नखरे आज तुमसे संभलने वाले नहीं थे, फिर तुम भी तो देर तक काम कर रही थी मशीन थोड़े ही हो कि तुम्हें थकान नहीं होती।"

"सबका ध्यान रखते हो आप, थोड़ा अपना ध्यान भी रख लिया करो, चाची मैंने बोला था मां को आप सो जाओ अपना नाश्ता मैं खुद बना लूंगी पर नहीं मानती कहां हैं।"

"पता है मुझे कैसा नाश्ता करना था तूने, चाय के साथ दो बिस्कुट खा कर निकल लेती फिर सर पकड़ कर बैठ जाती, वहां बेचारा लड़का तुझे संभालता या अपना काम करता।"

"ओह यह तो बड़ी मां का अपने बेटे के लिए दुलार है और मैं ख़ामख़ां ही खुश हो रही थी।"

"चल हट कुछ भी बोलती रहती है, जल्दी से खाना खत्म कर अपना।" चाची ने उसके सर पर एक चपत लगा दी।

"अब और नहीं खाना," नयना ने प्लेट एक ओर खिसका दी।

"अच्छा ठीक है, मैं कुछ परांठे रास्ते के लिए पैक कर देती हूं, जब मन करें खा लेना।"

"नहीं मेरा रास्ते में कुछ भी खाने का मन नहीं करता, बहुत जी मिचलाता है।" नयना छोटे बच्चे की तरह मचलने लगी।

"अरे तू अकेली थोड़े ही जा रही है, जया और पूर्वी भी तो हैं क्या पता उनका मन हो जाए खाने का।" मां ने याद दिलाया कि उसके साथ आज कुछ और लोग भी होंगे सफर में।

"ठीक है," नयना ने रूठे हुए बच्चे की तरह मुंह फुला कर हामी भर दी। वह तैयार होकर अखबार देख रही थी कि जया मोसी और पूर्वी आ गए, जब वो दोनों सबसे मिले तब तक नयना अपना सामान ले आई। चाची ने उन लोगों से भी चाय नाश्ते के लिए पूछा पर जया मोसी ने मना कर दिया कि वो लोग घर से खा कर ही चले हैं और थोड़ा जल्दी निकल लें तो अच्छा रहेगा वरना हाइवे पर ट्रैफिक बढ़ जाता है। नयना को साथ ले वो लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए। पूरे रास्ते जया मोसी नयना का बच्चों की तरह ध्यान रखती रही, नयना को अजीब तो बहुत लगा पर वह कुछ कह नहीं पाई।

जब वो लोग चिंटू के घर पहुंचे तो रात होने आ रही थी, चिंटू अभी ऑफिस से आया नहीं था, पर वह अपने नौकर को सारी जरूरी हिदायतें दे कर गया था तभी तो वह पहले से ही उन लोगों के स्वागत की सभी तैयारियां किए हुए था। नयना को घर छोड़कर जया मोसी पूर्वी को लेकर अपनी बहन के घर जनकपुरी चली गई। नयना सफर के दौरान बहुत थक गई थी इसलिए गेस्ट रूम में आराम करने चली गई, बिस्तर पर लेटते ही उसकी नींद लग गई जो चिंटू की आवाज से ही खुली, वह उसे डिनर के लिए उठा रहा था। नयना का कुछ भी खाने का मन नहीं था पर चिंटू नहीं माना और उसे खींच कर डाईनिंग टेबल पर ले आया। डाईनिंग टेबल पर रखे भोजन से उठ रही सुगंध ने नयना की भूख जगा दी। चिंटू ने भी नयना की पसंद का ही खाना बनवाया था, पुलाव तो बहुत लजीज बना था उसका मन कर रहा था बस खाती ही जाए, नयना ने पेट भर खाया और फिर दोबारा बिस्तर पर लेट गई, उसके बाद चिंटू ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया।

अगली सुबह नयना की नींद थोड़ी लेट खुली। उसने घड़ी में समय देखा तो साढ़े सात बज रहे थे, वह जल्दी से उठकर वॉशरूम की ओर भागी। नयना जब तैयार हो कर बाहर आई तो चिंटू नाश्ता कर रहा था, "उठ गई नयना दीदी, नींद आई रात को ठीक से आपको? आ जाओ नाश्ता करलो। लीलाधर दीदी के लिए भी नाश्ता लगा दो।" चिंटू ने अपने नौकर को आवाज लगाई तो वह रसोई से आकर नयना के लिए प्लेट लगाने लगा। अभी वो लोग नाश्ता कर ही रहे थे कि चिंटू के एक कॉलीग कुछ फाइलें उठाए आ गए। "अरे सिंह साहब! आइए, आप एकदम ठीक समय पर आए हैं आइए नाश्ता कर लीजिए तब तक मैं फाइल पर एक सरसरी नज़र मार लूं।" चिंटू ने अपने कॉलीग का स्वागत किया।

"नहीं सर नाश्ता तो नहीं बस एक कप चाय चल जाएगी।" सिंह साहब ने कुर्सी खींचते हुए कहा।

"ठीक है, लीलाधर! साहब के लिए भी चाय लाओ। अरे इनसे मिलिए ये हैं मेरी बड़ी बहन नयना, एस.बी.आई. में असिस्टेंट मैनेजर हैं, एक मीटिंग के सिलसिले में कल ही आई हैं।" चिंटू ने नयना का उनसे परिचय करवाया। सिंह साहब ने बड़े अदब से नयना का अभिवादन किया और फिर चिंटू और वह दोनों फाइल में खो गए। नयना नाश्ता करके उठने लगी तो चिंटू बोला, "नयना दीदी! मैंने कैब के लिए फोन कर दिया है, थोड़ी देर में कैब आ जाएगी जो आपको ऑफिस तक छोड़ देगी, तब तक आप तैयार हो जाओ।"

"इट्स ओके मैं मैनेज कर लूंगी।" नयना के मुंह से चिंटू निकलने वाला था कि उसने जबान दांतों के नीचे दबा ली।

"नहीं अकेले नहीं जाना, आपको यहां के रास्ते नहीं पता खामखां परेशान हो जाएंगी, कैब से ही जाना और वापसी में भी उन्हें फोन कर देना, वही कैब आपको लेने भी आ जाएगी, उसका नंबर मैंने आपको सैंड कर दिया है।"

नयना को दिल्ली आने के बाद से ही चिंटू का व्यवहार कुछ अजीब लग रहा था। चिंटू के व्यवहार में परायापन तो नहीं पर औपचारिकता बहुत थी जो शायद उसके औहदे की मांग थी अन्यथा चिंटू का यह रूप तो उसे कभी याद ही नहीं आता। 'नयना दीदी,' नयना के होठों पर मुस्कान आ गई। आप तो चिंटू ने उसे कभी नहीं बोला, हमेशा तू ही बोलता आया है बचपन से। तीन साल बड़ी है नयना चिंटू से पर वह उसे खुदसे बड़ी मानता ही नहीं था, जब छोटा था तब तो नाम ही लेता था दीदी भी चाची से कई बार पिट कर कहना सीखा है और यहां देखो कैसे आप आप की रट लगाए बैठा है। नयना तैयार होकर आई ही थी कि कैब आ गई, चिंटू ने ड्राइवर को जरूरी हिदायतें दी और नयना को रवाना करके ही खुद ऑफिस के लिए निकला। नयना को लग रहा था वह थोड़ा जल्दी निकल आई है, उसकी मीटिंग दस बजे थी और अभी सिर्फ़ पोने नौ ही बजे थे पर जब उसे ऑफिस पहुंचने में एक घंटा लग गया और उसने दिल्ली शहर का ट्रैफिक देखा तो उसे चिंटू का निर्णय ठीक लगा, अगर नयना बस से आती तो सच में बहुत परेशान होती।

दिन भर अपने ऑफिस में मीटिंग्स में व्यस्त रहने के बाद शाम को ही नयना को फुर्सत मिली, यह शुक्र था कि उसका काम अब खत्म हो चुका था और अब वह कल घर वापस जा सकती थी। उसने फोन चैक किया तो देखा चिंटू का मिस कॉल था, उसने कॉल बैक किया तो चिंटू ने नहीं उठाया शायद बिज़ी होगा। अब घर वापस जाने की समस्या थी, सुबह सड़कों पर भीड़ देख कर नयना समझ चुकी थी कि इस शहर में अकेले कहीं जाना उसके वश की बात नहीं, तभी उसे याद आया कि चिंटू ने कैब एजेंसी का फोन नंबर उसे दिया था, उसने व्हाट्स ऐप पर नंबर देख कर कैब के लिए फोन किया और कैब से वापस चिंटू के घर आ गई। घर पहुंचते पहुंचते सात बज गए थे, चिंटू अभी ऑफिस से नहीं आया था। नयना को देखते ही लीलाधर ने उसके लिए चाय नाश्ता लगा दिया। थोड़ी देर में नयना का फोन बजा, चिंटू का कॉल था, "हैलो नयना दीदी, आप घर पहुंच गए ना ठीक से? रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं आई?"

"नहीं, नहीं कोई परेशानी नहीं हुई, मैंने कैब के लिए फोन कर दिया था, बस अभी आ कर बैठी ही हूं।"

"अच्छा ठीक है, मुझे आने में आज शायद थोड़ी देर हो जाएगी तो आप खाने के लिए मेरा इंतज़ार मत करना।"

"चैतन्य मेरा यहां का काम खत्म हो गया है तो मैं सोच रही हूं मैं कल वापस चली जाऊं, आप मेरी टिकट करवा दोगे, बस या फिर ट्रेन जो भी आपको ठीक लगे।"

"इस बारे मैं वापस आ कर बात करता हूं।" कह कर चिंटू ने फोन काट दिया। नयना ने चिंटू से बात करने के बाद मां को फोन लगाया, व्यस्तता के कारण वह आज सुबह से ही मां से बात नहीं कर पाई थी, "हैलो मां!"

"हां नयना, कैसी है बच्चे, तू तो भाई के पास ऐसी गई कि आज तो तुझे मां की याद ही नहीं आई, सुबह से फोन ही नहीं किया।" मां ने हंस कर कहा।

"बिज़ी थी मां, सुबह से फुर्सत ही अब मिली है।"

"चल कोई बात नहीं, क्या कर रहे हो दोनों भाई बहन?"

"कुछ नहीं मां, चिंटू तो अभी ऑफिस से आया नहीं है, मैं बस अभी आ कर बैठी हूं और चाय पी रही हूं साथ में आपसे बातें भी कर रही हूं। मेरा काम खत्म हो गया है, चिंटू को बोला है मैंने मेरा वापसी का टिकट करवाने को, शायद कल आ जाऊंगी आपके पास।"

"ठीक है बेटा आ जा, चिंटू भी आ रहा है ना तेरे साथ?"

"पता नहीं मां अभी बात नहीं हुई उससे, अगर उसको छुट्टी मिल जाएगी तो शायद वो भी आ जाए। चलो ठीक है मां रखती हूं।" उसके बाद नयना कुछ देर अपने लैपटॉप पर काम करती रही फिर वह खाना खा कर सोने चली गई। बस आंख ज़रा झपकी ही थी कि उसे लगा कोई उसकी कमर थपथपा रहा है। उसने कुनमुना कर आंखें खोली सामने चिंटू खड़ा था, "तू! सॉरी आप।"

"नन्नी दीदी तेरी तबीयत तो ठीक है? डाक्टर के पास लेकर चलूं?"

"क्यों? मुझे क्या हुआ है?"

"मुझे लगता है काम के बोझ से तेरे दिमाग पर असर हो गया है, तभी सुबह से अजीब अजीब हरकतें किए जा रही है, 'चैतन्य, आप' ये कौनसी भाषा है? तू मेरे साथ इतनी फोर्मल कबसे हो गई?"

"जबसे तू हो गया।"

"ओहो तो ये बात है! मेरी छोटी सी भोली सी बहन नाराज़ हो गई।" चिंटू नयना के कंधे पर हाथ रख कर उसके पास ही बैठ गया। "अब तू ही बता मैं अपने कॉलीग या नौकर के आगे अपनी बड़ी बहन जो कि खुद भी एक बड़ी अफसर है उसके साथ तू तड़ाक कैसे कर सकता हूं? आखिर मुझे हम दोनों की इमेज का ध्यान भी तो रखना होता है ना।"

"हां, तो मुझे भी तो अपनी और तेरी दोनों की इमेज का ध्यान रखना पड़ता है।"

"अब किसके आगे इमेज का ध्यान रखना है?" चिंटू ने लापरवाही से कहा।

"उन्हीं के आगे जिनके आगे आप सुबह स्टाइल मार रहे थे, चैतन्य साहब।"

"ना! सिंह साहब और लीलाधर दोनों अपने अपने घर गए, अब घर में बस हम दोनों ही हैं तो अब किसी का डर नहीं, इसलिए अपनी अपनी औकात पर आ जाते हैं, तू नन्नी और मैं चिंटू ठीक है, चल अब दोनों मिलके कैरम खेलते है।" अपना ऑफिसर वाला चोला उतार कर अब वह पूरी तरह चिंटू बन गया था।

"अब इतनी रात को?"

"हां तो! मुझे फुर्सत ही रात को मिली है, मैं क्या करूं?"

"पर मेरे भाई मुझे कल सफर करना है, तुझे पता है ना सफर में मुझे कितनी परेशानी होती है, तो अब तो सोना पड़ेगा ना।"

"कहां जा रही है तू?" चिंटू ने कुछ हैरानी से पूछा।

"तुझे बोला था ना मेरा काम खत्म हो गया है तो मेरी वापसी की टिकट करवा दे।"

"हां तूने कहा तो था पर जब मैंने टिकट करवाई ही नहीं तो तू जाएगी कैसे?"

"भूल गया?" नयना गुस्से में बिस्तर से उठ कर सीधी तन कर खड़ी हो गई।

"ना! जानबूझकर नहीं करवाई, इतनी भी क्या जल्दी है तुझे वापस जाने की, कुछ दिन भाई के साथ रह, सरकारी बंगले के मज़े ले फिर जाइयो। देख कितना सुंदर बंगला दिया है सरकार नेतेरे भाई को, लोग तो तरसते हैं ऐसे बंगले में रहने के लिए।"

"भाई तेरी शादी है, बहुत काम है वहां, चाची तो आने ही ना दे रही थी पर काम जरूरी था तो आना पड़ा। वैसे भी कल मेरी सेकंड सैटरडे की छुट्टी है, तेरे ऑफिस जाने के बाद मैं बहुत बुरे तरीके से बोर हो जाऊंगी। जाने दे ना भाई प्लीज़, दो दिन बाद तो तू आने ही वाला है।"

"सेकंड सैटरडे की छुट्टी सिर्फ तेरी ही नहीं हमारी भी होती है तो बोर तो मैं तुझे होने नहीं दूंगा, और फिर मेरी शादी का काम सिर्फ घर में ही नहीं यहां भी तो है, मेरे लिए शादी की शॉपिंग कौन करवाएगा, कच्छे बनियान में ब्याह कराएगी मेरा?"

"तेरी शॉपिंग पूर्वी करवा देगी, मैं मां को कह चुकी हूं कल आने के लिए वो मेरा इंतज़ार करेंगी।"

"हां पूर्वी तो होगी ही।" पूर्वी के नाम से चिंटू के चेहरे के भाव कुछ क्षण के लिए बदले। "पर मेरी तरफ से भी तो कोई होना चाहिए ना। मेरी सारी बहनों में तेरी पसंद सबसे अच्छी है इसलिए उन्होंने यह ज़िम्मेदारी तेरे कंधों पर डाली है, और तू है कि यह ज़िम्मेदारी निभाना ही नहीं चाहती, अब उन सबको जवाब तू ही देना मैं कुछ नहीं कहूंगा। वैसे मैंने पापा को मैसेज कर दिया था वो बड़ी मां को बता देंगे कि तू कल नहीं सोमवार को मेरे साथ आने वाली है, अब बड़ी मां भी तेरी प्रतीक्षा नहीं करेंगी, अतः बालिके अब ज्यादा नखरे ना दिखा चुपचाप कैरम की गोटियां जमा वरना अगर मुझे गुस्सा आ गया तो मैं तेरी पिटाई कर दूंगा, याद रख यहां तुझे मुझसे बचाने तेरी प्यारी चाची भी नहीं है।"

अब नयना के पास चिंटू की बात मानने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। उसे चिंटू पर बहुत गुस्सा आ रहा था, कितना जिद्दी है ये, हमेशा अपने मन की करता है, नयना का मन तो कर रहा था वह चिंटू के सारे बाल नोच डाले पर डर लग रहा था अगर यह सच में उसे पीटने लगा तो यहां उसे बचाने वाला कोई नहीं था, वह मन मसोस कर गोटियां जमाने लगी।

"अरे नन्नी दीदी खुशी कैसी है?" अचानक चिंटू को खुशी की याद आ गई।

"अच्छी है, थोड़ी बड़ी हो गई है, और पहले से प्यारी भी, उसकी दादी उसके लिए नई मां ढूंढ रही है, वो तो लगभग ढूंढ ही चुकी थीं पर दीपक ने मना कर दिया क्योंकि उस लड़की को खुशी पसंद नहीं थी। सच कहूं चिंटू मुझे कभी कभी खुशी की बहुत फिक्र होती है, पता नहीं दीपक की दूसरी पत्नी उस बच्ची को प्यार कर पाएगी या नहीं, उस बच्ची के साथ कुछ बुरा ना हो बस।"

"हां यह तो सही है दीपक भैया की शादी किसी अच्छी लड़की से ही होनी चाहिए जो खुशी को दिल से प्यार करे जैसे, जैसे तू करती है।" चिंटू ने कनखियों से नयना की ओर देखा फिर बोला, "दीपक भैया को बहुत सोच समझ कर अपने लिए लड़की चुननी होगी, उन्हें ध्यान रखना होगा कि इस बार उन्हें अपने लिए पत्नी नहीं खुशी के लिए मां चुननी है। किसी भी लड़की के लिए अपने पति की पहली पत्नी की संतान को स्वीकार करना आसान नहीं होता। कोई भी गलत लड़की खुशी के जीवन में मुश्किलें खड़ी कर सकती है। पर जहां तक मेरा ख्याल है ऐसा कुछ नहीं होगा, दीपक भैया बहुत समझदार हैं और वो खुशी से प्यार भी बहुत करते हैं, देखना वह खुशी के साथ कभी कुछ गलत नहीं होने देंगे। दीपक भैया और विवेक दोनों लगभग हमउम्र हैं पर दोनों के स्वभाव में ज़मीन आसमान का फर्क है, मैं भी दीपक भैया का कंपैरिज़न किस गधे से करने बैठ गया, कहां दीपक भैया और कहां वो।" चिंटू ने कहा तो नयना चौंक गई आज विवेक का जिक्र क्यों? चिंटू की इन बातों का क्या मतलब है? पर चिंटू तो जैसे अपनी रौ में ही कहे जा रहा था, "कभी कभी तो मुझे लगता है पापा को तेरी शादी विवेक की बजाय दीपक भैया से करनी चाहिए थी, फिर तुम दोनों साथ साथ हमेशा खुश रहते और तुम्हारे साथ खुश रहती तुम्हारी प्यारी सी बेटी खुशी।" नयना कुछ नहीं बोली बस शांति से कैरम बोर्ड पर गोटियां लगाती रही। नयना के दिल में बहुत से सवाल थे वह समझने की कोशिश कर रही थी कि आखिर चिंटू क्या कहना चाहता है? चिंटू भी चुपचाप उसके चेहरे पर आते जाते भाव देखता रहा, काफी देर तक उन दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला, बस वो कैरम की गोटियां ही थीं जो बोर्ड पर इधर उधर दौड़ कर कमरे की खामोशी तोड़ रही थीं।

"क्या बात है नन्नी दीदी? नाराज़ हो गई क्या?" कुछ देर बाद चिंटू ने नयना को शांत देख कर पूछा। "देख नाराज़ मत हो मैंने तो बस यूं ही कह दिया था। मान जा ना यूं उदास मत रह, तुझे पता है ना मैं तुझे उदास नहीं देख सकता।" चिंटू ने नयना की चिरौरी सी की।

"अगर उदास नहीं देख सकता तो ऐसी बातें करता ही क्यों है जिससे मैं उदास हो जाऊं?" रुंआसी सी हो गई नयना।

"मेरा इरादा तेरा दिल दुखाने का नहीं था सच्ची, बस मेरे मन में एक बात आई और मैंने कह दी। पर इस बात से तो तू भी इनकार नहीं कर पाएगी कि दीपक भैया उस विवेक से तो लाख दर्जे अच्छे हैं, है ना।" चिंटू ने नयना की आंखों में कुछ इस तरह से देखते हुए पूछा जैसेकि उसकी आंखों में कुछ ढ़ूंढ़ रहा हो, कोई ऐसी राह जिस पर चलकर वह समझ सके कि आखिर नयना के दिल में चल क्या रहा है? पर नयना के दिल की बात समझना इतना भी आसान नहीं था उसने अपनी भावनाओं को जाने कितने तालों में बंद कर रखा था। जब काफी देर तक चिंटू नयना की खामोशी तोड़ने में असमर्थ रहा तो उसने खेल में चीटिंग करना शुरू कर दिया, पहले तो नयना ने ध्यान नहीं दिया पर जब उसे समझ आया तो उसने तकिया ले कर चिंटू पर दे मारा, नयना की इस हरकत से चिंटू खुल कर हंस दिया और नयना भी मुस्कुरा दी, यह नयना का मूड फ्रेश करने का उसका अचूक तरीका था जो वह बचपन से आज़माता आ रहा था।

कुछ देर बाद चिंटू तो सोने चला गया पर नयना की आंखों से अब नींद कोसों दूर थी। उसके मन में विचारों की एक आंधी सी चल रही थी जो उसे चैन नहीं लेने दे रही थी। वह जानती थी उस पर कोई दबाव डाले ना डाले पर उसका पूरा परिवार कहीं ना कहीं यही चाहता था कि वह फिर से शादी करके सैटल हो जाए और इसीलिए सब उसे किसी ना किसी ना किसी बहाने दीपक और खुशी के करीब लाने की कोशिश करते रहते थे। नयना समझती सब थी बस कहती कुछ नहीं, पर आज चिंटू की बातों ने उसे एक अजीब ही भंवर जाल में डाल दिया था। अब यह तय था कि आज नहीं तो कल नयना और दीपक की शादी की बात खूब जोरशोर से उठने वाली थी और उससे पहले नयना को अपना जवाब भी तैयार रखना ही होगा। हां यह सही है कि खुशी की मासूमियत ने उसे कहीं ना कहीं खुद से बांध लिया था, पर सिर्फ इस बिना पर वह दीपक से शादी तो नहीं कर सकती। अपना अतीत भूल कर आगे बढ़ना नयना के लिए आसान नहीं था, विवेक के साथ बिताया वक्त आज भी याद है उसे, दिखाती नहीं तो क्या पर विवेक के दिए जख्म आज भी उसके दिल के किसी कोने में कहीं ना कहीं हरे हैं और वक्त बेवक्त रिसते भी रहते हैं। इस दर्द को भुलाना इतना आसान भी तो नहीं है ना। फिर दीपक का भी कहीं ना कहीं तो अपनी पहली पत्नी, खुशी की मां से जुड़ाव बाकी होगा ही ना, क्या वह नयना को अपनी ज़िंदगी में सही जगह दे पाएगा? अगर ना दे सका तो? यदि इस बार भी निभाव ना हो सका तो? तो एक बार फिर उसी मानसिक क्लेश के दौर से गुज़रना होगा। क्या करे कैसे इस उलझन से निकले? सोचते सोचते अनायास ही नयना के होठों पर ये पंक्तियाँ आ गई-

बाकी है अभी लंबा एक सफर

और कठिन बड़ी हैं राह

बन कर हमसफर

ए ज़िंदगी तू थाम ले मेरा हाथ

आहिस्ता आहिस्ता हर कदम

मैं चल दूंगी तेरे साथ

चल पड़ी हूं जिस पर

अंजानी सी इक डगर है

मंजिल भी शायद मेरी

मुझ ही से बेखबर है

रहे मेरा सफर कठिन या

हो जाए आसान

ना फिक्र मुझे इसकी

ना है कोई परवाह

लम्हा लम्हा हर घड़ी

जो तू रहे मेरे साथ

बन हमसफर ए ज़िन्दगी

बस तू दे दे मेरा साथ

आहिस्ता आहिस्ता हर कदम

मैं चल दूंगी तेरे साथ

नयना को बेचेनी से कमरे में इधर उधर चक्कर लगाते देख दरवाज़े की ओट लेकर खड़े चिंटू के होठों पर मुस्कान आ गई। वह समझ गया था थोड़ी थोड़ी ही सही पर बर्फ पिघल रही है, अब बस जरूरत है नयना के दिल में बसे डर को खत्म करने की, उसे यह विश्वास दिलाने की कि हर इंसान गलत नहीं होता और ना ही जीवन के हर मोड़ पर केवल दुख होता है, अगर किसी दिन नन्नी दीदी को यह भरोसा हो गया तो उसके बाद उसके जीवन में खुशियां ही खुशियां होंगी। अब आगे जो भी होगा घर चल कर ही होगा सोचता हुआ चिंटू आराम से अपने कमरे में जाकर सो गया।

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